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Saturday 4 April 2015

Do we opt to become another Pakistan,Bangladesh or Sri Lanka

Do we opt to become another Pakistan 

or Bangladesh or Srilanka?

No end of bloodshed in Bangladesh.The face or religious nationalism on the other side of the border
Palash Biswas

Police in Bangladesh have charged four men with the murder of a blogger accused of mocking Islam, the second such attack in recent weeks. Washiqur Rahman was hacked to death near his home in Dhaka on Monday, less than two months after Abhijit Roy had been killed.
In India ,we may not understand or we don`t want to understand what should be the resultant disaster as we either promote or chose to become quite detached with the agenda of fascist agenda of making India free of Islam and Christianity.
It is better to look beyond the political border.Arab Nations have launched an army to wipe out Shia Muslims in Middle East with the support of America and Israel.In India ,the fascist corporate Kesaria fascist regime is backed by America and Israel.
Are we going to opt for Arabian Spring in Indian fascist color as Kamala Harris is going to become the Democratic Face in America after Bobby Jindal being the Republican Icon.Global Hinduta is the face of Prabeen Togaria and Mohan Bhagwat and the Bajrangi Brigade in India as a whole,not Narendra Bhai Modi,mind you.Modi is being used to hinduise the majority Bahujan samaj and specifically the halfof Indian population,OBC.He is all about the Complete Privatization agenda of Foreign capital.He has to endorse the ethnic cleansing of his own kith and kin.He has already swam across the rivers of blood and has got the clean chit.
Do we opt to become yet another Pakistan or Bangladesh or Srilanka?
To get the answer we have to take seriously the development going in Bangladesh where relgious Nationalism kills the Bangla Nationalism.
It is not all about killing of one or two or more bloggers only neither it is only an attempt of coup.
The whole lot of Democratic and Secular forces havebeen listed on the killing list to make Bangladesh Islamic.
Pl try to understand the Indian reference while we have virtually no resistance against Hindu Imperialism which wants a cent percent Hindu Rashtra while we have the third largest population of Muslims.
Just understand hat amount of blood to be shed until RSS deadline of making Indian free of Islam and Christianity within 2021.

I ma hereby posting the details published by a mainstream Bangaldeshi Daily Newspaper.

জঙ্গি আনসারুল্লাহ’র কিলিং টার্গেটে শতাধিক ব্যক্তি
যে ক’জন খুন হয়েছেন ওই তালিকা থেকেই
আবুল খায়ের ও সমীর কুমার দে০২ এপ্রিল, ২০১৫ ইং ০০:৪৯ মিঃ

ফাইল ছবি
ব্লগার ওয়াশিকুর রহমান বাবুকে হত্যা করেছে উগ্র জঙ্গি সংগঠন আনসারুল্লাহ বাংলা টিম। ১৫ দিনের পরিকল্পনার অংশ হিসেবে একটি স্লিপার সেল দিয়ে এই হত্যাকাণ্ড ঘটায় সংগঠনটি। এর আগে স্লিপার সেলের সদস্যদের বিশেষভাবে প্রশিক্ষণ দেয়া হয়। রাজধানীর যাত্রাবাড়ীর একটি এলাকায় তারা প্রশিক্ষণ নেয়। ওয়াশিকুর রহমান বাবুর মতো আনসারুল্লাহ বাংলা টিম শতাধিক প্রগতিশীল মানুষকে হত্যার টার্গেট করেছে। এ পর্যন্ত যে কজন খুন হয়েছেন তারা ওই তালিকায় ছিলেন। শুধু ব্লগার নয়, ধর্মীয় মতাদর্শগত বিরোধের কারণেও খুন করে ওরা। আনসারুল্লাহর স্লিপার সেল সক্রিয় থাকায় কাউকে টার্গেট করলে দ্রুতই সিদ্ধান্ত বাস্তবায়ন করতে পারে তারা। গোয়েন্দাদের জিজ্ঞাসাবাদে এসব তথ্য জানিয়েছে ব্লগার বাবু হত্যাকাণ্ডে গ্রেফতার জিকরুল্লাহ ও আরিফুল। তারা দুই জনই চট্টগ্রামের হাটহাজারী মাদ্রাসার ছাত্র।
একজন গোয়েন্দা কর্মকর্তা ইত্তেফাককে জানান, আনসারুল্লাহর তালিকায় শুধু ব্লগার নয়, প্রগতিশীল রাজনীতিবিদ, নামকরা লেখক, ঘাতক দালাল নির্মূল কমিটির নেতা, জঙ্গিবাদের বিরুদ্ধে সোচ্চার বামপন্থি নেতারাও আছেন। এদের একটি তালিকা গোয়েন্দাদের হাতে এসেছে। ইতিমধ্যে তালিকায় থাকা রাজনীতিবিদ, লেখকসহ সংশ্লিষ্টদের নিরাপত্তা বাড়ানো হয়েছে। পাশাপাশি আনসারুল্লাহর সদস্যদের গ্রেফতারের তত্পরতা চলছে।
 
