विस्तार है अपार… प्रजा दोनों पार… करे हाहाकार…
विस्तार है अपार… प्रजा दोनों पार… करे हाहाकार…
10 APRIL 2012 8 COMMENTS
♦ रवीश कुमार
पहलेजा घाट से बच्चा बाबू के जहाज से एलसीटी घाट तक की यात्रा में एक ही कसक होती थी। उफनती लहरों के बीच उबला अंडा बाबूजी खिला दें। उसका पीला हिस्सा और ऊपर काली मिर्च की कतरनें। धोती कुर्ता में पितृपुरुष जब पूछ लेते थे कि खाना है तो लगता था कि गंगा की तरह कितनी ममता है इनमें। गांव से पटना के बीच गंगा जरूर होती थी। उसके बाद स्कूल के रास्ते में कई वर्षों तक समानांतर बहती रही। ठीक से याद है कि जमाने तक गांव से लेदी (गाय का चारा) और हमलोगों के खाने का अनाज नाव पर लद कर आता था। गंगा ले आती थी। जब नाव आती थी, तो घर मल्लाहों से भर जाता था। मछली का स्वाद बदल जाता था। उनके चमकते बाजुओं की बलिष्ठता आकर्षित करती थी। लगता था कि कितनी शक्ति है इन मल्लाहों में। सिक्स पैक वाले खानों से बहुत पहले हमने स्वाभाविक बलिष्ठता अपने गांव के मल्लाहों में देखी थी। मालूम नहीं था कि सड़क और मोटर क्रांति नदियों से सामाजिक रिश्ते को खत्म कर देगी। और फिर एक दिन नदियां भी खत्म होने लगेंगी।
फिर वो वक्त आया, जब पटना एशिया से लेकर विश्व तक में प्रसिद्ध हो गया। गंगा नदी पर पुल बन गया। गांधी सेतु। हम गंगा के ऊपर से उड़ने लगे। मोतिहारी पटना की दूरी पूरे दिन की जगह पांच घंटे में सिमट गयी। अब उबले अंडे का रोमांच चला गया था। वो विशिष्ट नहीं रहा। पटना की सड़कों पर सर्दी में मिलने लगा था। बाबूजी कहते थे कि साहब लोगों का नाश्ता होता है। सीखो खाना। लेकिन बाबूजी अब मोतिहारी-पटना के बीच बने लाइन होटलों पर रुकने लगे। मीट और भात। सिरुआ और पीस की बात होने लगी। हाजीपुर रुक कर बस से हाथ निकालकर मालभोग केला। दूर कहीं गंगा छूटती नजर आने लगती थी। उसकी ठंडी हवा याद दिलाती रहती थी कि हमारी धारा से न सही, धारा के ऊपर से तो गुजरने लगे हो। फिर भी हाईवे पर ट्रकों के कपार पर गंगा तेरा पानी अमृत लिखा देखता तो कुछ हो जाता। लगता कि गंगा है तो। भले ही गंगा हमारे रास्ते में नहीं है। अब तो गंगा तेरा पानी अमृत भी सड़क साहित्य से गायब हो चुका है। हमलोगों ने गांधी सेतु को रास्ता बना लिया था। गंगा छूट गयी थी। दिल्ली आने के बाद बनारस के पास गंगा दिखने लगी। तेजी से गुजर जाती। कई सालों तक दिल्ली पटना के रास्ते में खिड़की पर बैठा बनारस का इंतजार करता रहता था। गंगा को प्रणाम करने के लिए। आज भी करता हूं। किसी अंध श्रद्धा से नहीं। गहरे रिश्ते के कारण। गंगा को देखना और देखते रहना आज भी जीवन के सर्वोत्तम रोमांच में से एक है। धीरे धीरे पटना जाना कम होने लगा। गंगा दिखनी कम हो गयी।
जब पहली बार हवाई जहाज से पटना गया, तो शहर के ऊपर से निकलते हुए जहाज अचानक गंगा के ऊपर से मुड़ने लगा। खिड़की से झांक कर देखा तो गंगा बीमार लग रही थी। उसकी गोद से रेत के गाद निकल आये थे। ऐसा लगा कि किसी ने गंगा की गाद को चीर दिया है। प्रणाम तब भी किया। हाथ तो नहीं जो़ड़ा लेकिन मन ही मन। देख रही हो न गंगा। अब हम हवा में उड़ रहे हैं। बहुत दुख हुआ अपनी गंगा को देखकर। गांधी सेतु भी गंगा की तरह जर्जर हो चुका है। गंगा को हमने खूब देखा है। चौड़े पाट। बेखौफ लहरें। नावें। कभी कभी मोहल्ले के दोस्तों के साथ बांस घाट में नहाना। वो भाव कभी नहीं उमड़ा, जो पटना में गंगा को देख कर होता था। हरिद्वार और बनारस में गंगा अल्बम की तस्वीर लगती थी। अभी तक मैंने नदियों के मसले को लेकर किसी आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं पढ़ा था। बस एक रिश्ता था, जो स्मृतियों में धंसा हुआ है।
