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Friday 16 December 2011

आधार योजना अधर में।

आधार योजना अधर में। अब नंदन निलेकनी की अगुवाई में निजी गोपनीयता को दांव पर लगाने वाली, नागरिकता को ही खत्म करने वाली इस परियोजना पर हुए हजारों करोड़ का खर्च का हिसाब किससे मांगें? निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के इस घोटाले के आगे बाकी घोटाले छोटे पड़ते हैं। इंग्लैंड में तो बायोमैट्रिक पहचान पत्र बनाने के चक्कर में लेबर पार्टी की सरकार ही चली गयी। क्या मनमोहन सरकार को इस पर इस्तीफा नहीं देना चाहिए। संसद में इसकी मांग क्यों नहीं उठ रही है। गौरतलब है कि मूलनिवासी बामसेफ शुरू से इस योजना का विरोध करता रहा है और इसे नागरिकता संशोधन काला कानून के साथ जोड़कर इसके खिलाफ देशभर में अभियान चलाता रहा है।

पलाश विश्वास

आधार योजना अधर में। अब नंदन निलेकनी की अगुवाई में निजी गोपनीयता को दांव पर लगाने वाली, नागरिकता को ही खत्म करने वाली इस परियोजना पर हुए हजारों करोड़ का खर्च का हिसाब किससे मांगें? निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के इस घोटाले के आगे बाकी घोटाले छोटे पड़ते हैं। यूपीए सरकार ने देश के सभी लोगों को विशिष्ट पहचान पत्र देने की योजना बड़े उत्साह से शुरू की थी। लेकिन इससे संबंधित विधेयक पर वित्त संबंधी स्थायी संसदीय समिति की राय सामने आने के बाद इस योजना के औचित्य और इसके व्यावहारिक पहलुओं पर सवाल खड़े हो गए हैं। आमतौर पर स्थायी समिति प्रस्तावित विधेयक में कुछ संशोधनों की ही सिफारिश करती है। लेकिन इस मामले में समिति ने विधेयक को ही खारिज कर दिया है और सरकार को इसकी जगह दूसरा मसविदा तैयार करने की सलाह दी है। सरकार ने यूआईडी यानी विशिष्ट पहचान पत्र की योजना आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष सूचना प्रौद्योगिकी के पुरोधा नंदन नीलेकणी बनाए गए। इस संस्था को संवैधानिक दर्जा देने के मकसद से उसने राष्ट्रीय पहचान प्राधिक रण विधेयक पेश किया। लेकिन संसदीय समिति ने पाया कि यह विधेयक तमाम बिंदुओं पर खरा नहीं उतरता। समिति का निष्कर्ष ऐसे समय सामने आया है जब आधार-कार्ड बनाने का काम जोर-शोर से चल रहा है और पचास लाख से ज्यादा लोगों को पहले ही कार्ड जारी किए जा चुके हैं। पर अब योजना के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल छा गए हैं। मगर इसके लिए सरकार ही जिम्मेवार है।

इंग्लैंड में तो बायोमैट्रिक पहचान पत्र बनाने के चक्कर में लेबर पार्टी की सरकार ही चली गयी। क्या मनमोहन सरकार को इस पर इस्तीफा नहीं देना चाहिए। संसद में इसकी मांग क्यों नहीं उठ रही है। गौरतलब है कि मूलनिवासी बामसेफ शुरू से इस योजना का विरोध करता रहा है और इसे नागरिकता संशोधन काला कानून के साथ जोड़कर इसके खिलाफ देशभर में अभियान चलाता रहा है।यूआईएडीआई के मुताबिक साल 2014 तक 60 करोड़ की जनता को पहचान पत्र देना उनका लक्ष्य है.दरअसल आधार योजना के तहत हर भारतीय को 12 अंकों के रूप में एक विशिष्ट पहचान दी जा रही है.

पिछले दस साल से लगातार देशभर में मुहिंम चलाकर हम लोगों को नागरिकता कानून समझा नहीं सकें। आर्थिक सुधार और विकास का समीकरण सलटा नहीं सके। सारे वित्तीय, कर और श्रम कानून बदल गये। सारी नौकरियां खत्म हो गयीं। विनिवेश, विदेशी पूंजी और सेज रीटेल के साथ साथ रासायनिक खेती और आणविक ऊर्जा के दौर में हैं हम। देशभर में शरणार्थियों,आदिवासियों, मुसलमानों, पिछड़ों, शहरी गरीबों और गैर बामहन बहुसंख्य आम जनों के खिलाफ अश्वमेध यज्ञ र्जारी है। जबकि हमारी जनता बामहणों के आपसी सत्ता संघर्ष में मोहरे बने हुए जान दे रहे हैं। पर अपनी आजादी के लिए किसी को कोई फिक्र ही नहीं है। घर में आग लगी है और आप आराम से सो रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि यूआईडी को क़ानूनी मान्यता देने की प्रक्रिया अभी जारी है और इससे जुड़ा विधेयक स्थाई समिति में लंबित है.तो सवाल उठता है कि एक लोकतांत्रिक देश में बिना कानून पास कराए नागरिकों की संप्रभुता पर ऐसा चरम आघात करने वाले कारपोरेट उपक्रम और कारपोरेट सरकार को क्या सजा मिलनी चाहिए? गैरकानूनी कारपोरेट उपक्रम पर सरकारी पैसा पानी की तरह बहाया जाता रहा और मीडिया में इसे सब समस्यायों को हल करने की जादुई छड़ी बतोर पेश किया जाना कितनी बड़ी साजिश है कि आधार कार्ड के लि आम जनता में तो नहीं, पढ़े लिखे समझदार लोगों में भागमभाग की स्थिति बन गई.इसे साधनसंपन्न वर्ग विशेषाधिकार पर्याय समझ रहा था, जबकि यह परियोजना पूरी तरह गैरकानूनी है।

जिन देशों को देखकर यूपीए सरकार ने यह महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की, अब उन्होंने भी धीरे-धीरे इस परियोजना से किनारा करना शुरू कर दिया है. संयुक्त राज्य अमेरिका, जिसने सबसे पहले यानी आज से 5 दशक पहले अपने यहां नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए सोशल सिक्योरिटी नंबर प्रदान किए और उसकी देखादेखी छठवें-सातवें दशक में आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने अपने यहां यह प्रणाली लागू की, वे भी अब इस तरह की परियोजना के विचार को लागत और व्यक्ति की निजता के सवाल पर छोड़ चुके हैं. फिर हमारी सरकार को इस परियोजना में ऐसा क्या दिखा कि उसने इस पर संसद और उससे बाहर बात करना भी गवारा नहीं समझा.सबसे बड़ा खतरा यह है कि एक व्यक्ति से जुड़े अलग-अलग डाटाबेस के सभी आंकड़ों के आपस में जुड़ जाने से नागरिक अधिकारों के हनन का खतरा पैदा हो सकता है।

ओड़ीशा के दंडकारण्य मे साढ़े चार हजार पुनर्वासित शरणार्थियों के भारत छोड़ो नोटिस मिल चुका है। बंगाल में हर जिले में हजारों लोग गैर कानूनी घुसपैठिया होने के रोप में बिना किसी मुकदमा या सुनवाई हाजत वास कर रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में २३ लाख लोगों के नाम वोटर लिस्ट से भरते का नागरिक न होने के आरोप में हटा दिये गये। उनके खिलाफ थानों में एफआईआर दर्ज हैं। इसबार सत्ता के दोनों खेमों से लाखों दूसरे लोगों को फर्जी और विदेशी बताया जा रहा है और हमारे लोग उन्हीं के पिछलग्गू बनकर आत्महत्या आत्मध्वंस के लिए बेताब हैं। अजब परिस्थिति हैं।

आदिवासी बुद्धिजीवी विजय कुजूर ने आदिवासी स्वायत्तता, संविधान की पांचवीं और छठीं सूची के प्रावधानों के उल्लंघनों के खिलाफ देशभर में आदिवासी आंदोलन छेड़ने के बारे में बताया। विजय हमें कोल्हान स्वात्तता आंदोलन के बारे में बताते रहे हैं। पिछले दिनों राजस्थान के भील बहुल डूंगरपुर, बांसवाड़ा और उदयपुर के आदिवासी प्रतिनिधियों से हमारी बात होती रही है। अगले साल वे कालाहांडी में या फिर खास भवानी पटना में अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन करना चाहते हैं। कनेक्टिविटी और सुरक्षा के लिहाज से हमने इसके लिए मना कर दिया है। विजय ने पंचायत, वन और पेसा कानून के तहत आदिवासियों की समस्याओं का खुलासा किया। विलकिनसन कानून का हवाला दिया। बाद में हमने आदिवासी स्वात्तता के तथ्यों के लिए इंडियन ट्राइबल आटोनामी की वर्ड से गुगल पर खोज की कोशिश की तो इंडियन रिजर्वेशन के पेज निकल आया। यह १९वीं सदी से अमेरिका में आदिवासी इलाकों की स्वावत्तता के बारे में चौंकाने वाली जानकारी थी। इसी सिलसिले में खोज करने पर ट्राइबल सोभरिनिटी कानून का पता टला जिसके तहत अमेरिकी कानून के मुताबिक प्रावधान है कि:
The Aboriginal Tribal Areas are considered as Independent sovereign State within United States of America.

गौरतलब है कि कोल्हान राष्ट्र की भी यही मांग थी जिसके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मामला चलाकर सरकार हार गयी। भरत में एकमात्र कोल्हान क्षेत्र ही ऐसा है जहां आदिवासियों को स्वायत्त क्षेत्र की सम्प्रभुता हासिल है, अन्यत्र नहीं। गुजरात के कांधला में तो सेज अभियान के तहत नर्मदा तट पर आदिवासी अधिसूचत क्षेत्र और चार जनजातियों की मान्यता ही रद्द कर दी गयी। नर्मदा बांध परियोजना और सेज के खिलाफ आंदोलन के लिए विश्व विख्यात आदरणीय मेधा पाटेकर ने इस सिलसिले में क्या कुछ किया, हमें नहीं मालूम। पर विलकिनसन कानून जो दुनिया में २७ देशों में लागू है और आदिवासी क्षेत्रों की सम्प्रभुता की बात इसमें निहित है, वह भारत में भी लागी है, पर ग्लोबल गवर्नेंस की राह पर वित्तीय, मौद्रिक, नागरिक, अप्रवास, विद्शी पूंजी विनिवेश, श्रम और दंड संहिता कानूनों तक को वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ, डब्लूटीओ, गैट के दिशा निर्देशों के तहत बदलने को बेताब इलक्लूसिव ग्रोथ, सोशल कनसर्न के झंडेवरदार भङरत की इंडिया कारपोरेट सरकार आदिवासी स्वायत्ताता के मामले में अंतरराष्ट्रीय कानून का सरासर उलंघन कर रही है।
मित्र सोवियत संघ में बाकायदा परमाणु वैज्ञानिक के तौर पर दस साल तक काम करचुके अब सुप्रीम कोर्ट में वकील डा सुबोध राय, जिन्होंने डा अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार मिलने को मिथ्या बताते हुए बरसों मुकदमा लड़ने के बाद वकालत को बतौर पेशा अपना लिया है, नागरिकों की स्वायत्तता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं और एक राजनीतिक दल भी उन्होंने बना लिया है।
बायोमेट्रिक जाति जनगणना का शिगुफा छोड़कर असंवैधानिक गैरकानूनी यूनिक आईडेंटिटी नंबर प्रोजेक्ट के बहाने अमेरिकी औपनिवेशिक सरकार ने इस नागरिक सम्पभूता की हत्या कर दी है। आपको मालूम होगा कि बायोमैट्रिक पहचान के मुद्दे पर नागरिक की निजता के सवाल पर लेबर पार्टी की सरकार चली गया और कंजरवेटिव पार्टी ने सत्ता में आते ही इस कानून को खत्म कर दिया। पर भारत में बिना संसद में कानून पास किये इनफोसिस के पूर्व सीईओ दक्षिण के खतरनाक काला बामहण नंदन निलेकनी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर भारत के मूलनिवासी बहुसंख्यक जनता के महा नरसंहार के लिए एलपीजी माफिया ने वैदिकी कारपोरेच अश्व मेध के घोड़े दौड़ां दिये हैं। मुंबई समेत विभिन्न औद्योगिक केंद्रों से मिल रही खबरों के मुताबिक कारपोरेट कंपनियां इस गृहयुद्ध के लिए जोर शोर से तैयारियां कर रहीं हैं, जिसके तहत करीब ७० करोड़ लोगों को अनोखी पहचान से वंचित करके उनके सफाए का अभियान जारी है।
सबस खतरनाक खबर जो आ रही है, वह हमारी आशंकाओं की हदों को पार करने वाली है। यह किसी से छुपा नहीं है कि अनोखी पहचान की आधार योजना एक कारपोरेट उपक्रम है । अमेरिका और यूरोप में नागरिकों को परिचय पत्र दिया जाता है। हमें कोई परिचय पत्र नहीं मिल रहा है। बल्कि कम्प््यूटर नेटवर्क में हमारी बायोमेट्रिक पहचान को बतौर बदलने वाले उंगलियों के निशान और खराब होने वाली आंखों की पुतलियों की तस्वीर दर्ज होने वाली है, जिसकी गोपनीयता और निजता, व्यक्ति की सार्वभौम सत्ता और स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं है। हमें एक नंबर बारह अंकों का अनोखी पहचान नंबर मिलेगा, जिसे याद रखना मुश्किल होगा पर जिसका परिचय बतौर उपयोग मे लाना मुश्किल होगा। यह तभी संभव होगा जबकि नागरिकता संशोधन कानून के तहत आप अपनी नागरिकता के प्माण बतौर आवश्यक दस्तावेज पेश कर सकें। चूंकि नैसर्गिक नागरिकता खत्म है और नागरिकता अर्जित की जानी है , इसलिए शरणार्थियों चाहे वे सन ४७ के बाद ही क्यों न आये हो, रोजगार के लिए शहरों में जड़ों से कटे करोड़ों लोगों और राजस्व गांव के दर्जा से वंचित गांवों के निवासी आदिवासी, खानाबदोश, विस्थापित और आर्थिक अश्वमेध विकास के बलि लोगों के लिए ऐसा कर पाना असंबव होगा। फिर चूंकि बायोमैट्रक पहचान दर्ज करने वाले आईटी विशेषज्ञ कारपोरेट निजी क्षेत्र के लोग होंगे और डाटा भी उन्हं के पास जमा होगा, तब जिन क्षेत्रों में संबंधित कंपनियों के हित होंगे, वहां लोगों को नागरिकता मिलेगी नहीं ताकि बेदखली का प्रतिरोध असंभव हो।