জিকরুল্লাহ ও আরিফুলকে জিজ্ঞাসাবাদকারী ঢাকা মহানগর গোয়েন্দা পুলিশের একজন ঊর্ধ্বতন কর্মকর্তা ইত্তেফাককে বলেন, এই সংগঠনটির স্লিপার সেল কাজ করায় খুনিদের দুই জন ধরা পড়লেও অন্যদের সম্পর্কে তেমন কোন তথ্য দিতে পারে না। বা তাদের কার্যক্রমও বন্ধ থাকে না। এই সংগঠনের প্রধান মুফতি জসিম উদ্দিন রাহমানী গ্রেফতার হওয়ার পর বর্তমানে নেতৃত্বে আছেন তামিম আল আদনানী। তাকেও গোয়েন্দারা খুঁজছেন। বাংলাদেশে বিভিন্ন জঙ্গি সংগঠন থাকলেও এরাই একমাত্র আল কায়েদার আদলে কাজ করে। গোয়েন্দারা অন্যদের দিকে বেশি নজর দেয়ায় এরা দিন দিন নিজেদের সংগঠিত করেছে। ঢাকা ছাড়াও চট্টগ্রাম, সিলেট, রাজশাহী ও বরিশালে এদের শক্তিশালী নেটওয়ার্ক রয়েছে। দেশের অন্য জায়গায়ও নেটওয়ার্ক তৈরির কাজ চলছে। জিকরুল্লাহ ও আরিফুল গোয়েন্দাদের জানিয়েছে, ‘প্রশিক্ষণে তারা শিখেছে- মুরতাদ, নাস্তিক ও ইসলাম অবমাননাকারীদের হত্যা করতে হবে। গুলি করে হত্যা করলে সওয়াব কম। তাই তরবারি বা চাইনিজ কুড়াল দিয়েই কুপিয়ে হত্যা করতে হবে। সামনের চেয়ে পেছন দিক দিয়ে হত্যা করলে সওয়াব আরো বেশি। আর যদি এক কোপে ঘাড় থেকে মাথা আলাদা করা যায় তাহলে সওয়াব সবচেয়ে বেশি। তাই তারা ঘাড় টার্গেট করে সব সময় কোপ দেয়।’
 
এ পর্যন্ত প্রগতিশীল ১০/১২ জনকে হত্যা করেছে আনসারুল্লাহ। এর মধ্যে রাজশাহী বিশ্ববিদ্যালয়ের শিক্ষক আবু তাহের, ড. মোহাম্মদ ইউনুস ও ড. এ.কে.এম শফিউল ইসলাম লিলন রয়েছেন। সর্বশেষ ব্লগার ওয়াশিকুর রহমান বাবুকে হত্যা করে তারা। এর আগে ড. অভিজিত্, আহমেদ রাজীব হায়দার, শান্তা মারিয়া বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্র ব্লগার নেয়াজ মোর্শেদ বাবু ও ডেফোডিল বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্র আশরাফুল ইসলাম, বুয়েটের ছাত্র আরিফ রায়হান দ্বীপকে হত্যা করে তারা। এর বাইরে আসিফ মহিউদ্দিন ও রাকিবকে হত্যার চেষ্টা করে ব্যর্থ হয় তারা।
 
