भू कानून की मौत
प्रस्तुति :हरीश भट्ट
उत्तराखंड में भूमि का मसला अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 87 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग वाले राज्य में भूमि इतनी कम है कि वह बढ़ती जनसंख्या और नगरों-कस्बों के विकास की जरूरतों को पूर्ण करने में असमर्थ है। आज जिस जमीन पर माफियाओं, नौकरशाहों व राजनेताओं की नजरें हैं, उसे मानव के रहने योग्य बनाने में पहाड़ की कई पीढ़ियाँ लग गई। इसलिए इस लूट-खसूट को रोकने के उद्देश्य से संविधान के अनुच्छेद 371 को लागू करने की माँग राज्य आन्दोलन के दौरान तथा उसके बाद भी बार-बार उठती रही है। लेकिन भू माफियाओं व इनके पैसों पर पल रहे नेताओं द्वारा ऐसा हो हल्ला मचाया जाता है, मानो कोई जलजला आने वाला हो। जबकि जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक के सभी पर्वतीय राज्यों, यहाँ तक कि हिमाचल प्रदेश में भी जमीन की बिक्री पर अंकुश लगाने हेतु कारगर कानून लागू हैं।
एक छोटी सी कोशिश के रूप में ‘उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (उत्तरांचल संशोधित अधिनियम 2003)’ 12 सितम्बर 2003 से लागू किया गया। इसके अनुसार उक्त तिथि से पूर्व जो भी व्यक्ति उत्तराखंड में किसी अचल सम्पत्ति का स्वामी या खातेदार नहीं है, वह अपने जीवन काल में 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकता था। लेकिन राज्य आन्दोलन के दौर में षड़यंत्र रच कर उधमसिंह नगर जिला बनवाने तथा फिर उसे उत्तराखंड से बाहर रखने के लिये ‘उधमसिंह नगर रक्षा समिति’ के बैनर पर आन्दोलन चलाने वाले तराई के मंत्रियों, विधायकों, नौकरशाहों व भू माफियाओं द्वारा इसका डट कर विरोध किया गया। फलस्वरूप राज्य योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में एक आठ सदस्यीय ‘भू कानून समीक्षा समिति’ बना दी गई। समिति ने 3 अक्टूबर को सरकार को अपनी रिपोर्ट दे दी, लेकिन इस कानून में इतने छिद्र थे कि बड़े भू माफियाओं को नहीं रोका जा सकता था। परन्तु फिर भी 15 जनवरी 2004 को इस कानून में कुछ संशोधन किये गये, जिससे जमीन की खरीद-फरोख़्त में कुछ गिरावट आई। फिर भी इस कानून की कमियों का फायदा जमीन के धंधेबाजों ने जमकर उठाया। मैदानी शहरों की जमीन व इससे लगी नाप-बेनाप, नदी-खालों, ग्राम-समाज आदि की भूमि को बडे़ पैमाने पर खुर्द-बुर्द कर दिया गया। फिर 3 मई 2007 को राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में भू कानूनों में पुनः कुछ संशोधन किये गये। बाहरी व्यक्ति के भूमि खरीदने की सीमा 500 से घटा कर 250 वर्ग मीटर कर दी गई। लेकिन शहरी व नगरपालिका क्षेत्रों में ऐसी कोई बंदिश नहीं रखी गई। परिवार को नये सिरे से परिभाषित करते हुए पति-पत्नी, अविवाहित पुत्र-पुत्रियाँ व आश्रित माता-पिता को एक परिवार मानते हुए मात्र 250 वर्ग मीटर तक भूमि खरीदने की छूट दी गई। इससे ज्यादा जमीन खरीदने के लिए जो सीमा आवेदन करने और स्वीकृत करने हेतु 90 दिन की जो सीमा थी, अन्यथा निर्धारित दिवस तक आवेदन में कोई उचित आदेश न होने पर स्वीकृति मान लेने का प्राविधान था, वह भी समाप्त कर दिया गया।
इस लचर कानून ने भूमि की खरीद-फरोख्त पर कोई अंकुश नहीं लगाया। सरकार-प्रशासन की शह पर बिल्डर और भू माफियाओं की लूट-खसोट जारी रही। उत्तराखंड का भू कानून पड़ोसी राज्य हिमांचल प्रदेश जैसा होता तो राज्य वासियों को इस स्थिति से नहीं गुजरना पड़ता। हिमाचल प्रदेश में गैर हिमाचली को भूमि के बिक्री व हस्तांतरण पर पाबन्दी लगाने के लिए ‘हिमाचल प्रदेश काश्तकारी एवं भूमि सुधार अधिनियम 1972 में गैर हिमाचली को तथा उन स्थानीय व्यक्तियों, जो राज्य के स्थायी निवासी हैं परन्तु उनके पास कृषि भूमि नहीं है, को जमीन की खरीद, उपहार में लेने-देने, जमीन का आदान-प्रदान करने, वसीयत करने या पट्टे आदि देने पर पाबंदी है। इस कानून का उल्लंघन करने पर सम्पत्ति राज्य सरकार में निहित कर दी जाती है। उत्तराखंड में तो धार्मिक संस्थानों पर इस तरह से क्रय-विक्रय करने पर कोई पाबन्दी ही नहीं है, जिसकी आड़ में धार्मिक या शिक्षा संस्थाएँ हिमालय के उद्गम तक जमीन खरीद ले रहे हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत व पर्यावरण नष्ट हो रहे हैं। अब जबकि इस लचर कानून के कुछ प्रावधानों को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक ठहरा दिया है तो हमें इस पर विलाप करने के बदले राज्य की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप एक नया भू बंदोबस्त करने तथा एक ताकतवर और प्रभावी भू कानून लाने के लिये प्रयास करने चाहिये।
No comments:
Post a Comment