विद्यासागर नौटियाल का महाप्रस्थान!मशहूर शायर शहरयार का इंतकाल!
पलाश विश्वास
वह जनक्राति के वाहक थे। उन्होंने भीम अकेला, सूरज सबका है आदि उपन्यास लिखे।टिहरी राजशाही के विरुद्ध संघर्ष का झंडा बुलंद करने वाले नौटियाल जीवनभर किसान और ग्रामीण जीवन से जुड़ी समस्याओं, आकांक्षाओं व संघर्षों को अपने साहित्य के माध्यम से मुखरित करते रहे। विरोधी तेवर के कारण कई बार उन्हें जेल की यात्रायें भी करनी पड़ीं।-पहाड़ों में घूम- घूमकर क्रांति की अलख जगाने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल का रविवार की सुबह लंबी बीमारी के बाद बेंगलुरू के एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 78 वर्ष के थे।
ताज्जुब होता है कि विद्यासागर जी से मेरी कभी मुलाकात न हो सकी। न टिहरी में और न ही ऩई दिल्ली में। हर बार उनसे मुलाकात की उम्मीद लेकर गया और बिना मिले चला आया। पत्राचार उनसे खूब रहा। अमेरिका से सावधान पर उनसे चरचा होती रही तो कभी उनकी सृजनयात्रा पर। नई दिल्ली में सादातपुर में नसे मिलने गए तो उनके बुजुर्ग मित्र कवि विष्णु शर्मा ने फोन पर बातचीत करवा दी थी जरूर। तब वे टिहरी में थे।
अब वे न टिहरी में मिलेंगे , न दिल्ली में।वरिष्ठ साहित्यकार एवं कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल का खड़खड़ी शमशान घाट में हिंदू रीति-रिवाज के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।वरिष्ठ साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल का बंगलुरु में रविवार सुबह निधन हो गया था। सोमवार को दोपहर बाद उनका पार्थिव शरीर देहरादून से यहां खड़खड़ी शमशान घाट लाया गया। उनके पुत्र स्पोती नौटियाल चिता को मुखाग्नि देते समय फूट-फूट कर रो पडे़। अंतिम संस्कार के समय दिवंगत नौटियाल के प्रशंसकों ने 'विद्यासागर अमर रहे' के नारे लगाए। हर कोई स्तब्ध था। सबकी आंखें नम थी।
सदमा एक नहीं, दो दो झटके लगे साथ साथ।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उर्दू के मशहूर शायर एवं गीतकार शहरयार का सोमवार को अलीगढ़ में इंतकाल हो गया। वह 76 वर्ष के थे।
शहरयार काफी समय से फेफड़े के कैंसर से पीडित थे। उन्होंने अपने निवास पर सोमवार रात आठ बजे अंतिम सांस ली। उनके परिवार में पत्नी, दो बेटे एवं एक बेटी है। पारिवारिक सूत्रों के अनुसार उन्हें कल शाम अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी परिसर में सुपुर्देखाक कर दिया जाएगा। उन्हें पिछले वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी पुस्कार के अलावा कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने उमराव जान और गमन फिल्म के लिए गीत लिखे थे जिसमें उन्हें काफी शोहरत मिली थी।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय ज्ञानपीठ ने उनके इंतकाल पर गहरा शोक व्यक्त किया है। वह अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद अदब की दुनिया में काफी सक्रिय थे।
सागर जी को पहल सम्मान मिला है. हाल में उन्हें श्रीलाल शुक्ल स्मृति पुरस्कार भी दिया गया.
विद्यासागर नौटियाल पर युवा हिंदी कवि शिरीष कुमार मौर्य की कविता.
विद्यासागर नौटियाल के नाम
काली फ्रेम के चश्मे के भीतर
हँसती
बूढ़ी आँखें
चेहरा
रक्तविहीन शुभ्रतावाला
पिचका हड़ियल
काठी कड़ियल
ढलती दोपहरी में कामरेड का लम्बा साया
उत्तर बाँया
जब खोज रही थी दुनिया सारी
तुम जाते थे
वनगूजर के दल में शामिल
ऊँचे बुग्यालों की
हरी घास तक
अपने जीवन के थोड़ा और
पास तक
मैं देखा करता हूं
लालरक्तकणिकाओं से विहीन
यह गोरा चिट्टा चेहरा
हड़ियल
लेकिन तब भी काठी कड़ियल
नौटियाल जी अब भी लोगों में ये आस है
कि विचार में ही उजास है !
बने रहें बस
बनें रहें बस आप
हमारे साथ
हम जैसे युवा लेखकों का दल तो
विचार का हामी दल है
आप सरीखा जो आगे है
उसमें बल है !
उसमें बल है !
शिरीष कुमार मौर्य की कविता युवा कवि लेखक और एक्टिविस्ट विजय गौड़ के ब्लॉग लिखो यहां वहां से साभार.