पहली बार नयना से पता चला था पॉल राबसन के बारे में। ऐसा लगा कि मिसिसिपी गंगा की मौसी है। दोनों बहने हैं। दोनों की व्यथा एक है। भूपेन हजारिका की आवाज में सुना तो धड़कनें तेज हो गयीं। गंगा तुम बहती हो क्यों। किसके लिए ये नदी बहती आ रही है। मनुष्य का नदियों से प्रयोजन पूरा हो चुका है। वो नदी मार्ग से सड़क मार्ग की ओर प्रस्थान कर चुका है। नदियों की धाराओं और मार्गों के नाम को लेकर कोई लड़ाई नहीं है। हर मनुष्य का ख्वाब है कि कोई सड़क उसके नाम हो जाए। तब भी गंगा क्यों बही जा रही है। हम जैसे रिश्तेदारों को तड़पाने के लिए। कुछ तीज त्योहारों के लिए। गंगा उपक्रम नहीं रही है। वो कर्मकांड बन चुकी है। पॉल रॉबसन के बारे में जानकर बड़ा गर्व हुआ था। वैसे ही जैसे पहली बार पानी के जहाज में उबला अंडा खाकर बड़े लोगों का नाश्ता सीख लिया था। लेकिन जब एनडीटीवी के न्यूज रूम में अचानक एक दिन कह दिया कि पॉल रॉबसन को सुना है, किसी ने सर नहीं हिलाया। सोचा क्या फर्क पड़ता है। गंगा तब भी बहती जा रही होगी। पॉल रॉबसन तब भी गाया जाता रहेगा।
गंगा को लेकर गाने यूट्यूब पर खूब सुनता रहा हूं। गंगा मइया, हो गंगा मइया… गंगा मइया में जब तक कि पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे… क्यों रो देता हूं, मालूम नहीं। गंगा तेरा पानी अमृत झर झर बहता जाए… याद तो नहीं, जब गंगा मइया तोरे पियरे चढइबो देखी थी, तो दिल खूब मचला था। आज भी इसके गाने यूट्यूब पर सुनता हूं। इस गाने में बनारस की गंगा की जवानी देखिएगा। क्या लहरें हैं। क्या मस्ती है। कितनी नावें एक साथ चल रही हैं। हे गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो, सइयां से कर दे मिलनवा हाय राम। मालूम ही नहीं था गंगा महबूब के आने का रास्ता भी है। उसे मिलाने का जरिया भी है। इस गाने में गंगा में जो नावों की भीड़ है, वो बताती है कि गंगा पवित्र पावनी से ज्यादा नदी मार्ग थी। हमारे आने जाने का जरिया।
पॉल रॉबसन, तुम्हारी मिसिसिपी को हमने नहीं देखा है। पढ़ा था कभी किताबों में। समझ सकता हूं एक नदी का बुढ़ाना। अविनाश के फेसबुक वॉल पर तुम्हारे जन्मदिन की बात देखी। बूढ़े नदी को कुछ तो मालूम ही है। गंगा को भी कुछ क्या सब मालूम है। पर उसे मालूम ही नहीं कि वो बहती है क्यों।
(रवीश कुमार। टीवी का एक सजग चेहरा। एनडीटीवी इंडिया के कार्यकारी संपादक। नामी ब्लॉगर। कस्बा नाम से मशहूर ब्लॉग। दैनिक हिंदुस्तान में ब्लॉगिंग पर एक साप्ताहिक कॉलम लिखते थे, अब नहीं लिखते हैं। इतिहास के छात्र रहे। कविताएं और कहानियां भी लिखते हैं। उनसे ravish@ndtv.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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