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Monday 13 February 2012

भगत दा ! मेरे हमदम मेरे दोस्त


भगत दा ! मेरे हमदम मेरे दोस्त

लेखक : हरीश पंत :: अंक: 10 || 01 जनवरी से 14 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 : January 17, 2012  पर प्रकाशित
‘अपने भीतर और बाहर की
नमी और हरियाली खो देने के बावजूद
मनुष्य के लिये सर्वाधिक निरापद है धरती
जो हमें पाना है
कदाचित उसी के दर्पण में
हमारा बिम्ब है’
‘अरण्य’ पत्रिका का सपना और ‘वनरखा’ को साकार कर सुधी पाठकों में वन, पर्यावरण, ग्राम्या का वैचारिक उजास फैलाने वाले अपने ‘भगत दा’ नन्द किशोर भगत को याद करने के लिये उक्त पंक्तियाँ बार-बार ‘हॉण्ट’ करती रही हैं उनके नश्वर शरीर को छोड़ने के बाद।
अपनी निकम्मी याददाश्त को हजार बार कोसने के बावजूद भगत दा से पहली मुलाकात मेरे लिये एक शोध का विषय हो गयी है। जुलाय 77 का कोई दिन, ‘नैनीताल समाचार’ से जुड़ने के बाद राजहंस प्रेस में छप रही ‘उत्तराखंड भारती’, जिसके वह प्रकाशक थे, के साथ प्रूफ ले कर शिक्षाविद शुकदेव पाण्डे जी के निवास ‘दीना कॉटेज’ मल्लीताल उनके साथ जाने का ही स्मरण कर पाया हूँ। वहीं से कैण्टन लॉज में बने उनके फॉरेस्ट के सरकारी निवास व भगत दा के परिवार के मोहिले प्यार का स्थायी सदस्य बन गया। वह सिलसिला आज भी कायम है निरंतर।
नैनीताल समाचार के शुरूआती दिनों में उसके कार्यालय की व्यवस्था, यथा प्रचार-प्रसार, विज्ञापन मान्यता के पत्र-पत्रक बनाने व उन्हें भेजने, की कार्यालयी व्यवस्था की जिम्मेदारी बिना किसी आग्रह के उन्होंने अनौपचारिक रूप से स्वयं सँभाल ली। अखबारी दुनियाँ से वह ‘दैनिक पर्वतीय’ से जुड़े थे और उनकी कुछ कहानियाँ तब छप चुकी थीं। उनकी लगन और मेहनत का नतीजा था कि नैनीताल समाचार के प्रकाशन के दो साल के भीतर ही भारत सरकार द्वारा आबंटित अखबारी कागज के 1.5 टन कोटे का आबंटन पत्रक उन्होंने हमें दिला दिया। पर घोर अव्यावसायिक दृष्टिकोण होने व एकमुश्त धनराशि, जो करीब 15 हजार रुपये थी, न जुटा पाने के कारण हम उसका लाभ नहीं ले पाये। रेलवे, एलआईसी और अन्य सरकारी-अर्द्ध सरकारी संस्थानों से विज्ञापन संबंधी पत्राचार भी उनके कार्यालयी ज्ञान व व्यावहारिक सोच के पुख्ता प्रमाण हैं। मगर समाचार की अराजकता, अतिक्रांतिकारी झुकाव व अव्यावसायिकता से वह क्षुब्ध हो जाते और बहसों में हिस्सा न ले कर झटके से समाचार से उठते और सदा साथ में रहने वाला झोला कंधे पर लटकाये, बिना कुछ कहे उठ कर चल देते।
अक्सर उनके मौन विरोध का गुबार मुझे ही झेलना होता। तब एक बड़े भाई की अभिभावकी नसीहतों को सुन और उनके गुस्से को अपने मौन मनोबल से शांत करने का सुख मिलता। भगत दा के महाप्रयाण से तीन हफ्ते पहले समाचार का ताजा अंक ले कर मैं अस्पताल में उनसे मिला। लेटे-लेटे उन्होंने उसे पढ़ना शुरू किया। उसी अंक में ‘चिणुक’ नाम से बच्चों का कॉलम शुरू हुआ था। उन्होंने तुरंत गिर्दा का स्मरण करते हुए इस स्तम्भ का नाम ‘नानतिन बाड़ी’ सुझाया और गिर्दा की लोक परम्पराओं को जारी रखने का आग्रह किया। यह उलाहना भी दिया कि ‘उनकी बातों’, सुझावों को तवज्जो हम शुरू से ही नहीं देते। हमारी गैर व्यावसायिकता और आर्थिक मामलों में लापरवाही से वह खिन्न भी रहते थे पर प्रतिबद्ध पत्रकारिता के कायल भी। पर कहते बहुत कम थे। उस रोज भी उन्होंने वहीं अस्पताल में मुझसे एक अखबार के साल भर की योजना और खर्च पर दो घंटे तक बहस की। जब मैंने उनके स्वास्थ्य का हवाला दिया तो बोले, ‘‘ठीक हो जाऊँगा, तभी तो कह रहा हूँ। तुम तैयार हो जाओ।’’
वीरेन डंगवाल के ‘नन्दू बॉस’ की ऊर्जावान सृजनात्मकता का सदुपयोग न कर पाने की चूक हमें हमेशा सालती रहेगी। हालाँकि यह अकेली गलती हमसे नहीं हुई। समाचार से जुड़े लोगों की प्रतिभाओं के समुचित उपयोग में बेपरवाही, खासकर स्वास्थ्य व आर्थिक संदर्भों ऐसा लगातार होता रहा है। खैर इस बारे में फिर कभी….!
दरअसल भगतदा नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति के रूप में एक सुदृढ़ व्यावसायिक स्तम्भ बनाना चाहते थे, ताकि आर्थिक संबल वहाँ से मिले और प्रखर पत्रकारिता का सहज संचालन भी होता रहे। उन दिनों यह व्यावहारिकता समझने में असमर्थ थे। यहीं पर मतभेद होते रहे और वह भी समाचार से कटते-जुड़ते रहे।
यह वास्तविकता है कि भगतदा शुरू से ही पारिवारिक जिम्मेदारियों व नौकरी की उलझनों के चलते अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को व्यवस्थित नहीं कर पाये। वरना उनके लिखे ‘सौल कठौल’ के निठल्ले चिंतन वाले हुक्का राम के बहुआयामी लोक चरित्र के नजरिये का कोई सानी नहीं। सामायिक घटनाओं पर उनके बेबाक सौल कठौल क्षेत्रीय राजनीति, छद्म पर्यावरणीय सोच, रोजगार, सब्सीडी खाये उद्योग, विकास की गैरटिकाऊ अवधारणाओं पर तीखे कटाक्ष करते थे।
भगतदा की प्रगतिशीलता और उनके सोच का उत्कृष्ट उदाहरण है उनका परिवार। अपनी तीनों बहनों को समर्थ बनाने के लिये पढ़ाई के साथ रोजगारपरक शिक्षा, यथा बीटीसी, नर्सेज ट्रेनिंग कोर्स दिलवाने के लिये परिवार के बुजुर्गों के न चाहने के बावजूद उन्होंने जद्दोहद की। स्व. पुष्पा बहन (शारीरिक रूप से अस्वस्थ) की नौकरी हो या मुन्नी दी की नर्स पद पर नियुक्ति, भगतदा के स्त्री स्वावलंबन की सोच का परिणाम है। अपने बेटे संजीव के ग्रेजुएशन करते ही उन्होंने उसके पत्रकारिता की ओर झुकाव के बावजूद उसे फल प्रसंस्करण उद्योग में जाने के लिये मनाया। क्षेत्रीय उत्पादों के स्थानीय सदुपयोग के तो वे प्रणेता थे ही, रोजगार सृजन के लिये भी फरसौली क्षेत्र के कई परिवार उनके ऋणी रहेंगे। बेटियों को स्वावलम्बन की राह दिखाने के लिये भगत दा ने बड़ी बेटी रेखा को ‘डिप्लोमा इन हैल्थ एंड न्यूट्रीशन’ का कोर्स कराया ताकि पारम्परिक नौकरियों से इतर वह एक विशेषज्ञता का रोजगार कर सके। मँझली बीना को बी.एस.सी वनस्पति विज्ञान से करने के बावजूद कम्प्यूटर डिप्लोमा दिलवाया। वह आज नैनीताल के प्रतिष्ठित स्कूल में अध्यापन कर रही है। छोटी दीपिका को बिल्कुल अलग, ‘फीजियोथैरेपी’ का डिप्लोमा दिलवा कर डिग्री कोर्स करवाया। दीपिका ने उनके महाप्रयाण से दो दिन पूर्व ही डिग्री हासिल की, जब वह अस्पताल में उनकी परिचर्या में व्यवस्त थी। इस सुखद समाचार की संतुष्टि उनके श्रीमुख पर देखने का सुख उनके परिवारजनों ने उनके अन्तिम क्षणों बाँटा।
भगतदा ने वन विभाग की नौकरी आजीविका के लिये की तो ‘ग्रामोत्थान प्रयोगाश्रम’ का गठन कर वनोत्पादों, क्षेत्रीय उत्पादों की विस्तृत जानकारी के साथ ही आर्थिक आधार तैयार करने की जद्दोजहद भी। फ्रूटेज की उनकी सोच को पेशेवर तौर पर संजीव ने सँवारा व उसे सफल व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनाया, मगर उसकी रीढ़ असल में भगत दा थे। शासकीय लालफीताशाही से वाकिफ भगतदा के अनुभवों ने ही आज फ्रूटेज उद्योग को वास्तविकता में बदला। उनका सबसे प्रिय शगल ‘ग्रामोत्थान प्रयोगाश्रम’ का ‘आरबीटोरियम’ आज तीन भागों- औषधीय प्रजातियाँ, चारा प्रजातियाँ और विलुप्त होती प्रजातियों को समेटे हुए है। इसमें अखरोट, अग्यार, आँवला, बेहड़ा, बकैन, बरगद, नेहा, बुरांश, दालचीनी, देवदार, गेठी, हल्दू, किलमोड़ा, साल, अनार, दाडि़म, जामुन, काकड़ी, कचनार, कंजू, खैर, रीठा, शहतूत, सेमल, तुन, हरड़ प्रजातियाँ उपलब्ध हंैं। पेड़ लगाने के उनके जनून का ये हाल था कि साल भर पेड़ लगाने की तैयारियाँ चलतीं और लगाये भी जाते। यहाँ तक कि अपने महाप्रयाण से पहले ही मँगाये पौंधे अब रोपित किये गये। क्षेत्र की तमाम नर्सरियों की उनको जानकारी रहती थी। इधर अस्वस्था के कारण एक नेपाली मजदूर वे अपने साथ लगाये रहते।
vanrakha-coverभगतदा ‘उत्तराखंड भारती’ के प्रकाशक रहे तो ‘वनरखा’ के सम्पादक। नैनीताल समाचार के संस्थापक – संपादकों में से एक, आशल -कुशल के खबरची नन्दकिशोर भगत को मैं नागार्जुन के इन शब्दों के साथ श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ:
जो नहीं हो सके पूर्ण काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवायें उल्लेखनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिये मनोरथ चूर-चूर
उनको प्रणाम।

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