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Wednesday 10 April 2013

उपेक्षित हो रहा जन स्वास्थ्य

उपेक्षित हो रहा जन स्वास्थ्य


विश्व स्वास्थ्य दिवस 7अप्रैल पर विशेष
वर्ष 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे. इसमें 11.6 फीसदी लोग केवल दिल्ली में होंगे. यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा कहर विकासशील देशों में बरपाएगा. यहां रोग प्रभावितों की संख्या 8.4 से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है...
डॉ. ए.के. अरुण

अपना देश अब विश्व बाजार व्यवस्था का एक जरूरी क्षेत्र बन गया है. भारत में वैश्वीकरण के पैर पसारने के साथ-साथ कई नए रोगों ने भी दस्तक दे दी है, कई पुराने रोगों ने अपनी जड़ें और मजबूत कर ली हैं. अध्ययन बता रहे हैं कि विकास प्रक्रिया, कृषि और उद्योगों के नये तौर तरीके रोगों को और गम्भीर तथा घातक बना रहे हैं.
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कालाजार, टी.वी. मेनिनजाइटिस/एड्स सार्स, स्वाइन फ्लू, डेंगू, चिकनगुनिया व अन्य नये रोगों ने अब विश्व चिकित्सा व्यवस्था की साँसें फुला दी हैं. बीते ढाई दशक में विश्व स्वास्थ्य संगठन की गतिविधियों का अध्ययन करें तो इसकी प्रत्येक सालाना रिपोर्ट यही बताती है कि विश्व स्वास्थ्य रक्षा के लिए बना यह अंतरराष्ट्रीय संगठन अब रोग की आवश्यकता और उसके उपचार के नाम पर विश्व दवा बाजार को ही मजबूत और समृद्ध बनाने की भूमिका निभा रहा है.
इस वर्ष 2013 की 7 अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठन का मुख्य संदेश है- ‘उच्च रक्तचाप’. जाहिर है लोगों को जीवनशैली से जुड़ा यह रोग अब विश्व चिंता का विषय है, क्योंकि डब्ल्यूएचओ के ताजा जारी आंकड़े के अनुसार सालाना 7.5 मिलियन लोग इस बीमारी से मर रहे हैं. आंकड़ों में यह कुल होने वाली मौतों का 12.8 फ़ीसदी है. आंकड़ा यह भी बता रहा है कि सालाना 57 मिलियन लोग इस रोग की वजह से आजीवन बीमार जीवन बिताने के लिए अभिश्प्त हैं.
सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि जीवन शैली में बदलाव से उत्पन्न यह रोग युवाओं में खतरनाक रूप से विकसित हो रहा है. डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक दुनिया में होने वाली कुल मौतों में 75 फ़ीसदी मौतें गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय घात आदि) से होगी. आंकड़ों बता रहे हैं कि इन गैर संक्रामक रोगों से होने वाले मौतों में 80 प्रतिशत तो निम्न-मध्यम आय वाले देशों में हो रही हैं.
देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है. रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे. इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे. अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा. इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है.
भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 14 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है. इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है. ऐसे ही कार्डियोलाजी सोसाइटी ऑफ़ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी.
एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है. मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डालर खर्च करने पडेंगे. एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को 8.7 अरब डाॅलर का नुकसान उठाना पड़ा था.
आधुनिकता और ऐशो-आराम के बढ़ने का एक परिणाम तो साफ दिख रहा है कि डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर जैसे महंगे उपचार वाले रोग तेजी से बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य पर ध्यान न देने, अनियमित जीवनशैली और बिगड़े खान-पान, बढ़ते तनाव आदि ने मिलकर उक्त रोगों को बढ़ाना शुरू कर दिया है. देश में लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ा एक पक्ष और है वह है गैर बराबरी एवं गरीबी. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी अपने एक वार्षिक रिपोर्ट में मान चुका है कि अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई ने रोगों की स्थिति को और विकट बना दिया है.
वर्ष 1995 में प्रकाशित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में संगठन ने ‘अत्यधिक गरीबी’ को रोग का नाम दिया. संगठन ने खुले शब्दों में माना था कि विषमता खत्म किये बगैर स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है, लेकिन बाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव की वजह से संगठन ने इस मुद्दे पर अपना स्वर धीमा कर दिया.
जन स्वास्थ्य के मद्देनजर यदि बिहार को देखें तो आवास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्रालय भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 से 2017 तक इसके 18 लाख 16 हजार 639 हो जाने का अनुमान है. बिहार में साक्षरता की दर पुरुषों में 73.39 तथा महिलाओं में गरीबी रेखा से नीचे जाने वाले लोगों की संख्या गांव-शहर मिला कर औसत 53.5 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत का लगभग दो गुना है. ऐसे ही संक्रामक रोगों में वर्ष 2010 के 1908 के मुकाबले वर्ष 2011 में मलेरिया से ग्रस्त लोगों की संख्या बढ़कर 2390 हो गई है.
कालाजार संक्रमण के मामले में बिहार सबसे ऊपर है. वर्ष 2010 के 23,084 मामले की तुलना में वर्ष 2011 में यह संख्या 25.175 दर्ज की गई है. अन्य रोगों (एनसीडी) के मामले की सही तस्वीर बिहार में उपलब्ध नहीं है, लेकिन दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एवं सफदरजंग अस्पताल के आंकड़े बताते हैं कि यह इलाज के लिऐ आने वाले मरीजों में 40 से 50 प्रतिशत मरीज बिहारए उत्तर प्रदेश के होते हैं.
विश्व स्वास्थ्य दिवस के बहाने यह रेखांकित करना भी जरूरी है कि उदारीकरण के दौर में भारत में आम लोगों का स्वास्थ्य पर निजी खर्च 78 प्रतिशत के लगभग है. इसका मतलब सरकार लोगों की चिकित्सा पर मात्र 22 प्रतिशत ही खर्च कर रही है. आज भी आम भारतीय अपनी चिकित्सा के लिये सरकार पर नहीं स्वयं पर निर्भर है. अन्य देशों से तुलना करें तो चीन में 61 प्रतिशत, श्रीलंका में 53 प्रतिशत, भूटान में 29 प्रतिशतए मालदीव में 14 प्रतिशत, जबकि थाइलैंड में लोग 31 प्रतिशत इलाज का खर्च स्वयं वहन करते हैं.
स्वास्थ्य पत्रिका ‘लैनसैट’ में प्रकाशित एक आलेख ‘फाइनेसिग हेल्थ फॉर आल चैलेन्जेज एण्ड आपरचुनिटीज’ के लेखक डॉ. ए.के. शिव कुमार लिखते हैं कि भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग अपने बीमारी के इलाज पर हुए खर्च की वजह से गरीबी के गर्त में ढकेल दिये जाते हैं. रोचक बात यह भी है कि डॉ. शिवकुमार प्रधानमंत्री द्वारा गठित उस उच्च स्तरीय समिति के सदस्य हैं, जो सर्वजन के लिये स्वास्थ्य सुलभ कराने के लिये गठित की गई है. डॉ. शिव कुमार साफ मान रहे हैं कि अब उपचार और स्वास्थ्य का क्षेत्र आम आदमी के पहुंच से बाहर है.
बिहार जैसे प्रगतिशील प्रदेश के लिये जरूरी है कि रोग का उपचार उपलब्ध कराने की बजाय रोग से बचाव की नीति पर अमल हो. दुनिया के इन देशों का उदाहरण हमारे सामने है जो अमेरिका और ब्रिटेन की तरह महंगे उपचार का खर्च अपने नागरिकों के लिये वहन नहीं कर सकते, वे रोग से बचे रहने की नीति (प्रेवेंटिव हेल्थ पालिसी) पर आधारित योजना बनाकर लगभग 95 फीसद सफलता पा चुके हैं.
हमारे सामने क्यूबा, वेनेजुएला, कोस्टारिका, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों का मॉडल उपलब्ध है. इस पर बिहार सरकार व अन्य सरकारें गंभीरता से अध्ययन और विचार कर सकती हैं. महंगे दवा से गरीब होकर मर जाने और कंगाल हो जाने से अच्छा है रोगों से बचाव कर जिंदा रहना और अपनी मेहनत की कमाई को बचाना. यह संभव है लेकिन जरूरी है मजबूत इच्छाशक्ति और मुक्कमल नीति की. बिहार सरकार ऐसा कर सकती है.
ak-arun1डॉ. ए. के. अरुण जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं.