णूलनिवासी वामसेफ के अध्यक्ष वामन मेश्राम ने कल अपने अध्यक्षीय भाषण में कल इस प्रोजेक्च को नागरिकता काला कानून के परिप्रेक्ष्य में मूलनिवासियों के अस्तित्व के लिए अस्तित्व का संकट बताते हुए इसे मौलिक अधिकारों और नागरिकों की निजता, स्वतंतत्रता के अपहरण का कारपोरेट उपक्रम बताया। उन्होंने बताया कि ये आंकड़े कारपोरेट कंपनियों के उपयोग के लिए होंगे और यह नागरिकों की पहरेदारी का पुख्ता इंतजाम है क्योंकि उदारीकरण और खुला बाजार अर्थनीति के जरिए बामहण शासकों ने देश में गृहयुद्ध की परिस्थितियां पैदा कर दी हैं और देश के विभिन्न् हिस्सों में जनता विद्रोह पर उतारु है। अनोखी पहचान के जरिए कहीं बैठा सासक कबके का कोई कारिंदा किसी को भी रिमोट से खत्म कर सकता है। हम पहले ही इसे बाजार की ऱणीति और उपभोक्ता सर्वेरक्षण मानते रहे हैं। मेश्राम साहब क इस भाषण के बाद हमने आगे पड़ताल की तो पता चला कि हालात जार्ज आरवेल के १९८४ की कल्पना से ज्यादा खतरनाक है और यह प्रोजेक्ट मूलनिवासी जनता के लिए हिटलर का गैस चैंबर बनने जा रहा है। पता चला है कि विशेषज्ञ बायोमैट्रिक पहचान दर्ज करते वक्त आपके शरीर में डिजीटल पहचान इनजर्ट कर सकते हैं, जिसके जरिए एकमुश्त विद्रोही तबके का खात्मा किया जा सकता है। जबकि सरकारी दावा यह है कि2011 के अंत तक भारत के सभी नागरिको के पास एक विशेष पहचान पत्र होंगा जिसको की बायोमेट्रिक तकनीक की मदद से बनाया जाएगा.क्या कहा भैया बायोमेट्रिक तकनीक के मदद से .तब तो किसी भी व्यक्ति विशेष की पहचान को चुराकर उसका गलत उपयोग करना, या उसकी सम्पत्ती को अपना बनाना और नकली पहचान पत्र बनवाना भी बहुत मुश्किल होगा और इसकी मदद से इन अपराधो को काफी हद तक रोका जा सकेगा और औथोराइज़्द व्यक्ति की पहचान कर पाना काफी सरल होगा. लेकिन भैया भारत सरकार ने अपनी आँखे खोलने में थोड़ी देर जरूर कर दी .शायद वो भी जापान की तरह बायोमेट्रिक तकनीक का फायदा उठाना चाहती है।बायोमैट्रिक २ सब्दो से मिलकर बना है बायोस और मैट्रोंन बायोस का मतलब है जीवन संबधित और मैट्रोंन का अर्थ है मापन करना. बायोमैट्रिक विग्यासं की वो शाखा है जिसमे हम किसी व्यक्ति विशेष के जीवन संबधित आंकड़ो का अध्यन करते है । इस तकनीक की मदद से व्यक्ति के अंगूठे के निशान और अंगुलियों और आवाज़ और आँखों की पुतलियो के आधार पर उसकी पहचान करता है। बायोमैट्रिक, मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक गतिविधियों के आधार कार्य करता है । मनोवैज्ञानिक में व्यक्ति के सरीर के अंगो कि बनावट को ध्यान में रखा जाता है जबकि व्यावहारिक में उस व्यक्ति के वयवहार को आधार मन जाता है जैसे कि उस व्यक्ति कि आवाज़ और उसके हस्ताक्षर ।बायोमैट्रिक तकनीक के बड़ते उपयोग का प्रमुख कारण आज के समय में व्यक्ति विशेष कि पहचान से संबधित हो रहे अपराधो को रोकना है । जैसे कि किसी भी व्यक्ति कि पहचान को चुराकर उसका गलत उपयोग करना और उसकी सम्पति को अपना बना लेना और नकली पहचान पत्र बनवा लेना। आज कल नेटवर्किंग, संचार के इस बढ़ते हुए उपयोग के कारण किसी व्यक्ति की जांच करने के विश्वसनीय तरीको कि आवश्यकता बढ़ गयी है।

इस तकनीक के द्वारा ऐ .टी. एम. मशीन से ट्रांजक्शन को भी सिक्योर बनया जा सकता है। जैसे कि जापान में ऐ.टी.एम.मशीन हाथों कि नसों के इम्प्रेसन के आधार खुलती है । जर्मनी, ब्राज़ील ,ऑस्ट्रेलिया में बायोमैट्रिक तकनीक का खूब उपयोग किया जाता है । हर व्यक्ति में पाए जाने वाली बायोमेट्रिक पहचान अलग होती है। जिसमे हेर फेर या कोई बदलाव करना बहुत मुश्किल है । इस तकनीक में पहले डाटा को एनक्रिप्ट किया जाता है ताकि कोई उसको क्‍लोन ना बना सके।जनगणना-2011 में नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर तैयार किया जाएगा। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा जिसके आधार पर पहली बार नागरिक पहचान पत्र (बायोमैट्रिक स्मार्ट कार्ड) जारी किए जाएंगे। नागरिकों को पहचान पत्र जारी होने के बाद मूल निवास प्रमाण पत्रों की आवश्यकता भी समाप्त हो जाएगी।

भारत के प्रत्येक नागरिक को एक-दूसरे से अलग करने वाली जाति, धर्म, क्षेत्र आदि से जुड़ी पहचानों की जगह इस योजना के जरिए अंकों वाली एक नई पहचान मिल जाएगी। हालांकि इस पहचान के बहुत से मानक अभी तय होने बाकी हैं, फिर भी अभी इस प्रोजेक्ट का जितना फैलाव है और इस काम में जितनी जटिलताएं हैं, उतनी शायद ही किसी और प्रोजेक्ट में हो। अब तक जो कुछ सामने आया है, उसके मुताबिक यह आम धारणा सही नहीं है कि यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (यूआईडीए) खुद लोगों को यूनीक आइडेंटिटी (यूआईडी) कार्ड जारी करेगा। इसकी जगह यूआईडीए की भूमिका हर व्यक्ति को पहचान का एक नंबर मुहैया कराने तक सीमित है।

यह आशंका लगातार सामने आती रही है कि विशिष्ट 'आधार' संख्या के लिए लोगों द्वारा दी जा रही निजी जानकारी का दुरुपयोग हो सकता है। अब विशेष पहचान प्राधिकरण [यूआइडीएआइ] को इस संबंध में पहली शिकायत मिली है। प्राधिकरण ने मामले की जांच शुरू कर दी है। हालांकि इस शिकायत और शिकायकर्ता के बारे में ब्योरा नहीं दिया गया।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के सुदूर आदिवासी इलाके में अनूठी पहचान योजना ‘आधार’ की शुरुआत की। फरवरी 2009 में केंद्र सरकार ने ‘यूनिक नेशनल आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ का गठन किया था। इस अथॉरिटी द्वारा देश के सभी नागरिकों को 12 अंकों का एक अनूठा नंबर दिया जाएगा। इस नंबर में अंगूठे के निशान व जैवसांख्यिकी (बायोमेट्रिक्स) विवरणों पर आधारित प्रत्येक व्यक्ति की पहचान से संबंधित सूचनाएं संरक्षित की जा सकेंगी। इसके बाद किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी पहचान छिपाना नामुमकिन हो जाएगा। आज से कुछ समय पहले ब्रिटेन सरकार ने भी बायोमेट्रिक राष्ट्रीय पहचान योजना शुरू की थी, लेकिन ब्रिटेन की नई सरकार इस योजना का खत्म करने, बल्कि एकत्रित बायोमेट्रिक आंकड़ों को ध्वस्त करने की सोच रही है। वहां कहा जा रहा है कि वह पूरी कवायद निर्थक, नौकरशाही संबंधी और निजता में हस्तेक्षप वाली थी।

एक आरटीआइ के तहत पूछे गए सवाल के जवाब में कहा गया है, 'प्राधिकरण रजिस्ट्रार के साथ मिलकर एकत्रित और संग्रहित सूचना की गोपनीयता सुनिश्चित करेगा। आंकड़े इलेक्ट्रानिक फार्मेट में होंगे।'

प्राधिकरण ने इस वर्ष मिली शिकायत के संबंध में कहा, 'यूआइडीएआइ का संपर्क केंद्र सभी संबंधित पक्षों की शिकायतों का निपटारा करता है। उन्हें व्यक्तिगत आंकड़ा एकत्रित करते समय निजता के उल्लंघन के संबंध में कोई विशिष्ट शिकायत नहीं मिली है। हालांकि व्यक्ति के पते के प्रमाण के दुरुपयोग की शिकायत जरूर मिली है।'

प्राधिकरण ने कहा, 'संपर्क केंद्र ने शिकायत दर्ज की है और उसे संबंधित विभाग के पास भेजा है।' शिकायत में यूआइडीएआइ द्वारा एकत्रित आंकड़ों के दुरुपयोग को लेकर आशंका जताई गई है। उल्लेखनीय है कि प्राधिकरण को देश के सभी नागरिकों को 12 अंकों वाली विशेष पहचान संख्या जारी करने की जिम्मेदारी दी गई।


महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल टेंभली गांव में रंजना सोनवाने नामक महिला को इसका पहला ग्राह्यकर्ता बनाया गया। इंफोसिस के नंदन नीलेकणि को केबिनेट मंत्री का दर्जा देकर उनके नेतृत्व में इसके लिए एक प्राधिकरण गठित किया गया। इस प्राधिकरण ने इस विराट योजना को अमलीजामा पहनाने में पूरी लगन से काम किया और निर्धारित समय पर योजना का प्रारंभ कर दिया गया।

रंजना सोनवाने की जिंदगी में इस कार्ड को लेते ही फिलहाल कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। बल्कि उनके समेत गांव के कई लोग इस कार्ड वितरण के आयोजन के चलते मजदूरी के लिए गुजरात नहीं जा पाए, जो कि अक्सर वे इस समय जाया करते हैं। रंजना ने इच्छा प्रकट की कि उनके गांव में पक्की सड़क हो, अच्छा स्कूल हो, रोजगार के बेहतर अवसर हों तो उन्हें यादा खुशी होगी। टेंभली में इस आयोजन के बाद जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर आ गई  है। किंतु इसके लिए आधार कार्ड की योजना से कोई अपेक्षा रखना व्यर्थ है।

आधार केवल पहचान की गारंटी प्रदान करता है, अधिकार, हितलाभ अथवा हकदारी की नहीं। ..यूआडी जारी करने के लिए नीलेकणी का दफ्तर तैयार है. लेकिन महज आधार नंबरों के बूते मौजूदा सरकारी तंत्र की अक्षमता के साथ कड़े मुकाबले की यूआइडी क्षमता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं. कई सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और यहां तक कि मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी नेताओं को यूआइडी परियोजना के औचित्य को लेकर संदेह है.

इस परियोजना को लेकर कुछ आशंकाएं भी हैं, जो कहीं से निराधार नहीं हैं. जैसा कि सभी को मालूम है कि यह परियोजना देश की सबसे महंगी परियोजनाओं में से एक है. इसका कुल बजट फिलहाल 10 हज़ार करोड़ रुपये आंका गया है, लेकिन यह जितनी महंगी परियोजना है, उतनी गंभीरता से इस पर देश के अंदर कहीं भी चर्चा-बहस नहीं हुई. न विधानसभाओं में और न ही संसद में. सैद्धांतिक रूप से यह परियोजना हर लिहाज़ से अच्छी जान पड़ती है, लेकिन इसका व्यवहारिक पक्ष क्या है और इसके अमल में आने के बाद किस तरह की परेशानियां-दिक्कतें आ सकती हैं, इसकी तऱफ सरकार ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया. यह परियोजना जहां व्यक्ति की निजता के अधिकार का हनन करती है, वहीं इसके व्यवसायिक दुरुपयोग से भी इंकार नहीं किया जा सकता. आधार सीधे-सीधे तौर पर आरटीआई क़ानून का विरोधाभास नज़र आती है. मसलन, सूचना के अधिकार के तहत आम नागरिक सरकार की गतिविधियों और उसकी योजनाओं पर नज़र रख सकता है, वहीं आधार के ज़रिए इसका उलटा हो जाएगा. यानी परियोजना के अमल में आने के बाद सरकार के पास हर नागरिक की निजी पहचान का पूरा ब्योरा आ जाएगा, जिसका वह अपने हित में ग़लत इस्तेमाल भी कर सकती है. परियोजना को लागू करते समय इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं रखा गया कि कैसे बड़े तौर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपके-चुपके सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने तथा उन्हें प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में भी इस्तेमाल की जा सकती है. जैसा कि अतीत में जर्मनी में नाजियों ने इस सूची का इस्तेमाल यहूदियों के कत्लेआम के लिए किया था. भारत सरकार क्या कोई ऐसी गारंटी दे सकती है कि भविष्य में यदि नाजियों जैसी कोई पार्टी हमारे यहां सत्ता में आती है तो आधार के आंकड़े उसे हासिल नहीं होंगे और वह इंतकाम की भावना से इनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के ख़िला़फ नहीं करेगी.

इस योजना के तहत प्रत्येक व्यक्ति की पहचान उंगली के निशानों और चेहरे-मोहरे जैसे आधारों पर होनी है। पर इस तरह की पहचान में दोहराव का बड़ा खतरा है। दोहराव रोकने के लिए जरूरी है कि सिस्टम ऐसा हो जो ऐसे निशानों के हर नए सेट की पहले से मौजूद तमाम सेटों से - जो करोड़ों की संख्या में होंगे - तुलना कर देख सके कि कहीं यह उनसे मिलता-जुलता तो नहीं है। यानी सिस्टम में इतने बड़े पैमाने पर आंकड़े स्टोर करने की क्षमता तो होनी ही चाहिए, इसे तत्काल उन सबसे नए आंकड़ों की तुलना करने में भी सक्षम होना चाहिए। इन आंकड़ों को तकनीकी गड़बड़ियों से बचाने के लिए बैकअप सपोर्ट की भी जरूरत होगी, ताकि काम लगातार चालू रह सके। इन आंकड़ों को हैकिंग आदि से भी सुरक्षित रखने की व्यवस्था करनी होगी।

इस बारे में अभी फैसला होना बाकी है कि क्या बच्चों को भी पहचान-पत्र दिया जाएगा। दिक्कत यह है कि बच्चों की पहचान से जुड़े जो निशान लिए जाएंगे, वे समय के साथ पुराने पड़ जाएंगे। इसके बावजूद बच्चों को इस प्रक्रिया में शामिल करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे उनकी सेहत, शिक्षा आदि से जुड़े व्यक्तिगत आंकड़े जुटाने, उन्हें अपडेट रखने और उनके लिए बड़े पैमाने पर सटीक योजनाएं तैयार करने में आसानी होगी। यह पहचान व्यक्ति के जन्म से लेकर उसकी मौत तक तमाम तरह के कार्यों में मददगार साबित होने वाली है। इससे टीका लगाने के समय से लेकर स्कूल में एडमिशन, सेहत की स्थिति, भोजन में पोषण के तत्व और व्यक्ति की शादी की उम्र तक - विकास के विभिन्न कारकों पर नजर रखना संभव हो जाएगा। कुल मिलाकर यूआईडी की भूमिका अहम रहेगी, भले ही यह हरेक भारतीय (उम्मीद है कि 18 साल से कम उम्र वालों सहित) को पहचान क्रमांक मुहैया कराने तक सीमित रहे। इस पहचान का बाकी कार्यों में इस्तेमाल करने और इसका तरीका निकालने की जिम्मेदारी दूसरों की होगी।

देश के मानवाधिकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता यदि इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं तो इसके कुछ ठोस कारण हैं. आधार नागरिकों की निशानदेही की बात करती है, लेकिन नागरिकों की शिनाख्त का जो रास्ता सरकार ने अख्तियार किया है, उसकी बुनियाद 2000 में पारित सूचना तकनीक क़ानून है, जिसे पारित करते समय नागरिकों के निजी जीवन के तथ्यों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया गया. यही नहीं, आधार सरकार द्वारा नागरिकों पर नज़र रखने का औज़ार मात्र है. यह परियोजना न तो अपनी संरचना और न ही अमल में निर्दोष है. यह बात विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण के कार्ययोजना प्रपत्र पढ़ने से ज़ाहिर हो जाती है. उसमें साफ-साफ लिखा है कि विशिष्ट पहचान अंक स़िर्फ पहचान की गारंटी है, अधिकारों, सेवाओं या हकदारी की गारंटी नहीं. इसमें आगे यह बात भी बड़ी चालाकी से जोड़ी गई है कि यह पहचान की भी गारंटी नहीं है, बल्कि पहचान तय करने में सहयोगी है.



स योजना पर सत्रह हजार करोड़ से अधिक का खर्च आने का अनुमान है। गृह मंत्रालय की ओर से तैयार किए जा रहे राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर भी तेरह हजार करोड़ से ज्यादा का खर्च बैठेगा। यों आधार-योजना को लेकर निजता भंग होने का सवाल भी उठता रहा है। मगर इसे सुरक्षा संबंधी तकाजों का हवाला देकर अनसुना कर दिया गया। लेकिन जब खुद गृह मंत्रालय की यह राय थी कि सुरक्षा के लिहाज से यह योजना उपयोगी साबित नहीं हो पाएगी तो उस पर विचार क्यों नहीं किया गया? भारतीय जनता पार्टी इस योजना की यह कह कर आलोचना करती रही है कि सिर्फ आवास और फोटो संबंधी प्रमाण के आधार पर जुटाए जाने वाले आंकड़ों को नागरिकता का सबूत कैसे माना जा सकता है! लेकिन संसदीय समिति की सिफारिश ने तो विधेयक से जुड़ी अनेक संवैधानिक विसंगतियां भी उजागर की हैं। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की मंजूरी देने के फैसले पर सरकार की किरकिरी के बाद यह दूसरा मामला है जिसने सरकार के भीतर तालमेल की कमी का संकेत दिया है।



नंदन निलेकनी का कहना है कि यूआईडी विधेयक का मसौदा तैयार है और संसद के शीतकालीन सत्र में इसके पारित होने की उम्मीद है.

मीडिया में आ रही ख़बरों के मुताबिक़ योजना आयोग ने 'यूआईडीएआई' के विस्तृत अधिकार क्षेत्रों पर चिंता जताई थी और सरकार से दर्ख्वास्त की थी कि वो प्राधिकरण के ढांचे पर दोबारा नज़र डाले.

इस पर प्रतिक्रिया करते हुए 'यूआईडीएआई' के अध्यक्ष नंदन निलेकनी ने कहा कि प्रधानमंत्री ने उनके अधिकारों को मान्यता दी है और उनका प्राधिकरण योजना आयोग से जुड़ा हुआ है.


यह पहचान संख्या पहचान के काम नहीं आएगी ,यह साफ है, बल्कि अत्याधुनिक तकनीक के जरिए इस संख्या के जरिए हर नागरिक की खुफिया पड़ताल होनी है. एलपीजी माफिया राज के खिलाफ लगातार प्रबल होते प्रतिरोध और आधे देश में गृहयुद्ध के हालात के मद्देनजी यीआईडी परियोजना दरअसल माइक्रो माइनोरिटी तीन फीसद ब्राह्मणी सत्तावर्ग का सरवाइवल किट है, जिसका इस्तेमाल वे मूलनिवासियों की बेदखली और प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिरोधहीन कब्जा के लिए करना चाहते हैं.

हर भारतीय को एक विशिष्ट पहचान देने के मक़सद से चलाए गए ‘आधार’ कार्यक्रम को शुरू हुए गुरुवार को एक साल पूरा हो गया.और अब इसे खारिज करने की नौबत आ गयी है। नागरिक समाज और विशिष्ट नागरिकों की सलाह की लगातार अनदेखी की गयी क्योंकि सरकार सब्सिडी खत्म करने, आर्थिक सुधार लागू करने और अमेरिकापरस्त कारपोरेट एजंडे को लागू करने के लिए बतौर ङथियार इस योजना का इस्तेमाल करना चाहती है। दरअसल यह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के बहाने नागरिकों की खुफिया निगरानी का इंतजाम है जिसे हिंदू ब्राहमणवादी राष्ट्रवाद से नत्थी करके मुसलमानों और शरणार्थियों के खिलाफ बतौर घृणा अभियान भारत में चलाने की कोशिश हुई. जबकि नाटो के सहयोगी देशों इंगलैंड, जर्मनी और अन्यत्र, जहां भी ऐसे प्रयत्न हुए जबरदस्त नागरिक परतिरोध के सामने ग्लोबल जियोनिस्ट जंगखोर मनुस्मृति व्यवस्था को मुंह की खानी पड़ी. और तो और अमेरिका में नागरिकों की गोपनीयता के अधिकार का मुद्दा इतना प्रबल है कि वहां इसे लागू करने की चर्चा तक नहीं हुई.यूआईएडीआई के मुताबिक साल 2014 तक 60 करोड़ जनता को पहचान पत्र देना उनका लक्ष्य है और अगले साल मार्च 2012 तक वे 20 करोड़ लोगों को ये पहचान पत्र मुहैया करवाएंगे.

भारत में ‘आधार’ को सरकारी सेवाओं के समस्त रोगों की रामबाण दवा के रूप में पेश किया जा रहा है। अपेक्षा की जा रही है कि यह पहचान पत्र शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिले की निगरानी करेगा। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दरारों को बंद कर देगा और वित्तीय समायोजन, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून तथा गरीबी-उन्मूलन से जुड़ी अन्य योजनाओं को लागू कराने में भी अचूक साबित होगा। फर्जी लाभार्थियों को छांट सकने वाली अनूठी पहचान संख्या की अवधारणा यकीनन आकर्षक है, लेकिन चिंता की बात यह है कि यह नंबर गलत पहचान या योजनाओं के क्रियान्वयन के रिसाव की समस्या को हल करने में कितना कारगर होगा। एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें सरकारी अनुदान संबंधी ज्यादातर लाभ परिवार केंद्रित हैं, बल्कि बड़ा परिवार एक नेमत-सा हो, उसमें निजी सूचनाओं पर आधारित ‘आधार’ कैसे लाभप्रद हो सकता है?
वर्तमान जन वितरण प्रणाली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसका लाभ उठाने वालों की पहचान सही नहीं है। गरीब परिवार इससे वंचित हैं, जबकि आर्थिक रूप से सक्षम इसका लाभ लूट रहे हैं। तो क्या अनूठा पहचान पत्र इस फर्जीवाड़े को समाप्त करने में सक्षम होगा? नहीं, क्योंकि यह सिर्फ उन्हीं लोगों की जांच करेगा, जो इसका लाभ पहले से उठा रहे हैं। वह इस बात की पड़ताल तो कर ही नहीं पाएगा कि क्या लाभार्थी सचमुच गरीबी रेखा के नीचे है।
आधार सुविधा के पैरोकारों की दलील है कि गरीबों के सामाजिक कल्याण के लिए चलाई जाने वाली योजनाएं पहचान संबंधी गड़बड़ियों के कारण जरूरतमदों तक पहुंच नहीं पातीं या फिर उन्हें इनके लाभ से वंचित कर दिया जाता है। अब आधार पहचान पत्र मिल जाने के बाद इस तरह की समस्याएं हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी। लेकिन सामाजशास्त्री इस तर्क से इत्तफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि यह सामाजिक कल्याण से संबंधित योजनाओं की विफलता का अति-सरलीकरण है। उदाहरण के लिए, सामाजिक कल्याण के ज्यादातर कार्यक्रमों में कई तरह की एजेंसियां शामिल होती हैं। ऐसे में एक व्यक्ति की पहचान स्थापित कर देने भर से आवश्यक नहीं कि इन कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार और चोरी खत्म हो जाएगी। इस पहचान पत्र को लेकर चिंता की एक और वजह है। बायोमेट्रिक डाटा में शामिल की जाने वाली सूचनाएं, अंगूठे के निशान, आंखों के स्कैन और निजी विवरण लोगों की निजता के साथ समझौता हो सकता है, क्योंकि इनके दुरुपयोग की आशंकाएं हमेशा बनी रहेंगी। इस योजना की आलोचना इसलिए की जा रही है कि हमारे मुल्क में सख्त डाटा संरक्षण कानून नहीं हैं, जबकि पश्चिमी देशों में इससे संबंधित कड़े कानून हैं। ऐसे में, इसमें तीसरी पार्टी को चोरी-छिपे डाटा बेचे जाने की आशंका बनी हुई है। यह भी कहा जा रहा है कि अपनी निजता की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। भले ही उसकी निजता में यह अवैधानिक दखलंदाजी राज्य की ही क्यों न हो। संविधान के अनुच्छेद-21, हिंदू विवाह अधिनियम, कॉपीराइट कानून, बाल-अपराध कानून-2000 तथा अपराध प्रक्रिया संहिता में किसी न किसी रूप में निजी सूचनाओं को उजागर करने पर रोक लगाई गई है। ऐसे में, आधार पचहान पत्र के पूरी तरह से अस्तित्व में आने से पहले ही गोपनीयता संबंधी कानूनों को ठीक करना होगा।

पहचानन पत्र विधेयक २००४ के लिए समर्थन जुटाने की कवायद में नवम्बर २००६ में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने लिखा था, पहचान पत्र का मामला केवल स्वतंत्रता का नहीं बल्कि आधुनिक दुनिया का है। सितम्बर २०१० में नंदुरबार में पहला आधार नंबर वितरित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, आधार नए और आधुनिक भारत का प्रतीक है । ब्लेयर ने कहा था पहचान पत्र में हम आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं । लगभग ऐसी ही बात मनमोहन सिंह ने भी कही : आधार प्रोजेक्ट आज की नवीनतम और आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेगा । समानताएं अंतहीन हैं ।
पहचान पत्र को लेकर ब्लेयर की हठधर्मिता अंतत: लेबर पार्टी के लिए राजनीतिक विध्वंस लेकर आई । ब्रिटेन की जनता इस प्रोजेक्ट का पंाच साल से विरोध करती आ रही थी । अंतत: कैमरून सरकार ने २०१० में पहचान पत्र कानून को रद्द कर दिया । इस तरह पहचान पत्रों को समाप्त् कर दिया गया और राष्ट्रीय पहचान रजिस्टर की योजना बनाई गई । इसके विपरीत भारत आधार प्रोजेक्ट को बड़े जोर-शोर से आगे बढ़ा रहा है । इस प्रोजेक्ट को विशिष्ट पहचान प्रोजेक्ट (यूआईडी) भी कहा जाता है ।
यूआईडी प्रोजेक्ट को गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ भी एकीकृत किया गया है । भारतीय राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक संसद मे ंपेश किया जा चुका है । दुनिया भर में पहचान संबंधी नीतियों के पर्यवेक्षकों की नजर इस बात पर टिकी हुई है कि आधुनिक दुनिया ने भारत ने कुछ सबक सीखे हैं या नहीं ।
ब्रिटेन में पहचान पत्र संबंधी अनुभव बताते है कि ब्लेयर अपनी इस योजना का प्रचार मिथकों के मंच पर खड़े होकर कर रहे थे । पहले तो उन्होंने ऐलान किया कि पहचान पत्रों के लिए नामांकन स्वैच्छिक होगा । फिर उन्होनें तर्क दिया कि इन पहचान पत्रों से राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली और अन्य कल्याण कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार पर विराम लगेगा । ब्रिटिश सांसद और लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता डेविड ब्लंकेट ने पहचान पत्र को अधिकार पत्र तक कह दिया था । ब्लेयर ने यह दलील भी दी थी कि ये पहचान पत्र नागरिकों को आतंकवाद और पहचान संबंधी धोखाधड़ी से बचाएंगे । इसके लिए बायोमेट्रिक्स प्रौद्योगिकी को अचूक हथियार के तौर पर पेश किया गया था ।
इन सभी दावों पर जानकारों और आम लोगों ने सवाल उठाए थे । लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स द्वारा बेहद सावधानी के साथ तैयार की गई रिपोर्ट में प्रत्येक दावे का विश्लेषण किया गया और उन्हें खारिज कर दिया गया था । रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार इस पहचान पत्र को इतनी योजनाआें के लिए अनिवार्य बना रही है कि अंतत: प्रत्येक नागरिक के लिए उसे बनवाना अपरिहार्य हो जाएगा । रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पहचान पत्र से योजनाआें में पहचान संबंधी धोखाधड़ी नहीं रूक पाएगी । वजह: बायोमेट्रिक इतनी विश्वसनीय प्रणाली नहीं है कि इससे नकल पूरी तरह रूक ही जाएगी ।
भारत में एक अरब से अधिक लोगों को यूआईडी संख्या मुहैया करवाने वाले इस आधार प्रोजेक्ट के पक्ष में भी लगभग यही दलीलें दी जा रही हैं । आधार को भी मिथकों की बुनियाद पर प्रचारित किया जा रहा है । यहां पेश है इनमें से तीन मिथक :
मिथक १ : आधार संख्या अनिवार्य
नहीं है ।
हकीकत : आधार को पिछले दरवाजे से अनिवार्य कर दिया गया है । आधार को एनपीआर की तैयारियों के साथ जोड़ दिया गया है । जनगणना की वेबसाइट पर लिखा गया है, एनपीआर के तहत एकत्रित आंकड़े भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को दिए जाएंगे ताकि उनमें दोहराव न हो । उनकी अद्वितीयता सुनिश्चित होने के बाद प्राधिकरण यूआईडी संख्या जारी करेगा । यह यूआईडी संख्या एनपीआर का ही हिस्सा होगी और एनपीआर कार्ड पर भी यही संख्या अंकित रहेगी ।
एनपीआर वर्ष २००३ में नागरिकता काननू १९५५ में हुए एक संशोधन की बदौलत अस्तित्व में आया । नागरिकता नियम २००३ के नियम ३(३) के अनुसार भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में दर्ज प्रत्येक नागरिक की सूचनाआें में उसका राष्ट्रीय पहचान नंबर जरूर होना चाहिए । नियम ७(३) कहता है यह नागरिकों का दायित्व है कि वे नागरिक पंजीकरण के स्थानीय रजिस्ट्रार के पास जाकर सही जानकारियां दर्ज करवाएं । यही नहीं, नियम १७ कहता है कि नियम ५, ७, ८, १०, ११ और १४ के प्रावधानों का उल्लघंन करने पर एक हजार रूपए तक का आर्थिक दंड लगाया जा सकता है ।
निष्कर्ष बहुत सीधा है : संसद में विधेयक के पारित होने से पहले ही आधार को अनिवार्य बना दिया गया है । इस प्रोजेक्ट की आड़ में सरकारें लोगों को उनकी व्यक्तिगत सूचनाएं देने को विवश कर रही हैं ।
मिथक २ : आधार अमरीका में लागू सामाजिक सुरक्षा नंबर (एसएसए) जैसा ही है
हकीकत : एसएसएन और आधार के बीच अंतर है । एसएसएन अमरीका में १९३६ में सामाजिक सुरक्षा संबंधी लाभ मुहैया करवाने के मकसद से लागू किया गया था । इसे निजता कानून १९७४ द्वारा सीमित कर दिया गया है । निजता कानून कहता है, किसी भी नागरिक द्वारा अपना सामाजिक सुरक्षा नंबर न बताने पर भी कोई सरकारी एजेंसी उसे उसके अधिकारों, लाभों अथवा सुविधाआें से वंचित नहीं कर सकती । ऐसा करना गैर कानूनी होगा । इसके अलावा किसी तीसरे पक्ष को किसी व्यक्ति का एसएसएन बताने से पहले उसे नागरिक को सूचना देकर उसकी सहमति लेनी होगी ।
एसएसएन की परिकल्पना पहचान के दस्तावेज के रूप में नहीं की गई थी । हालांकि २००० के दशक में एसएसएन का व्यापक उपयोग विभिन्न जगहों पर पहचान के प्रमाण के रूप में करना शुरू हुआ । इसके परिणामस्वरूप कई तरह की निजी कंपनियों के हाथों में नागरिकों के एसएसएन पहुंचे । पहचान संबंधी धोखाधड़ी करने वालों ने इसका दुरूपयोग बैक खातों, क्रेडिट खातों और निजी दस्तावेजों व व्यक्तिगत जानकारियों तक सेंध लगाने में किया । वर्ष २००६ में गवर्नमेंट एकाउंटेबिलीटी ऑफिस के अनुसार एक साल की अवधि में ही करीब एक करोड़ लोगों (अमरीका की वयस्क आबादी का ४.६ फीसदी) ने बताया कि उन्हें विभिन्न तरह की पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का सामना करना पड़ा । इससे ५० अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान उठाना पड़ा ।
लागों के हो-हल्ले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ने वर्ष २००७ में पहचान संबंधी धोखाधड़ियों पर एक कार्यबल गठित किया । इस कार्यबल की रिपोर्ट पर कार्यवाही करते हुए राष्ट्रपति ने एक योजना की घोषणा की : पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का मुकाबला : एक रणनीतिक योजना । इसके तहत सभी सरकारी अधिकारियों को एसएसएन के अनावश्यक उपयोग को खत्म अथवा कम करने तथा साथ ही जहां भी संभव हो, लोगों की व्यक्तिगत पहचान के लिए इसकी जरूरत को समाप्त् करने के निर्देश दिए गए । लेकिन भारत में इसका ठीक उलटा हो रहा है । नंदन निलेकरणी के अनुसार आधार संख्या को सर्वव्यापी बनाया जाएगा । उन्होनें तो यहां तक सलाह दे डाली कि लोग इसे टैटू की तरह अपने शरीर पर गुदवा लें ।
मिथक ३ : बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल से पहचान संबंधी धोखाधड़ियां रोकी जा सकती हैं
हकीकत : वैज्ञानिकों और विधि विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पहचान को साबित करने में बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल को सीमित किया जाना चाहिए ।
सबसे पहले तो ऐसी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है कि उंगलियों के निशान के मिलान में त्रुटियां बिलकुल नहीं अथवा नगण्य होती हैं ।
ऐसा हमेशा होगा कि तैयार डेटाबेस के रूबरू कुछ लोगों की पहचान का गलत मिलान होगा या मिलान ही नहीं होगा । फिर मिलान संबंधी त्रुटियां भारत जैसे देशों में और भी बढ़ जाएंगी । बायोमेट्रिक उपकरणों की आपूर्ति के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने जिस ४जी आइडेटिटी साल्यूशंस नामक कंपनी को ठेका दिया है, वह कहती है : ऐसा अनुमान है कि किसी भी आबादी में पांच फीसदी लोगों की उंगलियों के निशान चोटों, उम्र अथवा निशानों की अस्पष्टता के कारण पढ़े नहीं जा सकते ।
भारत जैसे देश का अनुभव यही कहता है कि यह समस्या १५ फीसदी लोगों के मामले में सामने आती है क्योंकि यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शारीरिक श्रम के कामों में लगा है । पन्द्रह फीसदी का मतलब होगा करीब २० करोड़ लोगों का इस प्रणालीसे बाहर रहना । अगर फिंगरप्रिंट रीडर्स को मनरेगा के कार्यस्थलों, राशन की दुकानों इत्यादि पर इस्तेमाल किया जाएगा, तो करीब २० करोड़ लोग इन योजनाआें की पहुंच से बाहर हो जाएंगे ।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण की बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्ड कमेटी की रिपोर्ट ने भी माना है कि ये चिताएं वास्तविक है । उसकी रिपोर्ट कहती है, किसी की अद्वितीयता का निर्धारण करने में सबसे जरूरी फिंगरप्रिंट की गुणवत्ता का भारतीय संदर्भोंा में गहराई से अध्ययन नहीं किया गया है । तकनीक की इतनी सीमाआें के बावजूद सरकार इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा रही है । इस पर खर्च ५० हजार करोड़ रूपए से भी ज्यादा आएगा ।
कहा जाता है कि सत्य का सबसे बड़ा शत्रु झूठ नहीं, बल्कि मिथक होते हैं । एक लोकतांत्रिक सरकार को आधार जैसे विशाल प्रोजेक्ट को केवल मिथकों के धरातल से नहीं चलाना चाहिए । ब्रिटेन का अनुभव बताता हे कि सरकार के मिथकों का भंडाफोड़ नागरिक अभियानों के जरिए किया जा सकता है । भारत को भी ऐसे ही विशाल अभियान की जरूरत है ।



राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर
यह नई कवायद है। इस बार जनगणना की सूचनाएं एकत्र करने के साथ-साथ देश के सभी नागरिकों का निजी डाटा भी तैयार होगा। इसमें नाम-पते के अलावा फोटो और दसों अंगुलियों के फिंगरप्रिंट भी लिए जाएंगे। इसके बाद 15 साल से बडे लोगों को एक विशेष पहचान नंबर दिया जाएगा तथा जो कम उम्र के हैं, उन्हें मां-बाप या अभिभावकों के साथ लिंक किया जाएगा। बाद में नागरिकों को बायोमैट्रिक पहचान पत्र भी प्रदान किया जाएगा। इस कार्य के लिए यूनिक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी (यूआईडीए) की स्थापना की जा चुकी है जिसके चैयरमैन मशहूर आईटी विशेषज्ञ नंदन नीलेकणी हैं। जनगणना के बाद भी विशेष पहचान नंबर और नागरिकता पहचान पत्र का कार्य देने की प्रक्रिया चलती रहेगी। ज्यों-ज्यों युवक 15 साल की उम्र पूरी करेंगे वे नंबर के लिए आवेदन करेंगे और उन्हें बायोमैट्रिक कार्ड मिलते जाएंगे।


यह सवाल जब-तब उठे हैं कि हजारों करोड़ रुपये खर्च करके जनसंख्या रजिस्टर और फिर नागरिकता पहचान पत्र देने के क्या फायदे हैं ? जबकि पहले से ही राशन कार्ड, पैन कार्ड, वोटर कार्ड, पासपोर्ट आदि दिए जा रहे हैं। इसका कोई ठोस जवाब अभी किसी के पास नहीं है।

यूआईडीए
यूनिक आईडेंटीफिकेशन अथॉरिटी का गठन किया जा चुका है जिसके प्रमुख नंदन नीलेकणी हैं। कई बार यह सवाल उठता है कि जनगणना महकमे का क्या काम है और यूआईडीए का क्या काम है क्योंकि दोनों एक जैसी बात कहते हैं कि पापुलेशन रजिस्टर बनाया जाएगा, नंबर मिलेगा, कार्ड मिलेगा आदि। यहां स्पष्ट कर दें कि जनगणना, जनसंख्या रजिस्टर बनाने तथा नंबर देने का कार्य जनगणना महकमा ही करेगा जो गृह मंत्रालय के अधीन है। यूआईडी अथारिटी की भूमिका खासतौर पर इसके तकनीकी पहलू को देखना है। नंबर आवंटन की प्रक्रिया को जनगणना महकमा ही पूरा करेगा और सभी पक्षों के कमेंट लेने के बाद उसे यूआईडीए को सौंपेगा। यूआईडीए नंबर की जांच करेगा। यह सुनिश्चित करेगा कि उसकी कोडिंग ठीक है या नहीं, कहीं डुप्लीकेशन तो नहीं हो रहा है। फिर नंबर के आधार पर बायोमैटिक डाटाबेस में डाले जाएंगे और कार्ड बनेंगे।


गृह मंत्री चिदम्बरम ने इस विभाग पर होने वाले खर्चों को फिजूल खर्च बताया है और इससे प्रेरित होकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने अगले वित्तीय वर्ष (2012-13) में यूआईडीए को आवंटित होने वाले कुल राशि में 50 फीसदी की कमी कर दी है. निलेकनी इस बात को लेकर मानसिक तौर पर काफी परेशान है.अगले वित्तीय वर्ष 2012-13 के लिए यूआईडीए ने कुल 3,500 करोड़ की मांग की थी. पिछले वित्तीय वर्ष 2011-12 में यूआईडीए को कुल 3,000 करोड़ राशि मुहैया कराई गई थी.

प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के “व्यक्तिगत अनुरोध” पर ही नंदन निलेकनी अपनी आईटी की दुनिया को छोड़ कर देश के प्रत्येक नागरिक को एक भारतीय होने का पहचान पत्र और नागरिक संख्या उपलब्ध कराने के लिए यूआईडीए का कार्यभार संभाला था.भारत सरकार की महत्वाकाँक्षी 'आधार' योजना के तहत एक साल में दस करोड़ लोगों के नामांकन का दावा किया गया है हालाँकि उनमें से कई को अब भी इस योजना के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है.

वर्ष 1991 में भारत सरकार के वित्त मंत्री ने ऐसा ही कुछ भ्रम फैलाया था कि निजीकरण और उदारीकरण से 2010 तक देश की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी, बेरोज़गारी खत्म हो जाएगी, मूलभूत सुविधा संबंधी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और देश विकसित हो जाएगा. वित्त मंत्री साहब अब प्रधानमंत्री बन चुके हैं.

ये योजना लागू कर रहे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानि ‘यूआईडीएआई’ के अध्यक्ष नंदन निलेकनी का कहना था कि इस महत्त्वाकाँक्षी योजना का मक़सद उन लोगों को पहचान प्रदान करना होगा, जिनके पास ये साबित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है.यह योजना प्रधानमंत्री की पहल पर शुरू हुई, मगर सरकार के भीतर ही इस पर एक राय नहीं थी। गौरतलब है कि गृहमंत्री पी चिदंबरम ने सुरक्षा कारणों से आधार-कार्ड मुहैया कराने की प्रक्रिया पर आपत्ति जताई थी। उनकी आलोचना का एक खास बिंदु यह था कि दस्तावेजों का बगैर सत्यापन किए आधार-कार्ड बनाए जा रहे हैं। लेकिन उनका एतराज सिरे से दरकिनार कर दिया गया। एक अहम सवाल यह भी उठता रहा है कि एक ही तरह के आंकड़े दो एजेंसियों केजरिए क्यों जुटाए जा रहे हैं? दोनों में फर्क होने की स्थिति में किसे प्रामाणिक माना जाएगा? गौरतलब है कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने के मकसद से भी देश के सभी लोगों के बायोमीट्रिक आंकड़े इकट्ठा किए जा रहे हैं, जिसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय महा पंजीयक को दी गई है, और यह काम गृह मंत्रालय के तहत आता है। यही कारण है कि राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण का गठन संसदीय समिति को एक अंतर्विरोधी निर्णय लगा है। अच्छा होता कि सरकार विधेयक संसद से पारित हो जाने के बाद ही प्राधिकरण के गठन का फैसला करती। मगर प्रधानमंत्री ने अति उत्साह में न सिर्फ प्राधिकरण कागठन कर दिया, बल्कि आधार-योजना की खातिर भारी-भरकम राशि की मंजूरी भी दे दी।


'यूआईडीएआई' के अध्यक्ष नंदन निलेकनी ने दिल्ली में एक प्रेस वार्ता में कहा कि भारत सरकार ने बैंक खाता खोलने और मोबाइल फ़ोन कनेक्शन प्राप्त करने हेतु आधार को पहचान-प्रमाण और पते के प्रमाण के रुप में मान्यता दी है.इसके अलावा एलपीजी कनेक्शन हेतु भी आधार को वैध पहचान और पते के प्रमाण के रूप में मान्यता दी जा चुकी है.

जनगणना में जाति की गिनती को खारिज करने के लिए बड़े जोर शोर से आधार कार्ड बनाने का काम नन्दन निलेकणी की अगुवाई में गैरकानूनी ढंग से निजी कंपनियों के जरिए कराया जा रहा है। संसद में अभी कानून पास नहीं हुआ। बायोमेट्रिक पहचान के लिए जनरगणना के तीसरे दौर म

जनगणना में जाति की गिनती को खारिज करने के लिए बड़े जोर शोर से आधार कार्ड बनाने का काम नन्दन निलेकणी की अगुवाई में गैरकानूनी ढंग से निजी कंपनियों के जरिए कराया जा रहा है। संसद में अभी कानून पास नहीं हुआ। बायोमेट्रिक पहचान के लिए जनरगणना के तीसरे दौर में प्रावधान है। दोहराव की हालत में ऐसा पहचान पत्र खारिज हो जाना है। फिर भी गैर कानूनी ढंग से आधार कार्ड अलग से बनाने के काम के बहाने हजारों करोड़ का न्यारा वारा हो रहा है। भ्रष्टाचारविरोधी मुहिम को कारपोरेट कोरप्शन के खिलाफ कुछ नहीं कहना क्योंकि यह तो कुद कोरपोरेट प्रायोजित है। संसद में जाति की गिनती जलगणना में करने के मसले पर कोटे से चुने गए सांसद तक खामोश है। दूसरी ओर आधार परियोजना के जरिए मूलनिवासियों की नागरिकता खत्म करने का अभियान जोरों से चल रहा है। कारपोरेट एलपीजी माफिया के लिए सभी संसाधनों की खुली लूट का पूरा इंतजाम करने खातिर। मंदी के बहाने आर्थिक सुधार के नाम पर विदेशी कारपोरेट पूंजी का राज कायम हो रहा है और भारत में लंदन जैसा ग्लोबेलाइजेशन दंगों के आसार बन गये हैं। मूलनिवासी बहुजनों को आखिरकार प्रतिरोध के लिए कब तक राजनीतिक वैचारिक अगुवाई का इंतजार करना होगा?

यूनीक आईडेंटीफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) ने आधार के नाम से भारत के हर नागरिक के लिए आधार कार्ड लांच किया था। जिसको बनाने की जिम्मेदारी ओरिएटंल बैंक ऑफ कामर्स (ओबीसी) ने ली हुई है। हलांकि कुछ निजी क्षेत्र की कंपनियां भी आम लोगों को पहचान देने वाले इस आईडी का लाभ मिल सके। केंद्र सरकार द्वारा बनाए जा रहे इस आईकार्ड का धारक अपनी पहचान के लिए प्रयोग कर सकता है। वहीं पासपोर्ट, ड्राईविंग लाईसेंस, मतदाता पहचान पत्र के साथ ही अन्य पहचान के लिए प्रयोग किए जाने वाले डाक्यूमेंट बनवाने में आईडी के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
लोकसभा में गुरुवार को भाजपा, जदयू, सपा, बसपा, द्रमुक समेत विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने सरकार के जाति आधारित जनगणना के तौर तरीकों पर आपत्ति व्यक्त की।
उनका कहना था कि अलग-अलग स्तर पर गणना कराने की बजाए जनगणना के माध्यम से गरीबी रेख से नीचे गुजर बसर करने वाले और पिछड़े वर्ग के लोगों की संख्या का ब्यौरा तैयार किया जाए। सरकार की ओर से वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सदस्यों को आश्वस्त किया कि उनकी चिंताओं को ध्यान में रखते हुए इसे दूर करने के उपाए किए जा रहे हैं। सदन की कार्यवाही शुरू होने पर जद यू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने पर सदन में चर्चा हुई और सदन ने एक राय से इस प्रकार से जनगणना कराने की राय दी, लेकिन अब इसे तीन स्तरों पर गणना कराई जा रही है।
इसके तहत जहा राज्यों से भी गिनती कराने को कहा गया है, वहीं ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय से भी गणना कराई जा रही है। उन्होंने कहा कि देश में पेड़ पौधो, नदी पहाड़ों की गिनती की जाती है लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गाधी और प्रणब मुखर्जी के आश्वासन के बावजूद इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाई गई है जो कभी सफल नहीं होगी। लोकसभा में भाजपा के उपनेता गोपीनाथ मुंडे ने कहा कि 1931 के बाद जाति आधारित गणना कभी नहीं हुई, जबकि संसद ने इससे जुड़ी चिंताओं को ध्यान में रखते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया।
मुंडे ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों ने लिखित रूप में सरकार को जाति आधारित गणना के पक्ष में राय दी, लेकिन अभी जो प्रक्रिया अपनाई गई है, वह जाति आधारित गणना नहीं है। सदन के नेता एवं वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि इस विषय के सभी आयामों पर विचार करने के बाद इस पर मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया।
शरद यादव ने जाति आधारित गणना का जो प्रारूप दिया था, उसे अधिकारियों को दिया गया है। समस्या इसे लागू करने को लेकर आई है। इसे दूर कर लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि मैंने इस विषय पर सत्र शुरू होने से पहले गौर किया था। गृह मंत्री ने कहा था कि जो प्रारूप शरद यादव ने दिया था, उसे ही आगे बढ़ाया गया है। आपने कहा कि इसे लागू नहीं किया गया है। हम इसे देख रहे हैं।
इससे पहले, सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सदन ने एकराय से जाति जनगणना के पक्ष में राय व्यक्त की और मुझे मालूम हुआ है कि कैबिनेट में भी बहुमत की इसके पक्ष में राय थी। प्रधानमंत्री ने इसके बारे में आश्वस्त किया था, लेकिन बीच में क्या बात हुई कि यह अटक गया। बसपा के दारा सिंह चौहान ने कहा कि जाति देश की सचाई है और जाति गणना के लिए पूरा देश एकमत है, लेकिन यह मूल भावना के अनुरूप क्यो नहीं बढ़ रही है।
द्रमुक के टी आर बालू ने कहा कि पूरे सदन ने एकमत से जाति आधारित गणना के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। इसके अभाव में गरीबों के लिए बनाई जा रही योजनाओं पर अमल करने में भारी कठिनाई पेश आएंगी।

जनगणना का पहला चरण एक अप्रैल से शुरू हो चुका है। दूसरा चरण अगले साल फरवरी में होगा तथा मार्च के पहले सप्ताह में इसके आरंभिक आंकड़े पता चल जाएंगे। लेकिन जनगणना का मतलब अब सिर्फ लोगों की गिनती भर नहीं है बल्कि यह जनगणना हमें बताएगी कि पिछले दस साल में हमने कितनी प्रगति की और कहां चूक रह गई। विकास के सरकारी दावों की असलियत को यही जनगणना हमें बताएगी। दूसरे-विकास संबंधी जो आंकड़े सामने आएंगे, उन्हीं के आधार पर अगले दस साल की नीतियां तय होंगी। वैसे भी 2011 में जब जनगणना के आंकड़े आ रहे होंगे तब बारहवीं पंचवर्षीय योजना की तैयारियां चल रही होंगी। आपको याद होगा 2001 में जब जनगणना के नतीजे आए थे तो उसमें एक चौंकाने वाला तथ्य निकाला था कि देश में 24 लाख मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर आदि पूजा स्थल हैं लेकिन स्कूल, कालेज आदि की संख्या 15 लाख और क्लिनिक, डिस्पेंसरी और अस्पतालों की संख्या छह लाख है। यानी शिक्षा और स्वास्थ्य के कुल केंद्रों की संख्या मिलकर 2१ लाख बनती है जो पूजास्थलों से तीन लाख कम थी।

देश में पहली जनगणना 1862 में हुई थी। यह 15वीं जनगणना है। शरुआत में हो सकता है जनगणना सिर्फ लोगों की गिनती के लिए होती हो। लेकिन आजादी के बाद से इसका विकास में योगदान बढ़ता गया। देश में विकास योजनाएं बनाने के लिए जनसंख्या के अलावा आंकड़े एकत्रित करने का कोई जरिया ही नहीं है। आए जिन जिन सर्वेक्षण रिपोर्टो में हम पढ़ते हैं, वह सिर्फ कुछ हजार या अधिकतम एक-दो लाख लोगों पर सर्वेक्षण करके तैयार की जाती हैं जबकि जनगणना में 102 करोड़ लोगों के आंकड़े व्यक्तिगत स्तर पर जुटाये जाएंगे। इसलिए दिल्ली से लेकर देहात तक की सही स्थिति जानने के लिए जनगणना से पुख्ता और कोई सर्वेक्षण नहीं है।

करीब साल भर चलने वाली जनगणना दो चरणों में होती है। 35 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में पहला चरण एक अप्रैल से शुरू हो चुका है। पहले चरण में घर और घर से जुड़ी वस्तुओं की गणना की जाती है। इसमें कुल 35 किस्म के सवाल पूछे जा रहे हैं। चूंकि इस बार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) भी बन रहा है। इसका कार्य भी पहले चरण में ही किया जा रहा है। एनपीआर के लिए 15 सवाल पूछे जाएंगे। जनगणना का पहला चरण 15 मई तक पूरा होगा। दूसरे चरण में लोगों की गणना होगी जिसमें लोगों से करीब 18-२0 व्यक्तिगत सूचनाओं से संबंधित सवाल पूछे जाएंगे। यह कार्य 9 से 27 फरवरी, 2011 के दौरान देश में एक साथ होगा।

यूआईडी प्रोजेक्‍ट: पहचान का संकट


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हर नामांकित व्यक्ति को यूआइडी एक आधार नंबर देगा. इसे विभिन्न पंजीयन एजेंसियों जैसे बैंक या बीमा कंपनियों को किसी भी सरकारी संस्थान, नियामक संस्था या प्रवर्तन एजेंसी के साथ व्यवहार करते समय व्यक्ति की पहचान के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. यूआइडी डाटाबेस में व्यक्ति के संबंध में बुनियादी जानकारियां होंगी जैसे नाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, लिंग, माता-पिता का नाम और उनके यूआइडी नंबर, पता, फोटो और अंगुलियों के निशान होंगे.
पैन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र के विपरीत यूआइडी नंबर के आधार पर किसी भी प्रकार के फायदों या अधिकारों का दावा नहीं किया जा सकेगा. इससे केवल बैंक खाता खोलने या फिर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरइजीएस या नरेगा) के तहत रोजगार जैसे किसी काम के लिए व्यक्ति की पहचान करने में मदद मिलेगी.
सरकार ने पांच वर्ष की अवधि के पहले दो चरणों के लिए 3,170 करोड़ रु. का बजट स्वीकृत किया है. सरकार नए यूआइडी नंबर को एक प्रणाली के रूप में बता रही है जिससे किसी व्यक्ति की विशिष्ट पहचान पक्की हो सकेगी. इसके जरिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली  (पीडीएस) जैसी सेवाएं प्रभावी तरीके से देने का लक्ष्य है. पीडीएस चार लाख उचित मूल्य की दुकानों का एक नेटवर्क है जिसके जरिए हर साल 16 करोड़ परिवारों की 15,000 करोड़ रु. मूल्य का अनाज और खाने-पीने की वस्तुएं वितरित की जाती हैं. यह अपनी किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा वितरण नेटवर्क है.
अपनी पहचान को स्थापित करना अधिकांश भारतीयों के लिए एक बड़ी समस्या है. यूआइडी के बारे में यह दावा किया गया है कि इसके होने पर एक से ज्‍यादा पहचान-पत्र संभालने की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा. यूआइडीएआइ के मुताबिक, ''यह एकमात्र समस्या को खत्म कर देना चाहता है, और वह है 'पहचान' की समस्या.'' एक बार किसी व्यक्ति को एक यूआइडी मिलते ही शारिरिक विशेषताओं से जुड़ी उनकी बुनियादी पहचान स्थापित हो जाएगी और इसके जरिए किसी भी व्यक्ति की अनूठी पहचान स्थापित करने में मदद मिलेगी.
लेकिन कई लोग यह मानते हैं कि यह योजना सामाजिक वास्तविकताओं से एक कदम पीछे है जो कई किस्म के पहचान पत्र होने के बावजूद जरूरतमंदों को सामाजिक योजनाओं के लाभ से वंचित रखती है. ऐसे में नंबर आधारित एक कार्ड का और आना कितना ज्‍यादा मायने रखता है. नीलेकणी कहते हैं, ''आधार नंबर अन्य सभी कार्डों को खत्म नहीं करेगा. कुछ समय बाद यह सभी कार्डों को आपस में जोड़ने वाला नंबर होगा. यह नंबर किसी व्यक्ति की पहचान का ऑनलाइन सत्यापन कर सकेगा और साथ ही यह पहचान का एक सबूत होगा, खास तौर पर समाज के उन तबकों के लिए जिनके लिए फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.''
पीडीएस में बार-बार सामने आने वाली समस्या यह नहीं है कि गरीबी की रेखा से ऊपर के परिवार इसका लाभ ले लेते हैं. समस्या यह है कि  गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) ऐसे बहुत से परिवार हैं जो  इस योजना के दायरे से बाहर हैं. 2005 में योजना आयोग की ओर से किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि सरकारी सब्सिडी प्राप्त करीब 58 फीसदी अनाज बीपीएल परिवारों तक पहुंच ही नहीं पाता.
यूआइडी किसी भी रूप में किसी भी लाभ की गारंटी नहीं देता और नया कानून किसी आवेदक के पास यूआइडी होने पर भी विभिन्न सेवा प्रदाताओं को कोई अन्य दस्तावेज मांगने से नहीं रोकता. ऐसे में बिहार से आए किसी प्रवासी मजदूर को दिल्ली में राशन कार्ड मिलने की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी स्थिति में आधार नंबर की वजह से नई समस्याएं उत्पन्न होने का खतरा है.
नीलेकणी इस बात से सहमत हैं कि ऐसे किसी भी तरह के हितों के लिए पात्रता का निर्धारण राज्‍य सरकार की जिम्मेदारी है. लेकिन उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा है कि आधार नंबर से प्रक्रिया आसान होगी. अन्य लोग यह तर्क देते हैं कि बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए यह एक गलत समाधान है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई के एसोसिएट प्रोफेसर आर. रामकुमार का कहना है, ''हमारे सामाजिक निवेश में मसला एक जैसे कार्डों की ज्‍यादा प्रतियां होने का नहीं है. दरअसल दिक्कत है बड़ी संख्या में लोगों के योजना के दायरे में नहीं आने की. कार्डों का डुप्लिकेशन दूर करने करना समस्या का एक बहुत छोटा भाग है. इस पर पैसा खर्च करने की बजाए सरकार ज्‍यादा जरूरतमंदों को शामिल करने के लिए योजनाएं लागू करे.''
जब योजना आयोग ने इस स्कीम के बारे में पहली बार निर्णय लिया तब यह लोगों को कोई नंबर जारी करने के बजाए स्मार्ट कार्ड जारी करने के बारे में थी, जो एक बहुमंजिला इमारत की तर्ज पर थी जिसकी हरेक मंजिल पर एक योजना को एक मंजिल पर जगह दी जानी थी. अब कार्ड का विचार छोड़ कर यूआडीएआइ का कार्यक्षेत्र यूआइडी जारी करने तक सीमित हो गया है. अगर आप नरेगा के तहत रोजगार चाहते हैं तो अधिकारी आपका नंबर एक केंद्रीयकृत कार्यालय को भेजेंगे और इसके साथ ही इसमें 'हां' या 'नहीं' का एक संदेश होगा. इससे यह सत्यापन हो सकेगा कि आप ही वह व्यक्ति हैं जो रोजगार के लिए दावा पेश कर रहे हैं या वह कोई और है.
सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा के मुताबिक, 'यूआइडी से पीडीएस की कमियां दूर नहीं होंगी. एक इलेक्ट्रॉनिक पहचान के जरिए इस योजना की उन कमियों को दूर नहीं किया जा सकेगा जिनके कारण लोग इसके दायरे से बाहर हैं और उन्हें अनाज नहीं मिल रहा.'' यूआइडी के जरिए पीडीएस और नरेगा में व्याप्त भष्टाचार के दो प्रमुख स्त्रोतों पर रोक लगाना भी संभव नहीं है. पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज और दालों का राशन की दुकान से निकल कर खुले बाजार में आकर बिकना. दूसरा, राशन की दुकानों के विक्रेता गरीबों को आधा राशन ही देते हैं और आधिकारिक दस्तावेजों में पूरा कोटा देने का रिकॉर्ड दर्ज करते हैं.
वर्ष 2008 से नरेगा में बैंकों और पोस्ट ऑफिस के जरिए दिहाड़ी दी जा रही है. 83 फीसदी नरेगा श्रमिकों के इनमें खाते हैं जिससे भ्रष्टाचार की गुंजाइश काफी कम हो जाती है. कुछ मामलों में कामगारों पर रंगदारी वसूलने वाले बिचौलियों की गुंडागर्दी का सामना करना पड़ता है. अन्य मामलों में बिचौलिए मजदूरी की दर बढ़ा कर उसमें से अपना हिस्सा मांगते हैं. यूआइडी नंबर से ऐसी किन्हीं भी समस्याओं से निबटना संभव नहीं है. जबकि दावा यह किया जा रहा है कि इससे भ्रष्टाचार का खात्मा होगा.
600 से ज्‍यादा सरकारी विभाग और राज्‍य सरकारें, जो कार्डों पर अपना दबदबा पसंद करेंगी, को काबू करने के बारे में बोलना आसान है और करना कठिन. इन सबकी अड़ंगेबाजी, खास तौर पर ऐसी स्थिति में जबकि यूडीएआइ इन्हें पंजीयक के रूप में इस्तेमाल करने की बात कर रही है जो नाम दर्ज करने का काम करेंगे, परियोजना के लिए महंगे साबित हो सकते हैं.
अय्यर चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं कि यूआइडीएआइ का हश्र भी कहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पंचायती राज संबंधी उठाए गए कदमों जैसा न हो. पंचायत स्तर पर सत्ता हस्तांतरण के लिए राज्‍य सरकारों की ओर से मनाही के कारण यह कोशिश बेहार हो गई थी. अय्यर का कहना है, ''यूआइडी में नाम के स्थान पर एक नंबर है.
नीलेकणी के प्राधिकरण को यह शक्ति नहीं दी गई है कि वह केंद्र सरकार के प्रत्येक मंत्रालय, एजेंसी या राज्‍य सरकारों में यूआइडी का इस्तेमाल लागू कर सके. मुझे इस बात का भय है कि हमारे प्रधानंत्री की यूआइडी पहल एक पूर्व प्रधानमंत्री की पंचायत सबंधी पहल की तर्ज पर अटक न जाए.'' उनका तर्क यह है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी सामाजिक सुरह्ना योजनाओं से मिलने वाले फायदों में काफी हद तक बढ़ोतरी कर सकती है बशर्ते इसमें देश की तीन लाख पंचायतों को गोद लिया जाए.
तकनीकी दिक्कतों के अलावा (देखें बॉक्सः तकनीकी परेशानियां) ऐसे प्रोजेक्ट में भारी-भरकम लागत शुमार होती है और इनका आकलन मिलने वाले सीमित फायदों के आधार पर किया जाना चाहिए. रामकुमार का कहना है, ''इतने बड़े पैमाने पर खर्च के वादे के बावजूद प्रौद्योकीय विकल्पों और आखिर में योजना की व्यावहारिकता पर संदेह बरकरार रहता है. इसमें आइडी कार्ड्‌स के लिए जरूरी नेटवर्क आधारित सिस्टम्स के रखरखाव की लागत शामिल की जानी चाहिए ताकि यह अच्छी तरह काम कर सके.''
लेकिन नीलेकणी इन तर्कों का जवाब देते हुए बताते हैं कि इस योजना के लाभ इसकी लागत की तुलना में कहीं ज्‍यादा होंगे. उनका कहना है, 'लोगों को सेवा देने के मामले में यूआइडी नंबर में इसका स्वरूप बदलने की पूरी गुंजाइश है. इससे व्यवस्था में मौजूद दोहराव को खत्म करने की प्रणाली होगी और यह साथ ही बेहतर सेवाएं देने के लिए एक प्रभावी प्लेटफॉर्म होगा.''
यूडीएआइ का कहना है कि इस नंबर के लिए नामांकन का नागरिकों पर कोई दबाव नहीं होगा. इनका पंजीयन करने वाले पंजीयक सरकारी या निजी क्षेत्र के हो सकते हैं और इस बात पर जोर दे सकते हैं कि वे उन्हीं लोगों को अपनी सेवाएं देंगे जिनका उन्होंने नामांकन किया है. बंगलुरू स्थित एक अनुसंधान संस्थान सेंटर फॉर इंटरनेट सोसाइटी के निदेशक सुनील अब्राहम का कहना है, ''नंबर का पूरी तरह स्वैच्छिक होना निश्चित करने के लिए प्रस्तावित कानून में उल्लेख होना चाहिए. विधेयक के अंतर्गत यूआइडी नंबर नहीं होने पर किसी सामान, सेवाओं, हकदारी या हित (निजी या सार्वजनिक) की मनाही को अपराध माना जाना चाहिए.''
लेकिन इससे भी बड़ी चिंता यह है कि परियोजना व्यक्तिगत जानकारी की निजता, गोपनीयता और सुरह्ना के प्रतिमान को पूरी तरह बदल सकती है. अब तक सरकार ऐसी जानकारियों को अलग-अलग हिस्सों में अपने दफ्तरों की फाइलों में बंद करके रख देती थी. आम तौर पर नागरिक अपने बारे में संबंधित जानकारियां किसी खास मकसद से किसी निजी या सरकारी एजेंसी को मांगे जाने पर ही देते थे ताकि वह एजेंसी अपना काम कर सके.. हो सकता है, किसी टेलीफोन कंपनी को आपके स्वास्थ्य के बारे में जानकारियां न हों और आपके अस्पताल को आपकी आमदनी से संबंधित जानकारियों की जरूरत न हो.
आलोचकों का तर्क यह है कि लोगों के बारे में जानकारियों का निजी क्षेत्र किसी न किसी रूप में दुरुपयोग करेगा. हमारे यहां ऐसा माहौल है कि  सामाजिक सेवाओं को प्रदान करने में निजी क्षेत्र को भागीदारी के प्रति प्रोत्साहन मिलता है.
दिल्ली स्थित कानून अनुसंधानर्ता उषा रामनाथन का कहना है, ''यही वह स्थिति है जिसमें थोड़ी-बहुत प्राइवेसी संभव है. हम एक एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हम कई जगई, अलग-अलग तरीके से अपने बारे में जानकारियां देते हैं. जिस आसानी से प्रौद्योगिकी ने निजता की धारणा को कम किया है, उसे रोकना चाहिए, न कि उसको बढ़ावा देना चाहिए. लेकिन इसके विपरीत यूआइडी सरकार के पास हमारे बारे में मौजूद सूचनाओं के विशाल संग्रहों को जोड़ने वाले पुल का काम करेगा और उस व्यक्ति के हाथों में से इसका नियंत्रण ले लेगा. इसके बाद हम खुद यह निर्धारण करेंगे कि हमें किसे, कितनी जानकारी देनी है.'' इस बात में बहुत बड़ा फर्क है कि नागरिक किसी सरकार द्वारा दी गई जानकारियों पर नजर रखते हैं और सरकार या बाजार लोगों पर नजर रखता है.
रामनाथन का कहना है, ''यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि यूआइडी वह नहीं है जैसा कि पेश किया जा रहा है. यह दयालु या कृपालु नहीं है, महज एक नंबर नहीं है जिसके जरिए उन लोगों को पहचान मिल सकेगी जिन्हें अब तक सरकार ने पहचाना नहीं था.''
अर्थशास्त्री ज्‍यां द्रें ने एक अन्य चिंता से अवगत कराया है. उनका मानना है कि, ''यह योजना एक ऐसे दौर में पेश की गई है जब सरकार की निरंकुशता बढ़ने का समय है और इसके जरिए सरकार के पास असीमित नियंत्रण के द्वार खुलने जैसे हालात बन गए हैं. सामाजिक नीति के लिए यूआइडी योजना के सीधे-सादे इस्तेमाल की संभावनाएं इस बुनियादी खतरे को किसी भी रूप में कोई खास नुक्सान नहीं पहुंचातीं.''
नीलेकणी का कहना है कि विधेयक का मसौदा आंकड़ों की सुरह्ना के संबंध में विभिन्न चिंताओं का पूरी तरह ध्यान रखने और गोपनीयता का भी ध्यान रखने की बात कहता है. इस मसौदे में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि ऐसे मसलों पर पूरी तरह ध्यान देते हुए डाटा संबंधी नीति पर ध्यान देते हुए एक बेहतर और बड़े नीतिगत ढांचे की दरकार है.
दरअसल, यूआइडी को लोगों की गिनती करने का नीलेकणी के कौशल के रूप में नहीं देखा जाना चाहए. यह तो डुप्लिकेशन संबंधी एक गौण प्रश्न पर विचार करने के बारे में है. तमिलनाडु की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मात्र 2 फीसदी डुप्लिकेशन है जबकि छत्तीसगढ़ ने अपने यहां राशन कार्डों पर होलोग्राम लगा कर 8 फीसदी डुप्लिकेशन को दूर कर दिया जबकि जरूरत इस बात की थी कि ज्‍यादा से ज्‍यादा गरीबों को पीडीएस के दायरे में लाया जाता.
यूआइडी प्रोजेक्ट के अंतर्गत सरकार और बाजार के मद्देनजर परिचय, खोज और निगरानी संबंधी बड़े-बड़े मुद्दे ऐसे हैं जो विचारणीय हैं. लोगों की जानकारी पर आधारित आंकड़ों की चोरी होने का भी गंभीर खतरा है. हो सकता है, सरकार ने नीलेकणी की प्रतिष्ठा और देश के सामाजिक क्षेत्र के लिए यूआइडी के फायदों का खूबसूरत आवरण चढ़ा कर इस योजना संबंधी विचार पेश कर दिया है. लेकिन आंकड़ों का यह खेल जब तक ऐसे मुकाम पर पहुंच जाए जहां से लौटना मुश्किल है, देश को चाहिए कि वह यूआइडी परियोजना की आलोचनात्मक नजरिए के साथ भली-भांति पड़ताल जरूर कर ले.


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आदिवासी गांव थेंभली के 10 आदिवासी विशिष्ट पहचान संख्या (यूआईडी) हासिल करने वाले पहले व्यक्ति बने जिन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से इसे हासिल किया. रंजना सोनावाने और हितेश सोनावाने को पहला यूडीआई कार्ड दिया गया.
मनमोहन और सोनिया ने विशिष्ट भारतीय पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के पहले 10 कार्ड एक समारोह में आदिवासी गांव के लोगों को बांटे.
इस समारोह में महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायणन मुख्यमंत्री, अशोक चव्हाण, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और यूआईडीएआई प्रमुख नंदन नीलेकणी भी मौजूद थे.
समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि विशिष्ट पहचान कार्ड का वितरण आम आदमी के कल्याण के लिए एक बड़े प्रयास की शुरुआत है.
उन्होंने कहा ‘गरीबों के पास कोई परिचय पत्र नहीं होता. इस कमी के चलते वे बैंक खाता नहीं खोल सकते या राशन कार्ड हासिल नहीं कर सकते. वे सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकते और कई बार इन लाभों को दूसरे हड़प जाते हैं.’ मनमोहन ने कहा कि जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं वे इस कार्यक्रम के सबसे बड़े लाभार्थी होंगे.
उन्होंने कहा ‘‘हम अपने गरीबों अनुसूचित और अनुसूचित जन जातियों को प्रत्येक अवसर मुहैया कराएंगे जिससे वे सम्मानजनक जीवन जी सकें.’
मनमोहन ने यह भी कहा कि विशिष्ट संख्या नए और आधुनिक भारत का प्रतीक है. ‘हम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. अब दुनिया में प्रौद्योगिकी व्यापक तौर पर इस्तेमाल हो रही है. मुझे उम्मीद है कि प्रत्येक भारतीय को यह संख्या जल्द मिल जाएगी.’ सोनिया गांधी ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए और कहा कि विशिष्ट पहचान संख्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों को दूर करने में मदद करेगी. उन्होंने कहा ‘अब नकली राशन कार्डों की समस्या को काबू में किया जा सकेगा.’
गांधी ने कहा ‘मेरा मानना है कि गरीब और हासिये पर चले गये लोगों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने की दिशा में यह एक ऐतिहासिक और कारगर कदम है.’ उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नीत संप्रग सरकार की नीति एवं योजनाओं का मकसद उन लोगों को सशक्त बनाना है जो ‘गरीब और वंचित’ हैं.
गांधी ने कहा कि लोगों के सशक्तीकरण के लिये संप्रग सरकार सूचना का अधिकार जैसे कई कानून और महात्मा गांधी नरेगा जैसी कई योजनायें लायी और इनका मकसद ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ लाना भी है.
इसी तरह वनाधिकार कानून का मकसद उन आदिवासियों और जंगलों में रहने वालों को अधिकार देना है जो उस जमीन पर पीढियों से खेती करते आ रहे हैं.
गांधी ने हालांकि कहा कि गांवों और पंचायतों की तस्वीर बदलने के लिये केवल कानून लाना ही पर्याप्त नहीं है.
उन्होंने कहा ‘‘ हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि उनका :कानून : क्रियान्वयन हो और उनका लाभ उनको सीधा मिले जो उसके हकदार हैं.


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भा.वि.प.प्रा. मॉडल की विशेषताऐं:-
आधार केवल पहचान प्रदान करेगा: भा.वि.प.प्रा. का कार्य क्षेत्र नागरिकों को उनके जनसांख्यिकीय एवं बायोमैट्रिक जानकारियों के आधार पर विशिष्ट पहचान संख्या (आधार) जारी करने तक ही सीमित है। आधार केवल पहचान की गारंटी प्रदान करता है, अधिकार, हितलाभ अथवा हकदारी की नहीं।
निर्धन समर्थक दृष्टिकोण: भा.वि.प.प्रा. देश के सभी निवासियों के नामांकन की कल्पना करता है, जिसमें भारत के निर्धनों एवं दलित/शोषित समुदाय के लोगों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना मुख्य है। भा.वि.प.प्रा. अपने कार्य के प्रथम चरण, जैसे- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा), राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आर.एस.वी.वाई.) एव सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में पंजीयकों को अपना साझेदार बनाने की योजना बना रहा है ताकि अधिक संख्या में निर्धनों एवं दलितों/शोषितों को विशिष्ट पहचान प्रणाली से जोड़ा जा सके। विशिष्ट पहचान के प्रमाणीकरण की प्रक्रिया से निर्धनों को सेवा प्रदान करने की प्रक्रिया में सुधार होगा।
उचित सत्यापन के साथ निवासियों का नामांकन:- भारत में वर्तमान में विद्यमान पहचान डाटाबेस धोखाधड़ी एवं नकली लाभार्थियों से भरे हैं। इसे भा.वि.प.प्रा. के डाटाबेस में जाने से रोकने के लिये प्राधिकरण निवासियों के जनसांख्यिकीय एवं बायोमैट्रिक जानकारियों का उचित सत्यापन करने के उपरांत ही अपने डाटाबेस में नामांकन करने की योजना पर कार्य कर रहा है। यह कार्य यह सुनिश्चित करेगा कि संग्रहित डाटा कार्यक्रम के शुरूआत से ही सही एवं साफ सुथरा हैं। अधिकांश निर्धन एवं वंचित आबादी के पास पहचान संबंधी दस्तावेजों का अभाव है एवं विशिष्ट पहचान उनके पहचान का पहला प्रकार हो सकता है जिस तक उनकी पहुंच होगी। भा.वि.प.प्रा. यह सुनिश्चित करेगा कि ''अपना निवास जाने'' (के.वाई.आर.) मानक, निर्धनों को नामांकित करने में अवरोध न बने तथा उनके शामिल करने हेतु डाटा की उपयुक्तता के साथ बिना समझौता किये उपयुक्त प्रक्रिया हेतु उपाय करे।
भागीदारी मॉडल:- भा.वि.प.प्रा. का दृष्टिकोण पूरे भारत में उपलब्ध सरकारी एवं निजी एजेंसियों के पास विद्यमान बुनियादी सुविधाओं का लाभ प्राप्त करते हुए कार्य करना है। भा.वि.प.प्रा. नियामक प्राधिकारी होगी जो केन्द्रीय पहचान आकड़ा निक्षेपागार (सी.आई.डी.आर.) का प्रबंधन भी करेगी एवं आधार जारी करेगी, तथा आवश्यकता के अनुसार निवासियों के पहचान की जानकारी अद्यतन तथा प्रमाणीकृत करेगी।

इसके अतिरिक्त भा.वि.प.प्रा. केन्द्र, राज्य एवं निजी एजेंसियों के साथ भागीदारी करेगी जो प्राधिकरण के लिये पंजीयक होंगे। पंजीयक आधार आवेदनों को प्रोसेस कर सी.आई.डी.आर. से संबंध स्थापित कर दोहरी पहचान को दूर करेंगे एवं आधार प्रदान करेंगे। भा.वि.प.प्रा. सेवा प्रदाताओं को भी पहचान के प्रमाणीकरण हेतु भागीदार बनायेगी।
भा.वि.प.प्रा. पंजीयकों के लिये एक लचीला मॉडल पर जोर देगा:- पंजीयक प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं में सार्थक लचीलापन सुनिश्चित करेंगे जिसमें कार्ड जारी करना, मूल्य निर्धारण, के.वाय.आर. के सत्यापन का विस्तार, अपनी आवश्यकता के लिये निवासियों का जनसांख्यिकीय डाटा का संग्रह आदि शामिल है। भा.वि.प.प्रा., पंजीयकों को कुछ निश्चित जनसांख्यिकीय एवं बायोमैट्रिक जानकारी एकत्रित करने में एवं मौलिक के.वाई.आर. की गतिविधियों में एकरूपता लाने के लिये मानक प्रदान करेगी। भा.वि.प.प्रा. द्वारा गठित के.वाई.आर. एवं बायोमैट्रिक समिति द्वारा इन मानकों को अंतिम रूप दिया जायेगा।
दोहरापन रोकने की प्रक्रिया सुनिश्चित करना:- पंजीयक आवेदकों के डाटा को केन्द्रीय पहचान आकड़ा निक्षेपागार सी.आई.डी.आर. दोहरापन रोकने हेतु भेजते हैं। सी.आई.डी.आर. नकल रोकने के लिये प्रत्येक नये नामांकन के जनसांख्यिकीय फील्ड एवं बायोमैट्रिक की जांच कर डाटाबेस से डुप्लिकेट को मिटाने/हटाने का कार्य करते हैं।

भा.वि.प.प्रा. एक स्वयं सफाई व्यवस्था प्रणाली लागू की ओर प्रतिबद्ध है। भारत में, एकाधिक डाटाबेसों में गड़बड़ी से व्यक्तियों को विभिन्न एजेंसियों को विभिन्न निजी जानकारी प्रदान करने का अवसर मिल जाता है जबकि भा.वि.प.प्रा. की प्रणाली में दोहरापन रोकने की प्रणाली के कारण व्यक्ति को सही डाटा भरने का केवल एक ही मौका मिलता है। यह पहल विशेष रूप से हितलाभ एवं अधिकारों को आधार से जोड़ने में शक्तिशाली हो होगी।
सजीव (ऑनलाइन) प्रमाणीकरण:- भा.वि.प.प्रा. सजीव प्रमाणन का पुख्ता दावा प्रस्तुत करेगा जहां एजेंसियां निवासियों के जनसांख्यिकीय एवं बायोमैट्रिक जानकारी को केन्द्रीय पहचान आकड़ा निक्षेपागार में संग्रहित आंकड़ों से मिलान कर सकेंगी। भा.वि.प.प्रा., आधार प्रमाणन प्रक्रिया को अपनाने में पंजीयकों एवं एजेंसियों की मदद करेगा एवं बुनियादी सुविधाओं को परिभाषित करने एवं उन प्रक्रियाओं जिनकी इस कार्य में आवश्यकता है, में भी सहायता प्रदान करेगा।

भा.वि.प.प्रा. निवासी डाटा साझा नहीं करेगा:- निवासियों से संबंधित जानकारियाँ एकत्र करने की प्रक्रिया में भा.वि.प.प्रा. ''गोपनीयता एवं प्रयोजन'' के बीच एक संतुलन की कल्पना करता है। नागरिकों के नामांकन के समय वही जानकारी एजेंसियां अपने पास संचित कर सकती हैं जिसके लिये वे अधिकृत हैं, लेकिन वे आधार डाटाबेस से जानकारी उपयोग नहीं कर सकेंगे। भा.वि.प.प्रा., पहचान प्रमाण से संबंधित सभी अनुरोधों का उत्तर ''हां'' या ''नहीं'' के माध्यम से ही देगा। भा.वि.प.प्रा., पंजीयकों के पास एकत्रित जानकारियों की गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये करार भी करेगी।
डाटा पारदर्शिता:- भा.वि.प.प्रा. सभी एकत्रित आंकड़ों को सूचना का अधिकार के अधीन जनता के उपयोग के लिये रखेगी। हालांकि निजी पहचान आंकड़ा आर.टी.आई. किसी भी व्यक्ति या संस्था के लिए सुलभ नहीं किया जायेगा।

प्रौद्योगिकी भा.वि.प.प्रा. प्रणाली का मजबूत आधार:- प्रौद्योगिकी प्रणाली की भा.वि.प.प्रा. के बुनियादी ढांचे में प्रमुख भूमिका होगी । आधार डाटाबेस एक केन्द्रीय सर्वर पर संग्रहित किया जायेगा। निवासियों के नामांकन कम्प्यूटरीकृत किये जायेंगे एवं पंजीयकों तथा सी.आई.डी.आर. के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान एक नेटवर्क पर होगा। निवासियों का प्रमाणीकरण सजीव होगा। भा.वि.प.प्रा. जानकारियों को सुरक्षित रखने के लिये भी उपाय करेगी।

http://uidai.gov.in/hindi/index.php?option=com_content&view=article&id=153&Itemid=13

भारतीय नागरिकता और राष्ट्रीयता कानून के अनुसार: भारत का संविधान पूरे देश के लिए एकमात्र नागरिकता उपलब्ध कराता है. संविधान के प्रारंभ में नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भारत के संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 में दिया गया है. प्रासंगिक भारतीय कानून नागरिकता अधिनियम 1955 है, जिसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1986, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1992, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 और नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2005 के द्वारा संशोधित किया गया है, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 को 7 जनवरी 2004 को भारत के राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकृति प्रदान की गयी और 3 दिसंबर 2004 को यह अस्तित्व में आया.नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2005 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित किया गया था और यह 28 जून 2005 को अस्तित्व में आया.

इन सुधारों के बाद, भारतीय राष्ट्रीयता कानून जूस सोली (jus soli) (क्षेत्र के भीतर जन्म के अधिकार के द्वारा नागरिकता) के विपरीत काफी हद तक जूस सेंगिनीस (jus sanguinis) (रक्त के अधिकार के द्वारा नागरिकता) का अनुसरण करता है.

जन्म के द्वारा नागरिकता

26 जनवरी 1950 के बाद परन्तु 1 जुलाई 1987 को 1986 अधिनियम के अधिनियमन से पहले भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति जन्म के द्वारा भारत का नागरिक है.
1 जुलाई 1987 को या इसके बाद भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक है यदि उसके जन्म के समय उसका कोई एक अभिभावक भारत का नागरिक था. 3 दिसंबर 2004 के बाद भारत में पैदा हुआ वह कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाता है, यदि उसके दोनों अभिभावक भारत के नागरिक हों अथवा यदि एक अभिभावक भारतीय हो और दूसरा अभिभावक उसके जन्म के समय पर गैर कानूनी अप्रवासी न हो, तो वह नागरिक भारतीय या विदेशी हो सकता है.

वंश के द्वारा नागरिकता

26 जनवरी 1950 के बाद परन्तु 10 दिसंबर 1992 से पहले भारत के बाहर पैदा हुए व्यक्ति वंश के द्वारा भारत के नागरिक हैं यदि उनके जन्म के समय उनके पिता भारत के नागरिक थे.
10 दिसंबर 1992 को या इसके बाद भारत में पैदा हुआ व्यक्ति भारत का नागरिक है यदि उसके जन्म के समय कोई एक अभिभावक भारत का नागरिक था.
3 दिसंबर 2004 के बाद से, भारत के बाहर जन्मे व्यक्ति को भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा यदि जन्म के बाद एक साल की अवधि के भीतर उनके जन्म को भारतीय वाणिज्य दूतावास में पंजीकृत ना किया गया हो. कुछ विशेष परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार के अनुमति के द्वारा 1 साल की अवधि के बाद पंजीकरण किया जा सकता है. एक भारतीय वाणिज्य दूतावास में एक अवयस्क बच्चे के जन्म के पंजीकरण के लिए आवेदन देने के साथ अभिभावकों को लिखित में उपक्रम को यह बताना होता है कि इस बच्चे के पास किसी और देश का पासपोर्ट नहीं है.

पंजीकरण द्वारा नागरिकता

केन्द्रीय सरकार, आवेदन किये जाने पर, नागरिकता अधिनियम 1955 की धरा 5 के तहत किसी व्यक्ति (एक गैर क़ानूनी अप्रवासी न होने पर) को भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत कर सकती है यदि वह निम्न में से किसी एक श्रेणी के अंतर्गत आता है:--
  • भारतीय मूल का एक व्यक्ति जो पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले पांच साल के लिए भारत का निवासी हो;
  • भारतीय मूल का एक व्यक्ति जो अविभाजित भारत के बाहर किसी भी देश या स्थान में साधारण निवासी हो;
  • एक व्यक्ति जिसने भारत के एक नागरिक से विवाह किया है और पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले सात साल के लिए भारत का साधारण निवासी है;
  • उन व्यक्तियों के अवयस्क बच्चे जो भारत के नागरिक हैं;
  • पूर्ण आयु और क्षमता से युक्त एक व्यक्ति जिसके माता पिता सात साल तक भारत में रहने के कारण भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत हैं.
  • पूर्ण आयु और क्षमता से युक्त एक व्यक्ति, या उसका कोई एक अभिभावक, पहले स्वतंत्र भारत का नागरिक था, और पंजीकरण के लिए आवेदन देने से पहले एक साल से वह भारत में रह रहा है.
  • पूर्ण आयु और क्षमता से युक्त एक व्यक्ति जो पांच सालों के लिए भारत के एक विदेशी नागरिक के रूप में पंजीकृत है, और पंजीकरण के लिए आवेदन देने से पहले वह एक साल से भारत में रह रहा है.

समीकरण के द्वारा नागरिकता

एक विदेशी नागरिक समीकरण के द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है जो बारह साल से भारत में रह रहा हो. इसके लिए आवश्यक है कि आवेदक 14 साल की अवधि में कुल 11 साल के लिए भारत में रहा हो और आवेदन से पहले उसने 12 महीने का समय भारत में व्यतीत किया हो.

भारत के संविधान की शुरुआत में नागरिकता

26 नवम्बर, 1949 को भारत के राज्यक्षेत्र में अधिवासित व्यक्ति भारतीय संविधान के सांगत प्रावधानों के अनुसार स्वतः ही भारत के नागरिक बन गये. (अधिकांश संवैधानिक प्रावधान 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आये).भारतीय संविधान ने पाकिस्तान के उन क्षेत्रों से आने वाले अप्रवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में भी प्रावधान बनाये हैं, जो विभाजन से पहले भारत का हिस्सा थे.
अधिनियम की धारा 9 (1) के अनुसार भारत का कोई भी नागरिक जो पंजीकरण या समीकरण के द्वारा किसी और देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है, उसकी भारतीय नागरिकता रद्द हो जाएगी. इसमें यह भी प्रावधान है कि भारत का कोई भी नागरिक जो स्वेच्छा से किसी दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है, उसकी भारतीय नागरिकता रद्द हो जायेगी.विशेष रूप से, समाप्ति का प्रावधान त्याग के प्रावधान से अलग है, क्योंकि यह "भारत के किसी भी नागरिक " पर लागू होता है और वयस्कों के लिए ही प्रतिबंधित नहीं है. इसीलिए भारतीय बच्चे भी स्वतः ही अपनी भारतीय नागरिकता को खो देते हैं यदि उनके जन्म के बाद कभी भी वे किसी और देश की नागरिकता प्राप्त कर लेते हैं, उदाहरण के लिए, समीकरण या पंजीकरण के द्वारा- चाहे किसी अन्य नागरिकता का अधिग्रहण बच्चे के अभिभावकों की कार्रवाई का परिणाम ही क्यों न हो.
नागरिकता नियम 1956 के अनुसार किसी और देश का पासपोर्ट प्राप्त करना भी उस देश की राष्ट्रीयता का स्वैच्छिक अधिग्रहण है. नागरिकता के नियमों की अनुसूची III के नियम 3 के अनुसार, "यह तथ्य कि भारत के एक नागरिक ने किसी दिनांक को किसी अन्य देश की सरकार से पासपोर्ट प्राप्त किया है, इस बात का निर्णायक प्रमाण होगा कि उसने उस देश की नागरिकता को स्वैच्छिक रूप से प्राप्त किया है." एक बार फिर से, यह नियम लागू होता है यदि बच्चे के लिए उसके अभिभावकों के द्वारा विदेशी पासपोर्ट प्राप्त किया गया है, और चाहे इस तरह के पासपोर्ट को प्राप्त करना किसी अन्य देश के कानूनों के अनुसार आवश्यक हो, जो बच्चे को अपना एक नागरिक मानता है (उदाहरण, भारतीय माता पिता का अमेरिका में जन्मा एक बच्चा जो अमेरिकी कानूनों के अनुसार स्वतः ही अमेरिकी नागरिक हो जाता है, और इसीलिए उसे विदेश यात्रा के लिए अमेरिकी कानूनों के अनुसार अमेरिकी पासपोर्ट अर्जित करना पड़ता है). इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस व्यक्ति के पास अभी भी भारतीय पासपोर्ट है. वह व्यक्ति जो किसी और नागरिकता को प्राप्त कर लेता है वह उसी दिन से भारतीय नागरिकता खो देता है जिस दिन उसने किसी और देश की नागरिकता या पासपोर्ट अर्जित किया. ब्रिटिश राजनयिक पदों के लिए एक प्रचलित अभ्यास है, उदहारण के लिए, उस आवेदकों से भारतीय पासपोर्ट को ज़ब्त कर भारतीय प्राधिकरणों को लौटा दिया जाये, जो ब्रिटिश पासपोर्ट के लिए आवेदन करते हैं, या जिन्होंने इसे प्राप्त कर लिया है.
गोवा, दमन और दीव के सम्बन्ध में भारतीय नागरिकों के लिए खास नियम हैं. नागरिकता नियम, 1956 की अनुसूची के नियम 3A के अनुसार, "एक व्यक्ति जो नागरिकता अधिनियम 1955 (1955 का 57) की धारा 7 के तहत जारी, दादरा और नगर हवेली (नागरिकता) आदेश 1962, अथवा गोवा, दमन और दीव (नागरिकता) आदेश 1962 के आधार पर भारतीय नागरिक बन गया है, और उसके पास किसी अन्य देश के द्वारा जरी किया या पासपोर्ट है, तथ्य कि उसने 19 जनवरी 1963 से पहले अपना पासपोर्ट नहीं लौटाया है, यह इस बात का निर्णायक प्रमाण होगा कि उसने इस दिनांक से पहले स्वेच्छा से उस देश की नागरिकता को प्राप्त कर लिया है.
16 फरवरी 1962 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की न्यायपीठ ने इज़हार अहमद खान बनाम भारत संघ के मामले में कहा कि "अगर ऐसा पाया जाता है कि व्यक्ति ने समीकरण या पंजीकरण के द्वारा विदेशी नागरिकता प्राप्त की है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इस प्रकार के समीकरण या पंजीकरण के परिणामस्वरूप वह भारत का नागरिक नहीं रहेगा.

भारत की विदेशी नागरिकता

यह भारतीय राष्ट्रीयता का एक रूप है, जिसके धारक को भारत का विदेशी नागरिक कहा जाता है. [1] भारतीय संविधान दोहरी नागरिकता अथवा दोहरी राष्ट्रीयता को अस्वीकार करता है, अवयस्क इस दृष्टि से अपवाद हैं जहां दूसरी नागरिकता अनायास ही प्राप्त हो जाती है. भारतीय प्राधिकरणों ने इस कानून की व्याख्या की है कि एक व्यक्ति किसी दूसरे देश का पासपोर्ट नहीं रख सकता अगर उसके पास भारतीय पासपोर्ट है- यहां तक कि एक बच्चे के मामले में जिसे अन्य देश के द्वारा उसका नागरिक होने का दावा किया जाता है, और ऐसा हो सकता है कि उस देश के कानूनों के अनुसार उस बच्चे को विदेश यात्रा करने के लिए उस देश के पासपोर्ट की आवश्यकता हो (उदहारण भारतीय माता पिता का अमेरिका में जन्मा एक बच्चा)- और भारतीय अदालतों ने इस मामले पर कार्यकारी शाखा विस्तृत विवेक दिया है. इसलिए, भारत की विदेशी नागरिकता भारत की पूर्ण नागरिकता नहीं है और इस प्रकार से यह दोहरी नागरिकता या दोहरी राष्ट्रीयता को अस्वीकार करता है.
भारत की केन्द्रीय सरकार एक व्यक्ति को आवेदन पर, भारत के एक विदेशी नागरिक के रूप में पंजीकृत कर सकती है यदि वह व्यक्ति भारतीय मूल का है और ऐसे देश से है जो किसी एक या अन्य रूप में दोहरी नागरिकता की अनुमति देता है.व्यापक रूप से कहा जाये तो "भारतीय मूल का एक व्यक्ति" किसी अन्य देश का नागरिक है जो:
  • 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद किसी भी समय भारत का नागरिक था; अथवा
  • 26 जनवरी 1950 को भारत का नागरिक बनने के लिए पात्र था; अथवा
  • एक ऐसे क्षेत्र से था जो 15 अगस्त 1947 के बाद भारत का हिस्सा बन गया; अथवा
  • उपरोक्त वर्णित किसी व्यक्ति का बच्चा या पोता है; अथवा
  • कभी भी पाकिस्तान या बांग्लादेश का नागरिक नहीं रहा है.

ध्यान दें कि भारतीय माता पिता के बच्चे स्वतः ही इन आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते, और इसलिए स्वतः ओसीआई (भारत की विदेशी नागरिकता) के पात्र नहीं हैं.
भारतीय मिशनों को ऐसे मामलों में 30 दिनों के भीतर भारत की विदेशी नागरिकता देने के लिए प्राधिकृत किया गया है जहां कोई गंभीर अपराध शामिल ना हो जैसे नशीले पदार्थों की तस्करी, नैतिक अधमता, आतंकवादी गतिविधियां या ऐसी कोई गतिविधियां जिनके कारण एक साल से ज्यादा की जेल हो सकती हो.
विदेशी भारतीय नागरिकता उन लोगों को नहीं दी जा सकती, जिन्होंने विदेशी राष्ट्रीयता को प्राप्त किया है, या प्राप्त करने की योजना बना रहें हैं, अथवा उनके पास भारतीय पासपोर्ट भी है.इस कानून के अनुसार आवश्यक है कि भारतीय नागरिक जो विदेशी राष्ट्रीयता लेता है, उसे तुरंत अपना भारतीय पासपोर्ट लौटा देना चाहिए.जो लोग इसके लिए पात्र हैं, वे विदेशी भारतीय नागरिकता के पंजीकरण के लिए आवेदन कर सकते हैं.

भारत के विदेशी नागरिकों को भारतीय पासपोर्ट करने की कोई योजना नहीं है, हालांकि पंजीकरण का प्रमाणपत्र पासपोर्ट जैसी पुस्तिका में होगा (नीचे दिए गए भारतीय मूल के व्यक्ति के कार्ड के समान) मंत्रिपरिषद ने भारत के पंजीकृत विदेशी नागरिकों को बायोमैट्रिक स्मार्ट कार्ड देने के प्रस्ताव पर काम करने के लिए भारतीय विदेश मंत्रालय को दिशानिर्देश भी दिए हैं.
भारत का एक विदेशी नागरिक समता के आधार पर गैर-प्रवासी भारतीयों के लिए उपलब्ध सभी अधिकारों और विशेषाधिकारों का लाभ उठा सकता है. इसमें कृषि एवं वृक्षारोपण संपत्ति में निवेश करने या सार्वजनिक कार्यालय रखने का अधिकार शामिल नहीं है.[2] व्यक्ति को अपना मौजूदा विदेशी पासपोर्ट रखना होता है जिसमें नया वीजा शामिल होना चाहिए जो 'यू' वीजा कहलाता है, जो एक बहु प्रयोजन, बहु प्रवेश, वीजा है और जीवन भर चलता है. इसके साथ भारत का विदेशी नागरिक कभी भी, किसी भी प्रयोजन के लिए, कितनी भी समय अवधि के लिए देश का दौरा कर सकता है.
भारत का एक विएशी नागरिक भारत में रहते हुए भी निम्नलिखित अधिकारों का लाभ नहीं उठा पायेगा: (i) मतदान का अधिकार, (ii) राष्ट्रपति कार्यालय, उप राष्ट्रपति कार्यालय, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा या विधान परिषद में सदस्य बनने का अधिकार, (iii) सार्वजनिक सेवाओं (सरकारी सेवाओं) में नियुक्ति का अधिकार.साथ ही भारत के विदेशी नागरिक भीतरी रेखा के परमिट के लिए पात्र नहीं हैं, अगर वे भारत के कुछ विशेष स्थानों की यात्रा करना चाहते हैं तो उन्हें उन्हें एक संरक्षित क्षेत्र परमिट के लिए आवेदन देना होगा.
एक दिलचस्प सवाल यह है कि भारत के विदेशी नागरिक के रूप में पंजीकृत एक व्यक्ति भारत में रहते हुए अपने देश के राजनयिक संरक्षण का अधिकार खो देगा.1930 के राष्ट्रीयता कानून के संघर्ष से सम्बंधित विशेष सवालों पर हेग सम्मलेन का अनुच्छेद 4 कहता है कि "एक राज्य अपने किसी व्यक्ति को ऐसे राज्य के खिलाफ राजनयिक संरक्षण प्रदान नहीं कर सकता जिसकी राष्ट्रीयता ऐसे व्यक्तियों के पास भी हो. यह मामला दो चीजों पर निर्भर करता है: पहला, क्या भारत की सरकार भारत के विदेशी नागरिकता को सच्ची नागरिकता मानती है और इस आधार पर दूसरे देश के द्वारा राजनयिक संरक्षण का अधिकार समाप्त हो जाता है; और दूसरा, क्या व्यक्ति का अपना देश इसे पहचानता है और भारत की अस्वीकृति को स्वीकार करता है. दोनों ही बिंदु संदिग्ध हैं. भारत विदेशी नागरिकों को एक स्वतंत्र यात्रा दस्तावेज नहीं देता है परन्तु इसके बजाय दूसरे देश के पासपोर्ट में एक वीजा रख देता है. यदि व्यक्ति केवल दूसरे देश का पासपोर्ट रखने के लिए पात्र है परन्तु भारतीय यात्रा दस्तावेज के किसी भी रूप को नहीं रख सकता, तो इस निष्कर्ष से बच पाना मुश्किल है कि वह व्यक्ति राजनयिक संरक्षण के प्रयोजन के लिए अन्य देश का एकमात्र नागरिक है.
भारत की विदेशी नागरिकता प्राप्त करने पर, ब्रिटिश नागरिक 1981 के ब्रिटिश राष्ट्रीयता अधिनियम की धारा 4B के तहत पूर्ण ब्रिटिश नागरिक के रूप में पंजीकरण नहीं करवा सकते. (जिसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के पास पंजीकरण के लिए कोई और नागरिकता नहीं है.) यह उन्हें एक अलग तरीके से पूर्ण ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता और यह उनकी ब्रिटिश नागरिकता को रद्द नहीं करता यदि वे धारा 4B के तहत पहले से पंजीकृत हैं. [2] [3][4]
भारत के लोक सूचना ब्यूरो ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की जो 29 जून 2005 को भारत की विदेशी नागरिकता की योजना का स्पष्टीकरण करती है.
ओसीआई योजना का पूर्ण विवरण भारत सरकार के गृह मंत्रालय वेब पेज पर उपलब्ध है.
[5]
कई अन्य लेख भी लिखे गए हैं, इनमें शामिल हैं:
ओसीआई कार्ड भारतीय वीजा का विकल्प नहीं है और इसलिए ओसीआई धारकों को भारत में यात्रा करते समय वह पासपोर्ट अपने पास रखना चाहिए जो जीवन भर के वीजा को दर्शाता है.[3]

हालांकि एक दोहरी नागरिकता पूर्ण रूप से विकसित नहीं है,[4] एक ओसीआई कार्ड धारक के पास एक विशेषाधिकार होता है कि वर्तमान में मल्टीनेशनल कम्पनियां ओसीआई कार्ड धारक को काम पर रखना पसंद करती हैं जो भारत के दौरे के लिए बहु प्रयोजन और बहु प्रवेश वाला जीवन भर का वीजा रखते हैं. यह कार्ड धारक को एक आजीवन वीजा प्रदान करता है, इसके अलावा वे अलग से काम करने का परमिट भी प्राप्त कर लेते हैं. ओसीआई धारकों के साथ आर्थिक, वित्तीय और शैक्षणिक मामलों में एनआरआई जैसा व्यवहार किया जाता है, और उनके पास केवल राजनैतिक अधिकार नहीं होते, उनके पास कृषि और वृक्षारोपण संपत्ति को खरीदने या सार्वजनिक कार्यालय रखने का अधिकार नहीं होता.[5] उन्हें देश में आगमन पर विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी (FRRO) के साथ पनिकर्ण भी नहीं करवाना पड़ता, और वे जब तक चाहें तब तक यहां रह सकते हैं. ओसीआई कार्ड धारक आराम से यात्रा कर सकते हेइम और भारत में काम ले सकते हैं, जबकि अन्य को रोजगार वीजा पर ब्यूरोक्रेटिक देरी होने पर पकड़ा जा सकता है. कई कम्पनियां अपने कारोबार के विस्तार के लिए PIO प्रवास की एक सक्रिय नीति का अनुसरण कर रही हैं. भारतीय मिशन ओसीआई आवेदनों के साक्षी हैं, पूरी दुनिया में वाणिज्य दूतावास के द्वारा जारी किये गए असंख्य ओसीआई कार्ड भारतीय वाणिज्य दूतावास के साथ तेजी से बढ़ रहें हैं, इसमें काफी संख्या में आवेदन किये जा रहे हैं.[6]

भारतीय मूल कार्ड (पीआईओ) के व्यक्ति

एक पीआईओ कार्ड का फ्रंट कवर
कोई भी व्यक्ति जिसके पास वर्तमान में गैर-भारतीय पासपोर्ट है, जो तीन पीढ़ी पहले तक अपनी भारतीयता को प्रमाणित कर सकता है. यही नियम एक भारतीय नागरिक के जीवन साथी पर और भारतीय मूल के व्यक्तियों पर लागू होता है. जैसा कि केन्द्रीय सरकार के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है पकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य देशों के नागरिक भारतीय मूल का कार्ड प्राप्त करने के पात्र नहीं हैं. [7]
एक पीआईओ कार्ड आम तौर पर जारी होने की तिथि से पंद्रह वर्ष की अवधि तक वैद्य होता है. इससे धारक को निम्न्ब्लिखित फायदे होते हैं.
  • 180 दिन से कम की स्टे अवधि के लिए विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय पर पंजीकरण से छूट.
  • आर्थिक, वित्तीय और शैक्षिक क्षेत्रों में अनिवासी भारतीयों के साथ समता का लाभ.
  • भारत में कृषि सम्पत्ति के अलावा, किसी भी अचल संपत्ति को रखने, प्राप्त करने, स्थानांतरित करने, या निपटान करने की छूट.
  • खुला रुपया बैंक खाते, भारतीय निवासियों को उधार दे पाना, और भारत में निवेश करना आदि.
  • भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) या केन्द्रीय अथवा राज्य सरकारों के तहत विभिन्न आवास योजनाओं के लिए पात्र होना.
  • उनके बच्चे भारत के शिक्षा संस्थानों में अनिवासी भारतीयों के लिए सामान्य श्रेणी कोटा में प्रवेश पा सकते हैं.

एक पीआईओ कार्ड धारक:
  • किसी भी राजनीतिक अधिकारों के उपयोग का पात्र नहीं होगा.
  • बिना अनुमति के प्रतिबंधित या संरक्षित क्षेत्रों का दौरा नहीं कर पायेगा.
  • बिना अनुमति के पर्वतारोहण, शोध, और मिशनरी कार्य नहीं कर पायेगा.

ब्रिटिश राष्ट्रीयता और भारत

1 जनवरी 1949 से पहले, भारतीय संयुक्त राष्ट्र के कानून के तहत ब्रिटिश के अधीन थे. देखें ब्रिटिश राष्ट्रीयता कानून. 1 जनवरी 1949 और 25 जनवरी 1950 के बीच, भारतीय नागरिकता के बिना ब्रिटिश के अधीन रहते थे, जब तक वे पहले से संयुक्त राष्ट्र और उपनिवेशों या अन्य राष्ट्रमंडल देशों की नागरिकता प्राप्त नहीं कर लेते थे.
26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने पर, ब्रिटिश राष्ट्रीयता कानून के तहत, एक व्यक्ति जो भारतीय नागरिक बन जाता था, उसके पास राष्ट्रमंडल की भारतीय सदस्यता और उनकी भारतीय नागरिकता के सन्दर्भ में राष्ट्रमंडल नागरिक का दर्जा भी होता था (उसे राष्ट्रमंडल नागरिकता के साथ ब्रिटिश के अधीन कहा जाता था, यह दर्जा व्यक्ति को ब्रिटिश पासपोर्ट काम में लेने की अनुमति नहीं देता). हालांकि, असंख्य भारतीयों को भारतीय संविधान के लागू होने पर भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं हुई और वे नागरिकता के दर्जे के बिना ब्रिटिश के अधीन बने रहे (जो एक व्यक्ति को ब्रिटिश पासपोर्ट देता है) जब तक उन्होंने किसी अन्य राष्ट्रमंडल देश की नागरिकता प्राप्त नहीं कर ली. कोई भी व्यक्ति जो केवल एक ब्रिटिश के अधीन है (आयरलैंड के गणतंत्र के साथ जुड़े होने के बजाय) वह भारतीय नागरिकता या भारतीय विदेशी नागरिकता सहित किसी भी अन्य राष्ट्रीयता को प्राप्त कर लेने के बाद ब्रिटिश की अधीनता को स्वतः ही खो देगा.
ब्रिटिश के अधीन लोग संयुक्त राष्ट्र में न रहते हुए भी ब्रिटिश राष्ट्रीयता अधिनियम की धरा 4B के तहत ब्रिटिश नागरिक के रूप में पंजीकरण करवा सकते हैं यदि उनके पास कोई और राष्ट्रीयता या नागरिकता नहीं है और उन्होंने 4 जुलाई 2002 के बाद किसी नागरिकता या राष्ट्रीयता का स्वेच्छा से त्याग नहीं किया है. यह सुविधा 30 अप्रैल 2003 के बाद से उपलब्ध है. वे लोग जो संयुक्त राष्ट्र में प्रवासित हो गए हैं, उनके पास ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त करने का एक अतिरिक्त विकल्प होता है, जिसे आमतौर पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे स्थानान्तरण योग्य ब्रिटिश नागरिकता उपलब्ध देते हैं.
1949 से ब्रिटिश अधीनता शब्द का अर्थ बदल गया, अब यह किसी व्यक्ति के द्वारा राष्ट्रमंडल देश की नागरिकता रखने से कुछ अधिक है. केवल उसी व्यक्ति को ब्रिटिश पासपोर्ट दिया जाता था जो बिना नागरिकता के ब्रिटिश के अधीन है.
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%82%E0%A4%A8
सरकारी योजनाओं का लाभ सही हाथों में पहुंचाने सहित कई मकसद की पूर्ति के लिए देश के सभी लोगों की पहचान की प्रक्रिया जोरों पर है। इस प्रक्रिया में कई खिलाड़ी अपना करतब दिखा रहे हैं। यूआइडीएआइ लोगों के बॉयोमेट्रिक्स विवरण एकत्र कर रहा है। ऐसा ही विवरण एनपीआर और कुछ राज्य भी एकत्र करने में जुटे हैं। अब एक केंद्रीय मंत्रालय भी इसमें कूदने की मंशा जता चुका है। ऐसी स्थिति में ‘ढेर जोगी मठ उजाड़’ वाली कहावत के चरितार्थ होने की आशंका सहज ही बलवती है।

यूआईडीएआई (भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण): इस जरूरत को पूरा करने के लिए ऐसी संस्था की संकल्पना की गई। नंदन नीलकेणी को इसका प्रमुख बनाया गया। इसका काम देश के प्रत्येक नागरिक को एक विशिष्ट संख्या देना तय किया गया जिसे आधार कहा गया। मौजूदा पहचान के सभी तरीकों और रूपों में इसे शीर्ष पर रखा गया। बजट 2011 में वित्तमंत्री द्वारा कल्याणकारी लाभों को नकदी के रूप में बैंक खातों में हस्तांतरित किए जाने की घोषणा के बाद यूआईडी को इस योजना के सारथी के रूप में देखा जाने लगा।

अन्य खिलाड़ी: केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसे कुछ और विभाग हैं जो अपनी योजनाओं का लाभ सही हाथों में पहुंचाने के लिए इस तरह की योजना पर या तो काम कर रहे हैं या सोच रहे हैं।

ग्रामीण विकास मंत्रालय: केंद्र सरकार का यह मंत्रालय मनरेगा योजना से जुड़े मजदूरों के बायोमेट्रिक्स पहचान पत्र के शुरुआती परीक्षण पर विचार कर रहा है।
उड़ीसा और केरल: यह दोनों राज्य अपने यहां राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए स्मार्ट कार्ड का उपयोग करते हैं। इससे अन्य स्कीमों के लिए लाभार्थियों की पहचान की जाती है।

यूआइडी या एनपीआर
मूल योजना के अनुसार यूआईडीएआई और एनपीआर को क्रमबद्ध तरीके से काम करना था। योजना के अनुसार राष्ट्रीय जनगणना का दायित्व निभाने वाला एनपीआर देश के प्रत्येक नागरिक का बायोमेट्रिक निशान लेगा। यह सबको एक एनपीआर कार्ड जारी करेगा और बाद में इसके द्वारा एकत्र सभी आंकड़ों को यूआईडीएआई को स्थानांतरित किया जाना था। इन आंकड़ों के आधार पर यूआईडीएआई सभी नागरिकों को आधार जारी करती। इस प्रकार सभी देशवासियों के पास एक एनपीआर कार्ड और एक आधार कार्ड होंगे।

चूंकि यूआईडीएआईएनपीआर से पहले ही तैयार हो गई और इसने सरकार से कहा कि जब तक एनपीआर तैयार नहीं हो जाता तब तक हमें बायोमेट्रिक्स पहचान एकत्र करने दी जाए। जून 2010 में सरकार इसे 10 करोड़ लोगों के बायोमेट्रिक्स पहचान मार्च 2011 तक तैयार करने की स्वीकृति दी। बाद में इसे बढ़ाकर 20 करोड़ कर दिया गया और समयसीमा मार्च 2012 तय कर दी गई। इसके लिए 3023 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित हुआ। शेष सौ करोड़ लोगों के बायोमेट्रिक्स पहचान पत्र तैयार करने की जिम्मेदारी एनपीआर के हवाले की गई। तय यह किया गया कि एनपीआर के तैयार हो जाने के बाद यूआईडीएआईअपना काम बंद कर देगी। इसके साथ ही जितने लोगों का इसने पहचान पत्र के आंकड़े जुटा लिए हैं, एनपीआर उनको नहीं कवर करेगा।

जून 2011 में एनपीआर ने बायोमेट्रिक्स लेना शुरू किया। इसके एक महीने पहले ही यूआईडीएआई ने देश की पूरी आबादी का बायोमेट्रिक्स 17,864 करोड़ रुपये की लागत से मार्च 2017 तक तैयार करने का प्रस्ताव कर दिया।
जनमत


हां: 5%
नहीं: 96%


हां: 74%
नहीं: 26%

आपकी आवाज

अगर सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों को मिलता तो देश में उनकी संख्या इतनी अधिक नहीं होती। -नारायणकैरो96@जीमेल.कॉम
सरकार आंकड़ों में तो दिखा देती है कि गरीबों की मदद के लिए उसने इतना खर्च किया जबकि गरीबों को तो कई सरकारी योजनाओं के बारे में पता ही नहीं है। -अल्का, कानपुर
बैंक खाते में सीधे रकम डालने के साथ लोगों को जागरूक किया जाना भी जरूरी है। -अश्विनी945@जीमेल.कॉम
सरकारी योजनाओं का अभी बहुत कम लाभ गरीबों को मिल पा रहा है। गरीबों के खाते में सीधे रकम देने का प्रयास सराहनीय है। -रायणदत्त.एडवोकेट@जीमेल.कॉम
http://jagranmudda.jagranjunction.com/2011/10/19/unique-identification-card-for-every-indian/

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