हमारा मीडिया क्यों जन विरोधी है ?
(जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के चर्चित वक्तव्य, जिसने कुछ सप्ताह पूर्व खूब खलबली मचाई थी, के कुछ अंश)
हमारा मीडिया क्यों जन विरोधी है ?
(जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के चर्चित वक्तव्य, जिसने कुछ सप्ताह पूर्व खूब खलबली मचाई थी, के कुछ अंश)
मैं समझता हूँ कि भारतीय मीडिया का और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जनता के हितों की पूर्ति नहीं कर रहा है। सच्चाई यह है कि इनमें से कुछ तो निश्चय ही जनविरोधी हैं। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख खामियाँ हैं जिन पर मैं प्रकाश डालना चाहूँगा।
पहली बात तो यह कि मीडिया प्रायः जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाकर गैर मुद्दों पर ले जाता है। भारत में आज वास्तविक मुद्दों का संबंध सामाजिक आर्थिक पहलू से है – भीषण गरीबी जिसमें हमारी 80 प्रतिशत जनता गुजर-बसर कर रही है। महंगाई, चिकित्सा सुविधा की कमी, शिक्षा और समाज में व्याप्त पिछड़ेपन के व्यवहार मसलन सम्मान के लिये हत्या, जाति उत्पीड़न और धार्मिक कट्टरता। इन मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय मीडिया गैर मुद्दों पर ध्यान देता है मसलन फिल्म अभिनेताओं और उनका रहन-सहन, फैशन परेड, पॉप म्यूजिक, डिस्को डांस, ज्योतिष, क्रिकेट, रियेलिटी शो आदि आदि।
जनता के मनोरंजन प्रदान करने के मीडिया के काम से कोई आपत्ति नहीं हो सकती बशर्ते इसे वह जरूरत से ज्यादा सीमा तक न करे। लेकिन अगर उसके प्रोग्राम का 90 प्रतिशत हिस्सा मनोरंजन से संबंधित है और महज 10 प्रतिशत हिस्सा ऊपर बताये गये वास्तविक मुद्दों की बात करता है तो कहीं गंभीर किस्म की गड़बड़ी है। इसके अनुपात में कहीं जबरदस्त असंतुलन है। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण के लिये कुल मिला कर जितना समय दिया जाता है उससे नौ गुना अधिक समय मनोरंजन को दिया जा रहा है। क्या किसी भूखे अथवा बेरोजगार व्यक्ति को मनोरंजन चाहिये या उसे खाना और रोजगार चाहिये ?
उदाहरण के लिये मैंने हाल में अपना टीवी खोला और मुझे क्या मिला ? लेडी गागा भारत आ गयी है, करीना कपूर अपनी उस मूर्ति के बगल में खड़ी हैं जिसे मदाम तुसाद ने बनाया है, किसी व्यापारिक घराने को पर्यटन पुरस्कार दिया जा रहा है, फार्मूला वन की रेस चल रही है आदि आदि। जनता की समस्याओं से इन बातों का क्या लेना-देना है ?
अनेक चैनल रात-दिन क्रिकेट दिखाते हैं। रोम के सम्राट कहा करते थे – ‘अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ।’ भारतीय सत्ता संस्थान का ठीक यही नजरिया है जिसे मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। जनता को क्रिकेट में उलझाये रखो ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक मुसीबतों को भुलाये रखे। गरीबी अथवा बेरोजगारी महत्वपूर्ण नहीं हैं- महत्वपूर्ण यह है कि क्या भारत ने न्यूजीलेंड को हराया (अगर पाकिस्तान हो तो और भी अच्छा) या क्या तेंदूलकर अथवा युवराज सिंह की सेंचुरी पूरी हुई ?
