जनपक्षधर फिल्मों की बेहतर संभावनाएं
डाक्यूमेंट्री फिल्मों में भी रोचकता और कल्पनाशीलता की ऊंचाई होती है. युवा फिल्मकारों की डाक्यूमेंट्री फिल्मों ने पूरे फिल्म फेस्टिवल के दौरान उनके गहरे राजनैतिक-सामाजिक सरोकार को उजागर किया और फिल्मों को बदलाव का माध्यम बनाने की नई संभावनाओं की ओर संकेत किया...
सातवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल
भगतसिंह न इतिहास की वस्तु हैं और न भविष्य के यूटोपिया के माध्यम, बल्कि अपनी शहादत के बाद भी वे जनता के रोजमर्रा के संघर्षों में जिंदा है. अपना देश इसलिए बचा हुआ है कि लोग आज भी भगतसिंह की परंपरा में संघर्ष कर रहे हैं. प्रतिरोध का सिनेमा भी उन्हीं संघर्षों के साथ खड़ा है. मौजूदा दौर में जब कि चंद लोगों का विकास और अरबों का विनाश हो रहा है, ऐसे दौर में सिनेमा समेत कला की तमाम विधाओं को आम आदमी की आवाज बनना होगा.' 23 से 26 मार्च तक आयोजित 7वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने यह कहा.
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान अब सातवें साल में प्रवेश कर गया है. 7 वां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल पूरे देश में आयोजित होने वाला इस तरह का 26वां आयोजन था. इस माह के अंत में बनारस तथा अगले महीनों में आरा, इंदौर, गंगौली हाट में फिल्म फेस्टिवल होने हैं. भिलाई, नैनीताल, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना आदि शहरों मे आयोजन तय हैं.
गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के मुख्य अतिथि फिल्म अभिनेता रघुवीर यादव ने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के जरिए छोटे शहरों के लोगों तक अच्छे सिनेमा को पहुंचाने और उन्हें जागरूक बनाने का प्रयास बहुत सराहनीय है. समाज के संघर्षों पर फिल्में बनाना जरूरी है. उन्होंने दर्शकों की मांग पर अपनी आवाज में गाने भी सुनाए.
दिल्ली से आए चित्रकार सावी सावरकर ने कहा कि प्रतिरोध को जीवन का हिस्सा बनना चाहिए. हम मनुष्य को प्रगति के लिए सौंदर्य की जरूरत होती है. लेकिन हम सौंदर्य के साथ जीवन नहीं जीते, बल्कि पूरा जीवन असौंदर्य को सौंदर्य समझने में बीता देते हैं. उन्होंने कला के क्षेत्र में सबाल्र्टन सौंदर्यशास्त्र के अभाव पर चिंता जाहिर की और दूसरे दिन अपने पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन में उन्होंने सोमनाथ होड़ और रामकिंकर बैज के चित्रों की व्याख्या की तथा कहा कि हमारे पास हाशिए के लोगों को चित्रित करने की एक लंबी परंपरा है, जिसे नए चित्रकारों को आगे बढ़ाना चाहिए.
पहले दिन के दूसरे सत्र में प्रसिद्ध दलित लेखक शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' पर आधारित लोकेश जैन की एकल नाट्य प्र्रस्तुति मानो इसी सौदर्यशास्त्र की एक बानगी थी. उत्तराखंड के मशहूर रंगकर्मी जहूर आलम के अनुसार प्रतिरोध का सिनेमा कारपोरेट प्रायोजकों और सरकारी मदद के बजाए जनता के चंदे से चल रहा है, इसी कारण इसका वैचारिक तेवर बरकरार है.
फिल्मोत्सव आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने कहा कि डाक्यूमेंट्री फिल्मों में भी रोचकता और कल्पनाशीलता की ऊंचाई होती है. इसी कारण इस बार कई युवा फिल्मकारों की डाक्यूमेंट्री फिल्मों को फेस्टिवल में शामिल किया गया. सचमुच युवा फिल्मकारों की डाक्यूमेंट्री फिल्मों ने पूरे फिल्म फेस्टिवल के दौरान उनके गहरे राजनैतिक-सामाजिक सरोकार को उजागर किया और फिल्मों को बदलाव का माध्यम बनाने की नई संभावनाओं की ओर संकेत किया.
