चीनी का चक्रव्यूह
Friday, 17 February 2012 09:59 |
अरविंद कुमार सेन सरकार का कहना है कि लेवी चीनी का वितरण गरीबों में किया जाता है जबकि हकीकत कुछ और है। देश की चीनी खपत में सत्तर फीसद हिस्सेदारी शीतल पेय बनाने वाली कंपनियों, मिठाई और चॉकलेट निर्माता और दवा कंपनियों की है, वहीं बीस फीसद चीनी की खपत खुदरा ग्राहकों के बीच होती है। मात्र दस फीसद चीनी का वितरण गरीबों के नाम पर किया जाता है लेकिन इसका ज्यादातर हिस्सा खुले बाजार में पहुंच जाता है। अगर बीपीएल के कथित हिस्से वाली दस फीसद चीनी को अलग रखा जाए तो नब्बे फीसद उपभोक्ता चीनी का बाजार भाव अदा कर सकते हैं।जनसत्ता 17 फरवरी, 2012: सरकारी नीतियों की पड़ताल करने के लिए प्रबंधन गुरुपीटर ड्रकर ने एक मशहूर बात कही थी कि सरकार से पूछिए, आपका लक्ष्य क्या है? अगर यूपीए सरकार की चीनी नीति पर यह बात लागू करें तो जवाब मिलता है कि इस नीति का मकसद गन्ना किसानों, चीनी मिलों और उपभोक्ताओं को भरमाए रखना है। बीते नौ सालों में कई मर्तबा चीनी उद्योग के विनियंत्रण का राग छेड़ा गया, मगर हर बार वादों के धुएं के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ। देश के सबसे बडेÞ गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनावों के बीच कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने एक बार फिर चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने का पासा फेंक दिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन की अध्यक्षता में चीनी उद्योग के विनियंत्रण से जुडेÞ तमाम पहलुओं पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया है। विडंबना यह है कि पुरानी सरकारों की बात छोड़िए, खुद यूपीए सरकार चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने के लिए इससे पहले दो समितियों (टुटेजा समिति और थोराट समिति) का गठन कर चुकी है और दोनों ही समितियों ने चीनी के विनियंत्रण की सिफारिश की थी। चीनी उद्योग पर नियंत्रण और गन्ने की अंतिम कीमत तय करने की विधि 1950 में डीआर गाडगिल ने तैयार की थी। तब से लेकर आज तक तक चीनी उद्योग का पूरा हुलिया ही बदल चुका है और चीनी पर गठित की गई अधिकतर समितियों ने इस उद्योग पर से सरकारी नियंत्रण हटाने की सिफारिश की है। 1980 और 1990 के दशक में बही उदारीकरण की बयार में सरकार ने सीमेंट और इस्पात जैसे कई उद्योगों का विनियंत्रण कर दिया, लेकिन राजनीतिक हितों के कारण चीनी उद्योग पर सरकारी शिकंजा कसता ही गया। गन्ने की पैदावार से लेकर चीनी के वितरण तक यह उद्योग सरकारी बाबूशाही के चंगुल में फंसा हुआ है और इसका सबसे ज्यादा खमियाजा किसान गन्ने की कम कीमत के रूप चुकाते हैं, वहीं उपभोक्ताओं को लागत से दोगुनी कीमत पर चीनी खरीदनी पड़ती है। चीनी पर नियंत्रण की कवायद गन्ने की बिक्री पर लागू 'गन्ना क्षेत्र आरक्षित नियम' (केन रीजन एरिया) से शुरू होती है। यह नियम कहता है कि किसान को गन्ना अपने खेत सेपंद्रह किलोमीटर के दायरे में स्थित चीनी मिल को ही बेचना होगा, चाहे दूसरी मिलें गन्ने की ज्यादा कीमत दे रही हों। यहां तक कि रैटून गन्ना (पिछले साल छोडेÞ गए गन्ने के निचले हिस्से पर उगी फसल) भी गन्ना-आयुक्त की ओर से चुनी गई चीनी मिल को मुहैया कराना होता है। चीनी मिलें किसानों से गन्ना लेकर पेराई शुरू कर देती हैं मगर भुगतान के लिए सरकार की घोषणा का इंतजार करती हैं। चीनी मिलें गन्ने की सरकारी कीमत देने से भी कतराती हैं और हरेक साल कीमतों की यह जंग अदालत की चौखट पर पहुंच जाती है। कहने को तो चुनावी मौसम के चलते मायावती सरकार ने मौजूदा पेराई सत्र के लिए गन्ने की वाजिब कीमत तय की, लेकिन चीनी मिलों ने घोषणा के तुरंत बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। चीनी मिलों और सरकार के बीच चलने वाली इस आंख-मिचौनी के खेल में सबसे ज्यादा नुकसान गन्ना किसानों को उठाना पड़ता है। कर्ज का पैसा लेकर गन्ना बोने वाले किसान लंबे समय तक फसल को रोक पाने की स्थिति में नहीं होते और औने-पौने दामों पर गन्ना बेच देते हैं। चीनी मिलें किसानों का पैसा लटकाए रखती हैं। गन्ना किसानों की दिक्कतें अदालत का फैसला आने के बाद भी खत्म नहीं होतींं। 2010-11 के पेराई सत्र में चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का तेरह हजार करोड़ रुपए से अधिक बकाया था, जबकि इसमें गुड़ और खांडसारी इकाइयों का बकाया शामिल नहीं है। चीनी मिल मालिकों का कहना है कि सरकार ने लेवी चीनी कानून उन पर थोप रखा है, लिहाजा उन्हें मुनाफा नहीं होता और इसी कारण गन्ना किसानों का भुगतान भी लटक जाता है। लेवी चीनी वह दीवार है जिसकी ओट लेकर चीनी कारोबारी और गन्ने के कारोबार से जुड़े नेता किसानों की मेहनत पर डाका डालते हैं। लेवी चीनी, मिलों के कुल चीनी उत्पादन का एक तयशुदा हिस्सा (इस समय उत्पादन का दस फीसद) होती है और सरकार बाजार भाव से कम पर (फिलवक्त अठारह रुपए प्रतिकिलो) लेवी चीनी खरीदती है। आवश्यक वस्तु अधिनियम,1955 के तहत चीनी मिलें सरकार को लेवी चीनी मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं और सरकार लेवी चीनी का इस्तेमाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली में करती है। चीनी मिलों की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने सरकार को लेवी चीनी बाजार-भाव पर खरीदने का आदेश दिया था। यूपीए सरकार ने इस फैसले की मार से बचने के लिए उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) के रूप में एक नया फार्मूला ईजाद कर डाला। गन्ने का एफआरपी बेहद कम रखा जाता है क्योंकि इसी दर से लेवी चीनी का भुगतान करना होता है। केंद्र सरकार एफआरपी पूरे देश में गन्ने की लागत के आधार पर तय करती है और इस कवायद में उत्तर भारत के गन्ना किसान ठगे जाते है। गन्ना उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है और इसकी खेती के लिए दक्षिण भारत और महाराष्ट्र बेहद उम्दा हैं। यही कारण है दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में गन्ने की उत्पादकता सौ से एक सौ दस टन प्रति हेक्टेयर है, वहीं उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले उत्तर भारत में गन्ने की उत्पादकता चालीस से साठ टन प्रति हेक्टेयर। ठंड का मौसम शुरू होते ही उत्तर भारत में गन्ने की बढ़ोतरी रुक जाती है और दक्षिण भारत के मुकाबले रिकवरी भी कम रहती है। एफआरपी से गन्ना किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती है, इसलिए राज्य सरकारें राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) की घोषणा करती हैं। एफआरपी और एसएपी के अंतर का भुगतान राज्य सरकार को करना होता है। कोई भी राज्य सरकार किसानों को वाजिब कीमत देने के लिए तैयार नहीं है और इसी वजह से साल-दर-साल सरकार और चीनी मिलों से अपने हक के लिए लड़ना गन्ना किसानों की नियति बन गई है। खाद्य मुद्रास्फीति का आधार भी कैलोरी से हट कर प्रोटीन खपत की तरफ खिसक गया है। बीपीएल परिवारों में चीनी की मांग कम होने के कारण राज्य भी तय मियाद के भीतर अपने कोटे की चीनी नहीं उठा रहे हैं। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड ने 2011-12 में भी अपने कोटे की लेवी चीनी नहीं उठाई है और कारखानों में दो पेराई सत्रों की लेवी चीनी का ढेर लगा हुआ है। एक ओर चीनी के भंडारण की दिक्कत है, वहीं दूसरी ओर चीनी मिलें नकदी की किल्लत से जूझ रही हैं और मिल मालिक गन्ना किसानों का भुगतान रोक कर बिना ब्याज का पैसा इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर सरकार गरीबों का भला करना चाहती है तो मिल मालिकों और गन्ना किसानों को गोटी बनाने के बजाय लेवी चीनी की खरीद बाजार भाव पर की जानी चाहिए। चीनी उद्योग इस कदर लाइसेंस राज की जकड़ में फंसा हुआ है कि इसे 'संरक्षण का शिशु' कहा जाता है। सरकार को लेवी चीनी देने के बाद भी चीनी मिलें अपने हिसाब से चीनी की बिक्री नहीं कर सकती हैं। कृषि मंत्रालय के अधीन चीनी महानिदेशालय हर माह चीनी बिक्री का कोटा जारी करता है और तय मात्रा से कम या ज्यादा चीनी बेचने पर जुर्माना लगाया जाता है। चीनी कोटे का आबंटन जारी करके सरकार चीनी की कीमतों पर नियंत्रण रखने का भ्रम पाले रखती है, लेकिन अतीत में कई मर्तबा इस सरकारी नियंत्रण की पोल खुल चुकी है। सन 2006-07 में नौकरशाहों के किताबी गुणा-भाग के आधार पर कम उत्पादन का हवाला देते हुए यूपीए सरकार ने चीनी के निर्यात पर रोक लगा दी। उस समय घरेलू बाजार में चीनी का बंपर उत्पादन (रिकॉर्ड 31 करोड़ टन) हुआ था वहीं वैश्विक बाजार में भारतीय चीनी की मांग बनी हुई थी। निर्यात रुकते ही घरेलू बाजार में चीनी की कीमतें जमीन पर आ जाने से मिलों की हालत खस्ता हो गई, वहीं किसानों ने गन्ने की फसल से तौबा कर ली। नतीजतन बाद के सालों में चीनी की कीमत दोगुनी होकर पैंतीस रुपए प्रतिकिलो का आंकड़ा पार कर गई। कोटा आबंटन प्रणाली के चलते चीनी उद्योग कालाबाजारी का गढ़ बन गया है और मिल मालिक बडेÞ पैमाने पर पिछले दरवाजे से चीनी की बिक्री करते हैं। चीनी विनियंत्रण में एक पेच मालिकाना हक का भी है। सरकार से लेकर निजी कारोबारी तक चीनी कारोबार में कूदे हुए हैं। देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र चीनी उद्योग में मचे घमासान का ज्वलंत उदाहरण है। किसान और पूंजी की भागीदारी वाले महाराष्ट्र के चीनी उद्योग का सहकारी मॉडल अब विफल हो गया है। भाजपा, राकांपा और कांग्रेस के नेता चीनी उद्योग में कूद पड़े हैं और मिलों का मालिकाना हक सहकारी से निजी क्षेत्र में तब्दील होता जा रहा है। महाराष्ट्र में चीनी मिलें कर्ज हासिल करने के लिए बैंकों में आवेदन करती हैं और इसकी गारंटी राज्य सरकार देती है। बताने की जरूरत नहीं कि इन कर्जों का भुगतान मिल मालिक नहीं करते और बैंक अपना कर्ज राज्य सरकार से वसूलते हैं। बीते साल के आखिर में महाराष्ट्र सरकार ने बडेÞ नेताओं के कब्जे वाली चीनी मिलों को कर्ज अदा करने के लिए एक सौ छियालिस करोड़ रुपए का राहत पैकेज किसानों के नाम पर जारी किया था। किसान हितों की दुहाई देकर की जाने वाली इस लूट में महाराष्ट्र के सभी दलों के छोटे-बडेÞ नेता शामिल हैं। यह हैरत की बात नहीं कि केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार चीनी उद्योग को नियंत्रण-मुक्त किए जाने के विरोध में जमीन-आसमान एक किए हुए हैं। चीनी उद्योग देश का तीसरा सबसे बड़ा संगठित उद्योग है और इससे देश के पांच करोड़ गन्ना किसानों को रोजगार मिलता है। हमारे देश में गन्ने की शुरुआती कीमत सरकार तय करती है, वहीं आखिरी उत्पाद यानी चीनी की कीमत मिल मालिक तय करते हैं। ऐसे में किसान और उपभोक्ता, दोनों में किसी को फायदा नहीं होता है। देश का चीनी उद्योग नेताओं और पूंजीपतियों की एक लॉबी की मुनाफे की हवस का शिकार होकर रह गया है। चीनी मिलों का आधुनिकीकरण, उद्योग में नया निवेश, गन्ने की नई किस्मों पर अनुसंधान, फसल के रकबे में बढ़ोतरी, बेहतर रिकवरी और गन्ने की फसल में पानी की खपत कम करने जैसे कई सवाल नेपथ्य में चले गए हैं। चीनी मिलों और गन्ना किसानों के हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, लिहाजा अगर सरकार उद्योग, किसान और उपभोक्ताओं का भला करना चाहती है तो बंपर उत्पादन के बीच चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने का इससे बेहतर समय कोई और नहीं हो सकता। |
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