अब भी नहीं जागे तो खत्म होगी तराई की जनजातियां, सरकार का यह शासनादेश किसके लिए ?




  • अब भी नहीं जागे तो खत्म होगी तराई की जनजातियां, सरकार का यह शासनादेश किसके लिए ?

    राज्य में पीढ़ी दर पीढ़ी से निवास करने वाले लोग आने वाले समय अल्पसंख्यक होने जा रहें ? यह मेरी ही चिंता का विषय नहीं है बल्कि राज्य के हर उस व्यक्ति की चिंता है जो अलग राज्य गठन के पश्चात यह उम्मीद लगाये बैठा था कि अब तो हालात में कुछ सुधार आयेगा l लेकिन राज्य निर्माण के पश्चात से ही राज्य के भविष्य को लेकर राजनैतिक वर्ग ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे यह परिलक्षित हो कि राज्य अपने निर्माण की अवधारणा को साकार कर रहा हो ? बल्कि बीते बारह सालों में एक के बाद एक वे सभी उम्मीदें रेत के महल की तरह धुल धूसरित होती जा रही है जिनकी अपेक्षा राजनैतिक नेतृत्व से थी l राज्य गठन के पश्चात से ही मुद्दा चाहे स्थानीय लोगो के रोजगार का हो ,या फिर दिनों दिन कम होती खेती की जमीनों का हो या फिर आर्थिक नीतियों का हो, या पहाड़ के विकास के आधार स्वास्थ एवं चिकित्सा एवं शिक्षा सेवाओं का हो, इन सभी क्षेत्रों में राज्य सरकार आम आदमी की उस धारणा के सत्य से कोसो दूर नजर आई जिसके सपने उसने अलग राज्य होने के रूप में जगाये थे l राज्य बनने के बाद से ही अगर कहीं विकास नजर आया है तो वह भी कुछ वर्ग विशेष तक ही सिमटा हुआ नजर आता है, राजनेताओं और उनके आस-पास मौजूद लोगो की निजी आर्थिकी पर नजर डाली जाए तो उनके और आम आदमी के बीच आमदनी एवं सुविधाओं की एक बहुत बड़ी खाई नजर आती है, पिछले बारह सालों में इन राजनेताओं की संपत्ति में सैकड़ों गुना वृद्धि हुई जो इस आशंका को और अधिक मजबूती देता है कि राज्य के राजनैतिक नेतृत्व में वह इमानदारी मौजूद नहीं है, जिसकी परिकल्पना राज्य निर्माण आंदोलन के समय की गयी थी l 

    हाल में राज्य सरकार द्वारा मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र के समबन्ध में जारी शासनादेश के सन्दर्भ में देखा जाए तो भविष्य की स्थिति और खतरनाक नजर आती है, सरकार का यह शासनादेश ऐसे समय आया है जब राज्य में यह बहस जोरो पर है कि आखिर राज्य किसके लिए बना ? सरकार ने अपने शासनादेश में मूल और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ देट 1985 मानी है, जबकि पुरे देश में यह कट ऑफ डेट 1950 है l यहाँ यह उल्लेखनीय तथ्य है कि पृथक राज्य निर्माण की आग को नवयुवक वर्ग द्वारा तब और तेज किया था, जब उत्तरप्रदेश के समय यहाँ पर 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने का शासनादेश जारी किया गया था, उस समय मसला पृथक राज्य का कम नवयुवक वर्ग के हितों का अधिक था, उत्तराखंड सरकार का स्थायी निवास और जाति प्रमाण-पत्र के लिए वर्तमान शासनादेश भविष्य के लिए कोमोबेस फिर वही स्थितियां राज्य में पैदा कर रहा है l 

    राज्य पुनर्गठन के बाद राज्य में मूल, स्थायी और जाति प्रमाण-पत्र का हकदार कौन के विषय में विवाद उत्पन्न होने का मामला केवल उत्तराखंड राज्य के ही सामने नहीं आया, बल्कि यह हर उस राज्य के सामने आया था, जो अपने पुर्ववर्ती से राज्यों से अलग कर बनाए गए थे, लेकिन बाकी राज्यों की सरकारों नें बाहर के राज्यों से आए लोगों के वोट के लालच में इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने के बजाय उच्चतर कानूनी संस्थाओं द्वारा उपलब्ध कराएं गए प्रावधनों एवं समय-समय पर इस सम्बन्ध में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा दिए गए न्यायिक निर्णयों की रोशनी में अविवादित एवं स्थायी रूप से हल कर लिया l जबकि उत्तराखंड राज्य में सत्ता एवं विपक्ष में बैठे राजनेताओं ने इसे वोट बैंक और मैदानी क्षेत्रवाद का मुद्दा बनाकर हमेशा ज़िंदा रखे रहें और अपने फायदे के अनुसार इस मुद्दे को चुनावों के समय इस्तेमाल भी करते रहें, तथा राज्य उच्च न्यायालय की एकल पीठ में लचर पैरवी के परिणामस्वरुप अपने मन माफिक निर्णय आ जाने के पश्चात, अपने फायदे के लिए इस संवेदनशील तथा भावना से जुड़े मुद्दे पर नीति बनाते समय वे उत्तर प्रदेश से अगल कर बनाये उत्तराखंड राज्य निर्माण की उस मूल अवधारणा को ही भूल गए जिसके चलते राज्य निर्माण के लिए यहाँ का हर वर्ग आन्दोलित रहा । ऐसे में राजनेताओं की मंशा पर और सवाल उत्पन्न होता है जब उच्च न्यायालय की एकल पीठ का यह निर्णय अंतिम नहीं था, एकल पीठ के इस निर्णय को डबल बेंच में तत्पश्चात उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकती थी, लेकिन सरकार में बैठे राजनेताओं ने इमानदारी से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जबकि उनके पास ऐसा करने के पर्याप्त कारण तथा समय था l राजनैतिक वर्ग द्वारा उत्तराखंड राज्य निर्माण भावना के साथ खिलवाड़ का यह कोई पहला मामला नहीं है, इससे पहले भी उच्च न्यायालय में मुज्जफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा दिलाने के मामले में भी लचर पैरवी करने में सरकार में बैठे नेताओं और राज्य मशीनरी का कुछ ऐसा ही व्यवहार नजर आया था, यह सरकार में बैठे राजनेताओं की ढुलमुल नीति का ही परिणाम था कि मुज्जफ्फरनगर कांड के दोषी सजा पाने से बच गए l 

    ऐसा नहीं था कि देश में मूल/स्थायी निवास तथा प्रमाण पत्र जारी किये जाने का यह मामला पहली बार उत्तराखंड में ही उठा हो, सबसे पहले मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का मामला सन् 1977 में महाराष्ट्र में उठ चुका था । महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार एक आदेश जारी किया था, जिसमें कहा गया कि सन 1950 में जो व्यक्ति महाराष्ट्र का स्थायी निवासी था, वही राज्य का मूल निवासी है । महाराष्ट्र सरकार और भारत सरकार के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, इस पर उच्चतम न्यायालय की संवैधनिक पीठ ने जो निर्णय दिया, वह आज भी मूल निवास/स्थायी निवास के मामले में अंतिम और सभी राज्यों के लिए आवश्यक रूप से बाध्यकारी है । उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति के दिनांक 8 अगस्त और 6 सितंबर 1950 को जारी नोटिपिफकेशन के अनुसार उस तिथी को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी था, वह उसी राज्य का मूल निवासी है । उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र उसी राज्य से जारी होगा, जिसमें उसके साथ सामाजिक अन्याय हुआ है । उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह भी स्पष्ट किया है कि रोजगार, व्यापार या अन्य किसी प्रयोजन के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य राज्य या क्षेत्र में रहता है तो इसके कारण उसे उस क्षेत्र का मूल निवासी नहीं माना जा सकता । उत्तराखंड के साथ ही अस्तित्व में आए झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी मूल निवास का मामला उठा, पर इसे उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अनुसार बिना किसी फिजूल विवाद के हल कर लिया गया । 

    अधिवास संबंधी एक अन्य वाद नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य (एआईआर-2010,उत्त.-36) में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सन 2010 में प्रदीप जैन बनाम भारतीय संघ (एआईआर-1984, एससी-1420) में दिए उच्चतम न्यायालय के निर्णय को ही प्रतिध्वनित किया था l उच्चतम न्यायालय ने अपने इस निर्णय में स्पष्टरूप से कहा था कि देश में एक ही अधिवास की व्यवस्था है और वह है भारत का अधिवास ! यही बात उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने नैना सैनी मामले में दोहराई l

    जबकि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दिनांक 17 अगस्त 2012 को मूल निवास के संदर्भ में जो फैसला सुनाया है उसमें कोर्ट ने दलील दी कि 9 नवंबर 2000 यानि कि राज्य गठन के दिन जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा था, उसे यहां का मूल निवासी माना जायेगा, राज्य सरकार ने बिना आगे अपील किये उस निर्णय को ज्यों का त्यों स्वीकार भी कर लिया जो किसी ताज्जुब से कम नहीं है, एक तरफ उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गए व्यवस्था को देखा जाये तो राज्य की आम जनता उच्च न्यायालय और राज्य सरकार के फैसले से हतप्रभ होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पा रही हैं, इसका कारण भी वाजिब है कि जब देश की सर्वोच्च अदालत इस संदर्भ में पहले ही व्यवस्था कर चुकी है, तो फिर राज्य सरकर ने उस पुर्ववर्ती न्यायिक व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार क्यों नहीं किया और उच्च न्यायालय के एकल पीठ के निर्णय के खिलाफ अपील क्यों नहीं की, जो सत्ता में बैठे राजनेताओं की नीयत पर साफ़ साफ़ सवाल खड़ा करती है ? 

