उपेक्षित हो रहा जन स्वास्थ्य
विश्व स्वास्थ्य दिवस 7अप्रैल पर विशेष
वर्ष
2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे. इसमें 11.6
फीसदी लोग केवल दिल्ली में होंगे. यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170
फीसदी ज्यादा कहर विकासशील देशों में बरपाएगा. यहां रोग प्रभावितों की
संख्या 8.4 से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है...
डॉ. ए.के. अरुण
अपना
देश अब विश्व बाजार व्यवस्था का एक जरूरी क्षेत्र बन गया है. भारत में
वैश्वीकरण के पैर पसारने के साथ-साथ कई नए रोगों ने भी दस्तक दे दी है, कई
पुराने रोगों ने अपनी जड़ें और मजबूत कर ली हैं. अध्ययन बता रहे हैं कि
विकास प्रक्रिया, कृषि और उद्योगों के नये तौर तरीके रोगों को और गम्भीर
तथा घातक बना रहे हैं.
कालाजार,
टी.वी. मेनिनजाइटिस/एड्स सार्स, स्वाइन फ्लू, डेंगू, चिकनगुनिया व अन्य
नये रोगों ने अब विश्व चिकित्सा व्यवस्था की साँसें फुला दी हैं. बीते ढाई
दशक में विश्व स्वास्थ्य संगठन की गतिविधियों का अध्ययन करें तो इसकी
प्रत्येक सालाना रिपोर्ट यही बताती है कि विश्व स्वास्थ्य रक्षा के लिए बना
यह अंतरराष्ट्रीय संगठन अब रोग की आवश्यकता और उसके उपचार के नाम पर विश्व
दवा बाजार को ही मजबूत और समृद्ध बनाने की भूमिका निभा रहा है.
इस
वर्ष 2013 की 7 अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
संगठन का मुख्य संदेश है- ‘उच्च रक्तचाप’. जाहिर है लोगों को जीवनशैली से
जुड़ा यह रोग अब विश्व चिंता का विषय है, क्योंकि डब्ल्यूएचओ के ताजा जारी
आंकड़े के अनुसार सालाना 7.5 मिलियन लोग इस बीमारी से मर रहे हैं. आंकड़ों
में यह कुल होने वाली मौतों का 12.8 फ़ीसदी है. आंकड़ा यह भी बता रहा है कि
सालाना 57 मिलियन लोग इस रोग की वजह से आजीवन बीमार जीवन बिताने के लिए
अभिश्प्त हैं.
सबसे
ज्यादा चिंता की बात यह है कि जीवन शैली में बदलाव से उत्पन्न यह रोग
युवाओं में खतरनाक रूप से विकसित हो रहा है. डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि
वर्ष 2030 तक दुनिया में होने वाली कुल मौतों में 75 फ़ीसदी मौतें गैर
संक्रामक रोगों (जैसे हृदय घात आदि) से होगी. आंकड़ों बता रहे हैं कि इन
गैर संक्रामक रोगों से होने वाले मौतों में 80 प्रतिशत तो निम्न-मध्यम आय
वाले देशों में हो रही हैं.
देश
में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी ताजा रिपोर्ट
भी चिन्ता पैदा करने वाली है. रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7
करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे. इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल
दिल्ली में होंगे. अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा
विकासशील देशों में कहर बरपाएगा. इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की
संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है.
भारत
में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा
कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. नेशनल कैंसर
रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के
रोगियों में 14 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है. इन रोगियों में लगभग
45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है. ऐसे ही कार्डियोलाजी सोसाइटी
ऑफ़ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में
होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी.
एसोचैम
अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है.
मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार
पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डालर खर्च करने पडेंगे. एक अन्य
अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह
से भारत को 8.7 अरब डाॅलर का नुकसान उठाना पड़ा था.
आधुनिकता
और ऐशो-आराम के बढ़ने का एक परिणाम तो साफ दिख रहा है कि डायबिटीज, हृदय
रोग, कैंसर जैसे महंगे उपचार वाले रोग तेजी से बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य पर
ध्यान न देने, अनियमित जीवनशैली और बिगड़े खान-पान, बढ़ते तनाव आदि ने
मिलकर उक्त रोगों को बढ़ाना शुरू कर दिया है. देश में लोगों के स्वास्थ्य
से जुड़ा एक पक्ष और है वह है गैर बराबरी एवं गरीबी. विश्व स्वास्थ्य संगठन
भी अपने एक वार्षिक रिपोर्ट में मान चुका है कि अमीरी और गरीबी के बीच
बढ़ती खाई ने रोगों की स्थिति को और विकट बना दिया है.