देहरादून से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
रविवार, 12 फ़रवरी, 2012 को 15:18 IST तक के समाचार
हिंदी के जाने-माने उपन्यासकार और कहानीकार विद्यासागर नौटियाल का निधन हो गया है. वो लंबे समय से बीमार चल रहे थे.
उनका जन्म 29 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में हुआ था.
'मोहन गाता जाएगा' उनकी आत्मकथात्मक रचना है. पहाड़ के लोकजीवन पर आधारित टिहरी की कहानियां उनका लोकप्रिय कथा संग्रह है.
उनकी रचनाओं का कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और हमेशा ही उनका एक बड़ा पाठक वर्ग रहा.
वकालत में डिग्री हासिल करने के बाद उन्होने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एमए किया था.
जन संघर्ष से भी था सरोकार
विद्यासागर नौटियाल की उपस्थिति इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि वो लेखन के साथ-साथ राजनीति और जन संघर्षों से भी सक्रियता से जुड़े रहे.
13 साल की उम्र में वो गढ़वाल में राजशाही और सामंतवाद विरोधी आंदोलन में शामिल हो गए थे और जेल भी गए.
उनका काफ़ी समय आज़ाद भारत की जेलों में बीता. वो ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फ़ेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी चुने गए.
वो साहित्य, समाज और राजनीति के आपसी सरोकार में गहरा विश्वास रखते थे और हिंदी पट्टी में साहित्य की उपेक्षा से काफी चिंतित रहते थे.
हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने ये कहकर चौंका दिया था कि, "नेता चाहे भाजपा का हो या कॉंग्रेस, किसी नेता को भी साहित्य का क..ख..ग भी नहीं पता है."
विद्यासागर नौटियाल इन दिनों देहरादून में अपने परिवार के साथ रहते थे और उत्तराखंड के हालात से क्षुब्ध थे.
उत्तराखंड के 10 साल पूरे होने पर उन्होंने अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा था कि, "राज्य बनने से इतना ही फ़र्क पड़ा कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफिया ने ले ली. "
हाल ही में उन्हें पहले श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.हिंदी के सुपरिचित कवि मंगलेश डबराल ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है.
उनका कहना था, "उनके दो बड़े योगदान हैं वामपंथी आंदोलन की स्थापना और सामंतवाद विरोधी आंदोलन.उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है.वो पहाड़ के प्रेमचंद थे."
मशहूर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी का कहना है, "वो काफी ऊर्जावान साहित्यकार थे.उनका जाना इसलिये भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि काफी कुछ अधूरा रह गया .वो अभी भी लिख ही रहे थे और उनके पास लिखने के लिये काफी कुछ था. उनसे काफी उम्मीदें थी.पहाड़ के जीवन और समाज का जैसा चित्रण उन्होंने किया वो दुर्लभ है."
वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.
नवीन कुमार नैथानी
http://likhoyahanvahan.blogspot.in/2012/02/blog-post_12.html
पलाश विश्वास
वह जनक्राति के वाहक थे। उन्होंने भीम अकेला, सूरज सबका है आदि उपन्यास लिखे।टिहरी राजशाही के विरुद्ध संघर्ष का झंडा बुलंद करने वाले नौटियाल जीवनभर किसान और ग्रामीण जीवन से जुड़ी समस्याओं, आकांक्षाओं व संघर्षों को अपने साहित्य के माध्यम से मुखरित करते रहे। विरोधी तेवर के कारण कई बार उन्हें जेल की यात्रायें भी करनी पड़ीं।-पहाड़ों में घूम- घूमकर क्रांति की अलख जगाने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल का रविवार की सुबह लंबी बीमारी के बाद बेंगलुरू के एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 78 वर्ष के थे।
ताज्जुब होता है कि विद्यासागर जी से मेरी कभी मुलाकात न हो सकी। न टिहरी में और न ही ऩई दिल्ली में। हर बार उनसे मुलाकात की उम्मीद लेकर गया और बिना मिले चला आया। पत्राचार उनसे खूब रहा। अमेरिका से सावधान पर उनसे चरचा होती रही तो कभी उनकी सृजनयात्रा पर। नई दिल्ली में सादातपुर में नसे मिलने गए तो उनके बुजुर्ग मित्र कवि विष्णु शर्मा ने फोन पर बातचीत करवा दी थी जरूर। तब वे टिहरी में थे।
अब वे न टिहरी में मिलेंगे , न दिल्ली में।वरिष्ठ साहित्यकार एवं कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल का खड़खड़ी शमशान घाट में हिंदू रीति-रिवाज के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।वरिष्ठ साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल का बंगलुरु में रविवार सुबह निधन हो गया था। सोमवार को दोपहर बाद उनका पार्थिव शरीर देहरादून से यहां खड़खड़ी शमशान घाट लाया गया। उनके पुत्र स्पोती नौटियाल चिता को मुखाग्नि देते समय फूट-फूट कर रो पडे़। अंतिम संस्कार के समय दिवंगत नौटियाल के प्रशंसकों ने 'विद्यासागर अमर रहे' के नारे लगाए। हर कोई स्तब्ध था। सबकी आंखें नम थी।