    सर्वोच्च न्यायालय ने जाति प्रमाण पत्र के मामले पर अपने निर्णयों में साफ़-साफ़ कहा है कि यदि कोई व्यक्ति रोजागर और अन्य कार्यों हेतु अपने मूल राज्य से अन्य राज्य में जाता है, तो उसे उस राज्य का जाति प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा जिस राज्य में वह रोजगार हेतु गया है, उसे उसी राज्य से जाति प्रमाण पत्र मिलेगा जिस राज्य का वह मूल निवासी है । सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के तहत ही दी थी । मूल निवास के संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त / 6 सितंबर 1950 को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी था उसे उसी राज्य में मूल निवास प्रमाण पत्र मिलेगा । यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि पर अस्थाई रोजगार या अध्ययन के लिए किसी अन्य राज्य में गया हो तो भी उसे अपने मूल राज्य में ही जाति प्रमाण पत्र मिलेगा । ऐसे में मूल निवास के मसले पर राज्य सरकार का उच्च न्यायालय के फैसले को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना और उस पर शासनादेश जारी कर देना संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है । 

    ऐसा नहीं है कि विवाद की जो स्थिति उत्तराखंड में उत्पन्न हुई है वह उत्तराखंड के साथ गठित छत्तीसगढ़ और झारखंड में नहीं आई, वहाँ भी इस प्रकार की स्थिति पैदा हुई थी, क्योंकि इन राज्यों का भी गठन अन्य राज्यों से अलग कर किया गया था, लेकिन इन दोनों राज्यों में मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र दिये जाने के प्रावधान उत्तराखंड से इतर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों पर ही आधारित हैं । झारखंड में उन्हीं व्यक्तियों को मूल निवास प्रमाण पत्र निर्गत किये जाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी वर्तमान झारखंड राज्य क्षेत्र के निवासी थे । छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाण पत्र उन्हीं लोगों को दिये जाते हैं जिनके पूर्वज 10 अगस्त/ 06 सितंबर 1950 को छत्तीसगढ़ राज्य में सम्मिलित क्षेत्र के मूल निवासी थे । उन लोगों को यहां मूल निवास प्रमाण पत्र नहीं दिये जाते हैं, जो इन राज्यों में अन्य राज्यों से रोजगार या अन्य वजहों से आये हैं ।

    कमोबेश यही स्थिति महाराष्ट्र की भी है । महाराष्ट्र में भी उसके गठन यानी कि 1 मई 1960 के बाद मूल निवास का मुद्दा गरमाया था । महाराष्ट्र में भी दूसरे राज्यों से आये लोगो ने जाति प्रमाणपत्र दिये जाने की मांग की । ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र सरकार ने भारत सरकार से इस संदर्भ में कानूनी राय मांगी । जिस पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त/6 सितंबर 1950 का परिपत्र जारी किया । भारत सरकार के दिशा-निर्देशन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने 12 फरवरी 1981 को एक सर्कुलर जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राज्य में उन्हीं व्यक्तियों को अनुसूचित जाति जनजाति के प्रमाण पत्र मिलेंगे जो 10 अगस्त/ 6 सितंबर 1950 को राज्य के स्थाई निवासी थे । इस सर्कुलर में ये भी स्पष्ट किया था कि जो व्यक्ति 1950 में राज्य की भौगोलिक सीमा में निवास करते थे वहीं जाति प्रमाण पत्र के हकदार होंगे ।

    ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में जाती प्रमाण पत्र के सम्बन्ध में ऐसे नियम नहीं है, उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 एवं 25 तथा इसी अधिनियम की पांचवीं और छठी अनुसूची तथा उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय में जो व्यवस्था की गयी है उसके आलोक में उत्तराखंड में उसी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र मिल सकता है जो 10 अगस्त/ 06 सितंबर 1950 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य की सीमा में स्थाई निवासी के रूप में निवास कर रहा था । उच्च न्यायालय की एकल पीठ के निर्णय में यह तथ्य विरोधाभाषी है कि जब प्रदेश में मूल निवास का प्रावधान उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम में है तो फिर राज्य सरकार मूल निवास की कट ऑफ डेट राज्य गठन को क्यों मान रही है, उसके द्वारा एकल पीठ के निर्णय को चुनौती क्यों नहीं दी गयी ? 

    सन 1961 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने पुन: नोटिफिकेशन के द्वारा यह स्पष्ट किया था कि देश के सभी राज्यों में रह रहे लोगों को उस राज्य का मूल निवासी तभी माना जाएगा, जब वह 1951 से उस राज्य में रह रहे होंगे । उसी के आधार पर उनके लिए आरक्षण व अन्य योजनाएं भी चलाई जाएं । उत्तराखंड राज्य बनने से पहले संयुक्त उत्तर प्रदेश में पर्वतीय इलाकों के लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर एवं सुविधाविहीन क्षेत्र होने के कारण आरक्षण की सुविधा प्रदान की गई थी । जिसे समय समय पर विभिन्न न्यायालयों ने भी उचित माना था । आरक्षण की यह व्यवस्था कुमाऊं में रानीबाग से ऊपर व गढ़वाल में मुनिकी रेती से उपर के पहाड़ी क्षेत्रों में लागू होती थी । इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में इस क्षेत्र के लोगों के लिए इंजीनियरिंग व मेडिकल की कक्षाओं में कुछ प्रतिशत सीटें रिक्त छोड़ी जाती थी । 

    उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तराई के जनपदों में बाहरी लोगों ने अपने आप को उद्योग धंधे लगाकर यहीं मजबूत कर लिया और सरकार का वर्तमान रवैया भी उन्ही को अधिक फायदा पहुंचा रहा है l आज प्रदेश के तराई के इलाकों में जितने भी बडे़ उद्योग धंधे हैं, या जो लग रहें हैं उन अधिकांश पर बाहरी राज्य के लोगों का मालिकाना हक है । ऐसे में राज्य सरकार अगर आने वाले समय में इन सभी लोगों को यहां का मूल निवासी मान ले तो राज्य के पर्वतीय जिलों के अस्तित्व पर संकट छा जाएगा । बात नौकरी और व्यवसाय से इतर भी करें तो आज राज्य में अगर सबसे ज्यादा संकट है तो यहाँ की खेती की जमीनों पर है, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राज्य में पिछले ग्यारह सालों में लगभग 53 हजार हेक्टेयर (राज्य गठन से लेकर मार्च-2011 तक) जमीन खत्म हो चुकी है, अगर गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाय तो यह स्थिति भयावह है, यह स्थिति तब है जब बाहरी लोगो के राज्य में जमीन की खरीद फरोक्त पर केप लगी है, और राज्य में हाल ही में खरीदी गयी अधिकार जमीनें राज्य में बाहर से आये लोगो की है, अगर इन्हें भी मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र बना देने में नियमों में ढील दी जाती है तो राज्य का मूल निवासी होने के नाते उन्हें यह अधिकार स्वत: ही मिल जाते है कि वे केप लगी भूमि से अधिक भूमि निर्बाध रूप से इस राज्य में खरीद सकते हैं, जो आने वाले समय में और भी बड़े प्रश्न खडा करेगा l इससे व्यवस्था के अस्तित्व में आने से राज्य के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग ही अधिक प्रभावित होंगे क्योंकि बाहर राज्यों से आये लोग ही इस व्यवस्था से अधिक लाभ अर्जन करेंगे, वे अपने मूल राज्य से भी प्रमाण-पत्र प्राप्त करेंगे और साथ ही उत्तराखंड से भी, जहां अवसर ज्यादा होंगे वे दोनो में से उस राज्य के अवसरों को अधिक भुनायेंगे, जो सीधा-सीधा इस राज्य के मूल अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति के लोगो के हितों पर कानुनी डाका है l 

