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Monday 13 February 2012

फारवर्ड प्रेस ने लॉन्‍च की ओबीसी साहित्‍य की कैटगरी


 नज़रियाशब्‍द संगत

फारवर्ड प्रेस ने लॉन्‍च की ओबीसी साहित्‍य की कैटगरी

14 JULY 2011 
फारवर्ड प्रेस
803, दीपाली, 92, नेहरू प्‍लेस, नई दिल्‍ली 110019
फोन 011 – 46538687
ई मेल info@forwardmagazine.in
एक अंक 25 रूपये
नमूना प्रति के लिए 30 रूपये का डाक टिकट या मनीआर्डर भेजे सकते हैं।
वार्षिक शुल्‍क 200 रूपये। तीन वर्ष का चंदा 500 रूपये।
♦ विशेष राय
फारवर्ड प्रेस के जुलाई अंक में प्रकाशित राजेंद्र प्रसाद सिंह का लेख ‘ओबीसी साहित्‍य की अवधारणा’ को क्‍या एक नये विमर्श की शुरुआत माना जा सकता है? इस लेख के माध्‍यम से जिन तथ्‍यों को राजेंद्र प्रसाद सिंह सामने लाये हैं, उनकी उपेक्षा तो नहीं ही की जा सकती है। कुछ आपत्तियां इसके नाम को लेकर हो सकती हैं। कई लोगों को ‘ओबीसी साहित्‍य’ नागवार गुजर सकता है, और यह उचित भी है। इस विषय पर दिलीप मंडल के फेसबुक वॉल से उठी बहस में कुछ लोगों ने इसे ‘अर्जक साहित्‍य’ तो कुछ ने ‘शूद्र साहित्‍य‘ के नाम से पुकारने की वकालत की है। लेकिन मैं इस मामले में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक से सहमत हूं। उन्‍होंने इसके लिए ‘बहुजन साहित्‍य’ नाम की प्रस्‍तावना की है। यह शब्‍द बु्द्ध का दिया हुआ है, और इसकी अर्थछवि दलित साहित्‍य को भी समेट लेती है। बहुजन साहित्‍य को भारतीय साहित्‍य की मुख्‍यधारा बनना चाहिए और यह तभी संभव है जब यह दलित साहित्‍य के साथ कदम मिलाकर चले।
जैसा कि अपने लेख में राजेंद्र प्रसाद सिंह भी कहते हैं – ‘शुद्धतावादी आचार्यगण जातिवादी विभाजन द्वारा साहित्‍य जैसी पावन धारणा को भ्रष्‍ट किये जाने के लिए ओबीसी साहित्‍य को गलियाएंगे, और भी बहुत सारी बातें होंगी, पर इतना तो एकदम साफ है कि ओबीसी साहित्‍य सिर्फ सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछडे वर्गों का साहित्‍य है। पुनर्जन्‍म, भाग्‍यवाद, जाति-पांति, ऊंच-नीच का भेदभाव और चमत्‍कार जैसे तथ्‍यों से द्विज साहित्‍य भरा पड़ा है। अवर्णमूलक या अद्विज साहित्‍य अर्थात दलित साहित्‍य और ओबीसी साहित्‍य में ऐसे तथ्‍य नहीं हैं। हिंदी का दलित साहित्‍य और ओबीसी साहित्‍य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ब्राह्मणवाद का विरोध, समतामूलक समाज की स्‍थापना, सामंती ताकतों का खात्‍मा, सामाजिक एवं धार्मिक बाह्य आडंबरों का खंडन, आर्थिक समानता की स्‍थापना जैसे स्‍वर इन दोनों साहित्यिक धाराओं को एक दूसरे से जोडते हैं।‘
अपने लेख में राजेंद्र प्रसाद सिंह सिद्ध साहित्‍य से लेकर आधुनिक काल तक के हिंदी साहित्‍य में ओबीसी साहित्‍यकारों के अवादान की ही नहीं, बल्कि अलग से ‘ओबीसी की वैचारिकता’ की भी पहचान करते हैं। निश्चित रूप से इस धारा की कुछ कडियां गायब हैं किंतु अब जब ओबीसी साहित्‍य की अवधारणा पर विमर्श आरंभ हुआ है, तो उन गुम कडियों की तलाश असंभव नहीं होगी।
बकौल राजेंद्र प्रसाद सिंह, ‘ओबीसी साहित्‍य पुराना है। चर्चा इसकी नयी है। जैसे कि न्‍यूटन के खोज करने से पहले भी गुरुत्‍वाकर्षण था। हिंदी का कोई भी आलोचक अथवा इतिहासकार ओबीसी साहित्‍य की धारा को आदिकाल से लेकर मध्‍यकाल और आधुनिक काल तक अत्‍यंत सहज ढंग से पहचान सकता है। दलितों के साथ-साथ सिद्ध साहित्‍य में कई ओबीसी रचानकार हैं। मीनपा मछुआरे हैं। कमरिपा लोहार हैं। तंतिपा ततवां जाति से आते हैं। चर्पटीपा और कंतालीपा क्रमश: कहार और दर्जी हैं। मेकोपा, भलीपा, उधलिपा आदि वैश्‍य, वणिक हैं। तिलोपा तेली हैं। जाहिर सी बात है कि मछुआरा, लोहार, ततवां, कहार, दर्जी, बनिया, तेली आदि जातियां ओबीसी में आती हैं। ऐसे में हम दावे के साथ कह सकते हैं कि सिद्ध साहित्‍य ओबीसी रचनाकारों से भरा–पूरा है। कबीर जिनको लेकर दलित साहित्‍य की इमारत खड़ी है, स्‍वयं ओबीसी रचनाकार हैं। उनकी जाति जुगी हो जुलाहा, प्रत्‍येक हालत में बुनकर जातियां ओबीसी का हिस्‍सा हैं।‘
राजेंद्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि हिंदी में गद्य की परंपरा की शुरुआत का श्रेय भी ओबीसी रचनाकरों को जाता है। उनके ऐसे कई और अनेक विचारोत्‍तेजक तथ्‍य हैं, जिनसे असहमत तो हुआ जा सकता है लेकिन इन्‍हें नकारा नहीं जा सकता है। वास्‍तव में यह लेख ओबीसी या कहें बहुजन साहित्‍य के मैनिफेस्‍टो की तरह है, जिसे साहित्‍य के हर गंभीर पाठक को जरूर पढ़ना चाहिए।
(विशेष राय। जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से ‘दलित कविता के विशेष संदर्भ में साहित्‍य और राजनीति का अंतर्संबंध’ विषय पर शोध। उनसे visheshrai074@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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