सदमा एक नहीं, दो दो झटके लगे साथ साथ।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उर्दू के मशहूर शायर एवं गीतकार शहरयार का सोमवार को अलीगढ़ में इंतकाल हो गया। वह 76 वर्ष के थे।
शहरयार काफी समय से फेफड़े के कैंसर से पीडित थे। उन्होंने अपने निवास पर सोमवार रात आठ बजे अंतिम सांस ली। उनके परिवार में पत्नी, दो बेटे एवं एक बेटी है। पारिवारिक सूत्रों के अनुसार उन्हें कल शाम अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी परिसर में सुपुर्देखाक कर दिया जाएगा। उन्हें पिछले वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी पुस्कार के अलावा कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने उमराव जान और गमन फिल्म के लिए गीत लिखे थे जिसमें उन्हें काफी शोहरत मिली थी।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय ज्ञानपीठ ने उनके इंतकाल पर गहरा शोक व्यक्त किया है। वह अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद अदब की दुनिया में काफी सक्रिय थे।
जीवन भर संघर्ष का झंडा बुलंद करने वाले दिवंगत नौटियाल के अंतिम संस्कार के मौके पर उनके संघर्ष को याद किया जाता रहा। बेहद भावुक अंदाज में वहां मौजूद लोग उनके संघर्ष के प्रेरक प्रसंग याद कर रहे थे। इस मौके पर पत्रकार और साहित्यकार राजीव नयन बहुगुणा ने कहा कि विद्यासागर नौटियाल का संपूर्ण साहित्य प्रासंगिक और प्रेरणादायी है। उनके साहित्य में अनुभव और अध्ययन साफ झलकता है। उन्होंने कहा कि टिहरी में राजशाही के खिलाफ लड़ने के लिए भी विद्यसागार नौटियाल ने झंडा बुलंद किया था।
अंतिम संस्कार के समय दिवंगत नौटियाल के परिजन पंचशील नौटियाल, जयप्रकाश रतूड़ी, शिव प्रसाद, दुर्गा प्रसाद, गजेंद्र प्रसाद के अलावा पूर्व मंत्री मंत्री प्रसाद नैथाणी, टिहरी विधायक किशोर उपाध्याय समेत कई लोग मौजूद थे।
आजीवन सीपीआई से जुड़े रहे नौटियाल 1980 में देवप्रयाग से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए थे। नौटियाल को हाल ही में पहले इफ्को साहित्य सम्मान से भी नवाजा गया था। इससे पूर्व उन्हें साहित्य के क्षेत्र में पहल सम्मान, मप्र सरकार का वीर सिंह देव सम्मान, पहाड़ सम्मान समेत दजर्न भर से अधिक सम्मान मिले। 20 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में स्व. नारायण दत्त नौटियाल व रत्ना नौटियाल के घर जन्मे नौटियाल 13 साल की उम्र में शहीद नागेन्द्र सकलानी से प्रभावित होकर सामंतवाद विरोधी 'प्रजामंडल' से जुड़ गए। रियासत ने उन्हें टिहरी के आजाद होने तक जेल में रखा। वन आंदोलन, चिपको आंदोलन के साथ वे टिहरी बांध विरोधी आंदोलन में भी सक्रिय रहे।
हाईस्कूल की परीक्षा प्रताप इंटर कॉलेज टिहरी से उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने इंटरमीडिएट, बीए व एलएलबी की शिक्षा डीएवी कॉलेज देहरादून से ली। 1952 में वे अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से एमए किया। नौटियाल बनारस में 1959 तक लगातार सक्रिय रहे।
वे 1953 व 1957 में बीएचयू छात्र संसद के प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए। उन्हें 1958 में सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। इसी वर्ष उन्होंने वियना में हुए अंतर्राष्ट्रीय युवा सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। नौटियाल ने अमेरिका, यूरोप व सोवियत संघ की कई यात्राएं कीं। उनकी पहली कहानी 'भैंस का कट्या' 1954 में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली साहित्यक पत्रिका 'कल्पना' में प्रकाशित हुई। इससे पूर्व वे 'मूक बलिदान' नामक कहानी लिख चुके थे। उनका पहला उपन्यास 'उलङो रिश्ते' था। नौटियाल के 'उत्तर बायां है', 'यमुना के बागी बेटे', 'मोहन गाता जाएगा', 'सूरज सबका है', 'भीम अकेला', 'झुंड से बिछड़ा हुआ' आदि उपन्यास चर्चित हुए।
विद्यासागर नौटियाल के नाम
वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल का जन्म टिहरी ज़िले के मालीदेवल गांव में 29 सितम्बर 1933 को हुआ था. उत्तर बायां हैं, सूरज सबका है, भीम अकेला, टिहरी की कहानियां, मोहन गाता जाएगा जैसी रचनाओं के लेखक नौटियाल ने टिहरी में सामंतशाही विरोधी आंदोलन में भी भागीदारी की. वो सीपीआई के सदस्य रहे. 1980 में पार्टी के टिकट पर देवप्रयाग सीट से विधायक भी रहे. सागर जी को पहल सम्मान मिला है. हाल में उन्हें श्रीलाल शुक्ल स्मृति पुरस्कार भी दिया गया.