    जाति प्रमाण पत्र और स्थाई निवास जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार तथा विपक्ष में बैठे राजनेताओं की मंशा क्या हैं यह तो वे ही बेहतर जानतें है, लेकिन अभी यह मामला अंतिम रूप से निर्णित नहीं हुआ है बल्कि उच्च न्यायालय की डबल बेंच में लंबित हैं, ऐसे में सरकार का न्यायालय का अंतिम फैसला आने से पूर्व जल्दीबाजी में इस संबंध में शासनादेश जारी करना किसी न किसी निहीत राजनैतिक स्वार्थ होने की और राज्य निवासियों को स्पष्ट संकेत देता है l यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि सरकार की इस नीति से भविष्य में राज्य का समस्त सामाजिक और आर्थिक ताना बाना प्रभावित ही नहीं होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाये जाने की अवधारणा ही समाप्त हो जायेगी, सरकार और विपक्ष में बैठे राजनेताओं के इस कुटिल गठजोड़ के कुपरिणाम आने वाली पीढ़ी को आवश्यकीय रूप से भुगतने होंगे, जिसके लिए हम आप सभी को तैयार रहना चाहिए l यह तय मानकर चलिये की सरकार के इस शासनादेश से राज्य में तराई की मूल जनजातियों के सामाजिक और आर्थिक सरोकारों पर राज्य में बाहर से आये लोगो का निश्चित तौर पर कब्जा होने वाला है, सरकार के इस शासनादेश की भावना भी यही है और उद्देश्य भी ! — with Aranya Ranjan and 19 others.
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पलाश विश्वास
हम अपने धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक मित्रों को लगातार यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हिन्दू साम्राज्यवाद और कॉरपोरेट साम्राज्यवाद दोनों जायनवादी हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। व्यर्थ के वाद-विवाद में हम वक्त जाया कर रहे हैं और आर्थिक सुधारों के बहाने नरसंहार संस्कृति का अश्वमेध अभियान हिन्दुत्व के पताका तले बिना प्रतिरोध लगातार तेज होता जा रहा है। सत्ता दखल की खूनी लड़ाई में आज बंगाल और बांग्लादेश एकाकार है। वहाँ बांग्लादेशी इस्लामी राष्ट्रवाद तो इस पार नस्लवादी ब्राह्मणवाद। वर्चस्ववादी सत्ता हिन्दू साम्राज्यवाद की मनुस्मृति व्यवस्था का मुख्याधार है। देश अब मुक्त बाजार में तब्दील है। हर दिशा में संविधान, नागरिक और मानवाधिकार के खुल्ला उल्लंघन के तहत जल-जंगल-जमीन-आजीविका और नागरिकता से बेदखली तेज हो रही है। ग्लोबल हिन्दुत्व के सहारे वैश्विक व्यवस्था का यही एजेण्डा हैजो भारतीय जनता का मुख्य संकट है। नये सिरे से राममन्दिर अभियान मुक्त बाजार के जनक मनमोहन सिंह के भारतीय राजनीति में अवतरण की पृष्ठभूमि का स्मरण करा रही हैसिखों के जनसंहार, भोपाल गैस
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।
त्रासदी, बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार भारत के मुक्त बाजार में बदलने के अनिवार्य परिदृश्य हैं। तसलीमा नसरीन ने अपने उपन्यास लज्जा में बाबरी विध्वंस के बाद बांग्लादेश में भड़की हिंसा का खुला विवरण दिया है। बांग्लादेश में धर्मनिरपेश्क्षता और लोकतन्त्र के लिये लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवी लगातार शहादतें देते रहे हैं। इस वक्त भी बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र की लड़ाई जीवन मरण का प्रश्न है। लेकिन सत्ता की राजनीति ने वहाँ इस्लामी राष्ट्रवाद का इस्तेमाल करते हुये अल्पसंख्यकों को अपना निशाना बनाया हुआ है दो सौ साल से निरन्तर जारी ब्राह्मणवाद की वैदिकी संस्कृति और नस्लवादी जाति व्यवस्था को खारिज करने वाले मतुआ आन्दोलन का बारुनि उत्सव उनके ताण्डव से बन्द हो गया है। इस बार दुर्गा पूजा भी असम्भव है। भारत में हिन्दू साम्राज्यवादियों के राम मन्दिर आन्दोलन का मतलब है कि अब भी बांग्लादेश में रह गये एक करोड़ से ज्यादा हिन्दुओं के सामने  सम्मान के साथ जीवित रहने के लिये भारत आने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचेगाजैसा कि बाबरी विध्वंस के बाद लज्जा के नायक ने किया था। इस बार 1971 से भी बड़ा संकट सामने है। हिन्दुत्व की राह पर चल रही भारत सरकार के अपने आर्थिक सुधारों के एजेण्डे की वजह से इसकी कोई परवाह नहीं है क्योंकि यह सरकार अपने अस्तित्व व नीति निर्धारण और राज काज के लिये पूरी तरह संघ परिवार पर निर्भर है।
दूसरी तरफ, संघ परिवार को हिन्दू राष्ट्र के लिये बांग्लादेश या अन्यत्र रह रहे हिन्दुओं की बलि चढ़ाने में कोई हिचक नहीं है। विभाजन पीड़ित हिन्दू शरणार्थियों के देश निकाले और आदिवासियों की बेदखलीबस्ती में बहुमंजिली प्रोमोटर राज के लिये बायोमेट्रिक नागरिकता का गैरकानूनी असंवैधानिक आयोजन भी धर्माधिकारी प्रणव मुखर्जी और रामरथी लाल कृष्ष्ण आडवाणी का साझा उद्यम है। इस दिशा में बंगाल में मोदी संस्कृति का संक्रमण सबसे खतरनाक है। यह दुर्भाग्यजनक है कि ममता बनर्जी जैसी क्षत्रप को इस खतरे का जरा सा अंदेशा नहीं है तो दूसरी तरफ घोषित धर्मनिरपेक्ष सिपाहसालार मुलायम सिंह भी संघियों की भाषा बोल रहे हैं। सुनियोजित तरीके से बहुजन आन्दोलन पर संघ परिवार का कब्जा हो गया है। भारतीय बहुजन समाज अब हिन्दू साम्राज्यवाद की पैदल सेना के अलावा और कुछ नहीं है। यह समय जाति विमर्श का नहीं हैबल्कि किसान आन्दोलन और प्रतिरोध संघर्ष की निरन्तरता बनाये रखने की अनिवार्यता का है। भूमि सुधार के किसान आन्दोलन आदिवासी विद्रोह के समन्वय से जो ब्राह्मणवाद विरोधी नस्लवादी जाति वर्चस्व वाले हिन्दुत्व विरोधी मतुआ आन्दोलन का इतिहास है, बंगाल उसे भूल गया है और बाकी भारत को इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। हरिचांद ठाकुर की दो सौवीं जयंती पर हम इस विरासत को पुनर्जीवित कर सकते थे, पर हमने यह मौका खोया है। अब बांग्लादेश के फरीदपुर के ओड़ाकांदी में जो बारुणी उत्सव बन्द हुआ, वह पूरे दक्षिण एशिया में आ रही महासुनामी का अशनि संकेत है। यह इस्लामी राष्ट्रवाद और हिन्दू साम्राज्यवाद का विजय अभियान है और नरसंहार संस्कृति का शंखनाद है। नये सिरे से राममन्दिर आन्दोलन भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में उग्रतम धर्मांध कॉरपोरेट राष्ट्रवाद का विजय उत्सव है। बहुजन समाज को इसके प्रतिरोध में पहल करना चाहिये, पर उसका आन्दोलन तो अब संघी हो गया और वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्रित्व के लिये यज्ञ महायज्ञ में शामिल है। यह विडम्बना ही है कि बहुजन समाज अंबेडकर जयंती तो जोर शोर से मनाने की तैयारी कर रहा है और ब्राह्मणों व ब्राह्मणवाद के खिलाफ विचार नहीं तो गालियों का अकूत भण्डार उसके पास गोला बारुद के आतंक से ज्यादा हैलेकिन हिन्दू साम्राज्यवाद के प्रतिरोध का उसका भी कोई कार्यक्रम नहीं है, जैसे कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के समर्थन में सबसे आगे हैं बहुजन समाज के नेतृवृंद। हिन्दुत्व के झंडावरदारों से निवेदन है कि वे अपने नेताओं से पूछे कि दुनिय़ाभर के कट्टरपंतियों को भारत के बाहर रहने वाले हिन्दुओं के सफाये के लिये उकसाने के कार्यक्रम से ही क्या हिन्दू हित सधेगा।