फिल्मों के प्रदर्शन की शुरुआत डॉ. गौरव छाबड़ा की फिल्म 'इंकलैब' से हुई जो भगतसिंह और गांधी दोनों की वैचारिक भूमिकाओं को आज के संदर्भ से देखती है और बदलाव के स्वप्न, आकांक्षा की अभिव्यक्ति के लिए एक ताकतवर माध्यम की जरूरत को भी चिह्नित करती है. डाक्यूमेंट्री फिल्में किस तरह जनता के संघर्षों के लिए एक ताकतवर माध्यम हो सकती हैं, दूसरे दिन प्रदर्शित युवा फिल्मकारों की फिल्मंे इसी का उदाहरण थीं.
इस व्यवस्था में आम आदमी के लिए न्याय पाना कितना दुष्कर है, इस कटु सच्चाई को सुमित खन्ना निर्देशित फिल्म 'ऑल इज फॉर योर ऑनर' ने बड़े कारगर तरीके से दर्शाया. ऑनर किलिंग की त्रासदी से गुजरे परिवारों से मुलाकात के जरिए बनाई गई नकुल सिंह स्वाने की डाक्यूमेंट्री फिल्म 'इज्जत नगर की असभ्य बेटियां' तथा आजमगढ़ के नौजवानों को आतंकवादी बताने की राजनीतिक साजिश के खिलाफ फिल्मकार शकेब अहमद की फिल्म 'दास्तान-ए-खामोशी आजमगढ़' ने अपने वक्त के ज्वलंत सवालों को बड़े संवदेनशील तरीके से उठाया.
कुंडकुलम परमाणु सयंत्र के खिलाफ हो रहे जनांदोलन पर आधारित अमुधन आर पी की फिल्म 'कुंडकुलम', विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के कारणों पर केंद्रित नंदन सक्सेना और कविता बहल की फिल्म 'कॉटन फॉर माई श्राउड', शैक्षणिक संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ किए जाने वाले भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्ष को अभिव्यक्त करती राजेश, निखिला, नागेश्वर, शोंरिछोन, श्वा कुमार निर्देशित तमिल डाक्यूमेंट्री फिल्म 'आई एम नागेश्वर राव स्टार' तथा एक अच्छी खबर की तलाश के जरिए अपने दौर की व्यवस्था को प्रश्नचिह्नित करती अल्ताफ माजिद की असमिया फिल्म 'भाल खबर' दर्शकों को काफी विचारोत्तेजित करने वाली फिल्में थीं.
तीसरे दिन की शुरुआत बच्चों की फिल्म 'स्टैनले का डब्बा' से हुई, जिसकी कहानी संसाधनों के अभाव में पलते एक अनाथ बच्चे के खाने के डब्बे के इर्द-गिर्द घूमती है. जहां इस फिल्म में निर्देशक अमोल गुप्ते की निगाह एक अनाथ बच्चे पर थी, वहीं प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक और इतिहासकार उमा चक्रवर्ती की पहली फिल्म 'छुपा हुआ इतिहास' इतिहास की उपेक्षा की शिकार एक स्त्री सुब्बुलक्ष्मी की जिंदगी पर केन्द्रित थी और जिसके जरिए दर्शक स्वाधीनता आंदोलन के उस वक्त के इतिहास से तो अवगत हुए ही, उस स्त्री का जो 'छुपा हुआ इतिहास' था, उससे भी रूबरू हुए.
पूर्वांचल की खतरनाक बीमारी इनसेफलाइटिस, जिसके कारण पिछले तीस साल में हजारों बच्चों की अकाल मौत हो चुकी है, इस त्रासदी पर आधारित गोरखपुर डायरी श्रृंखला के तहत संजय जोशी और मनोज कुमार सिंह निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म 'खामोशी' का पहला प्रदर्शन इस फिल्म फेस्टिवल में हुआ. मनोज कुमार सिंह ने बताया कि इस फिल्म को पूरे पूर्वांचल में दिखाये जाने की योजना है ताकि इस बीमार के इलाज के लिए उदासीन प्रशासन और सरकारों पर जनदबाव बन सके.