विद्यासागर नौटियाल पर युवा हिंदी कवि शिरीष कुमार मौर्य की कविता.
विद्यासागर नौटियाल के नाम
काली फ्रेम के चश्मे के भीतर
हँसती
बूढ़ी आँखें
चेहरा
रक्तविहीन शुभ्रतावाला
पिचका हड़ियल
काठी कड़ियल
ढलती दोपहरी में कामरेड का लम्बा साया
उत्तर बाँया
जब खोज रही थी दुनिया सारी
तुम जाते थे
वनगूजर के दल में शामिल
ऊँचे बुग्यालों की
हरी घास तक
अपने जीवन के थोड़ा और
पास तक
मैं देखा करता हूं
लालरक्तकणिकाओं से विहीन
यह गोरा चिट्टा चेहरा
हड़ियल
लेकिन तब भी काठी कड़ियल
नौटियाल जी अब भी लोगों में ये आस है
कि विचार में ही उजास है !
बने रहें बस
बनें रहें बस आप
हमारे साथ
हम जैसे युवा लेखकों का दल तो
विचार का हामी दल है
आप सरीखा जो आगे है
उसमें बल है !
उसमें बल है !
शिरीष कुमार मौर्य की कविता युवा कवि लेखक और एक्टिविस्ट विजय गौड़ के ब्लॉग लिखो यहां वहां से साभार.
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Mohammad-Hossein Shahriar - Wikipedia, the free encyclopedia
- en.wikipedia.org/wiki/Mohammad-Hossein_Shahriar
- अनुवादित: मोहम्मद हुसैन शहरयार - विकिपीडिया, मुक्त विश्वकोश
- Shahriar was the first Iranian to write significant poetry in Turkish. He published his first book of poems in 1929. His poems are mainly influenced by Hafez.
पहाड़ के 'प्रेमचंद' विद्यासागर नौटियाल नहीं रहे
शालिनी जोशीदेहरादून से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
रविवार, 12 फ़रवरी, 2012 को 15:18 IST तक के समाचार
हिंदी के जाने-माने उपन्यासकार और कहानीकार विद्यासागर नौटियाल का निधन हो गया है. वो लंबे समय से बीमार चल रहे थे.
उनका जन्म 29 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में हुआ था.
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'मोहन गाता जाएगा' उनकी आत्मकथात्मक रचना है. पहाड़ के लोकजीवन पर आधारित टिहरी की कहानियां उनका लोकप्रिय कथा संग्रह है.
उनकी रचनाओं का कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और हमेशा ही उनका एक बड़ा पाठक वर्ग रहा.
वकालत में डिग्री हासिल करने के बाद उन्होने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एमए किया था.
जन संघर्ष से भी था सरोकार
विद्यासागर नौटियाल की उपस्थिति इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि वो लेखन के साथ-साथ राजनीति और जन संघर्षों से भी सक्रियता से जुड़े रहे.
13 साल की उम्र में वो गढ़वाल में राजशाही और सामंतवाद विरोधी आंदोलन में शामिल हो गए थे और जेल भी गए.
उनका काफ़ी समय आज़ाद भारत की जेलों में बीता. वो ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फ़ेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी चुने गए.
विद्यासागर नौटियाल
"नेता चाहे भाजपा का हो या कॉंग्रेस, किसी नेता को भी साहित्य का क..ख..ग भी नहीं पता है."
अपनी राजनीतिक सक्रियता के कारण उन्होंने कुछ वर्षों के लिए अपने साहित्यिक रुझान को भी पीछे धकेल दिया था.वो साहित्य, समाज और राजनीति के आपसी सरोकार में गहरा विश्वास रखते थे और हिंदी पट्टी में साहित्य की उपेक्षा से काफी चिंतित रहते थे.
हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने ये कहकर चौंका दिया था कि, "नेता चाहे भाजपा का हो या कॉंग्रेस, किसी नेता को भी साहित्य का क..ख..ग भी नहीं पता है."
विद्यासागर नौटियाल इन दिनों देहरादून में अपने परिवार के साथ रहते थे और उत्तराखंड के हालात से क्षुब्ध थे.