ধর্মীয় মতাদর্শগত বিরোধের কারণেও খুন করে ওরা। গোয়েন্দা কর্মকর্তারা জানান, ধর্মীয় বিষয়ে টিভি উপস্থাপক নূরুল ইসলাম ফারুকী এবং গোপীবাগে ইমাম মাহাদীর প্রধান সেনাপতি দাবিবার লুত্ফর রহমানসহ ৬ জনকে জবাই করে হত্যা করে তারা। ফারুকী ও লুত্ফরকে তারা ইসলাম বিরোধী বলে মনে করতো। ফলে তাদের এই আনসারুল্লাহরই একটি স্লিপার সেল হত্যা করে। এক একটি ঘটনায় নেতৃত্ব দেন একেক জন।
ঢাকা মেট্রোপলিটন পুলিশের যুগ্ম-কমিশনার মনিরুল ইসলাম বলেন, বাবু হত্যাকাণ্ডের মামলাটি তেজগাঁও শিল্পাঞ্চল থানা থেকে ডিবিতে স্থানান্তর করা হয়েছে। গ্রেফতারকৃত আরিফুল ইসলাম ও জিকরুল্লাহ বর্তমানে ৮ দিনের রিমান্ডে আছে। গতকাল ছিল রিমান্ডের প্রথম দিন। তিনি বলেন, গ্রেফতারকৃত আরিফুল নরসিংদী জেলার রায়পুরা উপজেলায় ২০১২ সালের সেপ্টেম্বরে জেএমবির ক্যাম্পে প্রশিক্ষণ নেয়ার সময় গ্রেফতার হন। ওই সময় তার সঙ্গে আরো ২৩ জন গ্রেফতার হন। ওই সময় সন্ত্রাসবিরোধী আইনে দায়ের করা মামলার তিনি চার্জশিটভুক্ত আসামি ছিলেন। তিনি আনসারুল্লাহ বাংলা টিমের প্রধান জসিম উদ্দীন রাহমানীর আদর্শে অনুপ্রাণিত ও তার অনুসারী হন।

Sunday 29 March 2015

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।

हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।

पलाश विश्वास

फोटोःइकोनामिक टाइम्स के सौजन्य से।

अब हम सूचनाओं पर फोकस कम कर रहे हैं क्योंकि सूचनाओं के जानकार होते हुए भी समझ के अभाव में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।इसलिए अबसे सांगठनिक और वैचारिक मुद्दों पर मेरा फोकस रहना है।सूचनाें हम अंग्रेजी में डालेंगे और बांग्ला में भी जरुरी मुद्दो पर ही फोकस करेंगे।

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

यह कटु सत्य बामसेफ के विवादित मसीहा वामन मेश्राम से बेहतर शायद कोई नहीं जानता।कमसकम दस सालों तक हमारी बहस उनसे यही होती रही कि बामसेफ को जनांदोलनों की अगुवाई करनी चाहिए और बामसेफ को आर्थिक मुद्दों पर जनजागरणचालाना चाहिए।

अपने खास अंदाज में हमारी दलीलों को खारिज करते हुए वामन मेश्राम हर बार कहते रहे हैं कि कर्मचारी आंदोलन करेंगे नहीं।कर ही नहीं सकते।

वे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन की बात बामसेफ के मंच से करते रहे और इस सिलसिले में हमारा भी इस्तेमाल करते रहे लेकिन वे जानते थे कि यह असंभव है।

वे जानते थे कि इस नवधनाढ्य तबके को किसी की फटी में टांग अड़ाने का जोखिम उठाना नहीं है लेकिन वह राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के लिए संसाधन झोंकने से पीछे हटेगा नहीं।

दुधारु कर्मचारियों से संसाधन जुटाने में वामन मेश्राम ने कोई गलती नहीं की।ट्रेड यूनियनें और पार्टियां भी विचारधारा के नाम पर वामन मेश्राम का फार्मूला काम में ला रहे हैं।

लाखों रुपये चंदे में बेहिचक देने वालों को हिसाब से लेना देेना नही हैं,यह नवधनाढ्य तबका  सभी देवताओं को इसी तरह खुश रखता है।

न जनांदोलनों से इस सातवें आयोग के वेतनमान का बेसब्री से इंतजार करने वाले,आरक्षण और अस्मिता को जीवन मरण का प्रश्न बनाये रखने वाले मलाईदार तबके को कोई मतलब है,और न बाबासाहेब के मिशन से और न उन ट्रेड यूनियनों की विचारधारा से ,जिनके वे सदस्य हैं।वे राष्ट्रव्यापी हड़ताल कर सकते हैं।सिर्फ और सिर्फ अपने लिए।आम जनता के लिए कतई नहीं।

वे सड़कों पर उतर भी सकते हैं।लाठी गोली खाने से भी वे परहेज नहीं करेंगे।लेकिन सिर्फ बेहतर वेतनमान के लिए,बेहतर भत्तों के लिए।विनिवेश और निजीकरण और संपूर्ण निजीकरण और अपने ही साथियों के वध से उन्हें खास ऐतराज नहीं है जबतक कि वे खुद सड़क पर उतर नहीं आते।

हमने हर सेक्टर के कर्मचारियों को अर्थव्यवस्था के फरेब समझाने की झूठी कवायद में पूरी दशक जाया कर दिया और दूसरे लोगों ने पूरी जिंदगी जाया कर दिया।

अगर कर्मचारी तनिक बाकी जनता और कमसकम अपने साथ के लोगों की परवाह कर रहे होते तो अपनी ताकत और अपने अकूत संसाधनों के हिसाब से वे बखूब इस मुक्तबाजारी तिलिस्म को तोड़ सकते थे।

ऐसा नहीं होना था।हमने इसे समझने में बहुत देर कर दी है और उनके भरोसे जनता के बीच हम अब तक अस्मिताओं के आर पार कोई पहल नहीं कर सके हैं। न आगे हम कुछ करने की हालत में हैं।

जैसे बामसेफ को लेकर बहुजनों को गौतम बुद्ध की क्रांति को दोहराने का दिवास्वप्न उन्हें विकलांग और नपुंसक बनाता रहा है,आप को लेकर आम जनता के एक हिस्से का मोह हूबहू वही सिलिसिला दोहरा रहा है और सबसे खराब बात है कि हमारे प्रबुद्ध जनपक्षधर लोग इसे झांसे से बचे नहीं है।

वे समझ रहे थे कि बिना जनांदोलन की कोई कवायद किये अरविंद केजरीवाल अपने निजी करिश्मे के साथ इस वक्त को बदल देंगे।वे लोकतंत्र बहाल कर देंगे,जिसके वे शुरु से खिलाफ रहे हैं।

दरअसल अरविंद भी हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे ईमानदार और सबसे कर्मठ सिपाहसालार है,हमारे सबसे समझदार लोगों ने इस सच को नजरअंदाज किया है और यह बहुत बड़ा अपराध है आम जनता के खिलाफ,इसका अहसास भी हमें नहीं है।

निजी करिश्मा से क्रांति हुई रहती तो कार्ल मार्क्स कर लेते और न माओ,न लेनिन,न स्टालिन और न फिदेल कास्त्रों की संगठनात्मक क्षमता की कोई जरुरत होती।

नेलसन मांडेला जल में रहकर ही रंगभेद मिटा देते और गांधी को कांग्रेस के मंच से देश जोड़ना न पड़ता।

विचार काफी होते तो गुरु गोलवलकर हिंदी राष्ट्र बना चुके थे,संघ परिवार जैसे किसी संस्थागत संगठन  की जरुरत हरगिज न होती।

संगठन जरुरी न होता तो बाबासाहेब अपना एजंडा पूरा किये बिना सिधार न गये होते।

जिस क्रांति का हवाला देकर हम गौतम बुद्ध को ईश्वर बना चुके हैं,उस क्रांति के पीछे कोई गौतम बुद्ध अकेले न थे,वे महज एक कार्यकर्ता थे,जिनने विचारधारा को एक संस्थागत संगठन के जरिए क्रांति के अंजाम तक पहुंचाया और वह संगठन टूट गया धर्मोन्माद में तो प्रतिक्रांति भी हो गयी।

जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।

अब सबसे पहले सबसे अच्छी खबर।सेहत मेरी जैसी भी रहे,मेरी सामाजिक लेखकीय सक्रियता पर अंकुश कोई लगने नहीं जा रहा है।

हमारे संपादक ओम थानवी का आभार कि उनने मुझे निजी संदेश देकर आश्वस्त कर दिया है कि हमारे मित्र शैलेंद्र की सेवा जारी है।उनने शैलेंद्र से मुझे जानकारी देने को कहा था,पर शैलेंद्र जी ने ऐसा नहीं किया।किया होता तो मैं कोहरे में भटक नहीं रहा होता।

मुझे बहुत खुशी है कि ओम थानवी ने हमारी भावनाओं को समझने की कोशिश की है।जो काम माननीय प्रभाष जोशी कर नहीं सकें,उसे पूरा करने की जिम्मेदारी ओम थानवी उठा नहीं सकते,यह मजबूरी समझने की जरुरत है।

ओम थानवी चाहकर भी कोलकाता में किसीकी पदोन्नति दे नहीं कर सकते।इसलिए उनने शैलेंद्र की सेवा जारी करके आखिरी वक्त हम लोगों को और बेइज्जत होने के खतरे से बचा लिया है और जिस किसी को हमारे मत्थे पर नहीं बैठायेंगे,यह भरोसा दिलाकर हमारी चिंताओं को दूर किया है,इसके लिए उनका आभार कि उनने हमारी और फजीहत होने से हमें बचा लिया। साल भर और अपने मित्र के मातहत काम करने में हममें से किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी।

दरअसल जनसत्ता बंद होने की खबरों से खुश होने या चिंतित होने वाले लोगों को पता ही नहीं है,उन लोगों को भी शायद पता नहीं है कि जनसत्ता की सेहत ने किस कदर आखिरी वक्त प्रभाष जोशी को तोड़ दिया था। हमने उस प्रभाष जोशी को देखा है जो हमारे लिए मसीहा न थे लेकिन हमारे सबकुछ थे और जिनकी पुकार पर हम देश भर से आगा पीछा छोड़कर चले आये थे और अपना भूत भविष्यवर्तमान उनके हवाले कर चुके थे।उन प्रभाष जोशी को हमने घुट घुटकर मरते जीते देखा है।

सबसे बड़े अफसोस की बात है कि प्रभाष जोशी का महिमामंडन और कीर्तन करने वाले संप्रदाय को उस जनसत्ता के बारे में तनिक परवाह नहीं है,जिसके लिए प्रभाष जोशी जिये और मरे।
वे क्रिकेट की उत्तेजना को सह नहीं पाये और उनने दम तोड़ा ,सचिन तेंदुलकर ने अपनी सेंचुरी उनके नाम करके यह मिथ मजबूत बनाया है।जबकि सच यह है कि निरंतर दबाव में टूटते हुए जनसत्ता का बोझ वे उठा नहीं पा रहे थे,जिसे उनने पैदा किया और जिसके लिए वे मरे और जिये।

दस साल पहले उनके जीवनकाल में मैं उनके सारस्वत ब्राह्मणवाद का मुखर आलोचक रहा हूं लेकिन जब मैं नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटेर में हिंदी वालों से गुहार लगायी कि जनसत्ता की हत्या हो रही है तो दरअसल वह बयान मेरा प्रभाष जोशी के साथ हिंदीसमाज को खड़ा करने के मकसद से था।वह मेरे औकात से बड़ी कोशिश थी।

आज जो मैं बार बार बार ओम थानवी को प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक कह रहा हूं तो संकट की घड़ी में यह मेरा बयान ओम थानवी का हाथ मजबूत करने के मकसद से ही है।

हमें अगर जनसत्ता की फिक्र करनी है तो जो हम चूक गये प्रभाष जोशी के समय से,वह काम हमें करना चाहिए कि हिंदी समाज की इस विरासत को बचाने के लिए उसके संपादक के साथ मजबूती से खड़ा होना चाहिए।

हम सबने प्रभाष जी का वह असहाय चेहरा देखा है जब वे जनसत्ता को रिलांच करना चाहते थे।चंडीगढ़ को माडल सेंटर बनाने के लिए वहां इतवारी से उठाकर ओम थानवी को लाये थे और कोलकाता के जरिये समूचे पूरब और पूर्वोत्तर में नया हिंदी आंदोलन जनसत्ता के मार्फत गढ़ना चाहते थे।

हुआ इसके उलट,सीईओ शेखर गुप्ता तुले हुए थे कि ऐनतेन प्रकारेण जनसत्ता को बंद कर दिया जाये और उनकी योजना मुताबिक यकबयक जनसत्ता चंडीगढ़ और जसत्ता मुंबई के अच्छे खासे एडीशन बंद कर दिये गये।
सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिये पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी और हिंदीसमाज इसका मजा लेता रहा और महिमामंडन संप्रदाय को कभी खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं हुई।

अनन्या गोयनका नहीं चाहती थीं कि उनके मायके से कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाये तो जोशी जी कोलकाता को बचा सके लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लाये थे,एक के बाद एक को वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ता कोलकाता की साथियों की हैसियत वे बदल सकें।खून के आंसू रो रहे थे जोशी और हम देखते रहे।

आखिरी दिनों में जोशी जी कोलकाता आये तो जनसत्ता नहीं आये,ऐसा होता रहा है और यह हमें लहूलुहान करता रहा।

उसीतरह जैसे ओम थानवी जानबूझकर हमारी कोई मदद नहीं कर सकते,यह बेरहम सच,जिससे न ओम थानवी बच सकते हैं और न हम।

समझ बूझ लें कि यह कोई ओम थानवी का निजी संकट नहीं है और न मेरा और मेरे साथियों का यह कोई निजी संकट है।

मैनेजमेंट इस बहस को किस तरह लेगा,इसकी परवाह किये बिना बतौर केसस्टडी हम इसे साझा कर रहे हैं और बता रहे हैं कि हिंदी समाज के तमाम संस्थान किस तरह से मुक्त बाजार के शिकंजे में हैं और हमारे लोग कितने बेपरवाह हैं,कितने गैर जिम्मेदार हैं।

इस पोस्ट से ओम थानवी का कितना नुकसान होगा और मेरा कितना नुकसान,इस पर हमने सोचा नहीं है।न यह सोचा कि इसे पढ़कर थानवी कितने खुश या नाराज होंगे।

प्रधान संपादक से सलाहकार संपादक बना दिये जाने के बाद तो जोशी जी कोलकाता विभिन्न आयोजनों में आते रहे लेकिन वे अपने ही नियुक्त किये साथियों से मुंह चुराते रहे क्योंकि वे उनके लिए कुछ भी कर नहीं सकते थे।उनकी हालत इतनी खराब थी कि एक एक शख्स से निजी संबंध होने के बावजूद मुझ जैसे मुखर साथी का नाम भूलकर वे मुझे मंडलजी कहने लगे थे।

ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जनसत्ता का तेवर बनाये रखना और हिंदुत्व सुनामी के मुकाबले उसे खड़ा कर पाना ओम थनवी का कृतित्व है चाहे व्यक्ति बतौर उनसे हमारे संबंध अच्छे हों या बुरे,हम उन्हें पसंद करते हों या नहीं,हिंदी को जनपक्षधर जनसत्ता को जारी रखने में रुचि है तो हिंदी समाज को ओम थानवी के साथ मजबूती के साथ खड़ा हानो चाहिए।

इसी सिलसिले में हमने अपने नये पुराने तमाम साथियों से आवेदन  किया हुआ है कि जनसत्ता के लिए बिंदास तब तक लिखें जबतक वहां ओम थानवी हैं।

प्रभाष जोशी का महिमामंडन करने वाले लोगों को इस संकट से लगता है लेना देना नहीं है।हम जो लोग अब भी जनसत्ता में तमाम तूफानों के बावजूद बने हुए हैं,हालात हमारे लिए कमसकम रिटायर होने तक अपनी इज्जत बचाये रखने के लिए इस संकट की घड़ी में ओम थानवी के साथ खड़ा होने की जरुरत है और हम वही कर रहे हैं।

इसका भाई जो मतलब निकाले और जाहिर है कि अब बहुत साफ हो चुका है कि अगर यह चमचई है तो इस चमचई से हमारा कोई भला नहीं होने वाला है।

मजीठिया के मुताबिक कुल जमा डेढ़ साल हमारा ग्रेड और हमारा वेतनमान जो भी हो और भले एरिअर हमें 2011 से दो दो पदोन्नति के मुताबिक मिल रहा हो,आखि कार हमें रिटायर बतौर सबएटीटर होना है।गनीमत यही है कि हम शैलेंद्र के साथ ही रिटायर होंगे।उसके बाद जो होगा,वह मेरा सरदर्द नहीं है।

बहरहाल राहतइस बात की है कि एक्सप्रेस समूह मुझे किसी बंदिश में नहीं जकड़ने जा रहा है और अखबार के मामले में मेरी कोई जिम्मेदारी उतनी ही रहनी है,जितनी आजतक थी।

मेरी ओम थानवी जी से कभी पटी नहीं है।मेरी अमित प्रकाश सिंह से भी कभी पटी नहीं है।हम दोनों बल्कि दोस्त के बजायदुश्मनी का रिश्ता निभाते रहे हैं।जबकि मैंने आजतक चालीस साल के अपनी लेखकीय यात्रा में अमित प्रकाश से बेहतर कोई संपादक देखा नहीं है।उनके साथ मेरी टीम बननी चाहिए थी।यह बहुतसुंदर होता कि ओम थानवी के साथ मैं सीधे संवाद में होता और उनके साथ मैं संपादकीय मैं कुछ योगदान कर पाता।हुआ इसका उलट,ओम थानवी को समझने में मुझे काफी वक्त लग गया और वक्त अब हाथ से निकल गया है।

अब मजीठिया के मुताबिक वेतनमान कुछ भी हो,मैं सब एटीटर बतौर ही रिटायर करने वाला हूं।मेरी हैसियत किसी सूरत में बदलने वाली नहीं है।

ओम थानवी जी का मैं उनके संपादकत्व के घनघोर समर्थक होने के बावजूद मुखर आलोचक हूं।मेरी मनःस्थिति समझकर मुझे उनने अभूतपूर्व दुविधा और संकट से जो निकालने की पहल की है,मैं उसके लिए आभारी हूं।

अब मैं पहले की तरह बिंदास लिख सकता हूं और मेरी दौड़ भी देश के किसी भी कोने में जारी रह सकती है।यह मेरे लिए राहत की बात है कि कारपोरेट पत्रकार बनने की अब मेरी कोई मजबूरी नहीं है।आखिरी साल में भी नहीं।

थानवी जी ने बेहद अपनत्व भरा निजी संदेश दिया है,जिसे मैं सार्वजनिक तो नहीं कर सकता और मैं वास्तव को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर मुझे नये सिरे से दिशा बोध कराया है।फिर भी उनके निजी संदेश को मैं साझा नहीं कर सकता।

कर पाता तो आपको भी किसी दूसरे ओम थानवी का दर्शन हो जाता जो उनकी लोकप्रिय छवि के उलट है।

हाल में मैंने थानवी जी की कड़ी आलोचना की थी कि कि वे मुझे अचानक आप के प्रवक्ता दीखने लगे हैं।इस पर उनने कोई प्रतिक्रिया दी नहीं है।

आप के अंदरुनी संकट को जैसे देश का संकटबतौर पेश किया जा रहा है मीडिया और सोशल मीडिया में भी,वह हैरतअंगेज है।

अमलेंदु से मेरी रोज बातें होती हैं।लेकिन कल जैसे अमलेंदु ने सारे मुद्दे किनारे करते हुए मेरे रोजनामचे के सिवाय पूरा फोकस आप पर किया है,वह मेरे लिए बहुत दुखद है।आप संघ परिवार का बाप है।इसे नये सिरे से साबित करने की जरूरी नहीं है।

मेधा पाटकर और कंचन भट्टाचार्य,प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव और तमाम जनआंदोलनवाले ,समाजवादी कुनबे के लोग किस समझ के साथ आप में रहे हैं,यह मेरी समझ से बाहर है।जो आंतरिक लोकतंत्र पर बहस हो रही है,उसका की क्या प्रासंगिकता है,वह भी मेरी समझ से बाहर है।क्या अब हम संघ परिवार के आंतरिक लोकतंत्र पर भी बहस करेंगे?
सत्तावर्ग का लोकतंत्र और आंतरिक लोकतंत्र फिर वही तिलिस्म है या फरेब है।

जैसे मैं आजादी के खातिर जनसत्ता और एक्सप्रेस समूह में मेरे साथ हुए अन्याय की कोई परवाह नहीं करता और न रंगभेदी भेदभाव की शिकायत कर रहा हूं और जैसे मैं मुझे कारपोरेट बनने के लिए मजबूर न करने के लिए ओम थानवी जी का आभार व्यक्त कर रहा हूं।

प्रभाष जोशी जी के जमाने में मैं अनुभव और विचारों से उतना परिपक्व था नहीं और उस जमाने में मेरी पत्रकारिता में महात्वाकांक्षाएं भी बची हुई थीं।इसलिए प्रभाष जी ने मेरे भीतर की आग सुलगाने का जो काम किया है,उसे मैं सिरे से नजरअंदाज करता रहा हूं।

आज निजी अवस्थान,अपने स्टेटस के मुकाबले हमारे लिए अहम सवाल है कि हम अपने वक्त को कितना संबोधित कर पा रहे हैं और उसके लिए हम सत्तावर्ग से कितना अलहदा होकर जनपक्षधर मोर्चे के साथ खड़ा होने का दम साधते हैं।इस मुताबिक ही ओम थानवी जी का संदेश मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

उसी तरह आप प्रसंग में कोई बहस वाद विवाद इस बेहद संगीन वक्त के असली मुद्दों को डायल्यूट करने का सबसे बड़ा चक्रव्यूह है और हमारी समझ से हमारे मोर्चे के लोगों को उस चक्रव्यूह में दाखिल होना भी नहीं चाहिए।

हमारा अखबार अब भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है।हमारा संपादकीय बेहद साफ है।भाषा शैली और सूचनाओं की सीमाबद्धता के बावजूद और इसीलिए मैं प्रभाष जोशी के महिमामंडन के बजाय अपने संपादक के साथ खड़ा होना पसंद करुंगा चाहे इसके लिए मुझे जो और जैसा समझा जाये।

उस संपादक के आप के साथ खड़ा देखकर जो कोफ्त हुई,हस्तक्षेप को आप के रंग में रंगा दीखकर वही कोफ्त हो रही है।

अरविंद केजरीवाल सत्ता वर्ग,नवधनाढ्यवर्ग का रहनुमा है।

इस वर्ग को न फासीवाद से कुछ लेना देना है और न जनता के जीवन मरण के मुद्दों से।न इस तबके को किसी जनपक्षधर मोर्चे की जरुरत है और न दिग्विजयी अश्वमेधी मुक्त बाजार की नरसंहार संस्कृति से इस तबके की सेहत पतली होने जा रही है।

यूथ फार इक्वेलियी के नेता बतौर देश को मंडलकमंडल दंगों की चपेट में डालने वाले संप्रदाय के सबसे बड़े प्रतिनिधि जो समता,सामाजिक न्याय और लोकतंत्रक के सिरे से विरोधी है,उसे पहचानने में अगर हमारे सबसे बेहतरीन ,सबसे प्रतिबद्ध साथी चूक जाते हैं और उनके विचलन को ही आज का सबसे बड़ा मुद्दा मानकर असल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं,तो मेरे लिए यह घनघोर निराशा की बात है।

हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।