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Wednesday, 10 April 2013

ये जली हुयीं लाशें उसे नजर नहीं आतीं !!!




ये जली हुयीं लाशें उसे नजर नहीं आतीं !!!

वसीम अकरम त्यागी
6 दिसंबर 1992 भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास का काला अध्याय है जिसे धोने के लिये वहाँ पर फिर से बाबरी मस्जिद का निर्माण करना होगा मगर धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते ऐसा करना असम्भव सा है। ( सर मार्क ट्ली 7 दिसंबर 1992 के दिन बीबीसी संवाददाता की रपट से )।
जलते हुये रोजमर्रा के साधन, लाशों पर राम मन्दिर बनाने का सपना बुनते विहिप, आरएसएस, बजरंग दल शिवसेना, के नेता। स्कूल कॉलेज बन्द। लोगों के चेहरों पर कभी न मिटने वाला खौफ। आसमाँ में उठते धुएँ के बादल। गिरती हुयी सद्भवाना और कौमी यकजहती की दीवारें। हिन्दू मुस्लिम के बीच चौड़ी होती खाई। राजघाट से चीखती शांति के पुजारी की कब्र। देश में चारों और से गूँजते रामलला हम आयेंगे, मन्दिर वहीं बनायेंगे के नारे। देश में आपातकाल की सी स्थिति। दो वक्त की रोजी रोटी कमाने वालों को रोटी के लाले। मुम्बई समेत देश में विभिन्न स्थानों पर होते साम्प्रदायिक दंगे। बिखरी हुयी इंसानों की लाशें। गली- गली हर कूचे में मृत और अधजले पड़े इंसान। टूटे हुये धार्मिक स्थल, कई बच्चे एसे भी जिनके माता पिता की ज़िन्दगी को दंगाईयों ने लील लिया। आखिर किसलिये ? सिर्फ और सिर्फ राम के नाम पर। उस राम के नाम जो कण – कण में मौजूद है। उस राम के मन्दिर के नाम जो मर्यादा पुरोषत्तम राम है। उस राम के नाम पर जिसे शायर –ए- मशरिक अल्लामा इकबाल ने कहा था कि …है राम के वजूद पर हिन्दोस्ताँ को नाज़/ एहले नज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द।
उसी के बरअक्स खुद जनसंघ के लीडर जैसे रामजेठमलनी वगैरा राम के किरदार पर छींटाकशी करते रहे हैं मगर किसी मुसलमान ने राम के किरदार पर अशोभनीय टिप्पणी नहीं की फिर राम के नाम पर उनका कत्ल क्यों किया गया ? और जो इन सबके लिये जिम्मेदार थे जो देश में दंगा कराने के लिये जिम्मेदार थे। मिस्टर लालकृष्ण आडवाणी वे इस वहशीयाना कदम पर बड़े जोश के साथ कह रहे हैं कि उन्हें गर्व है। उन्हें गर्व लाखों लोगों के बेघर करने पर उन्हें गर्व है मासूमों के कत्ल पर। उन्हें गर्व है हैवानियत के नंगे नाच पर… कितने शर्म की बात है कि बुढ़ापे में इंसान अपने पापों का प्रायश्चित करता है मोक्ष की प्राप्ति के लिये तीर्थ यात्रा पर जाता है।
वसीम अकरम त्यागी, लेखक युवा पत्रकार हैं।
मगर अपने राजनीतिक लाभ के लिये उस पर ढिठाई से गर्व किया जाता है। अब कहाँ है न्यायपालिका ? क्यों खुले घूम रहे हैं लाखों लोगों को बेघर और हजारों को मौत की घाट उतारने वाले आज 25 साल बाद भी उस पर गर्व जाहिर कर रहे हैं। जिन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिये था वे खुले घूम रहे हैं। उन्हें देश का गृहमन्त्री तक बनाया जाता है। जबकि एक स्टेशन मास्टर अगर लापरवाही करता है जिसकी वजह से सैकड़ों लोगों की जानें चली जाती हैं दो ट्रेन आपस में भिड़ जाती हैं उसे तुरन्त निलम्बित कर दिया जाता है उसकी नौकरी छीन ली जाती है। उसके खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमा दायर करके कार्रवाई की जाती है। तो करोड़ो लोगों की भावनाओं से खेलने वाले उमा भारती, प्रवीण तोगड़िया, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, और इन सबके आका एलके आडवाणी जेल में क्यों नहीं गये। उल्टे वो न्यायपालिका का मजाक उड़ाते हैं और कहते हैं कि उन्हें अयोध्या कराने पर गर्व है मगर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। क्या ये देश की अस्मिता का अपमान नहीं है? क्या ये लोकतन्त्र का अपमान नहीं है ? ये तो किसी राष्ट्रवाद की परिभाषा नहीं है। जिसकी दुहाई देते-देते इन इस देश के मुसलमानों को गद्दार कहना शुरु कर दिया है। लोकतन्त्र में लाशों की सौदागिरी से कोई प्रधानमन्त्री नहीं बनता तो फिर लाशों की सौदागिरी करने वाले ये दो नाम ही क्यों प्रधानमन्त्री पद की दावेदारी के लिये पेश किये जा रहे हैं ? जिसकी वजह सिर्फ यह है कि मोदी ने गुजरात में नरसंहार किया इसलिये वे देश कट्टरपंथियों ( हिन्दुत्ववादियों ) के हीरो हो गये। ऐसे में आडवाणी को लगा वे भी तो इससे पहले इस कार्य को अंजाम दे चुके हैं उन्हें नजरअंदाज क्यों किया जा रहा है जबकि वे तो इस तरह की अमानवीय घटनाओं के संस्थापक रहे हैं। इसलिये उन्हें यह कहना पड़ा कि अयोध्या की घटना के लिये उन्हें कोई पछतावा नहीं है बल्कि उनके लिये ये गर्व की बात है कि इससे हिन्दू समाज में नई जाग्रति आयी। इन्हें जलती हुयी लाशों से मतलब नहीं है। न्यायपालिका, डेमोक्रेसी की आये दिन बखिया उधेड़ते रहते हैं। इन्हें इसमें गद्दारी नजर नहीं आती। इनकी इस बेशर्मा को देखकर एक बहुत पुराना और कई सौ बार सुना हुआ डायलॉग याद आता है ,,,,,,,,, कि शर्म है …मगर इनको आती नहीं ….


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