उत्तराखंड के 10 साल पूरे होने पर उन्होंने अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा था कि, "राज्य बनने से इतना ही फ़र्क पड़ा कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफिया ने ले ली. "
हाल ही में उन्हें पहले श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.हिंदी के सुपरिचित कवि मंगलेश डबराल ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है.
उनका कहना था, "उनके दो बड़े योगदान हैं वामपंथी आंदोलन की स्थापना और सामंतवाद विरोधी आंदोलन.उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है.वो पहाड़ के प्रेमचंद थे."
मशहूर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी का कहना है, "वो काफी ऊर्जावान साहित्यकार थे.उनका जाना इसलिये भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि काफी कुछ अधूरा रह गया .वो अभी भी लिख ही रहे थे और उनके पास लिखने के लिये काफी कुछ था. उनसे काफी उम्मीदें थी.पहाड़ के जीवन और समाज का जैसा चित्रण उन्होंने किया वो दुर्लभ है."
विद्यासागर नौटियाल का जाना
विद्यासागर नौटियाल के निधन से हिन्दी ने एक समर्थ भाषा-शिल्पी और अप्रतिम गद्य लेखक को खो दिया है.29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियालजी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 मेंटिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे hibernation के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ," मुझे लिखने की हडबडी नहीं है".आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.
नवीन कुमार नैथानी
http://likhoyahanvahan.blogspot.in/2012/02/blog-post_12.html
हिन्दी कहानी में रीतिकाल अब शुरू हुआ है : विद्यासागर नौटियाल
विद्यासागर नौटियाल कथा लेखन का सुपरिचित नाम हैं। 'सूरज सबका है' और 'उत्तर बायां है' जैसे उपन्यासों के लिए चर्चित विद्यासागर नौटियाल ने लेखन 1949 में प्रारम्भ किया था और नयी कहानी के उर्वर दिनों में 'भैंस का कट्या' जैसी अविस्मरणीय कहानी लिखी। फिर वे अरसे तक लेखन से दूर रहे। सन् 1990 में उन्होंने दुबारा लेखन की दुनिया में दस्तक दी और इसके बाद उन्होंने उपन्यासों, कहानियों के साथ 'मोहन गाता जाएगा' जैसा आत्मकथ्य भी लिखा। उनके अब तक छह उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हाल ही में 'यमुना के बागी बेटे' शीर्षक से आया उनका उपन्यास एक नये विषय के साथ गम्भीर प्रयोग है। राजनीति और लेखन दोनों को अपने सिद्धान्तों और मूल्यों की कसौटी पर परखने वाले नौटियाल सामाजिक विषमताओं से लड़ना मुख्य चुनौती मानते हैं। प्रस्तुत है लेखन और समसामयिक विषयों पर उनसे युवा कथाकार पल्लव कुमार की बातचीत -
आपके लेखन की शुरुआत कब और कैसे हुई ?
जीवन में लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई। कविता यानी पद्य। 1946 से ही तुकबंदी करने लगा था। लेकिन कविता कैसे लिखी जाती है इसके बारे में तब कोई जानकारी नही थी।(हंसते हुए) आज भी नहीं है।
सन् 1946 में मेरे पड़ोसी गाँव के एक विद्यार्थी मित्र लोकेन्द्र सकलानी के सुझाव पर मैने अपनी कविताओं के संग्रह की एक छोटी-सी पाण्डुलिपि तैयार की थी। हमें यह बात मालूम थी कि टिहरी जेल में एक छापाखाना भी है। हम दोनों ने जेल में जेलर से भेंट कर उस कविता संग्रह को वहाँ छपाने की बात की। जेलर ने वह कविता संग्रह अपने पास रख लिया और दूसरे दिन आने को कहा। पाण्डुलिपि जेलर के हवाले करने के बाद हम उस दिन उस पर खर्च होने वाली धनराशि को जुटाने के बारे में विचार करते रहे। जेलर ने कुछ दिनों तक कोई निर्णय नहीं दिया। हमने उससे खर्चे के बाबत पूछताछ नहीं की। लेकिन जेल के छापाखाने से कोई निश्चित निर्णय न मिल जाने तक हमने उसके बारे में किसी अन्य छात्र को जानकारी देना ठीक नहीं समझा। हमारी वह योजना कामयाब नहीं हो पाई। जेलर ने उस पुस्तिका को छापने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी थी। हमें मालूम था कि देहरादून में किताबें छपती है। लेकिन वहाँ तक जाने की हमारी सामर्थ्य नहीं थी।
और पहली कहानी ?
1950 के आसपास पहली कहानी लिखी थी- 'मूक बलिदान' । कहानी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी। कहानी के तकनीकी पहलुओं के बारे में आज भी शून्य हूँ। इसलिए कहानी लिख देता हूँ पर कहानी के बारे में कहीं लिखने से डरता हूँ। अपने अज्ञान को ढक कर रखना ठीक होता है।
प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ पढ़ी थी। कुछ कहानियाँ अंग्रेजी में कैथरीन मैन्सफील्ड और ओ. हेनरी की। विक्टर ह्यूगो का एक नाटक 'द बिशप्स कैंडलस्टिक्स' मंचित भी किया था। वह कहानी, जो मैंने लिखी, कॉलेज मैग्जीन में प्रकाशित हुई थी। उससे पहले सामन्ती शासन में कोई पत्रिका आदि कॉलेज में नहीं छपती थी। अपने शहर में एक परिचित नव विवाहिता की असामयिक मृत्यु की घटना ने मुझे विचलित कर दिया था। अपने अन्दर पैदा हो उठे दर्द को मैं कागज पर उतारने लगा तो वह कहानी बन गया। उसकी प्रतिलिपि मेरे पास सुरक्षित है। कॉलेज मैग्जीन के बाद उसे अन्यत्र नहीं छपवाया।
कविता के नाम पर तुकबंदी कुछ बाद तक करता रहा। 1952 में बी.एच.यू. में बी.ए. प्रथम वर्ष का विद्यार्थी बना। केदारनाथ सिंह और मैं सहपाठी तो थे ही, एक छात्रावास में भी आ लगे। केदार से बहुत जल्दी मेरी घनिष्टता हो गई। का.हि.वि. में आने से पहले यू. पी. कॉलेज बनारस में पढ़ते हुए ही केदारनाथ सिंह हिन्दी साहित्य का एक सुपरिचित कवि बन गया था। उसकी कविताएँ सुन कर मुझे लगता कि मैं किसी दूसरी दुनिया में आ लगा हूँ। उन कविताओं को सुनने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि कविता लिखना मेरे वश की बात नहीं हैं। त्रिलोचन शास्त्री और विष्णुचन्द्र शर्मा से भी निकटता हो गई। मैं अपना ध्यान पूरी तरह कहानियों पर ही केन्द्रित करने लगा। अपने भीतर उग रहे कवि की हत्या करने का इल्जाम में जिन्दगी भर केदार पर ही थोपता रहा। आज भी मंच पर किसी कवि को दहाड़ते सुनता हूँ तो मेरे मन में यह विचार प्रबल होने लगता है कि अगर केदार की कविताएँ सुन कर आँखें न खुली होती तो मैं भी अवश्य एक सम्मेलनी कवि के रूप में ख्यात हो सकता था।
जब बी.एच.यू.आए थे तब आपके यहाँ कैसे हालात थे? टिहरी में क्या चल रहा था तब?
टिहरी एक सामंती शहर था। मैं बहुत छोटी आयु मे राज्य प्रजामण्डल द्वारा संचालित सामन्तविरोधी आन्दोलन का अंग बन चुका था। भाषण भी बहुत अच्छे देने लगा था। पहले कॉलेज की वादविवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया। फिर श्रोताविहीन जन सभाओं में बोलने लगा। जासूसों के आतंक के मारे हमारे श्रोता कहीं दूर से बहुत छुपते हुए हमारी बातें सुनते थे और वहीं से वापिस चले जाते थे। अच्छा साहित्य वहाँ नहीं मिलता था। दैनिक पत्रों में अंग्रेजी भारत की राजधानी दिल्ली से आने वाले सिर्फ 'हिन्दुस्तान' और 'वीर अर्जुन' वहाँ कहीं-कहीं दिखाई देते थे। उनको पढ़ने वालों पर भी रियासती जासूसों की कड़ी नजरें लगी रहती थीं। जो कुछ भी पढ़ने को मिल पाता मैं पढ़ लेता था। चोरी-छुपे 'भारत भारती' पढ़ लिया था। मधुशाला कंठस्थ हो गई थी। सामंती शासन के विरुद्ध रियासती प्रजामंडल ने भारत की आजादी से पहले और बाद में जो प्रबल स्वतंत्रता संग्राम संचालित किया, मैं उसमें आगे बढ़ कर भाग लेता रहा। उसी आंदोलन के दौरान कम्युनिस्ट नेता नागेन्द्र सकलानी के संपर्क में आ गया था। सकलानी 11 जनवरी 1948 को सामंती गोली का शिकार बने और शहीद हो गए। टिहरी रियासत 14 जनवरी 1948 को आजाद हुई। प्रजामंडल ने सामन्ती शासन को उखाड़ कर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। पाँच महीनों के अन्दर अस्थायी प्रजामंडल शासन ने बालिग मताधिकार के आधार पर पाँच लाख की आबादी वाली रियासत के अन्दर मतदाता सूचियाँ तैयार करवा ली और आम चुनाव संपन्न करवा लिए, जिसमें महिलाओं को भी मतदान का समान अधिकार था। आजाद टिहरी में अपने जन्म के तत्काल बाद अँगूठा चूसने के बजाय तेज दौड़ लगाने वाले उस कम्युनिस्ट समर्थित शासन को भारत सरकार टेढ़ी नजरों से देखने लगी थी। उस राज्य को एक अलग राज्य के रूप में जारी रखना केन्द्र में बैठे काँग्रेसी नेताओं को खतरनाक लगने लगा था। उसे भारत में विलीन करते हुए जबर्दस्ती संयुक्त प्रान्त में मिला कर एक जिले का रूप दे दिया गया। इन तमाम तथ्यों के विस्तृत विवरण 'मोहन गाता जाएगा' में दिए गए हैं, जोकि मेरे अलावा मेरी रियासत के लोगों की आत्मकथा भी है।
फिर जब बी.एच.यू. में आ गए तब क्या था वहाँ ?
बनारस में मेरा संपर्क डॉ. नामवर सिंह से हुआ, जो रिसर्च करते हुए हमारी एक पीरियड लेने लगे थे। मैंने इन्हें अपनी कहानियाँ पढ़ने को दी। उन्हें कहानियाँ पसन्द आईं। मुझे प्रोत्साहन मिलने लगा। प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकें नियमित तौर पर होती थी। उनमें काशी के अधिकतर साहित्यकार भाग लेते थे। प्रलेस के मंत्री नामवर सिंह थे और विष्णुचन्द्र शर्मा और मैं सहायक मंत्री। त्रिलोचन शास्त्री, चन्द्रबली सिंह, जगत शंखधर, ठाकुरप्रसाद सिंह जैसे लोगों से लगातार संपर्क भी मेरे लेखन में सहायक होता था। शिवप्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, डॉ. बच्चनसिंह, डॉ. रामअवध द्विवेदी हमारे अध्यापक थे। नामवर सिंह के साथ रहने के कारण डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी मुझे भी परिवार का सदस्य मानने लगे थे। केदारनाथ सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी मेरे सहपाठी थे। बाद में विजयमोहन सिंह भी बी.एच.यू. में आए। लगातार प्रलेस की गोष्ठियों में अपनी रचनाएँ सुनाने पर उपस्थित साहित्यकारों के सुझाव बहुत मददगार साबित होते थे।
सन् 1953 में मैने 'भैंस का कट्या' कहानी लिखी। उन दिनों हिन्दी साहित्य में 'कल्पना' प्रतिष्ठित पत्रिका थी। मैने कहानी 'कल्पना' को भेज दी। 1954 की 'कल्पना' में उसके प्रकाशित होते ही मैं काशी से बाहर भी हिन्दी का एक परिचित कथाकार हो गया। तब काशी और प्रयाग के साहित्यकारों का आपस में बहुत घनिष्ट संपर्क रहता था। प्रयाग जाने पर मैंने मार्कण्डेय से भेंट की। उन्हें 'भैंस का कट्या' बहुत अच्छी लगी थी। भैरव प्रसाद गुप्त और श्यामू संन्यासी से भी भेंट हुई। 'कहानी' पत्रिका का प्रकाशन शुरू होते ही मेरी कहानियाँ उसमें भी छपने लगी। मेरी कहानियों की पत्र-पत्रिकाओं में खूब चर्चा होने लगी।
मार्क्सवादी दर्शन के संपर्क में कैसे आए ?
टिहरी रियासत में स्वतंत्रता संग्राम में कम्युनिस्ट नेता नागेन्द्र सकलानी के संपर्क में आ गया था। बहुत बाद में भारत-चीन सीमा विवाद के दौरान सन् 1962 में गिरफ्तार होने पर 1964 में लिखी मेरी एक जेल डायरी इस बीच पुराने कागजात मे मिली है। उसमें नागेन्द्र सकलानी के बारे में भी जिक्र आया है। उन्हीं के सम्पर्क ने मुझे वामपंथ से जोड़ा और मैंने मार्क्सवादी दर्शन के महत्व को भी समझा।
पहल में एक बार आपका संक्षिप्त परिचय छपा था कि आपके जीवन का बड़ा हिस्सा आजाद हिन्दुस्तान की जेलों में बीता। यह कैसे-क्यों हुआ?
आम जनता के रोजमर्रा के सवालों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगातार संघर्ष किए जाते थे। उनमें भाग लेते रहने के कारण जेल भी जाना पड़ता था। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था तब मुदालियर कमीशन की रिपोर्ट का विरोध करने के कारण भी जेलों में रहना पड़ा।
पहला उपन्यास 1959 में छपने के बाद दूसरी किताब जो कहानियाँ की थी 1984 में आई। इतने बड़े अंतराल का क्या कारण था ?