हिन्दुओं पर मानवाधिकार मौन

हिन्दुओं पर मानवाधिकार मौन


लोग विभाजन की त्रासदी आज भी झेलने को मजबूर हैं. जख्मों को भरने के लिये दोनों देशों के बीच आगरा जैसी कई वार्ताएँ हुई, टी.वी चैनलों पर कार्यक्रम किये गये, बस व रेलगाड़ी चलाई गयी, क्रिक़ेट खेला गया, परंतु ज़ख्म नही भरे...
राजीव गुप्ता 

मात्र तीन दिन के अपने बेटे को उसके दादा-दादी के पास छोड्कर पाकिस्तान से तीर्थयात्रा वीजा पर भारत आने वाली 30 वर्षीय भारती रोती हुई अपनी व्यथा बताते हुए कहती है अगर मैं अपने बेटे का वीजा बनने का इंतज़ार करती तो कभी भी भारत न आ पाती.' 15 वर्षीय युवती माला के मुताबिक पाकिस्तान मे उनके लिये अपनी अस्मिता को बचाये रखना मुश्किल है, तो 76 वर्षीय शोभाराम कहते है वे भारत मे हर तरह की सजा भुगत लेंगे, परंतु पाकिस्तान वापस नही जायेंगे. हमारा कसूर यह है कि हमने हिन्दू-धर्म मे पाकिस्तान की धरती पर जन्म लिया है. 'मैं अपनी आँखों के सामने अपने घर की महिलाओं की अस्मत लुटते नही देख सकता.' कहते हुए 80 वर्षीय बुजुर्ग वैशाखीलाल की आँखें नम हो गयी.
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यह कहानी है दिल्ली स्थित बिजवासन गाँव के एक सामजिक कार्यकर्ता नाहर सिँह द्वारा की गई आवास व्यवस्था में रह रहे 479 पाकिस्तानी हिन्दुओं की. यहाँ कुल 200 परिवारों में 480 लोग है, एक माह की अवधि के लिए तीर्थयात्रा वीजा पर भारत आये पाकिस्तानी -हिन्दू अपने वतन वापस लौटने को तैयार नही है. साथ ही भारत-सरकार के लिये चिंता की बात यह है कि इन पाकिस्तानी हिन्दुओ की वीजा-अवधि समाप्त हो चुकी है.

अगस्त 1947 को भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से दो टुकडो मे बँटा, बल्कि लोगों के दिल भी टुकड़ों मे बँट गये. पाकिस्तान के प्रणेता मुहमद अली जिन्ना को पाकिस्तान में हिन्दुओं के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी. उन्होंने अपने भाषण में भी कहा था 'क्योंकि पाकिस्तानी - संविधान के अनुसार पाकिस्तान कोई मजहबी इस्लामी देश नहीं है तथा विचार अभिव्यक्ति से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता को वहा के संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है.' पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाया. 

लोग विभाजन की त्रासदी आज भी झेलने को मजबूर हैं. जख्मों को भरने के लिये दोनों देशों के बीच आगरा जैसी कई वार्ताएँ हुई, टी.वी चैनलों पर कार्यक्रम किये गये, बस व रेलगाडी चलाई गयी, क्रिक़ेट खेला गया, परंतु ज़ख्म नही भरे. इसके उलट विभाजन का यह ज़ख्म नासूर बन गया. स्वाधीन भारत की प्रथम सरकार मे उद्योग मंत्री डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पुरजोर विरोध के बाद भी अप्रैल 1950 मे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और लियाकत अली के साथ एक समझौता किया, जिसके तहत भारत सरकार को पाकिस्तान मे रह रहे हिन्दुओ और सिखो के कल्याण के लिए प्रयास करने का अधिकार है. 

वह समझौता मात्र कागजी सिद्ध हुआ. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ ने भारत में शरण लेने के लिए जैसे ही पलायन शुरू किया, विभाजन के घाव फिर से हरे हो गये. सवाल उठे की कोई क्योंकर अपनी मातृभूमि से पलायन करता है. मीडिया में आने वाली खबरों से पता चलता है कि पाकिस्तान में आये दिन हिन्दूओ पर जबरन धर्मांतरण, महिलाओ का अपहरण,उनका शोषण, इत्यादि जैसी घटनाएँ आम हो गयी है.

प्रकृति कभी भी किसी से कोई भेदभाव नहीं करती. इन्सान ने समय – समय पर अपनी सुविधानुसार दास-प्रथा, रंगभेद-नीति, सामंतवादी इत्यादि जैसी व्यवस्थाओं के आधार पर मानव-शोषण की ऐसी कालिमा पोती है, जो इतिहास के पन्नों से शायद ही कभी धुले. समय बदला. लोगों ने ऐसी अत्याचारी व्यवस्थाओं के विरुद्ध आवाज उठाई. विश्वमानस पटल पर सभी मुनष्यों को मानवता का अधिकार देने की बात उठी, परिणामतः विश्व मानवाधिकार का गठन हुआ. 

मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में साफ शब्दों में कहा गया कि मानवाधिकार हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है, जो प्रशासकों द्वारा जनता को दिया गया कोई उपहार नहीं है तथा इसके मुख्य विषय शिक्षा ,स्वास्थ्य ,रोजगार, आवास, संस्कृति ,खाद्यान्न व मनोरंजन इत्यादि से जुडी मानव की बुनयादी मांगों से संबंधित होंगे. इसके साथ-साथ अभी हाल में ही पिछले वर्ष मई के महीने में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी द्वारा मानवाधिकार कानून पर हस्ताक्षर करने से वहाँ एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कार्यरत है.

पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के अध्यक्ष जेठानंद डूंगर मल कोहिस्तानी के अनुसार पिछले कुछ महीनों में बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों से 11 हिंदू व्यापारियों और जैकोबाबाद से एक नाबालिग लड़की मनीषा कुमारी के अपहरण से हिंदुओं में डर पैदा हो गया है. वहां के कुछ टीवी चैनलों के साथ साथ पाकिस्तानी अखबार डॉन ने भी 11 अगस्त के अपने संपादकीय में लिखा कि ‘हिंदू समुदाय के अंदर असुरक्षा की भावना बढ़ रही है’ जिसके चलते जैकोबाबाद के कुछ हिंदू परिवारों ने धर्मांतरण,फिरौती और अपहरण के डर से भारत जाने का निर्णय किया है. पाकिस्तान हिन्दू काउंसिल के अनुसार वहां हर मास लगभग 20-25 लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर शादियां कराई जा रही हैं. 

यह संकट पहले केवल बलूचिस्तान तक ही सीमित था, लेकिन अब इसने पूरे पाकिस्तान को अपनी चपेट में ले लिया है. रिम्पल कुमारी का मसला अभी ज्यादा पुराना नहीं है. उसने साहस कर न्यायालय का दरवाजा तो खटखटाया, परन्तु वहाँ की उच्चतम न्यायालय भी उसकी मदद नहीं कर सका. अंततः उसने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया. हिन्दू पंचायत के प्रमुख बाबू महेश लखानी के मुताबिक कई हिंदू परिवारों ने भारत जाकर बसने का फैसला किया है, क्योंकि पाक पुलिस अपराधियों द्वारा फिरौती और अपहरण के लिए निशाना बनाए जा रहे हिंदुओं की मदद नहीं करती है. इतना ही नहीं भारत आने के लिए 300 हिंदू और सिखों के समूह को पाकिस्तान ने अटारी-वाघा बॉर्डर पर रोक कर सभी से वापस लौटने का लिखित वादा लिया गया. इसके बाद ही इनमें से 150 को भारत आने दिया गया.

पिछले दिनों पाकिस्तान द्वारा हिन्दुओं पर हो रही ज्यादतियों पर भारत की संसद में भी सभी दलों के नेताओं ने एक सुर में पाकिस्तान की आलोचना की. तब भारत के विदेश मंत्री ने यह कहकर मामले को शांत किया था कि वे इस मुद्दे पर पाकिस्तान से बात करेंगे. मगर पाकिस्तान से बात करना अथवा संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को उठाना तो दूर सरकार ने इस मसले को ही ठन्डे बसते में डाल दिया. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं पर की जा रही बर्बरता को देखते हुए माना जा सकता है कि विश्व-मानवाधिकार पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ के लिए नहीं है. 

भारत के कुछ हिन्दु संगठनो के अनुसार पाकिस्तानी हिन्दुओं ने इस सम्बन्ध में पिछले माह (मार्च में ही भारत के राष्ट्रपति प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, विदेश मंत्री,कानून मंत्री, दिल्ली के उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के साथ सभी संबन्धित सरकारी विभागों सहित भारत व संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोगों को भी पत्र भेजा, मगर किसी के पास न तो इन पीडितों का दर्द सुनने की फ़ुर्सत है और न ही कोई ऐसी कार्रवाई हुई जो पाकिस्तान में हिन्दुओं को सुरक्षित माहौल का आभास दिला सके दरिंदगी पर अंकुश लगा सके. 

ऐसे में जेहन में एक ही बात आती है क्या पाकिस्तान के 76 वर्षीय शोभाराम की बात सही है कि 'पाकिस्तानी हिन्दू अपने हिन्दू होने की सजा भुगत रहे हैं. उनके लिए मानवाधिकार की बात करना मात्र एक छलावा है?' 


rajeev-guptaराजीव गुप्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं.

North Korean leaders are not going to wage war against the United States and that Washington is using this false flag to further encircle Russia and China in the region.


An analyst says that the North Korean leaders are not going to wage war against the United States and that Washington is using this false flag to further encircle Russia and China in the region.


The comments come as according to reports, South Korea and the United States have increased their coordinated military surveillance of North Korea amid the rising tension in the Korean peninsula. On Tuesday, Admiral Samuel J. Locklear, the commander of US Pacific Command said that the US defenses could intercept any ballistic missile launched by North Korea in the coming days. On April 4, the North Korean Army said it had received final approval for a nuclear attack on the US in response to Washington’s threats. The army said a preemptive nuclear war with the United States “could break out today or tomorrow,” warning Washington to “ponder over the prevailing grave situation.”

Press TV has talked with Mike Billington, with the Asia desk of Executive Intelligence Review from Washington D.C. What follows is an approximate transcription of the interview.

Press TV: Mr. Billington how much do you expect the current escalations to turn into a war?

Billington: Well, it is unfortunately very possible. Not the way it is generally thought of, however.

The Chinese response to this, has been very precise, very accurate. They warned repeatedly that there are provocations coming from North Korea, which, they have encouraged them to stop, but that there are also very sever provocations coming from the United States and the Chinese have good reasons to understand that this is an encirclement of China that the massive hardware that the US has put into the area, is beyond anything needed to deal with the North Korea threat and therefore the idea that some sort of spark in North Korea could be used for a broader confrontation has to be taken seriously especially since, as you know, the US has refused to make any kind of agreement with Russia to stop the deployment of their anti-ballistic missile systems around the Russian border in Europe.

And we are doing now the same thing in Asia claiming that it is about North Korea, just as they claim in Europe that it is in response to Iran, which has no threat, no weapon.

So this is perceived correctly by Russia and China as a thereat to them, whose purpose is to get them to back down to the regime change policy, the new colonial policy being driven by London and by London’s puppet in the White House, Obama.


What you said is accurate but Locklear made the point that of course we could take down a Korean missile but he was being pushed by John McCain, a manic war hawk, who wants to go to war, and he said explicitly, we would not shoot at a Korean Missile which was simply a test or going into space. We would only do so if it appeared to be actually, aimed at Japan or Guam or Korea.

What I think is important is that military is standing in the way of the war plans coming out of London and out of the White House.

Press TV: Indeed but how much do you think that North Korea’s recent anti-American rhetoric would change the region’s, I mean the Korean peninsula’s, political and economic dynamics?

Billington: Well, they want talks. They want talks with the United States. You probably saw the pictures today. North Korea was celebrating arbor day, people were out planting trees and dancing in the streets.

General Dempsey, the head of the US joint chief of staffs, has repeated over and over again that there is no sign that North Korea is preparing a war, mobilizing their forces, it appears that they are about to carryout a missile test and that will be declared to be against UN regulations and so forth.

And I think that North Korea is saying that we are going to do something like a missile test and if in fact we are fired on as a result of this, there is likely to be a war, which is why they put out that rather strange warning telling foreigners to leave South Korea not because they are going to attack South Korea, they are not crazy, they act irrationally, they act in a bellicose way often for reasons that we could discuss if we had more time and Russia and China are encouraging them to cool off but they are not crazy and are not going to start a war in which they will be destroyed, their regime would abolished and so forth.

So this is..., you have to look at this in the broader context. The greatest global financial breakdown crisis in the history of the Western civilization, an open confrontation being forced on Russia and china over the regime change policy being advanced by Obama working openly with al-Qaeda, the Saudi-backed al-Qaeda forces throughout the Middle East and potentially now moving into the Asia with the same belligerence.

MY/JR
http://www.presstv.ir/detail/2013/04/10/297541/us-after-encircling-russia-china/

डॉ. आंबेडकर का दर्शनशास्त्र उनको अध्यात्मवाद की श्रेणी में खड़ा कर देता है !



सत्ता में भागीदारी का रास्ता जाति उन्मूलन की ओर जाता ही नहीं है,
पूँजीवादी जनवाद, बहुसंख्यक हिस्से पर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही ही होती है !
जैसे ही समाज से वर्गों का विलोपीकरण होगा, वैसे ही राज्य का भी विलोपीकरण हो जायेगा क्योंकि अब राज्य की कोई भी भूमिका है ही नहीं ! इसलिये इसकी जगह किसी भी धर्म को लेने की भी आवश्यकता नहीं है जैसा कि डॉ. आंबेडकर सुझाते हैं !
क्या साम्यवाद वास्तव में सूअर दर्शन है ?
जे. पी. नरेला 
डॉ. भीमराव आंबेडकर सम्पूर्ण वाड्मय खण्ड- 7 में अपनी रचना " बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स" में लिखते है :_……
राज्य की शिथिलता या समाप्ति
साम्यवादी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक स्थाई तानाशाही के रूप में राज्य का उनका सिद्धान्त उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है !  वे इस तर्क का आश्रय लेते हैं कि राज्य अन्तत: समाप्त हो जायेगा ! दो ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना है- 1  राज्य समाप्त कब होगा ? जब वह समाप्त हो जायेगा, तो उसके स्थान पर कौन आयेगा ? प्रथम प्रश्न के उत्तर में कोई निश्चित समय नहीं बता सकते ! लोकतन्त्र को सुरक्षित रखने के लिये भी तानाशाही अल्पावधि के लिये अच्छी हो सकती है, और उसका स्वागत किया जा सकता है लेकिन तानाशाही अपना काम पूरा दकर चुकने के बा लोकतन्त्र के मार्ग में आने वाली सब बाधाओं तथा शिलाओं को हटाने के बाद तो स्वयं समाप्त क्यों नहीं हो जाती ? क्या अशोक ने इसका   उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया था? उसने कलिंग के विरुद्ध हिंसा को अपनाया ! परन्तु  उसके बाद उसने हिंसा का पूर्णतया परित्याग कर दिया ! यदि आज हमारे विजेता केवल अपने विजितों को ही नहीं, बल्कि स्वयं को भी शस्त्र-विहीन कर लें ,तो समस्त संसार में शांति हो जायेगी !
 
साम्यवादियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया है ! जब राज्य समाप्त हो जायेगा तो उसके स्थान पर क्या आयेगा, इस प्रश्न का किसी भी प्रकार कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया, यद्दपि  यह प्रश्न कि राज्य कब समाप्त होगा, की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है ! क्या इसके बाद अराजकता आयेगी ? यदि ऐसा होगा तो साम्यवादी राज्य का निर्माण एक निरर्थक प्रयास है ! यदि इसे बल- प्रयोग के अलावा बनाये नहीं रखा जा सकता, और जब  उसे एक साथ बनाये रखने के लिये बल – प्रयोग  नहीं किया जाता और यदि इसका परिणाम अराजकता है, तो फिर साम्यवादी राज्य से क्या लाभ है !
    बल प्रयोग को हटाने के बाद जो चीज इसे कायम रख सकती है , वह केवल धर्म ही है ! परन्तु साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म अभिशाप है ! ।।।।।।।।।।।।।।।।।
।।।।।।।।।।।।।।। आगे लिखते है :_
विचारक अपने साम्यवाद पर गर्व करते हैं, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि बुद्ध ने जहाँ तक संघ का सम्बन्ध है, उसमें तानाशाही –विहीन साम्यवाद की स्थापना की थी ! यह हो सकता है कि वह साम्यवाद बहुत छोटे पैमाने पर था, परन्तु वह तानाशाही विहीन साम्यवाद था, वह एक चमत्कार था, जिसे करने में लेनिन असफल रहा !
बुद्ध का तरीका अलग था ! उनका तरीका मनुष्य के मन को परिवर्तित करना, उसकी प्रवृत्ति व स्वभाव को  परिवर्तित करना था, ताकि मनुष्य जो भी करे, वह उसे स्वेच्छा से बल- प्रयोग या बाध्यता के बिना करे ! मनुष्य की चित्वृति व स्वभाव को परिवर्तित करने का उनका मुख्य साधन उनका धम्म (धर्म ) था तथा धम्म के विषय में उनके सतत उपदेश थे ! बुद्ध का तरीका लोगों को उस कार्य को करने के लिये वे जिसे पसन्द नहीं करते थे, बाध्य करना नहीं था, चाहे वह उनके लिये अच्छा ही हो। उनकी पद्धति मनुष्यों की चित्वृत्ति व स्वभाव को बदलने की थी, ताकि वे उस कार्य को स्वेच्छा से करें, जिसको वे अन्यथा न करते।
यह दावा किया गया कि रूस में साम्यवादी तानाशाही के कारण आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हुयी हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ! इसी कारण मैं यह कहता हूँ कि रूसी तानाशाही सभी पिछड़े देशों के लिये अच्छी व हितकर होगी ! परन्तु स्थाई तानाशाही के लिये यह कोई तर्क नहीं है ! मानवता के लिये केवल आर्थिक मूल्यों की ही आवश्यकता नहीं होती, उसके लिये आध्यात्मिक मूल्यों को बनाये रखने की आवश्यकता भी होती है! स्थाई तानाशाही ने आध्यात्मिक मूल्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वह उनकी और ध्यान देने की इच्छुक भी नहीं है ! कार्लाइल ने राजनीतिक अर्थशास्त्र को "सूअर दर्शन " की संज्ञा दी है। कार्लाइल का कहना वास्तव में  गलत है, क्योंकि मनुष्य की भौतिक सुखों के लिये तो इच्छा होती ही है ! परन्तु साम्यवादी दर्शन समान रूप से गलत प्रतीत होता है क्योंकि उनके दर्शन का उद्देश्य सूअरों को मोटा बनाना प्रतीत होता है, मानो मनुष्य सूअरों जैसे है ! मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ – साथ अध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिये ! समाज का लक्ष्य एक नवीन नींव डालने का रहा है, जिसे फ़्रांसीसी क्रान्ति द्वारा संक्षेप में तीन शब्दों में –भ्रातृत्व, स्वतन्त्रता तथा समानता – कहा गया है ! इस नारे के कारण ही फ्रांसीसी क्रान्ति का स्वागत किया गया था ! वह समानता उत्त्पन्न करने में असफल रही ! हम रूसी क्रान्ति का स्वागत करते हैं, क्योंकि इसका लक्ष्य समानता उत्त्पन्न करना है, परन्तु इस बात पर अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि समानता लेने के लिये समाज में भ्रातृत्व या स्वतन्त्रता का बलिदान किया जा सकता। भ्रातृत्व या स्वतन्त्रता के बिना समानता का कोई मूल्य या महत्व नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों तभी विद्दमान रह सकती हैं, जब व्यक्ति बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करे ! साम्यवादी एक ही चीज दे सकते हैं, सब नहीं !
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र और रामास्वामी पेरियार का सत्ता मे भागीदारी के सवाल पर हम यहाँ अपनी राय प्रस्तुत करना चाहेंगे :_-
सन् 1950 के बाद से आज तक यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि सत्ता में भागीदारी के बाद वर्तमान पूँजीवादी शोषणकारी सत्ता व शासक वर्ग दलितों के प्रतिनिधियों को कोऑप्ट कर ले रहे हैं। वह कमजोर जातियों के लिये सुधार के काम भी नहीं कर सकते हैं। वर्तमान दलित आन्दोलन व नेता पूँजीवादी राजसत्ताओं की नीतियों के पूर्ण रूप से समर्थक हैं। चाहे वह भूमण्डलीकरण, निजीकरण की नीतियाँ हों या अन्य, या फिर स्वयं रुपया पैसा और संपत्ति बनाने में लगे रहते हैं। इसलिये  सत्ता में भागीदारी का रास्ता जाति उन्मूलन की ओर जाता ही नहीं है। आरक्षण व सत्ता से लाभान्वित हिस्सा सिर्फ दलित विरोधी वर्तमान व्यवस्था के पक्ष में जाकर खड़े हो जा रहा है। वे जाति उन्मूलन की चर्चा तक नहीं करते हैं। दलित समुदाय के बहुसंख्यक हिस्से की माली हालत में आज तक कोई सुधार नहीं हुआ है। ज्यादातर आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन  बसर कर रहे हैं। भारत में संगठित-असंगठित मजदूरों का काफी बड़ा हिस्सा दलित समुदाय से ही आता है।
वर्तमान राजसत्ता में भागीदारी व सरकारी नौकरियों में आरक्षण से छह दशकों में दलित समुदाय का चन्द फीसद हिस्सा ही लाभान्वित हुआ है। इससे एक नया वर्ग पैदा हुआ है जिसको बाकी के दलित समुदाय से कोई सरोकार नहीं है।
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जाति प्रथा की जड़ वेद-शास्त्रों में तलाश रहे थे। उनका कहना था वेद-शास्त्रों का निषेध हो जाने से जाति प्रथा को खत्म किया जा सकता है। वेद-शास्त्र ब्राह्मणों की साजिश की देन हैं। यह नजरिया समस्या को उथले रूप में देखना है, जबकिभारत में जमीन और संसाधनों का बँटवारा जाति के आधार पर हुआ और वर्तमान में भी जाति प्रथा का आधार जमीन का जाति के आधार पर वितरण ही है, जो स्थिति सदियों से निरन्तर चली आ रही है। जब तक इसके भौतिक  आधार को समाप्त नहीं किया जायेगा, तब तक जाति प्रथा का उन्मूलन सम्भव नहीं है।
दलित आन्दोलन ने एक लम्बी लड़ाई से जो कुछ भी हासिल किया है, हम उसका पुरजोर शब्दों में समर्थन करते हैं। लेकिन सत्ता में भागीदारी, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की राजनीति इस गम्भीर समस्या का पर्याप्त समाधान नहीं दे पायी हैं। सवाल यह है कि भारत से जाति प्रथा का खात्मा कैसे होगा ? वह न तो सत्ता में भागीदारी से होगा और न ही आरक्षण से होगा। पहचान की राजनीति तो एकदम बकवास बात है। यह रुझान उन लोगों ने पैदा किया है, जो दलित समुदाय का ही या तो बुद्धिजीवी तबका है या राजनीतिज्ञ, क्योंकि उनको अब जाति प्रथा को खत्म करने की जरूरत नहीं है।इसी जाति प्रथा की वजह से इस विशेष तबके को इतने लाभ मिले हैं कि यह तबका शासक वर्ग का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में जाति प्रथा को खत्म करने से इसका नुकसान भी हो सकता है।
दूसरी बात यह कि जाति प्रथा जैसे कि डॉक्टर भीवराव आंबेडकर का मानना था कि भारतीय संविधान में कानून बना देने से समाप्त की जा सकती है और इसी वर्तमान व्यवस्था में। हमारा मानना है कि यह कतई सम्भव नहीं है। यदि हम वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज बनाना चाहते हैं तो, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करना होगा। उत्पादन संबन्धों को बदलना होगा। यह एक लम्बी लड़ाई है। जाति प्रथा के खात्मे का प्रश्न वर्तमान व्यवस्था के विरोध में खड़ा होता है। यह राजसत्ता से जुड़ा प्रश्न है। जातिवादी आन्दोलन भी इसका समाधान नहीं है, क्योंकि यह जातिवादी दलित आन्दोलन की लड़ाई पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर की लड़ाई है। यह दलित पार्टियाँ और संगठन सिस्टम की पक्षधर पार्टियाँ और संगठन हैं। ये इसी में सुधार की माँग करते रहते हैं। सिस्टम को बदलना इनका लक्ष्य नहीं है। इसलिये वर्तमान व्यवस्था में पैदा हुआ दलित समुदाय का बुद्धिजीवी व राजनीतिज्ञ बुनियादी परिवर्तन के विरोध में जाकर खड़ा होगा, क्योंकि बुनियादी परिवर्तन से उसको आर्थिक हानि उठानी पड़ेगी। इसलिये पहचान की राजनीति सत्ता में भागीदारी और आरक्षण के ईर्द-गिर्द ही वह वर्तमान व्यवस्था को कायम रखते हुये उसकी पक्षधरता करते हुये ही वर्तमान व्यवस्था  को बनाये रखने की ही बात करता रहेगा।
वर्तमान व्यवस्था में जाति उन्मूलन जमीन और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से भी नहीं होगा। पहली बात भारतीय शासक वर्ग डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के इस प्रस्ताव को पहले ही ठुकरा चुका है, क्योंकि वर्तमान सत्ता के गठन, 1947 के बाद से ही कांग्रेस में भारतीय पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों के साथ पुराने सामन्त भी बैठे थे फिर कांग्रेस जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कैसे कर सकती थी। बिड़ला और अन्य पूँजीपतियों की नुमाइंदगी गांधी के अलावा पूरी कांग्रेस करती थी और आज भी कर रही है। इसलिये यह लागू होना सम्भव नहीं है। यदि लागू हो भी जाये तो वह समाजवाद नहीं, राजकीय पूँजीवाद ही बनेगा, जो जाति प्रथा को कमजोर तो करेगा, खत्म नहीं कर पायेगा।
जाति प्रथा के उन्मूलन का एक ही रास्ता है कि व्यापक पैमाने पर जाति विरोधी आन्दोलनों के जरिए जाति प्रथा की संरक्षक वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था के विरोध में एक जाति विरोधी आन्दोलन का निर्माण करना होगा, जो बाकी वर्गों के चल रहे आन्दोलनों से तालमेल बनाये। बुनियादी  व्यवस्था परिवर्तन के बाद समस्त कृषि भूमि और उद्योग, मजदूरों, किसानों व आम अवाम की सरकार अपने हाथ में ले ले। जो भूमि हस्तगत न हो पाये, उस पर सहकारी खेती करवाई जाये और निजी सम्पत्ति के खात्मे की ओर ले जाये। वास्तव में इसी क्रम में जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना सम्भव है।
तीसरी, और आखरी बात। डॉ. भीम राव आंबेडकर की रचना "बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स "जिसके मुख्य और बुनियादी अंश हमने उपर उद्दृत किये हैं, के सम्बन्ध में हमारा मत है कि_—–
जय प्रकाश नरेला, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। जाति विरोधी संगठन के संयोजक हैं।
साम्यवादियों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है, बल्कि यही राजनीतिक दर्शन का मजबूत आधार है, अभी तक के मुख्यत: रूस और चीन के दो बड़े मॉडल बने हैं, जिनका आधार सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ही था। मार्क्स और लेनिन की समझ के आधार पर सर्वहारा की तानाशाही के बिना किसी भी मुल्क में न तो समाजवाद को टिकाया जा सकता है और न ही समाजवाद का निर्माण  किया जा सकता है। वर्ग विभाजित समाज  में एक वर्ग की दूसरे वर्ग पर तानाशाही ही होती है। पूँजीवाद- समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारे का नारा देता है जिसको पूँजीवादी जनतन्त्र कहा गया है। पूँजीवादी जनतान्त्रिक अधिकारों को पूँजीपति जब चाहे, छीन सकता है। अपनी अन्तर्वस्तु में पूँजीवादी जनवाद, बहुसंख्यक हिस्से पर पूँजीपति वर्ग की  तानाशाही ही होती है ! वैज्ञानिक समाजवाद में पूँजीपति वर्ग पर सर्वहारा वर्ग  की तानाशाही होती है ! सर्वहारा वर्ग की मुक्ति एवं समाज से सभी वर्गों के विलोपिकर्ण के साथ ही सर्वहारा वर्ग की तानाशाही भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि समाज में वर्गों की उत्पत्ति के साथ ही राज्यसत्ता की भी उत्पत्ति होती है, यह शाषक वर्ग के लिये बाकी सभी वर्गों को दबाने उनका शोषण – उत्पीड़न करने का अस्त्र – शस्त्र है। जैसे ही समाज से वर्गों का विलोपीकरण होगा, वैसे ही राज्य का भी विलोपीकरण हो जायेगा क्योंकि अब राज्य की कोई भी भूमिका है ही नहीं ! इसलिये इसकी जगह किसी भी धर्म को लेने की भी आवश्यकता नहीं है जैसा कि डॉ. आंबेडकर सुझाते हैं ! डॉ. भीमराव आंबेडकर को हिन्दू धर्म से बेहतर धर्म की तलाश थी !
डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह मानना कि व्यक्ति के स्वभाव व मन को बदल दिया जाये तो साम्यवाद की स्थापना सम्भव है, सवाल यह है कि व्यक्ति के मन में विचार कहाँ से आते हैं और स्वभाव कैसे बनता है ? क्या वे स्वयं अपने जीवन काल में यह कार्य कर पाये। जमींदारों व पूँजीपतियों के मन व स्वभाव को बदल पाये ! डॉ. भीम राव के राजनीतिक दर्शन की यही कमजोरी है ! इसी नजरिये से वे इतिहास को भी देखते हैं, महज ब्राह्मणों की साजिश का नतीजा जाति प्रथा की उत्पत्ति को  मानते हैं ! या आर्यों व अनार्यों की लड़ाई में आर्यों ने जिनको जीतकर अपना गुलाम बना लिया वही शूद्रों की श्रेणी में आ गये। डॉ भीमराव आंबेडकर चेतना को प्रधान मानते हैं। भौतिक परिस्थितियों को नहीं। उनका दर्शनशास्त्र उनको अध्यात्मवाद की श्रेणी में खड़ा कर देता है ! उनकी इन्ही सीमाओं के चलते वे भारत की जाति- प्रथा के  उन्मूलन का सही रास्ता तलाशने में अक्षम रहे ! इसीलिये वर्तमान दलित आन्दोलन डॉ. भीमराव के नाम पर अँधेरी गलियों में भटक रहा है और जाति उन्मूलन की बजाये, जाति की पहचान को ही पक्का करने तक पहुँच गया है, यानी वर्तमान दलित विरोधी पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था एवमं शाषक वर्ग की ही भाषा बोल रहा है ! और इसी व्यवस्था के मजे भी चख रहा है, यही हिस्सा जाति उन्मूलन के विरोध में व वर्ग विहीन जाति विहीन समाज की स्थापना के विरोध में और वर्तमान शाषक वर्ग के पक्ष  में जाकर ही खड़ा हो रहा है !  यह डॉ. भीमराव आंबेडकर के अध्यात्मवादी दर्शन एवमं उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र की सीमाओं की परिणति के अलावा कुछ भी नहीं है। उनकी इन्हीं सीमाओं के चलते स्वयं उनको भी यहाँ के शाषक वर्ग ने कोऑप्ट कर लिया था ! जीवन भर डॉ. भीमराव कांग्रेस को सवर्णों की पार्टी बताते रहे और महात्मा गाँधी जी की भी उनको जाति प्रथा का रक्षक कहकर उनकी आलोचना करते रहे, आखिर में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के पहले सदस्य बने, फिर अध्यक्ष। उसके बाद, उन्हीं की सरकार के क़ानून मन्त्री ! हम ऊपर कह चुके हैं कि डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जाति प्रथा के खिलाफ जंग में, ब्राह्मणवाद को कमजोर करने व दलितों की चेतना को आगे ले जाने में काफी बड़ा योगदान  रहा है, किन्तु उनका समग्र दर्शन जाति के खात्मे के लिये अक्षम ही साबित हुआ, उन्होंने स्वयं धर्मान्तरण कर जाति के खिलाफ संघर्ष से ही पलायन का संदेश दिया ! डॉ. भीम राव आम्बेडकर अपने इसी आलेख में साम्यवाद और समाजवाद के बीच के बुनियादी अन्तर को भी स्पष्ट नहीं कर पाते हैं तथा साम्यवाद को सूअर दर्शन की संज्ञा भी दे डालते हैं। क्या साम्यवाद वास्तव में सूअर दर्शन है ? इसका निर्णय पाठकों पर ही छोड़ देते हैं !
(समाप्त)
बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –