http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20296-2012-05-27-07-55-13
ताकि गर्द कुछ हटे
Sunday, 27 May 2012 13:23 |
ओम थानवी
चंचल
चौहान ने कोई अठारह सौ शब्दों की प्रतिक्रिया हमें भेजी। मामूली संपादन कर
उसे भी पर्याप्त जगह दी। वे बरसों से जनवादी लेखक संघ के महासचिव हैं।
पेशेवर मार्क्सवादी की तरह उन्होंने मेरे ‘दोषपूर्ण नजरिए’ में ‘सामंती
परंपरा’ ही नहीं, ‘विश्व पूंजीवाद’ भी ढूंढ़ निकाला: ‘‘अंतरराष्ट्रीय
वित्तीय पूंजी दुनिया भर में यह विचार या चेतना फैला रही है कि विचारधारा
और विचारधारा से लैस संगठन व्यर्थ हैं।’’ यानी जनसत्ता जनवादी लेखक संघ के
विरुद्ध किसी अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र में शरीक है! आरोप जड़ने की वजह यह:
‘‘हमें शायद यह लिखने की जरूरत न होती, अगर ओम थानवी ने अपनी टिप्पणी में
जनवादी लेखक संघ को खासकर और अन्य वामपंथी लेखक संगठनों को आमतौर पर बदनाम
करने के अपने छिपे एजेंडों को अपनी टिप्पणी के केंद्रीय संवेदन के रूप में
शामिल न कर लिया होता।’’जनसत्ता 27 मई, 2012: एक पाठक ने ‘आवाजाही’ पर चली बहस पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया की: यह हाल तो तब है जब ‘अनन्तर’ कभी-कभार छपता है। ‘कभी-कभार’ की तरह निरंतर छपने लगेगा तब? पता नहीं। पर जो टिप्पणियां हमने छापीं, वे सब प्रतिनिधि प्रतिक्रियाएं नहीं थीं। एकाध को छोड़कर लोग आवाजाही के हक में ही जान पड़े। विरोध में आई टिप्पणियों को हमने भरपूर जगह दी। आनंद स्वरूप वर्मा की उस प्रतिक्रिया को भी, जो जनसत्ता से जैसे कोई हिसाब चुकता करने की गरज से लिखी गई थी। वे आठ साल हमसे जुड़े रहे, फिर विदा हुए। ऐसी जुदाई किसे रास आती है। खास बात यह रही कि उनकी प्रतिक्रिया जनसत्ता में चली बहस को लेकर थी, पर हमें नहीं भेजी गई थी। उसे हमने वेब-पत्रिका ‘जनपथ’ से लेकर साभार प्रकाशित किया। इस पर कुछ मित्रों ने कहा, हमें गाली खाने का शौक है। पंकज सिंह बोले, आंगन कुटी छवाय? शरद दत्त ने कहा, संपादित कर देना भी संपादक का अधिकार होता है। सुधीश पचौरी का कहना था, अपनी निंदा छापने के लिए साहस चाहिए। जो हो, लोकतंत्र में आस्था रखना संपादकीय दायित्व निर्वाह की पहली शर्त है। इसलिए समर्थन से ज्यादा विरोध को जगह देना मुझे अधिक जरूरी जान पड़ता है। सो दूसरे स्तंभ रोक कर ऐसी प्रतिक्रियाओं को सविस्तार प्रकाशित किया (वर्मा, मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के ‘पत्रों’ का एक शब्द नहीं काटा) तो इसलिए भी कि उदार रवैये की बात ‘मुखौटा’ न लगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, कि फिर भी कुछ को वह मुखौटा ही लगी! सचाई अंतत: सचाई की तरह ही सामने आती है। लेकिन फौरी तौर पर तथ्यों से खिलवाड़ की कोशिश की जा सकती है। कुछ पत्र ऐसे मिले, जैसे संवाद न हुआ, स्कूल-कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता जीतने के लिए की जाने वाली कलाबाजी का उपक्रम हो गया! एक पत्र में- आप आगे देखेंगे- कैसे चोर की दाढ़ी में तिनके वाली पेशकदमी है, दूसरे में जनसत्ता से बिछुड़ने