उपन्यास 'उलझे रिश्ते' का प्रकाशन बड़े नाटकीय ढंग से हुआ था। उन दिनों मैं फीलखाने में कुशवाहा कान्त और गोविन्दसिंह खेमे के एक लेखक ज्वालाप्रसाद केशर के घर पर किरायेदार के तौर पर रहने लगा था। आंदोलन के कारण विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने मुझे हॉस्टल से बाहर धकेल दिया था। केशर मेरा मित्र था। वह मात्र लेखन पर आश्रित रहता था। उसकी पत्नी से उसकी नहीं पटती थी। वह अपने मायके में ही रहने लगी थी। माँ की आयु अधिक होने के साथ उनकी देखने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी थी। नौटियाल न कह पाने के कारण वे मुझे मोटिया कह कर पुकारती थी। नामवर सिंह की माँ भी मेरा नाम उच्चारित नहीं कर पाती थीं। काशीनाथ सिंह ने इस बात का अपने किसी संस्मरण में जिक्र किया है। एक बार ऐसा हुआ कि कई महीनों के बीत जाने के बाद भी मैं माई के पास किराये की रकम जमा नहीं कर पाया। तब माई की हालत (दयनीय, क्रोध की नहीं) देख कर मुझसे ज्यादा चिन्ता केशर को होने लगी। वह मेरे बहुत अच्छे मित्रों में था। हलकी चीजें लिखता था, लेकिन हलके दिल का आदमी नहीं था। मुझे अपने घर से निकाल बाहर कर देने की बात उसके मन में कभी नहीं आई। केशर के खिलाफ बनारस की किसी अदालत में अश्लील लेखन का एक मुकदमा चल रहा था। मजिस्ट्रेट ने हिन्दी में लिखी केशर की तथाकथित अश्लील मानी जा रही रचनाओं के अंश, जो बचाव में पेश किए गए, पढ़ने से मना कर दिया जब तक कि उनका अंग्रेजी अनुवाद भी पेश न कर दिया जाय। उस शाम केशर बहुत परेशान हालत में घर लौटा। मेरे पूछने पर उसने पूरी बात बता दी। मैने उन अंशों का रात भर अंग्रेजी में अनुवाद कर दूसरे दिन सुबह केशर को दे दिया। मैंने उन दिनों विश्वविद्यालय के छात्र जीवन से संबंधित एक छोटा उपन्यास लिख कर पूरा किया था। केशर के उपन्यास इलाहाबाद के रूपसी प्रकाशन से भी छपते थे। अपनी परेशानियों में उलझा हुआ वह एक दिन सुबह मेरे कमरे में आया। कहीं बाहर जाने की तैयारी में था। उसने पूछा नौटियाल, तुम जो उपन्यास लिख रहे थे वह पूरा हो गया? मैंने उपन्यास उसके हवाले कर दिया। इलाहाबाद जा रहा हूँ। देखें इसका किसी प्रकाशक से कुछ पैसा मिल जाय तो दे दूँगा। उस कमरे में हम दो विद्यार्थी रहते थे। मैं और टिहरी निवासी मेरे मित्र बरफसिंह रावत। दोनों का.हि.वि. से निष्कासित थे। बरफसिंह रावत ने आलमारी से निकाल कर उपन्यास की पाण्डुलिपि केशर के हवाले कर दी। इलाहाबाद से लौटने के बाद केशर ने मुझे पैसा दिया। माई को किराए की अदायगी कर दी गई। कुछ अतिरिक्त रुपये मेरी जेब में भी आ लगे। वह उपन्यास रूपसी प्रकाशन से छापा था। उसकी कोई प्रति अब उपलब्ध नहीं है। टिहरी स्थित मेरे घर से किसी जासूस ने जानबूझ कर उसे गायब किया, ऐसा मुझे लगातार संदेह रहा है। उपन्यास की कथा ऐसी थी कि अपनी पढ़ाई समाप्त कर विश्वविद्यालय छोड़ने के दस साल बाद एक नौजवान के मन में छात्र जीवन के अपने मित्रों के हालात को जानने की जिज्ञासा होती है। प्रत्येक मित्र से उसके संबंध अलग-अलग किस्म के थे। उनमें से कुछ को वह उनके असली नाम से पुकारने के बजाय, अपने द्वारा या मित्र-मंडली के द्वारा दिए गए नामों से संबोधित करता था। कोई रूदिन था, कोई बज़ारोव। उन्हीं संबोधनों का उपयोग करते हुए वह उन सबको पत्र भेजता है। अधिकांश पत्र वापिस लौट आते है। डेड लेटर आफिस की इस टिप्पणी के साथ कि पाने वाले का पता नहीं लग रहा है। (असली बात जो लेखक दर्शाना चाहता था वह यह थी कि वे समाज में खो गए हैं) वापिस लौट आए वे पत्र मूल में उपन्यास में दे दिए गए। कुछ पत्रों के उत्तर प्राप्त होते हैं। वे उत्तर भी शामिल कर दिए गए। वे उत्तर कुछ-कुछ खुलासा करते हैं कि मूल पत्र, जिसका जवाब लिखा जा रहा है, में क्या-कुछ लिखा गया होगा। विश्वविद्यालय के छात्र जीवन पर आधारित यह अनुपलब्ध उपन्यास मेरे कुल लेखन के
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