उड़ीसा के फिल्मकार सूर्या शंकर दाश की 'सुलगती जमीन की कहानियां' शीर्षक वाली छोटी फिल्में उड़ीसा में जल जंगल जमीन पहाड़ पर हक-अधिकार के लिए आदिवासियों के संघर्ष और कारपोरेट कंपनियों, सरकार, प्रशासन और मीडिया की साजिशों और दमन को बड़ी कुशलता से सामने लाने और जनांदोलनों मे फिल्म माध्यम की प्रभावशाली भूमिका को रेखांकित करने में कामयाब रहीं. सूर्याशंकर दाश ने कहा कि वे स्पष्ट तौर पर जनता के आंदोलन के पक्षधर फिल्मकार हैं और यह पक्षधरता कतई गलत नहीं है. ये फिल्में जनता के संघर्ष पर हैं और उनके संघर्षों को ताकतवर बनाने के लिए हैं.
रोहित जोशी और हेम मिश्रा की फिल्म 'इंद्रधनुष उदास है' ने भी उत्तराखंड के संदर्भ में आर्थिक उदारीकरण के विकास माडल पर सवाल खड़ा किया और चिह्नित किया कि इसी के कारण उस इलाके में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं. लघु फिल्मों की श्रृंखला में लुइस फ़ॉक्स की फिल्म 'स्टोरी ऑफ़ स्टफ' ने चीजों के निर्माण, उनकी कीमत और वितरण की प्रक्रिया के जरिए जनविरोधी उपभोक्तावादी अर्थनीति की समझ को बड़े सरल तरीके से समझाया.
बर्ट हान्स्त्र की 'ग्लास' और 'जू' तथा 'राबर्ट एनरिको की 'ऐन आकुरेंस एट आउल क्रीक ब्रीज' जैसी फिल्में दर्शकों की कलात्मक बोध को समृद्ध करने वाली फिल्में थीं. इंकलाबी शायरों की रचनाओं को बड़े पोपुलर तरीके से गाने वाले पाकिस्तान के लाल बैंड की म्यूजिक वीडियो को दर्शकों ने काफी सराहा. भारतीय फिल्म के निर्माण में दादा साहब फाल्के की ऐतिहासिक भूमिका पर केंद्रित दस्तावेजी फिल्म 'हरिशचंद्राची फैक्टरी' भी इस बार के फिल्मोत्सव का आकर्षण थी.
आखिरी दिन की शुरुआत जो जान्सन निर्देशित आस्कर सम्मान प्राप्त फिल्म 'अक्टूबर स्काई' से हुई. एक कठिन जिंदगी और विकल्पहीनता के बीच से निकलकर वैज्ञानिक बनने वाले एक इंसान की जिंदगी पर यह फिल्म आधारित है, जो बार-बार असफल होने के बावजूद जिंदगी में हार नहीं मानता. फिल्म विधा के छात्र यशार्थ मंजुल की फिल्म 'एक अवाम' भी बेरोजगारी और असफलताओं के बीच एक नौजवान द्वारा जिंदगी के अर्थ तलाशने की कशमकश को सामने लाने वाली फिल्म थी, जिसकी पृष्ठभूमि में हबीब जालिब का एक मशहूर नज्म लगातार चलता है, जो नायक के कशमकश को मुखर करता है.
इसी तरह एक मीडिया इंस्ट्टियूट की छात्रा अरमां अंसारी की फिल्म 'वीपिंग लूम्स' बुनकरों के पेशे को विषय बनाती है, जिनकी आर्थिक स्थिति आज अच्छी नहीं है. रुचिका नेगी और अमित महंती की डाक्यूमेंट्री फिल्म 'मालेगांव टाइम्स' में पावर लूम और सिनेमा के नाजुक रिश्ते की झलक देखने को मिली.
इनके अतिरिक्त पंकज जोहर की फिल्म 'स्टिल स्टैंडिंग', शबनम बिरमानी की 'हद अनहद', ईशा पॉल और सुशोवन सरकार की 'डर्टी पिक्चर हॉल ', फातिमा एन की 'माई मदर्स डाउटर', तहा सिद्दीकी और जयाद की फिल्म 'डिशेंट ओवरडोज' का भी इस फिल्मोत्सव में प्रदर्शन हुआ. इस फिल्म फेस्टिवल ने युवा फिल्म निर्देशकों, खासकर उदीयमान फिल्म निर्देशकों की बेहतर संभावनाओं की ओर संकेत किया. विषय और शिल्प दोनों लिहाज से ये फिल्में जनता के सिनेमा के भविष्य के प्रति उम्मीद बंधाती हैं.
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