की टीस, तीसरे में मनमोहन सिंह के कार्यकाल को अटल बिहारी वाजपेयी का बताकर शौर्य अर्जित करने की चाह और चौथे में जाने-अनजाने मूल बहस को पटरी से उतारने की कार्रवाई। इनसे संबंधित कुछ जरूरी तथ्य मैं रखता चलूं, ताकि सनद रहे। पिछले महीने छपी मेरी टिप्पणी में क्या था? मुख्यत: इंटरनेट पर चली उस बहस का ब्योरा, जिसमें युवा लेखकों और आम पाठकों ने मंगलेश डबराल के एक दक्षिणपंथी विचार-मंच पर जाने और विष्णु खरे के हाथों संघ और शिवसेना समर्थक कवि नामदेव ढसाल की किताब का लोकार्पण किए जाने की बुरी तरह निंदा की थी। मेरा खयाल है उसी बहस के दबाव में मंगलेश जी ने अपनी शिरकत के लिए खेद प्रकट कर दिया (जिसकी मुझे बाद में खबर हुई), लेकिन विष्णु खरे अडिग रहे। खरे ने बहुत सटीक दलील भी दी कि ‘‘... इकबाल का फिरन निरपराध मुसलिम-हिंदुओं के खून से रंगा हुआ है, फिर भी हम उन्हें बड़ा शायर मानते हैं...।’’ मेरी टिप्पणी खरे जी की दलील को ही आगे बढ़ाती थी। मैंने लिखा, यह आवाजाही बुरी नहीं। अपने ही घेरे में कदमताल करना आगे नहीं ले जाता, भले ही लेखक संगठनों की राजनीति उसी के लिए प्रेरित करती हो। जबकि विरोधी या विपरीत मंच पर शिरकत विचार की विश्वसनीयता का दायरा बढ़ाती है। संवाद और पारस्परिकता तो उससे बढ़ती ही है। हालांकि खरे से पहले त्रिलोचन, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, विभूतिनारायण राय, पंकज बिष्ट आदि अनेक मार्क्सवादी विपरीत विचारधारा वाले मंचों पर जाते रहे हैं। लेकिन इसके लिए उनकी टांग खिंचती रही है। साहित्य की दुनिया में यह असहिष्णुता लोकतांत्रिक नहीं है। खासकर तब जब किसी ने विपरीत मंच पर जाकर कोई दकियानूसी या सांप्रदायिक बात न कही हो, किसी दूसरे ने कही हो तो उसके प्रति अपना विरोध या असहमति प्रकट न की हो। इस पर जो प्रतिक्रियाएं हमें मिलीं, उनसे जाहिर होता है कि यह बात कवि और पुराने सहयोगी मंगलेश डबराल के गले नहीं उतरी। वरना विष्णु खरे तो उस दलील के चलते ही नामदेव ढसाल के आयोजन में और एक सेठ (चिनॉय नहीं!) की ‘परिवार’ संस्था का पुरस्कार लेने गए थे। चंचल चौहान भी कहते हैं कि उनके लेखक संघ ने किसी सदस्य की ‘आवाजाही पर प्रतिबंध नहीं’ लगाया, जलेस का घोषणा-पत्र ‘आलोचनात्मक बहुलता’ का आदर करता है और ‘किसी तरह की संकीर्णता’ को प्रश्रय नहीं देता। बचे आनंद स्वरूप वर्मा। वे भी एक बार तो उदारता का ही पक्ष लेते हैं: ‘‘अगर किसी के दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी/प्रगतिशील होने का मापदंड गोष्ठियों में जाने को ही बना लिया जाए न कि उसके जीवन और कृतित्व को तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्धारण इस तरह के सतही मापदंडों से नहीं होता कि कौन कहां जा रहा है या किससे मिल रहा है।’’ लेकिन वर्मा की होशियारी यह है कि उदारता की यशलिप्सा के बावजूद अगले ही वाक्य में उदय प्रकाश पर लाठी भांजना नहीं भूलते: ‘‘उदय प्रकाश का मामला इससे थोड़ा भिन्न था, क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के हाथों पुरस्कार लिया जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी और प्रतिगामी विचारों का घोषित तौर पर पोषक है।’’ वर्मा का कहना है कि इसके बावजूद वे उदय वाले प्रसंग को मुद्दा बनाने के पक्ष में नहीं थे। ‘‘कहीं अनजाने में तो उनसे यह चूक नहीं हो गई और इसी आधार पर मैंने उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया था। हालांकि ओम थानवी ने हस्ताक्षरकर्ताओं में मेरा नाम भी अपने लेख में डाल रखा है।’’ मुझे कोसने के लिए वर्मा जी को और मौके मिलेंगे, पर उस वक्त- जुलाई 2009 में- उदय प्रकाश की निंदा करते हुए पैंसठ लोगों का जो ‘‘विरोध-पत्र’’ देश भर में प्रसारित हुआ, उसमें दस नंबर पर उनका नाम अंकित था। अपूर्व घमासान में वह सूची ब्लॉग-दर-ब्लॉग तैरती रही, हैरानी है कि मंगलेश डबराल के नाम अपना ‘‘पत्र’’ जनसत्ता के बजाय इंटरनेट पर सार्वजनिक करने वाले और ‘उस्तरापकड़ बंदरों’ के ब्लॉगों की टोह रखने वाले वर्मा की नजर उस सूची पर नहीं पड़ी। तीन साल हो गए, पर ‘कबाड़खाना’ नामक ब्लॉग के कबाड़ (आर्काइव) में वह सूची अब भी मौजूद है, अगर अपने कंप्यूटर पर वे टंकित करने की जहमत उठाएं। कम-से-कम ‘‘नाम डालने’’ के उनके आरोप से तो मैं फौरन बरी हो जाऊंगा! वर्मा जी ने मुझे ‘‘अत्यंत अनैतिक और निकृष्ट कोटि का संपादक’’ बताया है। गाली तब निकलती है जब तर्क चुक जाता है। जहां तक नैतिकता की बात है, मैं न वर्मा जी से होड़ ले सकता हूं न मंगलेश जी से। पूंजीवाद और सर्वहारा की बात करने वाले दोनों ‘सहारा’ की सेवा में थे। इस बात की चर्चा उनके मित्र जिक्र छिड़ते ही करते मिल जाएंगे। वर्मा जी की मेहरबानी है कि ‘निकृष्टता’ का उदाहरण यह दिया है उनके किसी लेख में जनयुद्ध शब्द पर मैंने ‘इनवर्टेड कोमा’ लगा दिया, या नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचंड के हाथों किसी कटवाल की बर्खास्तगी मुझे रास नहीं आई। देर तक दिमाग पर जोर डाले रहा कि नेपाल में एक कनक दीक्षित को छोड़ किसी दूसरे शख्स को ठीक से जानता भी नहीं, यह कटवाल कौन हैं! बाद में गूगल पर देखा कि नेपाल के सेनाध्यक्ष थे। गौर करने की बात यह है कि वर्मा यह नहीं बताते जनसत्ता में आठ बरस उन्होंने ‘इनवर्टेड कोमा’ या अन्य किसी तरह के बाधा के बगैर कैसे लिखा, न यह कि जनसत्ता के अलावा किस राष्ट्रीय दैनिक ने उन्हें लगातार पहले पन्ने पर जगह दी- बाकायदा नाम के साथ, जैसे स्टाफ को देते हैं। हमने उनसे नियमित स्तंभ भी लिखवाया। क्या हमें मालूम नहीं था कि उनकी विचारधारा क्या है, या यह कि उनके लिए देश की किसी भी समस्या से बड़ी चीज नेपाल का माओवादी आंदोलन है? उनकी असल तकलीफ यह है कि उनके हाथ से जनसत्ता निकल गया, जहां उन्हें नेपाल के ‘जनयुद्ध’ को लेकर कुछ भी लिखने की छूट थी। क्या आपको भी लगता है कि उन्होंने एक ‘इनवर्टेड कोमा’ के मुद्दे पर राब्ता तोड़ दिया? हकीकत यह है कि हाथ हमने जोड़े। कारण के खुलासे में जाना अनावश्यक है। वे कहते हैं, विवाद होने पर जनयुद्ध शब्द को त्याग कर उसकी जगह सशस्त्र संघर्ष लिखना शुरू कर दिया जो हमें समझ नहीं पड़ा। क्या मासूमियत है! सचाई यह है कि एक स्वतंत्र अखबार मुट्ठी भर माओवादियों के संघर्ष को सारी जनता का जनयुद्ध नहीं ठहरा सकता, खासकर तब जब ‘लेख’ पहले पेज पर समाचार-विश्लेषण की तरह छप रहा हो; पर सशस्त्र संघर्ष तो वह था ही, उस पर किसी को क्या एतराज हो सकता है! लेकिन, क्या बाहर के लेखक को बरसों-बरस इतने सम्मान के साथ प्रकाशित करने वाले संपादक के पास किसी एक विवादास्पद जुमले पर इनवर्टेड कोमा लगाने का अधिकार भी नहीं होता? हम लोकतंत्र में जीते हैं या माओवादी राज में? पिछले बत्तीस वर्षों में संपादन के विभिन्न जिम्मे निभाते हुए मुझे बेशुमार लेखकों का लिखा प्रकाशित करने का अवसर मिला है। इनमें ज्यादातर वामपंथी (समाजवादी समाहित) लेखक रहे हैं। अनेक अपने दौर के बड़े लेखक और संपादक भी रहे हैं। जहां जरूरी लगा, काट-छांट भी की है। पर किसी ने इस संपादकीय अधिकार- या दायित्व- को नैतिक-अनैतिक या निकृष्ट-उत्कृष्ट की तलछट में नहीं उतारा। चंचल जरा यह बताएं: अपने लेख में मैंने जनवादी लेखक संघ का नाम किस जगह लिखा है, सिवाय इस उल्लेख के कि उदय प्रकाश इस संघ के सदस्य थे? एक जगह भी नहीं। फिर भी चंचल जी को मेरी टिप्पणी में ‘‘जनवादी लेखक संघ को खासकर... बदनाम करने’’ का ‘‘छिपा एजेंडा’’ ‘‘केंद्रीय संवेदन के रूप में’’ दिखाई दे गया है, तो यह महासचिव के अपने दिमाग की ही उपज है। लेख में मैंने लेखक संगठनों की विचार-पद्धति पर अंगुली जरूर उठाई है, पर कोई संघ विशेष उसमेंनिशाने पर कहीं नहीं रहा। मंगलेश डबराल ने अपने स्पष्टीकरण में मजेदार बातें लिखी है। वे कहते हैं कि मैंने अपनी टिप्पणी में उनका पक्ष क्यों नहीं दिया। वही बताएं कि उनका पक्ष मेरे ध्यान में आता तो क्यों न देता? ‘अनन्तर’ के नाम पर कोई खबर तो नहीं लिखी जा रही थी, जिसमें हर ‘पीड़ित पक्ष’ को फोन कर उसका बयान पिरोया जाता। स्तंभ में हिंदी साहित्य जगत की एक प्रवृत्ति पर टिप्पणी थी जो इंटरनेट पर चली बहस पर केंद्रित थी। बहस मुख्यत: ‘जनपथ’ और ‘मोहल्ला लाइव’ पर चली। तीन सौ से ज्यादा प्रतिक्रियाएं वहां शाया हुर्इं, पर मंगलेश जी का पक्ष कहीं पर सामने नहीं आया। अब मंगलेश कहते हैं कि उनके ‘‘कुछ मित्रों द्वारा’’ फेसबुक पर उनका स्पष्टीकरण जारी किया गया था, जिसे मैंने ‘‘अत्यंत सुविधाजनक ढंग से अनदेखा कर दिया’’। फेसबुक पर मेरे पांच हजार (आभासी) ‘मित्र’ हैं। उनमें अनेक मंगलेश जी के मित्र भी हैं। उनके किसी भी मित्र ने फेसबुक संदेशों में मुझे उनका स्पष्टीकरण नहीं भेजा। किसी और जगह दिए गए स्पष्टीकरण की मुझे क्या खबर? एक व्यक्ति सारे पोर्टल नहीं देखता। देख भी नहीं सकता। यह आरोप ऐसा ही है कि कोई आपकी तरफ से बस्ती में खांसकर चला आए और फिर आप दुनिया भर में मुनादी करें कि आपकी ‘बात’ नहीं सुनी गई! ‘चूक’ का पछतावा मंगलेश जी को सचमुच होता तो वे अपना पक्ष उन वेब-पत्रिकाओं को सबसे पहले भिजवाते जिन्होंने बहस छेड़ी थी। और तो और, ‘फेसबुक’ पर उनका अपना पन्ना है, उस पर भी उन्होंने स्पष्टीकरण नहीं रखा। इसका अर्थ कोई यही लेता कि बहस में वे तटस्थ हैं और भारत नीति प्रतिष्ठान के मंच पर जाने का कोई स्पष्टीकरण नहीं देना चाहते। आखिर गोविंदाचार्य वाले मामले में भी तो उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा है। इस प्रसंग को लेकर उनके लगभग दो हजार शब्दों के स्पष्टीकरण में एक भी पंक्ति नहीं है। गोविंदाचार्य और मंगलेश मंच पर जहां साथ थे, वह कार्यक्रम हिंदी भवन में हुआ था। यह सही है कि मंगलेश जी को नहीं पता था कि गोविंदाचार्य वहां होंगे। पर यही तर्क तो आदित्यनाथ के मामले में उदय प्रकाश का था। निस्संदेह दोनों उन आयोजनों में गोविंदाचार्य या आदित्यनाथ की सोहबत के लिए नहीं गए होंगे। दोनों मंचों पर कोई सांप्रदायिक एजेंडा भी न था, न कोई विवादास्पद वक्तव्य हुए। पर मंगलेश की ओर तो कोई अंगुली न उठी, उदय और उनके परिवार का जीना हराम हो गया। इसे आप भेदभाव कहें, साहित्य में गुटबाजी या एक किस्म का जातिवाद- मेरी टिप्पणी का इशारा इसी विसंगति की ओर था। दरअसल, मंगलेश जी के विचार और आचरण में बहुत फासला है। इसकी चर्चा खुद उनके मित्रों में होती है। सती प्रकरण हो, चाहे सहारा समूह में लेखकों पर सामूहिक प्रतिबंध की घड़ी, लखनऊ में सहाराश्री के घर ऐतिहासिक विलासिता वाली शादी का भोज हो, या ‘पब्लिक एजेंडा’ का संपादन, वे अस्वीकार यानी त्याग का स्वघोषित आदर्श भूलकर एक रहस्यमय मध्यमार्ग अख्तियार कर लेते हैं। उनका दावा है कि ‘‘प्राय: कुछ न छोड़ने, कुछ न त्यागने के इस युग में’’ उनके ‘‘विनम्र अस्वीकार’’ थे कि भाजपा शासन के सम्मानों से दूर रहे और उन्होंने ‘‘भाजपा शासन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क का निमंत्रण अस्वीकार किया’’। न्यूयॉर्क में हुए आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन की कार्यसमिति का मैं भी एक सदस्य था। उस वक्त भाजपा की नहीं, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जो वाम मोर्चे के बाहरी समर्थन से चल रही थी। एक सीपीएम सांसद- जो मेरे भी मित्र हैं- के हवाले से तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा ने जनवादी लेखक संघ के चंचल चौहान और ‘सहमत’ के एमके रैना का नाम आखिरी दौर में अमेरिका जाने वालों की सूची में जुड़वाया था। हैरानी है कि न्यूयॉर्क सम्मेलन के पीछे भाजपा का नाम लेकर मंगलेश यहां भी ‘त्याग’ का पुण्य कमाना चाहते हैं। तो चंचल चौहान के खाते में ‘पाप’ जाएगा? मंगलेश जी ने याद दिलाया है कि मेरे यात्रा-वृत्तांत मुअनजोदड़ो की उन्होंने अपनी पत्रिका में चर्चा की। इसके लिए मैं उनका आभार मानता हूं। बात निकली है तो ध्यान दिलाऊं कि पब्लिक एजेंडा में छपी वह समीक्षा दूरदर्शन के ‘सुबह-सवेरे’ कार्यक्रम में डॉ. नामवर सिंह की चर्चा का लिपिबद्ध रूप था। नामवर जी के बोले हुए शब्द जब स्तंभ के रूप में छपे तो यह आखिरी पंक्ति उसमें गायब थी: ‘‘हिंदी के यात्रा वृत्तांत साहित्य में मुअनजोदड़ो एक महत्त्वपूर्ण देन है, एक उपलब्धि है।’’ हालांकि नामवर जी ने ऐसा स्नेहवश ही कहा होगा, पर उसमें सबसे उल्लेखनीय बात यही थी। अजीबोगरीब यह है कि चौहान या वर्मा जैसे वामपंथियों की समझ में मैं अब वाम-विरोधी हो गया हूं! भाजपा और संघ परिवार के सांप्रदायिक खेल की जितनी मलामत जनसत्ता ने की है, और किस हिंदी दैनिक ने की होगी? लेकिन इसलिए क्या वामपंथी लेखक संघों की संकीर्णता की ओर आंखें मूंद लेनी चाहिए? विभिन्न विचार-खेमों से जुड़े लेखक संघों की वैचारिक ‘‘प्रतिबद्धता’’ का हाल तो यह है कि बड़े लेखक के मरने पर शोकसभा तक मिलकर नहीं कर पाते। श्रीलाल शुक्ल का उदाहरण हाल का है। अपने मुंह से कहना अच्छा नहीं, पर इस तरह की बातें करने वाले भूल रहे हैं, जब देश के वामपंथी यह भुला चुके थे कि चे गेवारा कभी भारत आए थे, दिल्ली-कोलकाता और हवाना में चे गेवारा के घर की खाक छानकर इन पंक्तियों के लेखक ने ही गेवारा की भारत यात्रा की वह स्पानी रिपोर्ट खोज निकाली थी, जो कमांडर चे ने क्यूबा लौटकर फिदेल कास्त्रो के सुपुर्द की थी। प्रभाती नौटियाल से मैंने उसे हिंदी में अनुवाद करवाया और भारत सरकार के कबाड़ से उस असल क्रांतिकारी की भारत-यात्रा की चौदह तस्वीरें भी ढूंढ़ीं, जो असली नाम (औपचारिक यात्रा में वही वाजेह था) से दर्ज होने के कारण लगभग खो चुकी थीं। और अंत में विष्णु खरे। उनके पत्र पर खास कुछ नहीं कहना है। मैं अपने लेख में उनसे यों मुखातिब हुआ कि विष्णु खरे बताएं, हिंदी में ‘कतिपय विचारवादी’ गैर-मार्क्सवादी लेखकों की लगभग अनदेखी क्यों करते हैं। ‘विष्णु खरे बताएं’ महज शैली का अंग था, भाव यह था कि खरे जब नामदेव ढसाल या इकबाल का तर्क देकर मानते हैं कि साहित्य अनुभव से पैदा होता है, विचारधारा से नहीं, तो इस बात को उन ‘कतिपय विचारवादियों’ के बीच लागू करवाने की पहल क्यों नहीं करते! मुझे आशा थी, अधिक से अधिक वे कहेंगे कि यह मेरा काम नहीं। पर जवाब में खरे जी ने लंबी फेहरिस्त दी है कि किस-किस तरह उन गैर-मार्क्सवादी लेखकों की अनदेखी उन्होंने नहीं की और उनके बारे में क्या-क्या लिखा! खरे जी की देखी-अनदेखी की बात कहां चली थी? ‘लॉग बुक’ जैसी उनकी इस (अधूरी) सूची में कुछ विवादास्पद स्थापनाएं भी हैं, पर उन्हें इस वक्त छेड़ने का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता। सूची देकर एक जवाबी सवाल उन्होंने उछाला है कि मैंने जनसत्ता के संपादक और एडिटर्स गिल्ड का प्रमुख रहते हुए (जो मैं कभी नहीं था!) भारतीय पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता और जनसत्ता की साहित्येतर पत्रकारिता सुधारने के लिए क्या किया है? साहित्य में आवाजाही की बहस भारतीय/ हिंदी/ साहित्येतर पत्रकारिता में मेरे योगदान पर कैसे पहुंच गई? मैंने कभी दावा भी नहीं किया कि पत्रकारिता को ‘सुधारने’ के लिए मैंने कुछ किया है। खरे साहब जैसे कृपालु ही इसका जिक्र छेड़ लाते हैं। और वे ही कभी शुभाशंसा के वचन भी छोड़ जाते हैं, जैसे कि खरे जी ने तीन साल पहले जर्मन महाकवि गोएठे की कालजयी कृति फाउस्ट का अपना नायाब अनुवाद मुझे भेंट करते हुए लिखा था: ‘‘राजेंद्र माथुर के बाद अपनी तरह के अद्वितीय हिंदी दैनिक संपादक ओम थानवी के लिए’’! कहना न होगा, अब मेरी पत्रकारिता पर एकाधिक प्रश्न खड़े कर वह बहुमूल्य ‘प्रमाण-पत्र’ उन्होंने स्वत: वापस ले लिया है! मेरी किस्मत। |
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