पिछले दिनों ‘दि हिन्दु’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया था कि पिछले 15 वर्षों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की। लेक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिये 512 पत्रकारों ने हिस्सा लिया। उस फैशन वीक में भाग लेने वाली औरतें सूती कपड़े के वस्त्र पहने थीं जबकि नागपुर से एक घंटे की दूरी पर वे किसान आत्महत्या कर रहे थे जिन्होंने इन कपड़ों के लिये कपास पैदा किया था। एक या दो पत्रकारों को छोड़कर किसी ने इस घटना की रिपोर्टिंग नहीं की।
यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप जो कारखाने बने थे उनमें विस्थापित किसानों का काम मिला। दूसरी तरफ भारत में औद्योगिक काम मिलना ही मुश्किल है। अनेक कारखाने बंद हो चुके हैं और उन्हें रियल स्टेट का दर्जा दे दिया गया है। पिछले 15 वर्षों में मैन्युफेक्चिरिंग सेक्टरों में रोजगार की स्थिति में जबर्दस्त गिरावट आयी। मिसाल के तौर पर 1991 में टिस्को के इस्पात कारखाने में 85 हजार मजदूर काम कर रहे थे और वहाँ 10 लाख टन इस्पात का उत्पादन हो रहा था। 2005 में यहाँ 50 लाख टन का उत्पादन हुआ लेकिन मजदूरों की संख्या महज 44 हजार थी। 1990 के दशक के मध्य में बजाज की फैक्ट्री में 24 हजार मजदूरों की मदद से 10 लाख दुपहिया वाहनों का निर्माण हो रहा था। 2004 आते-आते यह उत्पादन बढ़कर 24 लाख हो गया लेकिन मजदूरों की संख्या घटकर 10 हजार 5 सौ रह गयी।
ऐसी हालत में लाखों विस्थापित किसान कहाँ जायें ? वे शहरों में जाते हैं जहाँ वे घरेलू नौकर बन जाते हैं या सड़क पर ठेला लगाते हैं या कुछ नहीं तो अपराधी बन जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार झारखंड की एक से दो लाख कम उम्र की लड़कियाँ दिल्ली में घरेलू नौकरानियों के रूप में काम करती हैं। भीषण गरीबी की वहज से सभी शहरों में वेश्यावृति प्रचलन में है।
इन सारी बातों की ओर से हमारा मीडिया उपेक्षा का रवैया प्रदर्शित करता है। यह कुछ भड़कीले, सजीले, कृत्रिम गाँवों पर ध्यान केंद्रित तो करता है लेकिन हमारी आबादी के 80 प्रतिशत लोगों की बदहाल आर्थिक सच्चाइयों की ओर से आँखें मूंदे रखता है।
दूसरी बात यह है कि प्रायः मीडिया लोगों को विभाजित करता है। जब भी भारत के किसी भी हिस्से में अगर कोई बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों के अंदर टीवी चैनल यह बताने लगते हैं कि उनके पास भारतीय मुजाहिद्दीन या जैस-ए-मुहम्मद या हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लाम की ओर से ईमेल अथवा एस.एम.एस मिले हैं, जिनमें उन्होंने इन विस्फोटों की जिम्मेदारी ली है। ये नाम हमेशा मुस्लिम होते हैं। जब कोई शरारती व्यक्ति जो सामप्रदायिक नफरत फैलाना चाहता हो इस तरह के ईमेल अथवा एसएमएस भेज सकता है। क्या जरूरत है कि इसे टीवी के स्क्रीन पर दिखाया जाये और अगले दिन अखबारों में छाप दिया जाये। ऐसा करके बहुत बारीकी के साथ यह संदेश पहुँचाया जाता है कि जितने भी मुसलमान हैं वो या तो आतंकवादी हैं या बम फेंकने वाले हैं।
भारत में रहने वाले आज 92-93 प्रतिशत लोग बाहर से आये लोगों के मूल से हैं। इस प्रकार भारत में जबरदस्त विविधता हैं: अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं और जातिय समूहों का अस्तित्व है। इसलिये अगर हम एकजूट और समृद्ध होना चाहते हैं तो यह बेहद जरूरी है कि हमारे अंदर सहिष्णुता हो और सभी समुदायों के प्रति समान रूप से सम्मान की भावना हो। जो लोग धर्म, जाती, भाषा या क्षेत्र के आधार पर लोगों के बीच फूट के बीज डालना चाहते हैं वो सचमुच जनता के दुश्मन हैं। इसलिये इस तरह के ईमेल और एस.एम.एस. संदेश भेजने वाले भारत के दुश्मन हैं जो धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट पैदा करना चाहते हैं। मीडिया क्यों जाने-अनजाने में इस राष्ट्रीय अपराध को बढ़ावा देने में लग जाता है ?
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस संक्रमणकालीन अवस्था में मीडिया को चाहिये कि वह आधुनिक और वैज्ञानिक युग की ओर बढ़ने में हमारी जनता की मदद करे। इस मकसद को ध्यान में रखते हुए मीडिया को तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक विचारों को प्रचारित करना चाहिये लेकिन ऐसा करने की बजाय हमारे मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा तरह-तरह के अंधविश्वासों को प्रचार देता है।
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