डॉ. भीमराव आंबेडकर सम्पूर्ण वाड्मय खण्ड- 7 में अपनी रचना " बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स" में लिखते है :_……
राज्य की शिथिलता या समाप्ति
साम्यवादी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक स्थाई तानाशाही के रूप में राज्य का उनका सिद्धान्त उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है ! वे इस तर्क का आश्रय लेते हैं कि राज्य अन्तत: समाप्त हो जायेगा ! दो ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना है- 1 राज्य समाप्त कब होगा ? जब वह समाप्त हो जायेगा, तो उसके स्थान पर कौन आयेगा ? प्रथम प्रश्न के उत्तर में कोई निश्चित समय नहीं बता सकते ! लोकतन्त्र को सुरक्षित रखने के लिये भी तानाशाही अल्पावधि के लिये अच्छी हो सकती है, और उसका स्वागत किया जा सकता है लेकिन तानाशाही अपना काम पूरा दकर चुकने के बा लोकतन्त्र के मार्ग में आने वाली सब बाधाओं तथा शिलाओं को हटाने के बाद तो स्वयं समाप्त क्यों नहीं हो जाती ? क्या अशोक ने इसका उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया था? उसने कलिंग के विरुद्ध हिंसा को अपनाया ! परन्तु उसके बाद उसने हिंसा का पूर्णतया परित्याग कर दिया ! यदि आज हमारे विजेता केवल अपने विजितों को ही नहीं, बल्कि स्वयं को भी शस्त्र-विहीन कर लें ,! तो समस्त संसार में शांति हो जायेगी !
साम्यवादियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया है ! जब राज्य समाप्त हो जायेगा तो उसके स्थान पर क्या आयेगा, इस प्रश्न का किसी भी प्रकार कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया, यद्दपि यह प्रश्न कि राज्य कब समाप्त होगा, की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है ! क्या इसके बाद अराजकता आयेगी ? यदि ऐसा होगा तो साम्यवादी राज्य का निर्माण एक निरर्थक प्रयास है ! यदि इसे बल- प्रयोग के अलावा बनाये नहीं रखा जा सकता, और जब उसे एक साथ बनाये रखने के लिये बल – प्रयोग नहीं किया जाता और यदि इसका परिणाम अराजकता है, तो फिर साम्यवादी राज्य से क्या लाभ है !
बल प्रयोग को हटाने के बाद जो चीज इसे कायम रख सकती है , वह केवल धर्म ही है ! परन्तु साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म अभिशाप है ! ।।।।।।।।।।।।।।।।।
।।।।।।।।।।।।।।। आगे लिखते है :_
विचारक अपने साम्यवाद पर गर्व करते हैं, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि बुद्ध ने जहाँ तक संघ का सम्बन्ध है, उसमें तानाशाही –विहीन साम्यवाद की स्थापना की थी ! यह हो सकता है कि वह साम्यवाद बहुत छोटे पैमाने पर था, परन्तु वह तानाशाही विहीन साम्यवाद था, वह एक चमत्कार था, जिसे करने में लेनिन असफल रहा !
बुद्ध का तरीका अलग था ! उनका तरीका मनुष्य के मन को परिवर्तित करना, उसकी प्रवृत्ति व स्वभाव को परिवर्तित करना था, ताकि मनुष्य जो भी करे, वह उसे स्वेच्छा से बल- प्रयोग या बाध्यता के बिना करे ! मनुष्य की चित्वृति व स्वभाव को परिवर्तित करने का उनका मुख्य साधन उनका धम्म (धर्म ) था तथा धम्म के विषय में उनके सतत उपदेश थे ! बुद्ध का तरीका लोगों को उस कार्य को करने के लिये वे जिसे पसन्द नहीं करते थे, बाध्य करना नहीं था, चाहे वह उनके लिये अच्छा ही हो। उनकी पद्धति मनुष्यों की चित्वृत्ति व स्वभाव को बदलने की थी, ताकि वे उस कार्य को स्वेच्छा से करें, जिसको वे अन्यथा न करते।
यह दावा किया गया कि रूस में साम्यवादी तानाशाही के कारण आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हुयी हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ! इसी कारण मैं यह कहता हूँ कि रूसी तानाशाही सभी पिछड़े देशों के लिये अच्छी व हितकर होगी ! परन्तु स्थाई तानाशाही के लिये यह कोई तर्क नहीं है ! मानवता के लिये केवल आर्थिक मूल्यों की ही आवश्यकता नहीं होती, उसके लिये आध्यात्मिक मूल्यों को बनाये रखने की आवश्यकता भी होती है! स्थाई तानाशाही ने आध्यात्मिक मूल्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वह उनकी और ध्यान देने की इच्छुक भी नहीं है ! कार्लाइल ने राजनीतिक अर्थशास्त्र को "सूअर दर्शन " की संज्ञा दी है। कार्लाइल का कहना वास्तव में गलत है, क्योंकि मनुष्य की भौतिक सुखों के लिये तो इच्छा होती ही है ! परन्तु साम्यवादी दर्शन समान रूप से गलत प्रतीत होता है क्योंकि उनके दर्शन का उद्देश्य सूअरों को मोटा बनाना प्रतीत होता है, मानो मनुष्य सूअरों जैसे है ! मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ – साथ अध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिये ! समाज का लक्ष्य एक नवीन नींव डालने का रहा है, जिसे फ़्रांसीसी क्रान्ति द्वारा संक्षेप में तीन शब्दों में –भ्रातृत्व, स्वतन्त्रता तथा समानता – कहा गया है ! इस नारे के कारण ही फ्रांसीसी क्रान्ति का स्वागत किया गया था ! वह समानता उत्त्पन्न करने में असफल रही ! हम रूसी क्रान्ति का स्वागत करते हैं, क्योंकि इसका लक्ष्य समानता उत्त्पन्न करना है, परन्तु इस बात पर अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि समानता लेने के लिये समाज में भ्रातृत्व या स्वतन्त्रता का बलिदान किया जा सकता। भ्रातृत्व या स्वतन्त्रता के बिना समानता का कोई मूल्य या महत्व नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों तभी विद्दमान रह सकती हैं, जब व्यक्ति बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करे ! साम्यवादी एक ही चीज दे सकते हैं, सब नहीं !
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र और रामास्वामी पेरियार का सत्ता मे भागीदारी के सवाल पर हम यहाँ अपनी राय प्रस्तुत करना चाहेंगे :_-
सन् 1950 के बाद से आज तक यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि सत्ता में भागीदारी के बाद वर्तमान पूँजीवादी शोषणकारी सत्ता व शासक वर्ग दलितों के प्रतिनिधियों को कोऑप्ट कर ले रहे हैं। वह कमजोर जातियों के लिये सुधार के काम भी नहीं कर सकते हैं। वर्तमान दलित आन्दोलन व नेता पूँजीवादी राजसत्ताओं की नीतियों के पूर्ण रूप से समर्थक हैं। चाहे वह भूमण्डलीकरण, निजीकरण की नीतियाँ हों या अन्य, या फिर स्वयं रुपया पैसा और संपत्ति बनाने में लगे रहते हैं। इसलिये सत्ता में भागीदारी का रास्ता जाति उन्मूलन की ओर जाता ही नहीं है। आरक्षण व सत्ता से लाभान्वित हिस्सा सिर्फ दलित विरोधी वर्तमान व्यवस्था के पक्ष में जाकर खड़े हो जा रहा है। वे जाति उन्मूलन की चर्चा तक नहीं करते हैं। दलित समुदाय के बहुसंख्यक हिस्से की माली हालत में आज तक कोई सुधार नहीं हुआ है। ज्यादातर आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं। भारत में संगठित-असंगठित मजदूरों का काफी बड़ा हिस्सा दलित समुदाय से ही आता है।
वर्तमान राजसत्ता में भागीदारी व सरकारी नौकरियों में आरक्षण से छह दशकों में दलित समुदाय का चन्द फीसद हिस्सा ही लाभान्वित हुआ है। इससे एक नया वर्ग पैदा हुआ है जिसको बाकी के दलित समुदाय से कोई सरोकार नहीं है।
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जाति प्रथा की जड़ वेद-शास्त्रों में तलाश रहे थे। उनका कहना था वेद-शास्त्रों का निषेध हो जाने से जाति प्रथा को खत्म किया जा सकता है। वेद-शास्त्र ब्राह्मणों की साजिश की देन हैं। यह नजरिया समस्या को उथले रूप में देखना है, जबकिभारत में जमीन और संसाधनों का बँटवारा जाति के आधार पर हुआ और वर्तमान में भी जाति प्रथा का आधार जमीन का जाति के आधार पर वितरण ही है, जो स्थिति सदियों से निरन्तर चली आ रही है। जब तक इसके भौतिक आधार को समाप्त नहीं किया जायेगा, तब तक जाति प्रथा का उन्मूलन सम्भव नहीं है।
दलित आन्दोलन ने एक लम्बी लड़ाई से जो कुछ भी हासिल किया है, हम उसका पुरजोर शब्दों में समर्थन करते हैं। लेकिन सत्ता में भागीदारी, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की राजनीति इस गम्भीर समस्या का पर्याप्त समाधान नहीं दे पायी हैं। सवाल यह है कि भारत से जाति प्रथा का खात्मा कैसे होगा ? वह न तो सत्ता में भागीदारी से होगा और न ही आरक्षण से होगा। पहचान की राजनीति तो एकदम बकवास बात है। यह रुझान उन लोगों ने पैदा किया है, जो दलित समुदाय का ही या तो बुद्धिजीवी तबका है या राजनीतिज्ञ, क्योंकि उनको अब जाति प्रथा को खत्म करने की जरूरत नहीं है।इसी जाति प्रथा की वजह से इस विशेष तबके को इतने लाभ मिले हैं कि यह तबका शासक वर्ग का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में जाति प्रथा को खत्म करने से इसका नुकसान भी हो सकता है।
दूसरी बात यह कि जाति प्रथा जैसे कि डॉक्टर भीवराव आंबेडकर का मानना था कि भारतीय संविधान में कानून बना देने से समाप्त की जा सकती है और इसी वर्तमान व्यवस्था में। हमारा मानना है कि यह कतई सम्भव नहीं है। यदि हम वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज बनाना चाहते हैं तो, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करना होगा। उत्पादन संबन्धों को बदलना होगा। यह एक लम्बी लड़ाई है। जाति प्रथा के खात्मे का प्रश्न वर्तमान व्यवस्था के विरोध में खड़ा होता है। यह राजसत्ता से जुड़ा प्रश्न है। जातिवादी आन्दोलन भी इसका समाधान नहीं है, क्योंकि यह जातिवादी दलित आन्दोलन की लड़ाई पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर की लड़ाई है। यह दलित पार्टियाँ और संगठन सिस्टम की पक्षधर पार्टियाँ और संगठन हैं। ये इसी में सुधार की माँग करते रहते हैं। सिस्टम को बदलना इनका लक्ष्य नहीं है। इसलिये वर्तमान व्यवस्था में पैदा हुआ दलित समुदाय का बुद्धिजीवी व राजनीतिज्ञ बुनियादी परिवर्तन के विरोध में जाकर खड़ा होगा, क्योंकि बुनियादी परिवर्तन से उसको आर्थिक हानि उठानी पड़ेगी। इसलिये पहचान की राजनीति सत्ता में भागीदारी और आरक्षण के ईर्द-गिर्द ही वह वर्तमान व्यवस्था को कायम रखते हुये उसकी पक्षधरता करते हुये ही वर्तमान व्यवस्था को बनाये रखने की ही बात करता रहेगा।
वर्तमान व्यवस्था में जाति उन्मूलन जमीन और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से भी नहीं होगा। पहली बात भारतीय शासक वर्ग डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के इस प्रस्ताव को पहले ही ठुकरा चुका है, क्योंकि वर्तमान सत्ता के गठन, 1947 के बाद से ही कांग्रेस में भारतीय पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों के साथ पुराने सामन्त भी बैठे थे फिर कांग्रेस जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कैसे कर सकती थी। बिड़ला और अन्य पूँजीपतियों की नुमाइंदगी गांधी के अलावा पूरी कांग्रेस करती थी और आज भी कर रही है। इसलिये यह लागू होना सम्भव नहीं है। यदि लागू हो भी जाये तो वह समाजवाद नहीं, राजकीय पूँजीवाद ही बनेगा, जो जाति प्रथा को कमजोर तो करेगा, खत्म नहीं कर पायेगा।
जाति प्रथा के उन्मूलन का एक ही रास्ता है कि व्यापक पैमाने पर जाति विरोधी आन्दोलनों के जरिए जाति प्रथा की संरक्षक वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था के विरोध में एक जाति विरोधी आन्दोलन का निर्माण करना होगा, जो बाकी वर्गों के चल रहे आन्दोलनों से तालमेल बनाये। बुनियादी व्यवस्था परिवर्तन के बाद समस्त कृषि भूमि और उद्योग, मजदूरों, किसानों व आम अवाम की सरकार अपने हाथ में ले ले। जो भूमि हस्तगत न हो पाये, उस पर सहकारी खेती करवाई जाये और निजी सम्पत्ति के खात्मे की ओर ले जाये। वास्तव में इसी क्रम में जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना सम्भव है।
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साम्यवादियों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है, बल्कि यही राजनीतिक दर्शन का मजबूत आधार है, अभी तक के मुख्यत: रूस और चीन के दो बड़े मॉडल बने हैं, जिनका आधार सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ही था। मार्क्स और लेनिन की समझ के आधार पर सर्वहारा की तानाशाही के बिना किसी भी मुल्क में न तो समाजवाद को टिकाया जा सकता है और न ही समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है। वर्ग विभाजित समाज में एक वर्ग की दूसरे वर्ग पर तानाशाही ही होती है। पूँजीवाद- समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारे का नारा देता है जिसको पूँजीवादी जनतन्त्र कहा गया है। पूँजीवादी जनतान्त्रिक अधिकारों को पूँजीपति जब चाहे, छीन सकता है। अपनी अन्तर्वस्तु में पूँजीवादी जनवाद, बहुसंख्यक हिस्से पर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही ही होती है ! वैज्ञानिक समाजवाद में पूँजीपति वर्ग पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही होती है ! सर्वहारा वर्ग की मुक्ति एवं समाज से सभी वर्गों के विलोपिकर्ण के साथ ही सर्वहारा वर्ग की तानाशाही भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि समाज में वर्गों की उत्पत्ति के साथ ही राज्यसत्ता की भी उत्पत्ति होती है, यह शाषक वर्ग के लिये बाकी सभी वर्गों को दबाने उनका शोषण – उत्पीड़न करने का अस्त्र – शस्त्र है। जैसे ही समाज से वर्गों का विलोपीकरण होगा, वैसे ही राज्य का भी विलोपीकरण हो जायेगा क्योंकि अब राज्य की कोई भी भूमिका है ही नहीं ! इसलिये इसकी जगह किसी भी धर्म को लेने की भी आवश्यकता नहीं है जैसा कि डॉ. आंबेडकर सुझाते हैं ! डॉ. भीमराव आंबेडकर को हिन्दू धर्म से बेहतर धर्म की तलाश थी !
डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह मानना कि व्यक्ति के स्वभाव व मन को बदल दिया जाये तो साम्यवाद की स्थापना सम्भव है, सवाल यह है कि व्यक्ति के मन में विचार कहाँ से आते हैं और स्वभाव कैसे बनता है ? क्या वे स्वयं अपने जीवन काल में यह कार्य कर पाये। जमींदारों व पूँजीपतियों के मन व स्वभाव को बदल पाये ! डॉ. भीम राव के राजनीतिक दर्शन की यही कमजोरी है ! इसी नजरिये से वे इतिहास को भी देखते हैं, महज ब्राह्मणों की साजिश का नतीजा जाति प्रथा की उत्पत्ति को मानते हैं ! या आर्यों व अनार्यों की लड़ाई में आर्यों ने जिनको जीतकर अपना गुलाम बना लिया वही शूद्रों की श्रेणी में आ गये। डॉ भीमराव आंबेडकर चेतना को प्रधान मानते हैं। भौतिक परिस्थितियों को नहीं। उनका दर्शनशास्त्र उनको अध्यात्मवाद की श्रेणी में खड़ा कर देता है ! उनकी इन्ही सीमाओं के चलते वे भारत की जाति- प्रथा के उन्मूलन का सही रास्ता तलाशने में अक्षम रहे ! इसीलिये वर्तमान दलित आन्दोलन डॉ. भीमराव के नाम पर अँधेरी गलियों में भटक रहा है और जाति उन्मूलन की बजाये, जाति की पहचान को ही पक्का करने तक पहुँच गया है, यानी वर्तमान दलित विरोधी पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था एवमं शाषक वर्ग की ही भाषा बोल रहा है ! और इसी व्यवस्था के मजे भी चख रहा है, यही हिस्सा जाति उन्मूलन के विरोध में व वर्ग विहीन जाति विहीन समाज की स्थापना के विरोध में और वर्तमान शाषक वर्ग के पक्ष में जाकर ही खड़ा हो रहा है ! यह डॉ. भीमराव आंबेडकर के अध्यात्मवादी दर्शन एवमं उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र की सीमाओं की परिणति के अलावा कुछ भी नहीं है। उनकी इन्हीं सीमाओं के चलते स्वयं उनको भी यहाँ के शाषक वर्ग ने कोऑप्ट कर लिया था ! जीवन भर डॉ. भीमराव कांग्रेस को सवर्णों की पार्टी बताते रहे और महात्मा गाँधी जी की भी उनको जाति प्रथा का रक्षक कहकर उनकी आलोचना करते रहे, आखिर में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के पहले सदस्य बने, फिर अध्यक्ष। उसके बाद, उन्हीं की सरकार के क़ानून मन्त्री ! हम ऊपर कह चुके हैं कि डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जाति प्रथा के खिलाफ जंग में, ब्राह्मणवाद को कमजोर करने व दलितों की चेतना को आगे ले जाने में काफी बड़ा योगदान रहा है, किन्तु उनका समग्र दर्शन जाति के खात्मे के लिये अक्षम ही साबित हुआ, उन्होंने स्वयं धर्मान्तरण कर जाति के खिलाफ संघर्ष से ही पलायन का संदेश दिया ! डॉ. भीम राव आम्बेडकर अपने इसी आलेख में साम्यवाद और समाजवाद के बीच के बुनियादी अन्तर को भी स्पष्ट नहीं कर पाते हैं तथा साम्यवाद को सूअर दर्शन की संज्ञा भी दे डालते हैं। क्या साम्यवाद वास्तव में सूअर दर्शन है ? इसका निर्णय पाठकों पर ही छोड़ देते हैं !
(समाप्त)
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
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