वर्ष
1995 में प्रकाशित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में संगठन ने ‘अत्यधिक गरीबी’ को
रोग का नाम दिया. संगठन ने खुले शब्दों में माना था कि विषमता खत्म किये
बगैर स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है, लेकिन बाद में
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव की वजह से संगठन ने इस मुद्दे पर अपना स्वर
धीमा कर दिया.
जन
स्वास्थ्य के मद्देनजर यदि बिहार को देखें तो आवास एवं गरीबी उन्मूलन
मंत्रालय भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 से 2017 तक इसके 18
लाख 16 हजार 639 हो जाने का अनुमान है. बिहार में साक्षरता की दर पुरुषों
में 73.39 तथा महिलाओं में गरीबी रेखा से नीचे जाने वाले लोगों की संख्या
गांव-शहर मिला कर औसत 53.5 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत का लगभग दो
गुना है. ऐसे ही संक्रामक रोगों में वर्ष 2010 के 1908 के मुकाबले वर्ष
2011 में मलेरिया से ग्रस्त लोगों की संख्या बढ़कर 2390 हो गई है.
कालाजार
संक्रमण के मामले में बिहार सबसे ऊपर है. वर्ष 2010 के 23,084 मामले की
तुलना में वर्ष 2011 में यह संख्या 25.175 दर्ज की गई है. अन्य रोगों
(एनसीडी) के मामले की सही तस्वीर बिहार में उपलब्ध नहीं है, लेकिन दिल्ली
के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एवं सफदरजंग अस्पताल के आंकड़े बताते
हैं कि यह इलाज के लिऐ आने वाले मरीजों में 40 से 50 प्रतिशत मरीज बिहारए
उत्तर प्रदेश के होते हैं.
विश्व
स्वास्थ्य दिवस के बहाने यह रेखांकित करना भी जरूरी है कि उदारीकरण के दौर
में भारत में आम लोगों का स्वास्थ्य पर निजी खर्च 78 प्रतिशत के लगभग है.
इसका मतलब सरकार लोगों की चिकित्सा पर मात्र 22 प्रतिशत ही खर्च कर रही है.
आज भी आम भारतीय अपनी चिकित्सा के लिये सरकार पर नहीं स्वयं पर निर्भर है.
अन्य देशों से तुलना करें तो चीन में 61 प्रतिशत, श्रीलंका में 53
प्रतिशत, भूटान में 29 प्रतिशतए मालदीव में 14 प्रतिशत, जबकि थाइलैंड में
लोग 31 प्रतिशत इलाज का खर्च स्वयं वहन करते हैं.
स्वास्थ्य
पत्रिका ‘लैनसैट’ में प्रकाशित एक आलेख ‘फाइनेसिग हेल्थ फॉर आल चैलेन्जेज
एण्ड आपरचुनिटीज’ के लेखक डॉ. ए.के. शिव कुमार लिखते हैं कि भारत में
प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग अपने बीमारी के इलाज पर हुए खर्च की वजह से गरीबी
के गर्त में ढकेल दिये जाते हैं. रोचक बात यह भी है कि डॉ. शिवकुमार
प्रधानमंत्री द्वारा गठित उस उच्च स्तरीय समिति के सदस्य हैं, जो सर्वजन के
लिये स्वास्थ्य सुलभ कराने के लिये गठित की गई है. डॉ. शिव कुमार साफ मान
रहे हैं कि अब उपचार और स्वास्थ्य का क्षेत्र आम आदमी के पहुंच से बाहर है.
बिहार
जैसे प्रगतिशील प्रदेश के लिये जरूरी है कि रोग का उपचार उपलब्ध कराने की
बजाय रोग से बचाव की नीति पर अमल हो. दुनिया के इन देशों का उदाहरण हमारे
सामने है जो अमेरिका और ब्रिटेन की तरह महंगे उपचार का खर्च अपने नागरिकों
के लिये वहन नहीं कर सकते, वे रोग से बचे रहने की नीति (प्रेवेंटिव हेल्थ
पालिसी) पर आधारित योजना बनाकर लगभग 95 फीसद सफलता पा चुके हैं.
हमारे
सामने क्यूबा, वेनेजुएला, कोस्टारिका, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों का
मॉडल उपलब्ध है. इस पर बिहार सरकार व अन्य सरकारें गंभीरता से अध्ययन और
विचार कर सकती हैं. महंगे दवा से गरीब होकर मर जाने और कंगाल हो जाने से
अच्छा है रोगों से बचाव कर जिंदा रहना और अपनी मेहनत की कमाई को बचाना. यह
संभव है लेकिन जरूरी है मजबूत इच्छाशक्ति और मुक्कमल नीति की. बिहार सरकार
ऐसा कर सकती है.
डॉ. ए. के. अरुण जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं.