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Saturday, 9 June 2012

ताकि गर्द कुछ हटे

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20296-2012-05-27-07-55-13
ताकि गर्द कुछ हटे

Sunday, 27 May 2012 13:23
ओम थानवी 
जनसत्ता 27 मई, 2012: एक पाठक ने ‘आवाजाही’ पर चली बहस पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया की: यह हाल तो तब है जब ‘अनन्तर’ कभी-कभार छपता है। ‘कभी-कभार’ की तरह निरंतर छपने लगेगा तब?
पता नहीं। पर जो टिप्पणियां हमने छापीं, वे सब प्रतिनिधि प्रतिक्रियाएं नहीं थीं। एकाध को छोड़कर लोग आवाजाही के हक में ही जान पड़े। 
विरोध में आई टिप्पणियों को हमने भरपूर जगह दी। आनंद स्वरूप वर्मा की उस प्रतिक्रिया को भी, जो जनसत्ता से जैसे कोई हिसाब चुकता करने की गरज से लिखी गई थी। वे आठ साल हमसे जुड़े रहे, फिर विदा हुए। ऐसी जुदाई किसे रास आती है। खास बात यह रही कि उनकी प्रतिक्रिया जनसत्ता में चली बहस को लेकर थी, पर हमें नहीं भेजी गई थी। उसे हमने वेब-पत्रिका ‘जनपथ’ से लेकर साभार प्रकाशित किया। इस पर कुछ मित्रों ने कहा, हमें गाली खाने का शौक है। पंकज सिंह बोले, आंगन कुटी छवाय? शरद दत्त ने कहा, संपादित कर देना भी संपादक का अधिकार होता है। सुधीश पचौरी का कहना था, अपनी निंदा छापने के लिए साहस चाहिए।
जो हो, लोकतंत्र में आस्था रखना संपादकीय दायित्व निर्वाह की पहली शर्त है। इसलिए समर्थन से ज्यादा विरोध को जगह देना मुझे अधिक जरूरी जान पड़ता है। सो दूसरे स्तंभ रोक कर ऐसी प्रतिक्रियाओं को सविस्तार प्रकाशित किया (वर्मा, मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के ‘पत्रों’ का एक शब्द नहीं काटा) तो इसलिए भी कि उदार रवैये की बात ‘मुखौटा’ न लगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, कि फिर भी कुछ को वह मुखौटा ही लगी!
सचाई अंतत: सचाई की तरह ही सामने आती है। लेकिन फौरी तौर पर तथ्यों से खिलवाड़ की कोशिश की जा सकती है। कुछ पत्र ऐसे मिले, जैसे संवाद न हुआ, स्कूल-कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता जीतने के लिए की जाने वाली कलाबाजी का उपक्रम हो गया! एक पत्र में- आप आगे देखेंगे- कैसे चोर की दाढ़ी में तिनके वाली पेशकदमी है, दूसरे में जनसत्ता से बिछुड़ने की टीस, तीसरे में मनमोहन सिंह के कार्यकाल को अटल बिहारी वाजपेयी का बताकर शौर्य अर्जित करने की चाह और चौथे में जाने-अनजाने मूल बहस को पटरी से उतारने की कार्रवाई।
इनसे संबंधित कुछ जरूरी तथ्य मैं रखता चलूं, ताकि सनद रहे।
पिछले महीने छपी मेरी टिप्पणी में क्या था? मुख्यत: इंटरनेट पर चली उस बहस का ब्योरा, जिसमें युवा लेखकों और आम पाठकों ने मंगलेश डबराल के एक दक्षिणपंथी विचार-मंच पर जाने और विष्णु खरे के हाथों संघ और शिवसेना समर्थक कवि नामदेव ढसाल की किताब का लोकार्पण किए जाने की बुरी तरह निंदा की थी। मेरा खयाल है उसी बहस के दबाव में मंगलेश जी ने अपनी शिरकत के लिए खेद प्रकट कर दिया (जिसकी मुझे बाद में खबर हुई), लेकिन विष्णु खरे अडिग रहे। खरे ने बहुत सटीक दलील भी दी कि ‘‘... इकबाल का फिरन निरपराध मुसलिम-हिंदुओं के खून से रंगा हुआ है, फिर भी हम उन्हें बड़ा शायर मानते हैं...।’’
मेरी टिप्पणी खरे जी की दलील को ही आगे बढ़ाती थी। मैंने लिखा, यह आवाजाही बुरी नहीं। अपने ही घेरे में कदमताल करना आगे नहीं ले जाता, भले ही लेखक संगठनों की राजनीति उसी के लिए प्रेरित करती हो। जबकि विरोधी या विपरीत मंच पर शिरकत विचार की विश्वसनीयता का दायरा बढ़ाती है। संवाद और पारस्परिकता तो उससे बढ़ती ही है। हालांकि खरे से पहले त्रिलोचन, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, विभूतिनारायण राय, पंकज बिष्ट आदि अनेक मार्क्सवादी विपरीत विचारधारा वाले मंचों पर जाते रहे हैं। लेकिन इसके लिए उनकी टांग खिंचती रही है। साहित्य की दुनिया में यह असहिष्णुता लोकतांत्रिक नहीं है। खासकर तब जब किसी ने विपरीत मंच पर जाकर कोई दकियानूसी या सांप्रदायिक बात न कही हो, किसी दूसरे ने कही हो तो उसके प्रति अपना विरोध या असहमति प्रकट न की हो।
इस पर जो प्रतिक्रियाएं हमें मिलीं, उनसे जाहिर होता है कि यह बात कवि और पुराने सहयोगी मंगलेश डबराल के गले नहीं उतरी। वरना विष्णु खरे तो उस दलील के चलते ही नामदेव ढसाल के आयोजन में और एक सेठ (चिनॉय नहीं!) की ‘परिवार’ संस्था का पुरस्कार लेने गए थे। चंचल चौहान भी कहते हैं कि उनके लेखक संघ ने किसी सदस्य की ‘आवाजाही पर प्रतिबंध नहीं’ लगाया, जलेस का घोषणा-पत्र ‘आलोचनात्मक बहुलता’ का आदर करता है और ‘किसी तरह की संकीर्णता’ को प्रश्रय नहीं देता।
बचे आनंद स्वरूप वर्मा। वे भी एक बार तो उदारता का ही पक्ष लेते हैं: ‘‘अगर किसी के दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी/प्रगतिशील होने का मापदंड गोष्ठियों में जाने को ही बना लिया जाए न कि उसके जीवन और कृतित्व को तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्धारण इस तरह के सतही मापदंडों से नहीं होता कि कौन कहां जा रहा है या किससे मिल रहा है।’’
लेकिन वर्मा की होशियारी यह है कि उदारता की यशलिप्सा के बावजूद अगले ही वाक्य में उदय प्रकाश पर लाठी भांजना नहीं भूलते: ‘‘उदय प्रकाश का मामला इससे थोड़ा भिन्न था, क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के हाथों पुरस्कार लिया जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी और प्रतिगामी विचारों का घोषित तौर पर पोषक है।’’ वर्मा का कहना है कि इसके बावजूद वे उदय वाले प्रसंग को मुद्दा बनाने के पक्ष में नहीं थे। ‘‘कहीं अनजाने में तो उनसे यह चूक नहीं हो गई और   इसी आधार पर मैंने उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया था। हालांकि ओम थानवी ने हस्ताक्षरकर्ताओं में मेरा नाम भी अपने लेख में डाल रखा है।’’
मुझे कोसने के लिए वर्मा जी को और मौके मिलेंगे, पर उस वक्त- जुलाई 2009 में- उदय प्रकाश की निंदा करते हुए पैंसठ लोगों का जो ‘‘विरोध-पत्र’’ देश भर में प्रसारित हुआ, उसमें दस नंबर पर उनका नाम अंकित था। अपूर्व घमासान में वह सूची ब्लॉग-दर-ब्लॉग तैरती रही, हैरानी है कि मंगलेश डबराल के नाम अपना ‘‘पत्र’’ जनसत्ता के बजाय इंटरनेट पर सार्वजनिक करने वाले और ‘उस्तरापकड़ बंदरों’ के ब्लॉगों की टोह रखने वाले वर्मा की नजर उस सूची पर नहीं पड़ी। तीन साल हो गए, पर ‘कबाड़खाना’ नामक ब्लॉग के कबाड़ (आर्काइव) में वह सूची अब भी मौजूद है, अगर अपने कंप्यूटर पर वे   टंकित करने की जहमत उठाएं। कम-से-कम ‘‘नाम डालने’’ के उनके आरोप से तो मैं फौरन बरी हो जाऊंगा!
वर्मा जी ने मुझे ‘‘अत्यंत अनैतिक और निकृष्ट कोटि का संपादक’’ बताया है। गाली तब निकलती है जब तर्क चुक जाता है। जहां तक नैतिकता की बात है, मैं न वर्मा जी से होड़ ले सकता हूं न मंगलेश जी से। पूंजीवाद और सर्वहारा की बात करने वाले दोनों ‘सहारा’ की सेवा में थे। इस बात की चर्चा उनके मित्र जिक्र छिड़ते ही करते मिल जाएंगे। वर्मा जी की मेहरबानी है कि ‘निकृष्टता’ का उदाहरण यह दिया है उनके किसी लेख में जनयुद्ध शब्द पर मैंने ‘इनवर्टेड कोमा’ लगा दिया, या नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचंड के हाथों किसी कटवाल की बर्खास्तगी मुझे रास नहीं आई। देर तक दिमाग पर जोर डाले रहा कि नेपाल में एक कनक दीक्षित को छोड़ किसी दूसरे शख्स को ठीक से जानता भी नहीं, यह कटवाल कौन हैं! बाद में गूगल पर देखा कि नेपाल के सेनाध्यक्ष थे।
गौर करने की बात यह है कि वर्मा यह नहीं बताते जनसत्ता में आठ बरस उन्होंने ‘इनवर्टेड कोमा’ या अन्य किसी तरह के बाधा के बगैर कैसे लिखा, न यह कि जनसत्ता  के अलावा किस राष्ट्रीय दैनिक ने उन्हें लगातार पहले पन्ने पर जगह दी- बाकायदा नाम के साथ, जैसे स्टाफ को देते हैं। हमने उनसे नियमित स्तंभ भी लिखवाया। क्या हमें मालूम नहीं था कि उनकी विचारधारा क्या है, या यह कि उनके लिए देश की किसी भी समस्या से बड़ी चीज नेपाल का माओवादी आंदोलन है?
उनकी असल तकलीफ यह है कि उनके हाथ से जनसत्ता निकल गया, जहां उन्हें नेपाल के ‘जनयुद्ध’ को लेकर कुछ भी लिखने की छूट थी। क्या आपको भी लगता है कि उन्होंने एक ‘इनवर्टेड कोमा’ के मुद्दे पर राब्ता तोड़ दिया? हकीकत यह है कि हाथ हमने जोड़े। कारण के खुलासे में जाना अनावश्यक है। वे कहते हैं, विवाद होने पर जनयुद्ध शब्द को त्याग कर उसकी जगह सशस्त्र संघर्ष लिखना शुरू कर दिया जो हमें समझ नहीं पड़ा। क्या मासूमियत है! सचाई यह है कि एक स्वतंत्र अखबार मुट्ठी भर माओवादियों के संघर्ष को सारी जनता का जनयुद्ध नहीं ठहरा सकता, खासकर तब जब ‘लेख’ पहले पेज पर समाचार-विश्लेषण की तरह छप रहा हो; पर सशस्त्र संघर्ष तो वह था ही, उस पर किसी को क्या एतराज हो सकता है!
लेकिन, क्या बाहर के लेखक को बरसों-बरस इतने सम्मान के साथ प्रकाशित करने वाले संपादक के पास किसी एक विवादास्पद जुमले पर इनवर्टेड कोमा लगाने का अधिकार भी नहीं होता? हम लोकतंत्र में जीते हैं या माओवादी राज में?
पिछले बत्तीस वर्षों में संपादन के विभिन्न जिम्मे निभाते हुए मुझे बेशुमार लेखकों का लिखा प्रकाशित करने का अवसर मिला है। इनमें ज्यादातर वामपंथी (समाजवादी समाहित) लेखक रहे हैं। अनेक अपने दौर के बड़े लेखक और संपादक भी रहे हैं। जहां जरूरी लगा, काट-छांट भी की है। पर किसी ने इस संपादकीय अधिकार- या दायित्व- को नैतिक-अनैतिक या निकृष्ट-उत्कृष्ट की तलछट में नहीं उतारा। 
चंचल चौहान ने कोई अठारह सौ शब्दों की प्रतिक्रिया हमें भेजी। मामूली संपादन कर उसे भी पर्याप्त जगह दी। वे बरसों से जनवादी लेखक संघ के महासचिव हैं। पेशेवर मार्क्सवादी की तरह उन्होंने मेरे ‘दोषपूर्ण नजरिए’ में ‘सामंती परंपरा’ ही नहीं, ‘विश्व पूंजीवाद’ भी ढूंढ़ निकाला: ‘‘अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी दुनिया भर में यह विचार या चेतना फैला रही है कि विचारधारा और विचारधारा से लैस संगठन व्यर्थ हैं।’’ यानी जनसत्ता जनवादी लेखक संघ के विरुद्ध किसी अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र में शरीक है! आरोप जड़ने की वजह यह: ‘‘हमें शायद यह लिखने की जरूरत न होती, अगर ओम थानवी ने अपनी टिप्पणी में जनवादी लेखक संघ को खासकर और अन्य वामपंथी लेखक संगठनों को आमतौर पर बदनाम करने के अपने छिपे एजेंडों को अपनी टिप्पणी के केंद्रीय संवेदन के रूप में शामिल न कर लिया होता।’’
चंचल जरा यह बताएं: अपने लेख में मैंने जनवादी लेखक संघ का नाम किस जगह लिखा है, सिवाय इस उल्लेख के कि उदय प्रकाश इस संघ के सदस्य थे? एक जगह भी नहीं। फिर भी चंचल जी को मेरी टिप्पणी में ‘‘जनवादी लेखक संघ को खासकर... बदनाम करने’’ का ‘‘छिपा एजेंडा’’ ‘‘केंद्रीय संवेदन के रूप में’’ दिखाई दे गया है, तो यह महासचिव के अपने दिमाग की ही उपज है। लेख में मैंने लेखक संगठनों की विचार-पद्धति पर अंगुली जरूर उठाई है, पर कोई संघ विशेष उसमेंनिशाने पर कहीं नहीं रहा।
मंगलेश डबराल ने अपने   स्पष्टीकरण में मजेदार बातें लिखी है। वे कहते हैं कि मैंने अपनी टिप्पणी में उनका पक्ष क्यों नहीं दिया। वही बताएं कि उनका पक्ष मेरे ध्यान में आता तो क्यों न देता? ‘अनन्तर’ के नाम पर कोई खबर तो नहीं लिखी जा रही थी, जिसमें हर ‘पीड़ित पक्ष’ को फोन कर उसका बयान पिरोया जाता। स्तंभ में हिंदी साहित्य जगत की एक प्रवृत्ति पर टिप्पणी थी जो इंटरनेट पर चली बहस पर केंद्रित थी। बहस मुख्यत: ‘जनपथ’ और ‘मोहल्ला लाइव’ पर चली। तीन सौ से ज्यादा प्रतिक्रियाएं वहां शाया हुर्इं, पर मंगलेश जी का पक्ष कहीं पर सामने नहीं आया। 
अब मंगलेश कहते हैं कि उनके ‘‘कुछ मित्रों द्वारा’’ फेसबुक पर उनका स्पष्टीकरण जारी किया गया था, जिसे मैंने ‘‘अत्यंत सुविधाजनक ढंग से अनदेखा कर दिया’’। फेसबुक पर मेरे पांच हजार (आभासी) ‘मित्र’ हैं। उनमें अनेक मंगलेश जी के मित्र भी हैं। उनके किसी भी मित्र ने फेसबुक संदेशों में मुझे उनका स्पष्टीकरण नहीं भेजा। किसी और जगह दिए गए स्पष्टीकरण की मुझे क्या खबर? एक व्यक्ति सारे पोर्टल नहीं देखता। देख भी नहीं सकता। 
यह आरोप ऐसा ही है कि कोई आपकी तरफ से बस्ती में खांसकर चला आए और फिर आप दुनिया भर में मुनादी करें कि आपकी ‘बात’ नहीं सुनी गई! ‘चूक’ का पछतावा मंगलेश जी को सचमुच होता तो वे अपना पक्ष उन वेब-पत्रिकाओं को सबसे पहले भिजवाते जिन्होंने बहस छेड़ी थी। और तो और, ‘फेसबुक’ पर उनका अपना पन्ना है, उस पर भी उन्होंने स्पष्टीकरण नहीं रखा। इसका अर्थ कोई यही लेता कि बहस में वे तटस्थ हैं और भारत नीति प्रतिष्ठान के मंच पर जाने का कोई स्पष्टीकरण नहीं देना चाहते। 
आखिर गोविंदाचार्य वाले मामले में भी तो उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा है। इस प्रसंग को लेकर उनके लगभग दो हजार शब्दों के स्पष्टीकरण में एक भी पंक्ति नहीं है।
गोविंदाचार्य और मंगलेश मंच पर जहां साथ थे, वह कार्यक्रम हिंदी भवन में हुआ था। यह सही है कि मंगलेश जी को नहीं पता था कि गोविंदाचार्य वहां होंगे। पर यही तर्क तो आदित्यनाथ के मामले में उदय प्रकाश का था। निस्संदेह दोनों उन आयोजनों में गोविंदाचार्य या आदित्यनाथ की सोहबत के लिए नहीं गए होंगे। दोनों मंचों पर कोई सांप्रदायिक एजेंडा भी न था, न कोई विवादास्पद वक्तव्य हुए। पर मंगलेश की ओर तो कोई अंगुली न उठी, उदय और उनके परिवार का जीना हराम हो गया। इसे आप भेदभाव कहें, साहित्य में गुटबाजी या एक किस्म का जातिवाद- मेरी टिप्पणी का इशारा इसी विसंगति की ओर था।
दरअसल, मंगलेश जी के विचार और आचरण में बहुत फासला है। इसकी चर्चा खुद उनके मित्रों में होती है। सती प्रकरण हो, चाहे सहारा समूह में लेखकों पर सामूहिक प्रतिबंध की घड़ी, लखनऊ में सहाराश्री के घर ऐतिहासिक विलासिता वाली शादी का भोज हो, या ‘पब्लिक एजेंडा’ का संपादन, वे अस्वीकार यानी त्याग का स्वघोषित आदर्श भूलकर एक रहस्यमय मध्यमार्ग अख्तियार कर लेते हैं। उनका दावा है कि ‘‘प्राय: कुछ न छोड़ने, कुछ न त्यागने के इस युग में’’ उनके ‘‘विनम्र अस्वीकार’’ थे कि भाजपा शासन के सम्मानों से दूर रहे और उन्होंने ‘‘भाजपा शासन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क का निमंत्रण अस्वीकार किया’’। 
न्यूयॉर्क में हुए आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन की कार्यसमिति का मैं भी एक सदस्य था। उस वक्त भाजपा की नहीं, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जो वाम मोर्चे के बाहरी समर्थन से चल रही थी। एक सीपीएम सांसद- जो मेरे भी मित्र हैं- के हवाले से तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा ने जनवादी लेखक संघ के चंचल चौहान और ‘सहमत’ के एमके रैना का नाम आखिरी दौर में अमेरिका जाने वालों की सूची में जुड़वाया था। हैरानी है कि न्यूयॉर्क सम्मेलन के पीछे भाजपा का नाम लेकर मंगलेश यहां भी ‘त्याग’ का पुण्य कमाना चाहते हैं। तो चंचल चौहान के खाते में ‘पाप’ जाएगा?
मंगलेश जी ने याद दिलाया है कि मेरे यात्रा-वृत्तांत मुअनजोदड़ो की उन्होंने अपनी पत्रिका में चर्चा की। इसके लिए मैं उनका आभार मानता हूं। बात निकली है तो ध्यान दिलाऊं कि पब्लिक एजेंडा में छपी वह समीक्षा दूरदर्शन के ‘सुबह-सवेरे’ कार्यक्रम में डॉ. नामवर सिंह की चर्चा का लिपिबद्ध रूप था। नामवर जी के बोले हुए शब्द जब स्तंभ के रूप में छपे तो यह आखिरी पंक्ति उसमें गायब थी: ‘‘हिंदी के यात्रा वृत्तांत साहित्य में मुअनजोदड़ो एक महत्त्वपूर्ण देन है, एक उपलब्धि है।’’ हालांकि नामवर जी ने ऐसा स्नेहवश ही कहा होगा, पर उसमें सबसे उल्लेखनीय बात यही थी।
अजीबोगरीब यह है कि चौहान या वर्मा जैसे वामपंथियों की समझ में मैं अब वाम-विरोधी हो गया हूं! भाजपा और संघ परिवार के सांप्रदायिक खेल की जितनी मलामत जनसत्ता ने की है, और किस हिंदी दैनिक ने की होगी? लेकिन इसलिए क्या वामपंथी लेखक संघों की संकीर्णता की ओर आंखें मूंद लेनी चाहिए? विभिन्न विचार-खेमों से जुड़े लेखक संघों की वैचारिक ‘‘प्रतिबद्धता’’ का हाल तो यह है कि बड़े लेखक के मरने पर शोकसभा तक मिलकर नहीं कर पाते। श्रीलाल शुक्ल का उदाहरण हाल का है। 
अपने मुंह से कहना अच्छा नहीं, पर इस तरह की बातें करने वाले भूल रहे हैं, जब देश के वामपंथी यह भुला चुके थे कि चे गेवारा कभी भारत आए थे, दिल्ली-कोलकाता और हवाना में चे गेवारा के घर की खाक छानकर इन पंक्तियों के लेखक ने ही गेवारा की भारत यात्रा की   वह स्पानी रिपोर्ट खोज निकाली थी, जो कमांडर चे ने क्यूबा लौटकर फिदेल कास्त्रो के सुपुर्द की थी। प्रभाती नौटियाल से मैंने उसे हिंदी में अनुवाद करवाया और भारत सरकार के कबाड़ से उस असल क्रांतिकारी की भारत-यात्रा की चौदह तस्वीरें भी ढूंढ़ीं, जो असली नाम (औपचारिक यात्रा में वही वाजेह था) से दर्ज होने के कारण लगभग खो चुकी थीं।
और अंत में विष्णु खरे। उनके पत्र पर खास कुछ नहीं कहना है। मैं अपने लेख में उनसे यों मुखातिब हुआ कि विष्णु खरे बताएं, हिंदी में ‘कतिपय विचारवादी’ गैर-मार्क्सवादी लेखकों की लगभग अनदेखी क्यों करते हैं। ‘विष्णु खरे बताएं’ महज शैली का अंग था, भाव यह था कि खरे जब नामदेव ढसाल या इकबाल का तर्क देकर मानते हैं कि साहित्य अनुभव से पैदा होता है, विचारधारा से नहीं, तो इस बात को उन ‘कतिपय विचारवादियों’ के बीच लागू करवाने की पहल क्यों नहीं करते! मुझे आशा थी, अधिक से अधिक वे कहेंगे कि यह मेरा काम नहीं।
पर जवाब में खरे जी ने लंबी फेहरिस्त दी है कि किस-किस तरह उन गैर-मार्क्सवादी लेखकों की अनदेखी उन्होंने नहीं की और उनके बारे में क्या-क्या लिखा! खरे जी की देखी-अनदेखी की बात कहां चली थी? ‘लॉग बुक’ जैसी उनकी इस (अधूरी) सूची में कुछ विवादास्पद स्थापनाएं भी हैं, पर उन्हें इस वक्त छेड़ने का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता।
सूची देकर एक जवाबी सवाल उन्होंने उछाला है कि मैंने जनसत्ता के संपादक और एडिटर्स गिल्ड का प्रमुख रहते हुए (जो मैं कभी नहीं था!) भारतीय पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता और जनसत्ता की साहित्येतर पत्रकारिता सुधारने के लिए क्या किया है? 
साहित्य में आवाजाही की बहस भारतीय/ हिंदी/ साहित्येतर पत्रकारिता में मेरे योगदान पर कैसे पहुंच गई? मैंने कभी दावा भी नहीं किया कि पत्रकारिता को ‘सुधारने’ के लिए मैंने कुछ किया है। खरे साहब जैसे कृपालु ही इसका जिक्र छेड़ लाते हैं। और वे ही कभी शुभाशंसा के वचन भी छोड़ जाते हैं, जैसे कि खरे जी ने तीन साल पहले जर्मन महाकवि गोएठे की कालजयी कृति फाउस्ट  का अपना नायाब अनुवाद मुझे भेंट करते हुए लिखा था: ‘‘राजेंद्र माथुर के बाद अपनी तरह के अद्वितीय हिंदी दैनिक संपादक ओम थानवी के लिए’’!
कहना न होगा, अब मेरी पत्रकारिता पर एकाधिक प्रश्न खड़े कर वह बहुमूल्य ‘प्रमाण-पत्र’ उन्होंने स्वत: वापस ले लिया है! मेरी किस्मत।

मंदी ने छीना 6000 मजदूरों का काम

मंदी ने छीना 6000 मजदूरों का काम


टाटा, अशोक लीलैंड और महिंद्रा की सहायक कंपनियों का उत्पादन हुआ आधा
टाटा मोटर्स के लिए काम करने वाली अधिकांश इकाइयों में बड़े पैमाने पर छंटनी हो रही है.ऑटोमोबाइल कंपनियों की अनुषंगी इकाइयां 300 के आसपास है और इनमें करीब 30 हजार मजदूर कार्य कर रहे हैं...
 रेड ट्यूलिप्स.टाटा मोटर्स के उत्पादन में कमी का सीधा असर सहयोगी इकाइयों पर पड़ रहा है. ट्रक, ट्रेलर, टिपर्स ही नहीं बन रहे हैं तो इनके लिए कल-पुर्जों की क्या जरूरत. आटोमोबाइल के अलावा फोर्जिंग, इंजीनियरिंग, स्पंज आयरन, फेरो इंडक्शन कास्टिंग से जुड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों की हालत भी पतली हो चली है.
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रेलवे का काम करने वाली रामकृष्ण फोर्जिंग जो मंदी की आंधी से अब तक अछूती मानी जा रही है, वहां भी बीते एक महीने में 40 ठेका मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. आयडा की 90 प्रतिशत इकाइयों में लगभग 30 से 40 प्रतिशत ठेका मजदूर हटाए जा चुके हैं.

दो शिफ्ट का काम बंद हुआ

टाटा मोटर्स के लिए काम करने वाली अधिकांश इकाइयों में बड़े पैमाने पर छंटनी हो रही है. तीन शिफ्ट का काम सिमटकर एक शिफ्ट का रह गया है. ऑटोमोबाइल कंपनियों की अनुषंगी इकाइयां 300 के आसपास है और इनमें करीब 30 हजार मजदूर कार्य कर रहे हैं.

उत्पादन में 40 फीसदी की कमी

लघु उद्योग भारती के जिलाध्यक्ष वीपी सिंह ने इस संकट की पुष्टि करते हुए बताया कि दो महीने पूर्व ऑटोमोबाइल कंपनियों की अनुषंगी इकाइयों में जितना उत्पादन होता था, उसमें फिलहाल 40 प्रतिशत की कमी आ गई है.

टाटा कमिंस में अब दो दिन का अवकाश
जमशेदपुर : मंदी से निपटने के लिए टाटा कमिंस की जमशेदपुर यूनिट में एक दिन के बजाय अब दो दिन साप्ताहिक अवकाश (शनिवार व रविवार) दिया जा रहा है. यह निर्णय कंपनी के उत्पादन में आई गिरावट को देखते हुए लिया गया है. टाटा कमिंस का मुख्य ग्राहक टाटा मोटर्स है जहां उत्पादन आधा हो गया है. टाटा मोटर्स के वाहनों के लिए कमिंस में इंजन बनाए जाते हैं. 

Friday, 8 June 2012

Are the sons of the Palestinian president growing rich off their father's crooked system?

The Brothers Abbas
Are the sons of the Palestinian president growing rich off their father's crooked system?
BY JONATHAN SCHANZER | JUNE 5, 2012
http://www.foreignpolicy.com/articles/2012/06/05/the_brothers_abbas?page=full

In the wake of the Arab Spring, U.S. leaders have promised to reverse the United States' long reliance on autocratic, unrepresentative leaders who enrich themselves at the expense of their citizens. There's only one problem: Just as top American officials have been making these lofty promises, new details are emerging of how close family members of Palestinian leader Mahmoud Abbas, a major U.S. partner in the Middle East, have grown wealthy. Have they enriched themselves at the expense of regular Palestinians -- and even U.S. taxpayers?

Abbas's wealth recently became a source of controversy during the investigation of Mohammed Rachid, an economic advisor to the late Palestinian leader Yasir Arafat, in a high-profile corruption probe. Last month, Palestinian officials charged Rachid with siphoning off millions of dollars in public funds; his trial is set to begin on June 7.

According to a former Palestinian advisor, Abbas holds a grudge against Rachid dating back to the peace talks during the waning days of the Clinton era. In that intense period, Rachid was an advocate of working with Israel to find a solution, while Abbas called diplomacy a "trap that was laid for us." Abbas also resented Rachid because he was an Iraqi Kurd -- not even a Palestinian -- who had gained Arafat's trust and was part of his inner circle, while Abbas was on the outside looking in. "There was a huge amount of jealousy," the former advisor said.

With his back up against a wall, Rachid has now fired back at the Palestinian president with claims that Abbas himself has socked away $100 million in ill-gotten gains.

In stalking Rachid, whether or not the charges have merit, Abbas may have opened up a Pandora's Box. The conspicuous wealth of Abbas' own sons, Yasser and Tarek, has become a source of quiet controversy in Palestinian society since at least 2009, when Reuters first published a series of articles tying the sons to several business deals, including a few that had U.S. taxpayer support.

Yasser, the elder son, graduated with a degree in civil engineering from Washington State University in 1983 and carries both Palestinian and Canadian passports. According to his biography (where he goes by the alias Yasser Mahmoud), he worked for a variety of Gulf contracting firms from the 1980s until the mid-1990s before returning to Ramallah in 1997 to launch businesses of his own.

Yasser now owns Falcon Tobacco, which reportedly enjoys a monopoly on the sale of U.S.-made cigarettes in the Palestinian territories. According to the Toronto Star, Yasser also chairs Falcon Holding Group, a Palestinian corporate conglomerate that owns Falcon Electrical Mechanical Contracting Company (also called Falcon Electro Mechanical Contracting Company, or FEMC), an engineering interest that was established in 2000 and boasts offices in Gaza, Jordan, Qatar, the United Arab Emirates, and the West Bank. This business success has come with a helping hand from Uncle Sam: According to a Reuters report, Abbas's company received $1.89 million from USAID in 2005 to build a sewage system in the West Bank town of Hebron.

According to Yasser's biography, other arms of Falcon Holding Group include Falcon Global Telecommunication Services Company and Falcon General Investment Company, companies about which less is known. Through the Falcon companies, Yasser boasted to an Emirati magazine in 2009 that the companies' revenues total some $35 million per year.

And the Falcon group doesn't even account for everything. Yasser is listed by the New York-based financial information database CreditRiskMonitor.com as the chairman of the publicly traded Al-Mashreq Insurance Company, with 11 offices across the Palestinian territories. The company is valued on the Palestinian stock exchange at $3.25 million.

Finally, Yasser serves as managing director of the First Option Project Construction Management Company, whose website suggests that it does a great deal of public works projects, such as road and school construction, on behalf of the Palestinian Authority. First Option employs at least 15 people in offices in Amman, Tunis, Cairo, Montenegro, and Ramallah. This enterprise also benefited from the U.S. government's financial support: As Reuters reported, First Option was awarded nearly $300,000 in USAID funds between 2005 and 2008.

The president's son is certainly entitled to do business in the Palestinian territories. But the question is whether his lineage is his most important credential -- a concern bolstered by the fact that he has occasionally served in an official capacity for the Palestinian Authority. In 2008, Yasser reportedly visited Kazakhstan as a special envoy, and according to a former Bush administration official, he "regularly accompanies his father on official travel."

Tarek Abbas appears less inclined than his older brother to take part in the political aspect of the Palestinian cause, but is just as ambitious in the business world. His online biography indicates that he followed in the footsteps of his older brother, working in the same Gulf contracting firms, as well as a trading company in Tunis during the early 1990s.

Today, he appears to be a successful entrepreneur. His principal enterprise, Sky Advertising, had 40 employees and earned $7.5 million in sales in 2010. And once again, the firm has worked with the U.S. government: Reuters reported in 2009 that Sky received a modest grant of approximately $1 million in USAID funds to bolster public opinion of the United States in the Palestinian territories.

The younger Abbas is also listed by the Arab Palestinian Investment Company (APIC), as the vice chairman of "Arab Shopping Centers." This is presumably shorthand for Arab Palestinian Shopping Center Company, valued on the Palestine Exchange at $4.2 million. The company, a project of APIC, now has two shopping centers, three supermarkets, and two indoor play facilities in the West Bank.

APIC is an economic juggernaut in the West Bank. In 2010, the company had more than $338 million in revenues. The company lists Tarek Abbas' Sky Advertising on its roster, as well as the Ramallah-based Unipal General Trading Company, where Tarek sits on the board. Unipal, which has 4,500 retail outlets in the Palestinian territories, distributes consumer goods to Palestinians, including products from Philip Morris Tobacco, Procter & Gamble, and Keebler.

Since the Arab Spring began in late 2010 and early 2011, the Abbas brothers have largely dropped out of sight in the West Bank. Where have they gone? According to an article written by Rachid on the staunchly anti-Abbas website InLight Press, the family owns lavish properties worth more than $20 million in Gaza, Jordan, Qatar, Ramallah, Tunisia, and the UAE.

Of course, the Abbas brothers' absence doesn't mean that Palestinians will forget. On a research trip to Ramallah last year, several Palestinians told me that the Abbas family dynasty is common knowledge. However, discussion of the issue rarely rises above a whisper -- thanks to growing fear of retribution by PA security officers, who have apprehended journalists and citizens for openly challenging President Abbas's authority.

At a time when the sons of Arab strongmen are under scrutiny, the questions surrounding the Abbas brothers will not go away. Indeed, the Arab public continues to demand accountability from its leaders -- and the upcoming Rachid trial will only bring this controversy closer to Ramallah.

Fifty Bahraini prisoners start hunger strike

Fifty Bahraini prisoners start hunger strike
Published Tuesday, June 5, 2012
http://english.al-akhbar.com/content/fifty-bahraini-prisoners-start-hunger-strike

Dozens of Bahraini prisoners have begun a hunger strike in protest at the continued detention of a teenager in urgent need of medical care, activists said on Tuesday.

Sixteen-year-old Ahmed Oun was shot in his eye during an anti-government protest three weeks ago before being arrested in hospital for taking part in an "illegal gathering," opposition figures have said.

Doctors have warned that without an immediate operation he will lose his sight in that eye, but the Bahraini authorities have refused to release him.

In response around 50 prisoners at the al-Hod al-Jaf prison where Oun is being held have begun a hunger strike which they have said will continue until he is able to get the necessary surgery.

Said Yousif, deputy head of the Bahrain Center for Human Rights (BCHR), said the case was a clear example of the ongoing oppression of pro-democracy campaigners in the country.

"The prisoners decided today that they are going on a hunger strike until Ahmed is allowed to undergo surgery," he told Al-Akhbar.

"Before this announcement, these prisoners organized a protest. They stood in front of their cells and asked the prison's administration to allow Ahmed surgery. They threatened that they would go on a hunger strike if their demands were not approved."

Elsewhere on Tuesday leading human rights campaigner Nabeel Rajab was ordered to return to the public prosecution on charges of swearing.

Rajab, the head of the BCHR, gave an interview with Al-Jazeera on Monday and has previously been detained shortly after high-profile public speeches.

(Al-Akhbar)

INDIA / Bihar: "Return of the Dead"


THE RETURN OF THE DEAD
The killing of the Ranvir Sena chief shows how Bihar continues to be haunted by violence, writes Jamal Kidwai
http://www.telegraphindia.com/1120605/jsp/opinion/story_15568160.jsp#.T85I7VJbIxw

The brutal gunning down of the chief of the banned Ranvir Sena, Brahmeshwar Singh `Mukhiya', in broad daylight in Ara on June 1 is being seen as linked to the April 2012 acquittal of 23 Bathani Tola massacre convicts by the Patna high court. The Mukhiya one of the main accused among them spent nine years in jail and was also an accused in 21 other massacres. But he was acquitted in 16 of these and had got bail in the remaining six.

The high court ruling and the murder of the Mukhiya have reminded us of the brutal decade of the 1990s, when the Ranvir Sena and the Maoists carried out several gruesome massacres, killing hundreds of innocent Dalits as well as upper castes. But, more important, these events are a testimony to the fragile faultlines and unresolved issues related to land relations and ownership, caste conflict, OBC-Dalit reassertion in the post-Mandal era and the new matrix formed by the creamy layer of Other Backward Classes like the Kurmis and the Keoris [represented by Nitish Kumar's Janata Dal (United)] and upper-caste landed communities like the Bhumihars and the Rajputs, who are the key support base of the Bharatiya Janata Party. In all this churning, the Dalits have been feeling increasingly isolated politically. Let us revisit some of the brutalities committed by the Ranvir Sena and the Maoists in the past, indicative of ongoing caste-related animosities and their connection with ownership of land in the still-very-feudal state of Bihar.

The Ranvir Sena was formed in the Bhojpur district in 1994 and, since then, it has carried out massacres of Dalits, the most infamous being the one in Bathani Tola where 21 people were killed in 1996, followed by a massacre of 61 people in Laxmanpur Bathe in 1997. On the eve of Republic Day in 1999, 23 people were killed and more than 33 Dalits in Mianpur village in Aurangabad district in 2000. These are just a few of the many gruesome acts of violence where the Sena shot dead, hacked and beheaded even women and children. It carried out at least 20 other such massacres between November 1996 and June 2000. In retaliation, the different factions of the Maoists unleashed their own revenge killings of the upper castes. In 1997, they lined up 35 Bhumihar men, women and children in Gaya's Bara village and shot them dead. Those who tried to run away were hacked to death. In 1999, the Maoist Communist Centre killed 35 upper-caste persons in Senari.

Until the killing of the Mukhiya, there had been an apparent lull in caste or class violence for over a decade since 2001. The present Nitish Kumar government, which is in an alliance with the BJP, had been quick to claim this as an indication of improvement in law and order. However, there has been a series of court judgments in recent years that have strengthened the perception that the present regime is hostage to upper-caste economic and social interests. To add to that is the silence and subversion by Nitish Kumar's government of the commissions that were mandated to investigate and provide reforms and strategies that could have gone a long way in resolving many of the conflicts related to caste and the owning of land.

Take the instance of court rulings first. In two significant rulings by the district courts in the last five years, eight Maoists have been awarded death penalties. Five were accused of killing policemen in Banka district and three are accused of carrying out the Bara massacre. They have obviously moved to the higher courts but their plea is still pending. But all Ranvir Sena men accused of the Bathani Tola massacre were acquitted by the high court on the grounds that the prosecution had failed to prove their culpability. On the one hand, these rulings have strengthened the perception that the government is hostage to the upper and landed castes. On the other, these rulings have once again given legitimacy to the argument of the Maoists and their sympathizers that the judiciary and the criminal justice system are mere tools being used by the ruling classes to exploit the poor and the Dalits.

The Nitish Kumar government argues that the judiciary is independent and the government has no say in the pronouncements made by the courts. But then, his government has had other opportunities to demonstrate that caste-massacre victims would be provided justice, and that it is serious in exposing and countering a determined nexus of involving the landed castes, the police, the State and the bureaucracy.

Take, first, the case of the Amir Das Commission set up by Lalu Prasad's Rashtriya Janata Dal in 1997, after the Laxmanpur Bathe massacre. The mandate of the commission was to inquire if there were any links between political parties and the Ranvir Sena. The Nitish Kumar government abruptly disbanded the commission in 2006, just before it was to submit its report. The government has not yet been able to provide any convincing answer to the question of what prompted it to take such a radical decision. It is strongly believed, and there may be some truth in it, that the commission's findings were going to demonstrate firm links among the Ranvir Sena, the JD(U) and the BJP.

Second, the Nitish Kumar government appointed the Bihar Land Reform Commission in 2006 and it submitted its report in April 2008. The commission made important recommendations like providing bataidars or share-croppers with secure cultivating rights and making available surplus land for distribution to the landless by implementing the ceiling on land holdings. The Nitish Kumar government has been silent on the commission's findings, reinforcing the arguments being made by Maoists that the Indian State will never take any action against the interests of the landed castes.

The murder of the Mukhiya is just one of the examples of the past and the present coexisting in Bihar. The government needs to conduct radical reforms in the areas of criminal justice, hasten the punishment of those involved in political violence, compensate the victims of massacres and make development agendas more inclusive. These require statesmanship and a will to sacrifice short-term political interests and gains. Until this is done, the violent past will keep coming back to haunt Bihar.

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इस लिए चाहते हैं रावत रुद्रपुर काण्ड की सीबीआई जांच

http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=1573:2012-06-07-15-00-01&catid=34:articles&Itemid=54

इस लिए चाहते हैं रावत रुद्रपुर काण्ड की सीबीआई जांच

 
-विशेष रिपोर्ट-

केंद्रीय मंत्री हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भले ही न बन पाए हों, मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सरदर्द ज़रूर बने हुए हैं. रुद्रपुर काण्ड की सीबीआई जांच की उनकी मांग उनकी बहुगुणा नहीं, कांग्रेस का भी सरदर्द बढ़ाने की कोशिश है. 

कहने को कह वे ये रहे हैं कि चुनाव के ऐन पहले रुद्रपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे ने ऐसा पोलराइज़ेशन किया कि न सिर्फ रुद्रपुर बल्कि अगल बगल की भी सीटें हरवा दीं. मांग भी रुद्रपुर के भाजपा विधायक राजकुमार ठकराल को गिरफ्तार करने की गयी. लेकिन इस सब के पीछे मंशा दरअसल कुछ और है.


आम धारणा ये है कि रुद्रपुर में साम्प्रदायिक घृणा भाजपा नहीं कांग्रेस के एक बड़े नेता ने फैलाई. मुसलमान मतदाता रुद्रपुर विधानसभा क्षेत्र में काफी कम हैं. डर कांग्रेसी नेता को ये था कि शहर के हिंदू भाजपा के साथ जा सकते हैं. उन्हें अपने साथ करना था. सोचा था कि कुछ ऐसा करो कि हिंदू और मुसमानों में लट्ठ बजे और उसका श्रेय भी खुद को मिले. लग ही रहा था कि सरकार कांग्रेस की बनी तो सीनियरिटी की वजह से मंत्री पद मिलना ही है. सो, खुल के खेले. खेल कुछ ऐसे खेला कि खेलते हुए दिखें भी. अब इस से ज्यादा क्या करते कि बयान तक भी दिए. पूछो पत्रकारों से. वारदात कहाँ, कैसे होगी इस की जानकारी भी वे खुद एडवांस में दे रहे थे.


मगर टैक्सी और राजनीति चलाने में एक बड़ा फर्क होता है. जैसे तैसे सरकार कांग्रेस की बन भी गई तो उस में न वे विधायक हुए, न मंत्री. ऊपर से खेमा भी उनका वो जो न रावत का, विजय बहुगुणा का ही. नारायणदत्त तिवारी ही लाये थे राजनीति में. वे ही ले डूबे. कांग्रेस ने खुद उन्हें खुड्डे लाइन लगा दिया. अब हरीश रावत चाहते हैं कि सीबीआई की जांच हो और नेता जी नपते बनें. इस लिए भी कि उन्हें उम्मीदवार बना कर कोई चुनाव तो कांग्रेस वैसे भी रुद्रपुर में अब नहीं जीत पाएगी. रुद्रपुर वैसे भी गुजरात नहीं है. साम्प्रदायिकता वाली सोच को तराई, भाबर के लोग बर्दाश्त नहीं करते. और इस का बड़ा कारण है कि इस पूरे इलाके में बहुतायत उन पंजाबियों की है जो खुद भारत-पाक विभाजन के समय साम्प्रदायिकता का शिकार हुए हैं या फिर उन बांग्लादेशियों, थारुओं, बुक्सों की जो आज दूसरी पीढ़ी के बाद भी यहाँ शरणार्थी से भी बदतर हालत में हैं.


हो सकता है हरीश रावत सीबीआई जांच की मांग कर के नारायण दत्त तिवारी के इस चेले को नपवा देना चाहते हों. लेकिन ये भी है कि अगर कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता का विष बोने वाले इस व्यक्ति को मिसाल न बनाया तो खुद कांग्रेस मसली जायेगी. और एक बार वो रुद्रपुर और उसके आसपास के मैदानी इलाकों में नज़रों से उतरी तो कभी वापसी नहीं कर पाएगी. समझदार लोग तो कहने भी लगे हैं कि अब या तो उत्तराखंड में बहड़ होगा या फिर कांग्रेस में कहर होगा.
Last Updated (Thursday, 07 June 2012 20:37)

जीवन बीमा के बाद अब पेंशन भी बाजार और वैश्विक पूंजी के हवाले!



जीवन बीमा के बाद अब पेंशन भी बाजार और वैश्विक पूंजी के हवाले!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

पूरा देश अब मोंटेक सिंह आहलूवालिया के पैंतीस लाख टकिया शौचालय जैसा खुला बाजार है। भविष्य निधि में मालिक के अवदान से आप कुछ निकाल नहीं सकते। अपने हिस्से से महज साठ फीसद उठा सकते हैं। बाकी रकम बाजार के हवाले है। जीवन बीमा निगम के करीब नौ करोड़ ग्राहकों को शेयर​ ​ बाजार के खेल में पहले ही चूना लग चुका है। विनिवेश में आपके प्रीमियम को लगाया जा रहा है। अपको जो घाटा होगा , उसकी तो भरपायी​ ​ नहीं हो सकती। जीवन बीमा सरकारी दबाव में शेयर बाजार में निवेश करके डूबने के कगार पर है। अब पेंशन को भी विश्वपुत्र प्रस्तावित बाजारू​ ​ राष्ट्रपति और वास्तविक प्रधानमंत्री जो वित्तमंत्री की हैसियत से सरकार और देश चला रहे हैं,उन प्रणव मुखर्जी की कृपा से बाजार और वैश्विक पूंजी के हवाले है। महज सरकारी मुहर अबी लगनी है। ममता दीदी की निर्मम सौदेबाजी से एअरइंडिया के विनिवेश की तरह यह मामला फिलहाल लटका हुआ है। कालीघाट में फूजा के बाद मंटेक बाबा जो बंगाल सरकार के नियंता हैं, उनकी कृपा से ग्रहदशा साढ़े साती से निकलने की देर है और गिलोटिन पर आपका ​​गला काट दिया जायेगा। रिटायर जब तक होंगे, तब तक डीटीसी और जीएसटी लागू हो जायेगा।आपकी आधी जमा पूंजी शेयर बाजार की बेंट चढ़ चुकी होगी। बची खुची बचत पर तमाम तरह का टैक्स अदा करके बेरोजगार संतानों के साथ मधुमेह और कैंसर पीड़ित संसार कैसे चलायेंगे, आप जानें। बहरहाल जब तक नौकरी है, ऐश कर लें क्योकि ट्रेड यूनियनों ने आपको बेहतर पगार , जायादा बोनस और काम न करने के गुर तो सिखा दिये हैं, आंदोलन और प्रतिरोध के रास्ते से एकदम हटा दिया है और सेवानिवृत्ति के बाद या फिर विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया के मध्य एअर इंडिया कर्मचारियों की तरह भूखमरी कामरी का जायका ले लें! बहरहाल तृणमूल कांग्रेस ने प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को पत्र लिखा कि बिल पर और विचार की जरूरत है। इसी के बाद पीएफआरडीए बिल पर निर्णय टाल दिया गया। एक दिन पहले इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए दो लाख करोड़ रुपए की परियोजना को हरी झंडी देने वाली सरकार फिर गठबंधन की मजबूरी में फंस गई। सतर्कता राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर बरती जा रही है।

मालूम हो कि सेबी के नियम तोड़कर बाजार और कारपोरेट जगत के दबाव में विनिवेश की जो पद्धति अपनायी जा रही है, उससे छोटे पालिसीधारकों के ​​भविष्य को चूना लगाने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम को मजबूर कर दिया गया है, जो पहले से ही विनिवेश की पटरी पर है और जिसकी नियति एअर इंडिया से अलग नहीं लगती। जीवन बीमा है तो और कहीं क्यों जाना, लोक लुभावन इस नारे से अब साख नहीं बचती लग​​ रही। इक्विटी पालिसियों को बेचते हुए जो मनभावन भविष्य का खाका एजेंट ने ग्राहकों के सामने खींचा था, अब आपातकालीन आवश्यकता के मद्देनजर उसे भुनाते वक्त सिर्फ आह भरने के बजाय कोई चारा नहीं है। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश की गरज से ​​एलआईसी इक्विटी का बाजार में विनिवेश कर दिया। ओएनजीसी और पंजाब नेशनल की हिस्सेदारी खरीदने में जीवन बीमा निगम ने कुल​​ इक्विटी २२ हजार करोड़ का ५५ फीसद लगा दिये। शेयर बाजार में जिससे निगम के छोटे ग्राहकों का सत्यानाश हो गया। फायदा तो कुछ ​​नहीं हुआ, पांच छह साल की अवधि के बाद अब घाटा उठाना पड़ रहा है और एजेंट लोगों से कम से कम दस साल तक इंतजार करने की गुजारिश करते हुए गिड़गिड़ा रहे हैं। उन्होने तो अपना कमीशन पीट लिया लेकिन इससे क्या जीवन बीमा की साख बची रहेगी?

यूपीए के सहयोगी दलों में मतभेदों के बीच कैबिनेट ने महत्वपूर्ण पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण विधेयक, 2011 में बदलाव पर फैसला टाल दिया है। कैबिनेट बैठक के बाद एक मंत्री ने बताया कि विधेयक पर विचार किया गया, लेकिन फैसला टाल दिया गया। यूपीए के सहयोगियों में तृणमूल कांग्रेस पेंशन और बीमा सुधारों का मुखर विरोध कर रही है। जबकि सरकार वित्तीय क्षेत्र के लंबित पड़े सुधारों पर तेज रफ्तार कदमों की मंशा दिखा रही है। इसके तहत वह पीएफआरडीए विधेयक और बीमा विधेयक को जल्द से जल्द अमल में लाने के लिए कवायद करती नजर आ रही है।केंद्र सरकार आरआरबी के जरिए मुख्य रूप से वित्तीय समावेशन के लक्ष्यों को हासिल करने और उसमें सीबीएस सिस्टम लागू करने की तैयारी कर रही है।आरआरबी के लिए 600 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जा सकता है।इससे आरआरबी के आधुनिकीकरण और विस्तार में मदद मिल सकेगा। अधिकारी के अनुसार सरकार की योजना जल्द से जल्द क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के नए प्रस्ताव के तहत विलय करने की है। आरआरबी के विलय से जहां ग्रामीण बैंकों का आधुनिकीकरण होगा, वहीं उनका नेटवर्क भी मजबूत होगा।वित्त मंत्रालय की आरआरबी में सीबीएस सिस्टम, नेट बैंकिंग जैसी सेवाओं को लागू करने की योजना है। वित्त मंत्रालय के प्रस्ताव के अनुसार देश के 82 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या को विलय के जरिए 46 पर लाना है।

वित्त मंत्रालय की योजना में प्रायोजक बैंक के रूप में भारतीय स्टेट बैंक, इंडियन बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, यूनाइटेड बैंक, जे एंड के बैंक, यूको बैंक, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, इलाहाबाद बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया प्रमुख रूप से शामिल हैं।

वित्त मंत्रालय ने कैबिनेट सचिवालय को यह भी लिखा है कि वह बीमा विधेयक पर फिर से विचार करे जिसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा को 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी किए जाने का प्रावधान किया गया है।सरकार प्रस्तावित पीएफआरडीए विधेयक में बदलावों को मंजूरी देकर पेंशन क्षेत्र में सुधार को गति दे सकती है। सूत्रों ने कहा कि सरकार एफआरडीए विधेयक में उस प्रस्ताव को शामिल कर सकती है जिससे पेंशन कोष अंशदाताओं को निश्चित रिटर्न सुनिश्चित हो सके। अगर ऐसा होता है तो यह वित्त पर संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों के अनुरूप होगा।लंबित पेंशन कोष नियामकीय एवं विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) विधेयक, 2011 को मंत्रिमंडल से मंजूरी मिलने के बाद इसे विचार के लिए संसद के आगामी मानसून सत्र में रखा जाएगा। मानसून सत्र जुलाई में शुरू होगा।पिछले कई साल से लंबित पीएफआरडीए विधेयक पेंशन क्षेत्र को निजी एवं विदेशी निवेश के लिए खोले जाने की वकालत करता है।

अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुस्ती के संकेतों के बीच केंद्र सरकार ने देशी-विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। सरकार ने दिसंबर महीने में ही पेंशन क्षेत्र में 26 फीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश [एफडीआइ] को मंजूरी दे दी।लेकिन ममता दीदी के विरोध के चलते इस विधेयक को संसद के शीतकालीन सत्र में पेश नही किया जा सका। पर जनता को चूना लदगाने में कोई कसर न छोड़ी जाये, इसकी तैयारियां की जा  चुकी है। मसलन सरकार ने बहुत चालाकी से यह अधिकार भी अपने पास सुरक्षित रखा है कि वह जब चाहे इस सीमा को बढ़ा सकेगी। इससे बड़ी बात यह है कि पेंशन क्षेत्र में निवेश करने वाले निवेशकों को न्यूनतम रिटर्न की कोई गारंटी नहीं मिलेगी।कैबिनेट ने पेंशन फंड नियमन व विकास प्राधिकरण विधेयक, 2011 में वित्त मंत्रालय की स्थायी समिति की कुछ सिफारिशों को शामिल करते हुए मंजूरी दी।विधेयक में इस बात का जिक्र नहीं होगा कि पेंशन फंड में एफडीआइ कितनी होनी चाहिए। इसका जिक्र अधिसूचना में किया जाएगा। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक, इसका फायदा यह होगा कि अगर सरकार को भविष्य में एफडीआइ की सीमा में कोई बदलाव करना हो तो उसे इसके लिए फिर से संसद में जाने की जरूरत नहीं होगी। बीमा के प्रकरण को वह दोहराना नहीं चाहती। सरकार ने पांच वर्ष पहले यह फैसला किया था कि बीमा में एफडीआइ की मौजूदा सीमा 26 से बढ़ाकर 49 फीसदी किया जाएगा। अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है, क्योंकि इसके लिए एक विधेयक संसद से पारित करवाना होगा। पेंशन फंड में सरकार के पास ऐसी बाध्यता नहीं होगी।वैसे सरकार ने वित्त मंत्रालय की स्थाई समिति के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया कि पेंशन फंड में निवेश करने वाले निवेशकों को न्यूनतम रिटर्न की गारंटी मिलनी चाहिए। सूत्रों के मुताबिक, ऐसा संभव नहीं है। हां, पेंशन फंड पर सरकार की निगरानी जरूर होगी। नए कानून में इस बात के भी पूरे प्रावधान किए गए हैं कि ग्राहकों के हितों के साथ कोई खिलवाड़ नहीं हो पाए, लेकिन गारंटीशुदा रिटर्न देने का वादा नहीं किया जा सकता। निवेशकों को बाजार के मुताबिक रिटर्न ही मिलता रहेगा।पेंशन फंड से परिपक्वता अविधि की समाप्ति से पहले रकम निकासी के बारे में सरकार ने कुछ कड़े प्रावधान किए हैं। सिर्फ बेहद जरूरी मामलों को छोड़कर [मसलन, घातक बीमारी वगैरह] अन्य किसी भी मामले में पेंशन फंड से निर्धारित अवधि से पहले राशि निकालने पर रोक होगी। सगे-संबंधियों की शादी में पैसा निकालने की भी अनुमति नहीं होगी। समिति ने कहा था कि निवेशकों को पेंशन फंड से आसानी से राशि निकालने की छूट होनी चाहिए। सरकार का कहना है कि इससे रिटर्न कम हो जाएगा।पेंशन सुधार का एजेंडा देश में पूर्व राजग सरकार ने शुरू किया था। पेंशन फंड में एफडीआइ लाने को लेकर पहला विधेयक संप्रग-एक ने पेश किया था, लेकिन वाम दलों की वजह से बात आगे नहीं बढ़ी। मार्च, 2011 में सरकार ने दोबारा यह विधेयक पेश किया था।

ममता दीदी की निर्मम सौदेबाजी और  राजनीति एक बार फिर पेंशन रिफार्म बिल के आड़े आ गई। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के विरोध के कारण गुरुवार को कैबिनेट ने पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (पीएफआरडीए) बिल पर फैसला टाल दिया। तृणमूल कांग्रेस के विरोध के आगे नतमस्तक केंद्र सरकार को पेंशन बिल फिर टालना पड़ा। आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ाने की कोशिश में नए सिरे से जुटे प्रधानमंत्री को पेंशन बिल के खिलाफ चिट्ठी लिखकर रेलमंत्री मुकुल राय ने कैबिनेट बैठक से पहले ही अपनी पार्टी के तेवर दिखा दिए। रेल मंत्री और तृणमूल नेता मुकुल राय ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बुधवार की रात पत्र लिखा था कि बिल पर और विचार की जरूरत है।दीदी को बंगाल की जनता से किये वायदे निभाने के लिए और मां माटी मानुष सरकार की साख बचाने के लिए जितने पैसे चाहिए, विश्व पुत्र और मंटेक बाबा बस उसका इंतजाम कर दें, आर्थिक सुधार का गिलोटिन वायरस मुक्त हो जायेगा ौर खून की नदियां बहने लगेंगी ताकि कारपोरेट मुनाफे और बाजार की प्यास बुझायी जा सकें!मुकुल राय  के मुताबिक स्थायी संसदीय समिति में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि नहीं होने के कारण उनकी पार्टी के विचार समाहित नहीं किए गए हैं। माना जा रहा है कि आसन्न राष्ट्रपति चुनावों में तृणमूल का समर्थन खोने के डर से बिल पर फैसला टाला गया।

सरकार के तृणमूल के आगे इतनी आसानी से हथियार डालने पर इसलिए हैरत जताई जा रही है, क्योंकि माना यह जा रहा था कि सपा से समझबूझ कायम होने के बाद ममता कीअड़ंगेबाजी को नजरअंदाज किया जाएगा। राष्ट्रपति चुनाव के चलते सरकार ऐसा साहस नहीं दिखा सकी और उसने गुरुवार को मंत्रिमंडल की बैठक में पेंशन विधेयक को बिना किसी चर्चा के टाल देने में ही भलाई समझी।

पेंशन क्षेत्र में निजी और विदेश निवेश के दरवाजे खोलने वाला पेंशन फंड निवेश एवं विकास प्राधिकरण विधेयक-2011 कैबिनेट के एजेंडे में तीसरे नंबर पर था, लेकिन मुकुल राय की चिट्ठी के मद्देनजर इसे नजरअंदाज कर सीधे चौथे नंबर के आइटम पर विचार हुआ और बैठक 20 मिनट में ही खत्म हो गई। मुकुल राय ने बैठक से एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को पत्र लिखकर विधेयक पर एतराज दर्ज करा दिया था। पत्र में कहा गया था कि चूंकि पेंशन विधेयक पर विचार करने वाली संसदीय समिति में तृणमूल का कोई सांसद नहीं है, लिहाजा पार्टी का दृष्टिकोण इसमें समाहित नहीं हुआ है। पहले समिति में सुदीप बंधोपाध्याय थे, लेकिन मंत्री बनने के बाद से उनकी जगह खाली है।

तृणमूल की हनक का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि ढांचागत परियोजनाओं पर प्रधानमंत्री द्वारा बुधवार को बुलाई गई बैठक में रेलमंत्री मुकुल रॉय आए ही नहीं थे। हालांकि इसके बावजूद पश्चिम बंगाल में सोनागार-दानकुनी फ्रेट कारीडोर को मंजूरी दी गई। गुरुवार को हुई बैठक में मौजूद मुकुल राय ने पेंशन बिल पर एक शब्द नहीं बोला। पेंशन विधेयक पर तृणमूल पहले भी विरोध जताती रही है और इसी कारण वह काफी समय से लंबित है। इसे मार्च 2011 में संसद में पेश किया गया था। वहां से उसे संसदीय समिति के पास भेज दिया गया। संप्रग सरकार की पिछली पारी में वाम दल ने इसका विरोध किया था। बिल पारित न होने से फिलहाल पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण कार्यकारी आदेश से काम कर रहा है और उसे वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है।

गौरतलब है कि समाज के तमाम तबकों की चिंताओं और सियासी दबाव के बाद सरकार पेंशन फंड में निवेशकों को गारंटीशुदा रिटर्न देने को राजी हो गई है। शीतकालीन सत्र में अब तक अपने आर्थिक सुधार के एजेंडे को बढ़ाने में नाकाम रही सरकार ने विपक्ष के सुझावों को मानकर पेंशन फंड नियामक विकास प्राधिकरण विधेयक में कई बड़े संशोधन करने की हामी भर दी है। गारंटीशुदा रिटर्न के अलावा निवेशकों को बाजार आधारित रिटर्न का विकल्प भी दिया जाएगा। साथ ही पेंशन फंड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को कानून के जरिए मंजूरी देने पर भी सहमति बन गई है। संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार के आर्थिक सुधारों के एजेंडे को करारा झटका लगा है। खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश [एफडीआइ]पर कदम पीछे खींचने के बाद सरकार को अब पेंशन व कंपनी विधेयकों को भी रोकना पड़ा है। इन तीनों ही मामलों में उसे अपनी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा और उसके दबाब में हर बार पीछे हटना पड़ा। इस मामले में भाजपा का भी विरोध था।

सरकार ने पेंशन विधेयक पर तो उससे सहमति बना ली थी, लेकिन एफडीआइ एवं कंपनी विधेयक पर बात नहीं बनी।

संसद का शीतकालीन सत्र सरकार के लिए अच्छा नहीं बीता। उसके आर्थिक सुधार ऐजेंडे को तो अपने घर से ही पलीता लगा। सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ, पेंशन फंड नियामक विकास प्राधिकरण [पीएफआरडीए] व कंपनी विधेयक तीनों मामलों में सरकार के प्रावधानों का जोरदार विरोध किया।ममता बनर्जी ने स्पष्ट कहा था कि पश्चिम बंगाल में उसके राजनीतिक हितों को देखते हुए खासकर वामपंथी दलों के साथ सीधे टकराव की स्थिति में वह इन मुद्दों पर समर्थन नहीं दे सकती है। सूत्रों के अनुसार ममता बनर्जी ने इस बारे में एक पत्र वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भेजा था। विपक्षी भाजपा भी कई मुद्दों पर सरकार से सहमत नहीं थी। सरकार ने संसद के अपने एजेंडे से पीएफआरडीए व कंपनी विधेयकों को अचानक हटा लिया। भाजपा तमाम संशोधनों की वजह से इसे फिर से संसद की स्थायी समिति के पास भेजना चाहती थी। ऐसे में सरकार के पास संसद के दोनों सदनों में इन विधेयकों को पारित कराने के लिए संख्याबल की समस्या खड़ी हो गई थी। साथ ही वह तृणमूल कांग्रेस को सदन में किसी भी मुद्दे पर अपने खिलाफ खड़ा नहीं करना चाहती थी।रिटेल में एफडीआइ पर अपने फैसले से पलटने के बाद आर्थिक सुधारों पर कदम पीछे खींचने का सरकार का यह दूसरा बड़ा मौका है। मल्टी ब्रांड रिटेल में भी 51 प्रतिशत एफडीआइ के अपने फैसले को सरकार टाल चुकी है।

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और भाजपा नेताओं के बीच हुई बैठक के बाद पेंशन फंड एवं नियामक विकास प्राधिकरण विधेयक को लेकर सहमति बन गई है। इसमें करीब 70 संशोधनों का प्रस्ताव आने के बाद सरकार पुराने विधेयक को वापस लेकर नया विधेयक पेश करने के विकल्प पर भी विचार कर रही है। यदि पेंशन विधेयक संसद से पारित होता है तो मल्टीब्रांड रिटेल में धक्का खाने के बाद आर्थिक सुधारों पर सरकार का यह पहला बड़ा कदम होगा।

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ हुई इस बैठक में भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली एवं पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा भी मौजूद थे। सूत्रों के अनुसार बैठक में सरकार ने पीएफआरडीए विधेयक पर सिन्हा की अध्यक्षता वाली वित्त संबंधी स्थायी समिति की गारंटी शुदा रिटर्न की सिफारिश को मान लिया है। गारंटीशुदा रिटर्न के साथ अन्य निवेश का विकल्प भी मौजूद रहेगा। इसके अलावा सरकार अब इसमें एफडीआइ के प्रावधान नियमों के तहत करने बजाय कानून के अंतरगत करने भी सहमत हो गई है। इस विधेयक का विरोध कर रही सरकार की सहयोगी तृणमूल कांग्रेस का रुख अभी साफ नहीं है। सरकार ने इस मामले पर तृणमूल कांग्रेस नेता एवं रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से चर्चा की है। इस विधेयक के बुधवार को लोकसभा में लाए जाने की संभावना है।

कंपनी विधेयक में सीमित दायित्व वाली साझीदार फर्मो [एलएलएम] के मुद्दे पर भी सरकार ने भाजपा की मांग मान ली है। भाजपा इस विधेयक को फिर से संसद की स्थायी समिति के पास भेजने के पक्ष में है। इसकी वजह इसमें स्थायी समिति के सुझाए 162 संशोधनों के साथ सरकार को अलग से विभिन्न संस्थाओं से लगभग 20 अन्य सिफारिशें भी मिली हैं। इस बारे में सरकार ने फिलहाल कोई आश्वासन नहीं दिया है।


...क्योंकि वित्त मंत्री को राष्ट्रपति बनाना है!

...क्योंकि वित्त मंत्री को राष्ट्रपति बनाना है!


http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=1569%3A2012-06-07-02-51-43&catid=34%3Aarticles&Itemid=54
-एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास-

जैसी दुर्गति कामरेड ज्योति बसु की बंगाल के माकपाइयों ने कर दी, अब बाजार और साउथ ब्लाक के मूड को देखते हुए लगता है कि ममता दीदी अपने कालीघाट के दुर्ग से एड़ी चोटी का जोर लगाकर भी वैसी फजीहत प्रणव मुखर्जी की शायद ही कर पायें। प्रणब दा अब निश्चिंत हो गये हैं और राष्ट्रपति बवन का ख्वाब देकते हुए चैन की नींद सो रहे हैं। न राजस्व घाटा से उनकी नींद में खलल पड़ रही है और न रुपये के लगातार गिरते जाने ​​से। राष्ट्रपति पद पर कारपोरेट इंडिया और बाजार की पसंद को तरजीह देकर कांग्रेस भी विपक्ष को मात देने की आखिरी कोशिश में लगी है।​​


उत्तर प्रदेश से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छोड़ी हुई सीट पर लोकसभा उपचुनाव में डिंपल यादव के किलफ प्रत्याशी न देकर कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस से निपटने की तैयारी भी कर ली है। वैसे ममता दीदी पोपुलिस्ट राजनीति में सबसे माहिर खिलाड़ी हैं। प्रणव दादा को विश्वपुत्र कहते ​​हुए राष्ट्रपति पद पर उनकी दावेदारी को नजरअंदाज करते हुए मीरा कुमार का नाम जो उन्होंने उछाला है, उसके पीछे एक साथ महिला और दलित वोट बैंक साधने और प्रणव मुखर्जी से आर्थिक पैकेज की सौदेबाजी का दोहरी रणनीति है। मायावती और ममता बनर्जी दोनों आखिरकार कांग्रेस का ही साथ देंगी, बाजार ने ऐसा सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आदिवासी और मुस्लिम राष्ट्रपति के सवाल पर विपक्ष इस कदर बंटा हुआ​​ है कि कांग्रेस को अपना राष्ट्रपति बनाने से शायद ही कोई रोक सकें। इसी समीकरण के चलते आर्थिक मंत्रालयों में नीति निर्धारण प्रक्रिया रुक सी गयी है और अर्थ व्यवस्था ठप है। फाइलों का अंबार जमने लगा है साउथ ब्लाक में क्योंकि अफसरान कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। प्रणव ​​दादा के राष्ट्रपति भवन में बसेरा डालने की स्थिति में आर्थिक मंत्रालयों में पता नहीं किस तरह का फेरबदल हो जाये, अनिर्णय या यथास्थिति के पीछे असली पेंच यही है। लेकिन मजे की बात तो यह है कि अर्थ व्यवस्था ठप हो जाने से न बाजार को और न कारपोरेट इंडिया को कोई ज्यादा ​​तकलीफ है।उद्योग बंधु विश्वपुत्र प्रणव दादा ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है कि आर्थिक सुधारों के एजंडे को लेकर उद्योग जगत में कोई शक की गुंजाइश रहे।पेट्रोल की दरों में भारी वृद्धि के बाद भारत बंद के असर को नाकाम करते हुए मामूली कटौती से कारपोरेट इंडिया की तबीयत हरी कर दी उन्होंने। सब्सिडी का सफाया होना तय है। गार खत्म। डीटीसी जीएसटी लागू होना तय हो गया है। विनिवेश और निजीकरण अब कोई माई का लाल रोक नहीं सकता और कारपोरेट इंडिया को बेलआउट जारी रहना है। सारे वित्तीय कानून निर्विरोध पास होने हैं। ऐसे में राष्ट्रपति अगर विश्वपुत्र हों तो खुला बाजार बम बम होना तय है।कारपोरेट नियंत्रत ​​मीडिया भी अर्थ व्यवस्था के कदम ठप हो जाने को लेकर कोई बावेला मचाने से परहेज कर रहा है।

देश के गरीब के लिए 28 रुपए रोजाना को पर्याप्त बताने वाले योजना आयोग ने अपने दफ्तर के टॉयलेट पर 35 लाख रुपये खर्च कर दिए। ये खुलासा एक आरटीआई के जरिए हुआ है।अर्थ व्यवस्था और राजनीति की दिशा दशा समझने के लिए यही एक उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए। आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने इस खर्च को जायज और नियमों के मुताबिक करार दिया है।हैरानी तो यह है कि टॉयलेट में दाखिल होने के लिए जो एक्सेस कार्ड सिस्टम लगाया गया है उसकी कीमत 5 लाख रुपए है। इसके अलावा टॉयलेट के बाहर सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गए हैं। टॉयलेट के रेनोवेशन के नाम पर लाखों रुपये पानी की तरह बहाने की खबर आरटीआई एक्टिविस्ट को एक पत्रकार से मिली। पत्रकार से मिली जानकारी के बाद एस.सी. अग्रवाल ने याचिका दायर की। इस विवाद के बाद योजना आयोग ने अपनी सफाई जारी की है। योजना आयोग के स्टेटमेंट में इसे रुटीन खर्चा बताया गया है। योजना आयोग का कहना है कि टॉयलेट की लागत सीपीडब्ल्यूडी ने तय की। उसी ने निर्माण कार्य भी करवाया। सीपीडब्ल्यूडी इस काम को करने के लिए अधिकृत सरकारी संस्था है। टॉयलेट के लिए जितना बजट तय था उसी में काम हुआ है। सभी काम नियमों के तहत हुआ है। ये टॉयलेट सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए बनाए गए हैं। ये बड़े अफसर या फिर सदस्यों के निजी इस्तेमाल के लिए नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया बिना तथ्यों के जांच के खबर बना रहा है।इस पर तुर्रा यह कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने माना है कि मौजूदा हालात साल 2008 के मुकाबले काफी निराशाजनक हैं। उन्होंने कहा कि ग्रोथ को बढ़ाने की तरह महंगाई पर काबू करना भी बड़ा अहम है। प्रणव मुखर्जी के मुताबिक मौजूदा हालात साल 2008 के मुकाबले ज्यादा चिंताजनक हैं। धीमी ग्रोथ, वित्तीय घाटे और बढ़ती महंगाई से चिंता बढ़ी है। साल 2008 में जीडीपी ग्रोथ 9.5 फीसदी पर थी।प्रणव मुखर्जी ने भरोसा दिलाया है कि मौजूदा हालात में घबराने की जरूरत नहीं है। सरकार में चुनौतियों का मुकाबला करने की क्षमता है। वित्तीय घाटे को जीडीपी के 2 फीसदी तक लाने की कोशिश करेंगे।

राष्ट्रपति चुनावों को लेर कांग्रेस और भाजपा नीत गठबंधनों एंव गैर कांग्रेस व गैर भाजपा दलों की ओर से शुरुआती जुमलेबाजी का दौर थमता दिख रहा हैं। अब संभावना है कि तीनों राजनीतिक पक्ष अगले सप्ताह प्रत्याशियों के नामों को लेकर गंभीर मंथन में जुटेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भरोसेमंद और पुराने सहयोगी मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा कि जुलाई में राष्ट्रपति चुनावों और उसके बाद विधानसभा चुनावों के अगले दौर के बाद सरकार कुछ चुनिंदा सुधारों की शुरुआत कर सकती है। इकॉनमी की मौजूदा हालत से कारोबारी जगत और निवेशकों को हताश होने की जरूरत नहीं है और चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था के फिर पुरानी लय में लौटने की शुरुआत हो सकती है।योजना आयोग के उपाध्यक्ष अहलूवालिया ने कहा कि मौजूदा कारोबारी साल के दूसरे हिस्से में अर्थव्यवस्था का उभार एक बार फिर शुरू होगा। उन्होंने कहा, '2011-12 में दर्ज 6.5 फीसदी ग्रोथ के साथ समस्या यह है कि यह चार तिमाहियों का औसत है। इन चार तिमाहियों में ग्रोथ क्रमश: धीमी पड़ती गई है। तिमाही आधार पर ग्रोथ में टर्नअराउंड आना अभी बाकी है। हमने जो कुछ कदम उठाए हैं, उनका असर जल्द ही तिमाही प्रदर्शन पर दिखने लगेगा। हो सकता है कि 2012-13 में हम 7.5 फीसदी ग्रोथ तक न पहुंचे, लेकिन हम 2011-12 के मुकाबले जरूर बेहतर करेंगे।' पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में भारत की जीडीपी ग्रोथ 5.3 फीसदी पर पहुंच गई, जिसकी ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया है। आम तौर पर इसके लिए सभी पक्षों ने सरकार को जिम्मेदार ठहराया है जो तिमाही दर तिमाही बेहोशी की स्थिति में दिख रही है और कहीं कोई फैसला होता नजर नहीं आ रहा। अहलूवालिया ने ईटी के साथ खास मुलाकात में कहा कि देश को कुछ कठिन फैसले लेने की जरूरत है। उन्होंने कहा, 'हमें इस समय (राष्ट्रपति चुनाव तक के समय) का इस्तेमाल लोगों को शिक्षित करना चाहिए और जो भी संभव हो, वे कदम उठाने चाहिए।'

4 जून को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के दौरान केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए की ओर से कोई आधिकारिक नाम सामने आ सकता है।कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए पार्टी उम्मीदवार का नाम तय करने के लिए अधिकृत किया है।भारत में राष्ट्रपति चुनाव में लगभग 11 लाख वोट हैं. जीत के लिए लगभग साढ़े पाँच लाख वोट चाहिए. मगर ना तो यूपीए और ना ही एनडीए के पास इतने वोट हैं।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष नितिन गडकरी सोमवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से उनके आवास पर जाकर मुलाकात की। कयास लगाया जा रहा है कि दोनों के बीच आगामी राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में बातचीत हुई होगी। संभावना है कि भाजपा नीत विपक्षी गठबंधन राजग तथा कांग्रेस एवं भाजपा नीत गठबंधनों से अलग रहे दलों का तीसरा राजनीतिक पक्ष इसके बाद ही इस बारे में अपना रुख तय करेंगे।गौरतलब है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल खत्म होने में अब 60 दिन से भी कम समय शेष हैं और चुनाव आयोग अब किसी भी दिन इस चुनाव के लिए अधिसूचना जारी कर सकता हैं। चुनावों सुगबुगाहट में मुखर्जी, कलाम तथा संगमा के अलावा उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी का नाम लगभग समगीति से चलता रहा है।चर्चाओं के पहले चरण में सबसे प्रबल तरीके से मुखर्जी का नाम सामने आया और आलम यह था कि संसद के बजट सत्र में 2012-13 के आम बजट तथा विनियोग विधेयक पर चर्चा के दौरान भाजपा नेता यशवंत सिंह सहित पक्ष और विपक्ष के कई नेताओं ने उसकी इस संभावित पदोन्नति पर उन्हें अग्रिम बधाई तक दे डाली थी।हालांकि यूपीए में शामिल तृणमूल कांग्रेस मुखर्जी की उम्मीदवारी से सहमत नहीं है। इस पद के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पसंदीदा लोगों की सूची में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, एपीजे अब्दुल कलाम और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी शामिल हैं।

माना जा रहा है कि आरबीआई जल्द ही प्रमुख ब्याज दरों में कटौती कर सकता है। सेंसेक्स में शामिल सभी 30 शेयरों में तेजी का रुख रहा। मजबूत अंतर्राष्ट्रीय संकेत और सरकार द्वारा अहम फैसले लिए जाने की उम्मीद ने बाजार में जोश भर दिया।यूरोजोन पर चिंता बढ़ने से घरेलू बाजार भी ऊपरी स्तरों से फिसले थे। लेकिन, बाजार जल्द संभले और सेंसेक्स-निफ्टी में 2 फीसदी से ज्यादा की तेजी आई।जीडीपी आंकड़ों के झटके से बाजार उबर नहीं पा रहे हैं। कोर सेक्टर की रफ्तार धीमी पड़ने से वित्त वर्ष 2013 में जीडीपी दर और भी कम रहने के आसार लग रहे हैं। उद्योग की मांग है कि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए कर्ज सस्ता किया जाए। सेंसेक्स 434 अंक चढ़कर 16454 और निफ्टी 138 अंक चढ़कर 4997 पर बंद हुए।एशियाई बाजारों में तेजी की वजह से घरेलू बाजार 0.5 फीसदी की मजबूती पर खुले। शुरुआती कारोबार में ही बाजारों ने रफ्तार पकड़ ली और निफ्टी ने 4900 का अहम स्तर पार कर लिया।इंफ्रास्ट्रक्चर पर प्रधानमंत्री की बैठक से बाजार में सरकार की ओर से ठोस कदम उठाए जाने की उम्मीद जगी है। साथ ही, डीजल कारों पर एक्साइज ड्यूटी मामले पर ऑटो इंडस्ट्री और वित्त मंत्रालय की बैठक होने वाली है।मजबूत अंतर्राष्ट्रीय संकेत और सरकार द्वारा अहम फैसले लिए जाने की उम्मीद ने बाजार में जोश भर दिया। सेंसेक्स 434 अंक चढ़कर 16454 और निफ्टी 138 अंक चढ़कर 4997 पर बंद हुए।एशियाई बाजारों में तेजी की वजह से घरेलू बाजार 0.5 फीसदी की मजबूती पर खुले। शुरुआती कारोबार में ही बाजारों ने रफ्तार पकड़ ली और निफ्टी ने 4900 का अहम स्तर पार कर लिया।इंफ्रास्ट्रक्चर पर प्रधानमंत्री की बैठक से बाजार में सरकार की ओर से ठोस कदम उठाए जाने की उम्मीद जगी है। साथ ही, डीजल कारों पर एक्साइज ड्यूटी मामले पर ऑटो इंडस्ट्री और वित्त मंत्रालय की बैठक होने वाली है।ऑटो, कैपिटल गुड्स और पावर शेयरों में जोरदार तेजी की वजह से बाजार में मजबूती लगातार बढ़ती नजर आई। यूरोपीय बाजारों के भी मजबूती पर खुलने से सेंसेक्स 300 अंक चढ़ा और निफ्टी 4950 के ऊपर चला गया।ऑटो, कैपिटल गुड्स और पावर शेयरों में जोरदार तेजी की वजह से बाजार में मजबूती लगातार बढ़ती नजर आई। यूरोपीय बाजारों के भी मजबूती पर खुलने से सेंसेक्स 300 अंक चढ़ा और निफ्टी 4950 के ऊपर चला गया।अब बाजार की नजर 18 जून को होने वाली आरबीआई की मिड टर्म क्रेडिट पॉलिसी बैठक पर है। बाजार को उम्मीद है कि आरबीआई रेपो रेट में कटौती कर सकता है। लेकिन, आरबीआई के लिए महंगाई अब भी बड़ा सिरदर्द बनी हुई है।अब बाजार की नजर 18 जून को होने वाली आरबीआई की मिड टर्म क्रेडिट पॉलिसी बैठक पर है। बाजार को उम्मीद है कि आरबीआई रेपो रेट में कटौती कर सकता है। लेकिन, आरबीआई के लिए महंगाई अब भी बड़ा सिरदर्द बनी हुई है।

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर, सुबीर गोकर्ण का कहना है कि विकास में उम्मीद से ज्यादा गिरावट आई है। जीडीपी दर घटने का महंगाई पर कितना असर पड़ता है, ये देखना होगा।

सुबीर गोकर्ण के मुताबिक अप्रैल में महंगाई दर काफी ऊंचे स्तर पर रही थी और मई के आंकड़ों का इंतजार है। साथ ही, वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ी दिक्कतें इतनी जल्द खत्म नहीं होने वाली हैं।

सुबीर गोकर्ण का मानना है कि वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत है। रुपये में स्थिरता लाने के लिए आरबीआई पूरी कोशिश कर रहा है।

इस बीच समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार डिम्पल यादव की राह में रोड़ा बनने की भाजपा की चाहत परवान नहीं चढ़ सकी। आनन-फानन में कन्नौज लोकसभा सीट से उपचुनाव में प्रत्याशी घोषित किए गए जगदेव सिंह यादव बुधवार को नामांकन दाखिल करने के अंतिम समय तक अपना नामांकन नहीं भर सके। कांग्रेस और बसपा द्वारा भी डिम्पल यादव के समाने कोई प्रत्याशी नहीं उतारे जाने से उन्हें वाक ऑवर मिलना तय माना जा रहा है। राष्ट्रपति चुनाव की यह मोड़ घुमाव स्थिति है। क्षत्रपों ने कांग्रेस का विरोध जो किया है , वह अपने अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए। इससे कांग्रेस को ज्यादा असर नहीं पड़ा।क्षत्रपों से निपटने की कला प्रणव दाद से बेहतर किसे आती है ममता दीदी को पटाये रखने में ुनकी दक्षता की तो आखिर दाद देनी पड़ेगी।न्यायपपालिका और केंद्रीय एजंसियां लालू यादव, मायावती.करुणानिधि, मायावती, जयललिता, शिबू सोरेन को साधने के लिए काफी है। पर क्षत्रपों को पटाने में संघ परिवार के पास हिंदुत्व के सिवाय कोई अचूक रामवाण नहीं है। पर प्रधानमंत्रित्व की दावेदारी को लेकर शीर्ष नेताओं के घमासान और नरेंद्र मोदी की बढ़ती दावेदारी से भाजपा और समूचे संघ परिवार में ऐसा घमासान मचा हुआ है कि क्षत्रपों को लगाम कसने की फुरसत कहां है, अपना घर संभालने में ही बेबस हैं हिंदुत्व के थोक कारोबारी। निकट भविष्य में कांग्रेस के लिए कोई बड़ी आफत हिंदुत्व लाबी खड़ी कर पायेगी और बाजार इसकी इजाजत देगा, इसमें शक की गुंजाइश है। डिंपल मामले में भाजपा का खोकलापन उजागर हो ही गया।आखिर कारपोरेट इंडिया को किस बात की तकलीफ हो सकती है कांग्रेस से नीति निर्दारण में तो १९९१ से उसीकी चल रही है। भाजपा को मौका देकर देखा है, अब क्या देखना है? कम से कम आडवाणी से तो प्रणव दादा उसके लिए ज्यादा मुनाफावसूली का सबब बने हुए हैं।मनमोहन से बाजार को तकलीफ ही कब थी?

अब संकटग्रस्त विमानन उद्योग को ही लीजिये। एअर इंडिया को बेचने की पूरी तैयारी है। भूखों मरते कर्मचारियों की जायज मांगों की कोई​ ​ सुनवाई नहीं हो रही है। जीवन बीमा का ऐसी तैसी हो गयी। सारे बंदर बिकने को तैयार हैं। बेंकों को कारपोरेट इंडिया को पूंजी जुटाने का काम सौंपा गया है।एसबीआई टारगेट पर है। तेल कंपनियों को रिलायंस और दूसरी कंपनियों के आगे तरजीह दी जा रही है। कोल इंडिया को निजी बिजली कंपनियों का गुलाम बना दिया गया है।टेलीकीम सेक्टर का हाल तो स्पेक्ट्रम घोटाले से जगजाहिर हो गया है। बाजार में कालाधन घूमाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं है। प्रोमोटरों और बिल्डरों की चांदी है। ऐसे में एयर इंडिया अगले कुछ महीनों में 100 नए पायलटों की नियुक्ति करेगी। हड़ताली पायलटों के लिए संभावनाओं के करीब-करीब सभी द्वार बंद करते हुए नागर विमानन मंत्री अजित सिंह ने बुधवार को बात कही। बर्खास्त पायलटों से उन्होंने कहा कि वे नए सिरे से आवेदन कर सकते हैं। बर्खास्त किए गए 101 पायलटों की जगह नए पायलटों की नियुक्ति का संकेत देते हुए सिंह ने कहा कि 90 पायलटों का प्रशिक्षण चल रहा है और वे अगस्त में उड़ान कार्य के लिए उपलब्ध होंगे। इंडियन पायलट्स गिल्ड (आईपीजी) के नेतृत्व में चल रही महीने भर लंबी हड़ताल के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, 'हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं जिन नई उड़ानों के परिचालन की हमने योजना बनाई है उनके लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन - पायलट और इंजिनियर- हों।'

दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप पर अमेरिकी हथियार उद्योग का शिकंजा कसता जा रहा है।अमरीकी रक्षा मंत्री लियोन पनेटा ने अपने पहले भारत दौरे के आखिरी दिन बुधवार को भारतीय रक्षा मंत्री एके एंटनी से मुलाकात की। अमरीकी रक्षा मंत्री ने अफगानिस्तान समेत एशिया में सुरक्षा मुहैया कराने में भारत की भूमिका के महत्व पर जोर दिया है। कहा जा रहा है कि पनेटा के इस भारत दौरे का उद्देश्य एशिया पर केंद्रित अमरीका की नई रणनीति पर चर्चा करना है,लेकिन हकीकत कुछ और है। भारत अमेरिकी परमाणु संधि और आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका और इजराइल के साथ पार्टनरशिप की कीनमत भारत को चुकानी है संकटग्रस्त अमेरिकी युद्ध गृहयुद्द व्यवस्था को संकट से उबारकर। चीन और पाकिस्तान के साथ छायायुद्ध और राष्रीय सुरक्षा , माओवाद के बहाने आंतरिक सुरक्षा के नाम अमेरिकी हथियार कंपनियों से रक्षा सौदा करके। पनेटा इसी मकसद को ्ंजाम देने भारत आये हैं। सरकार और नीति निर्धारकों में तो अमेरिकापरस्तों की लंबी कतार है ही।फिर ऐसे सौदों से भारतीय रक्षा उद्योग को तो आखिर चवन्नी अठन्नी मिलनी ही है!जिस फिलीस्तीन मसले पर कभी इंदिरा गांधी के जमाने में सबसे ज्यादा मुखर रहा है भारत, उस मसले पर गजब की खामोसी ही नहीं है, बल्कि आंतरिक सुऱक्षा तक सीआईए और मोसाद के हवाले हैं।ऐसे में विश्व पुत्र से ज्यादा काबिल राष्ट्रपति कौन हो सकते हैं, जो समाजवादी इंदिरा के वित्तमंत्री रहे हैं और खुला बाजार के मसीहा भी बनकर अवतरित हैं!भारत के दौरे पर पहुंचे अमेरिकी रक्षा मंत्री लियॉन पनेटा ने मंगलवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन से मुलाकात की। माना जा रहा है कि मुलाकात के दौरान सैन्य रिश्तों को मजबूत करने के उपायों और भारतीय उपमहाद्वीप में सुरक्षा के हालात पर बातचीत हुई।अमेरिकी रक्षा मंत्री लियोन पनेटा की शुरू हुई भारत यात्रा पर चीन चौकन्ना है और उसने अमेरिका को आगाह किया है कि वह उसके खिलाफ राजनीतिक एवं सैनिक लामबंदी से बाज आए।पनेटा चीन के आसपास के देशों की यात्रा कर नई दिल्ली पहुंचे हैं । अमेरिकी रक्षा सूत्रों के अनुसार पनेटा की यात्रा का मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान में भारत को आर्थिक भागीदारी के लिए राजी करना और रक्षा सौदों को आगे बढ़ाना है। पनेटा फिलीपींस वियतनाम और सिंगापुर की यात्रा के बाद नई दिल्ली पहुंचे हैं। चीन सरकार को पनेटा की भारत यात्रा नागवार गुजरी है सरकारी समाचार पत्र पीपुल्स डेली ने चेतावनी दी है कि अमेरिका की बढ़ती सक्रियता से एशिया की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है। समाचार पत्र ने अमेरिका के इस एलान को खारिज किया कि वह चीन को घेरने की कोशिश नहीं कर रहा है। पीपुल्स डेली के अनुसार अमेरिका एशिया और प्रशांत क्षेत्र में जो मंसूबे रखता है। वह सबके सामने हैं। इससे एशिया के देशों में वैमनस्य बढ़ेगा।चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लियु वीमिन ने पनेटा की यात्रा के बारे में कहा क अमेरिका को चीन के क्षेत्रीय हितों को ध्यान में रखना चाहिए। प्रवक्ता ने कहा कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी में बढोतरी उचित नहीं है।

रालोद प्रमुख और नागर विमानन मंत्री अजित सिंह ने कहा कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद के ‘योग्य’ उम्मीदवार हैं. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि अन्य के बारे में भी उनके विचार उतने ही सकारात्मक हैं।सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम के साथ बैठक के बाद कहा, ‘वित्त मंत्री राष्ट्रपति के लिए योग्य हैं. उनके बारे में मेरे विचार सकारात्मक हैं. लेकिन अन्य के बारे में भी मेरे विचार सकारात्मक हैं।’वह शीर्ष संवैधानिक पद के चुनाव और उसके लिए मुखर्जी की उम्मीदवारी के बारे में पूछे गये सवाल का जवाब दे रहे थे।सिंह ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी संप्रग सहयोगियों के साथ विचार विमर्श करके राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के बारे में विचार करेंगी।रालोद प्रमुख ने कहा कि उन्होंने आगामी राष्ट्रपति चुनाव और सरकारी नौकरियों में जाट समुदाय को ओबीसी का दर्जा दिलवाने के बारे में गृह मंत्री से बातचीत की।

नागर विमानन मंत्री ने कहा कि वह विमानन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बारे में विचार विमर्श के लिए शीघ्र ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करेंगे।

वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने विदेश व्यापार नीति 2012-13 का ऐलान कर दिया है।आनंद शर्मा के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट के चलते ये साल चुनौती भरा साबित होगा। डॉलर के मुकाबले रुपये में कमजोरी चिंता का विषय बन गया है। मंदी के पहले जैसी निर्यात में बढ़ोतरी आने में वक्त लगेगा।वित्त वर्ष 2012 में निर्यात 20 फीसदी बढ़ा है। इंजीनियरिंग एक्सपोर्ट्स 6000 करोड़ रुपये से ज्यादा के रहे थे। सरकार ने 2014 तक निर्यात दोगुना करके 50000 करोड़ रुपये करने का लक्ष्य रखा है।

आनंद शर्मा का कहना है कि नई व्यापार नीति के जरिए ट्रांजैक्शन कॉस्ट कम करने पर जोर दिया जाएगा। नीति का उद्देश्य व्यापार घाटा कम करना है।सरकार की व्यापार करार पर यूरोजोन से बातचीत जारी है। साथ ही, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा के साथ ही व्यापार करार करने पर चर्चा की जा रही है।

नई नीति के तहत सरकार ने हैंडलूम, हैंडीक्राफ्ट, कारपेट निर्यात के लिए 2 फीसदी ब्याज छूट 1 साल और बढ़ाई है।इसके अलावा रेडीमेड कपड़े, खिलौनों के निर्यात पर भी 2 फीसदी ब्याज छूट की स्कीम लागू होगी। प्रोसेस्ड फार्म प्रोडक्ट्स के एक्सपोर्ट पर भी ब्याज छूट दी जाएगी।सरकार ने कैपिटल गुड्स एक्सपोर्ट पर जीरो ड्यूटी ईपीसीजी स्कीम की मियाद 1 साल बढ़ाकर मार्च 2013 की है। अमेरिका और यूरोजोन देशों को किए जाने वाले कपड़ों के निर्यात पर छूट 31 मार्च तक बढ़ाई गई है।

सरकार का कहना है कि उत्तरपूर्वी राज्यों से निर्यात को बढ़ावा दिया जाएगा। एसईजेड के लिए नई गाइडलाइंस जारी की जाएगी। साथ ही, ईपीसीजी स्कीम में और आइटम जोड़े जाएंगे।

फिक्की का कहना है कि सिर्फ व्यापार नीति के जरिए निर्यात में पर्याप्त बढ़ोतरी नहीं की जा सकती। दूसरे देशों से मुकाबला करने के लिए जरूरी है कि भारत के निर्यातकों को जरूरी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं।