चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील,जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों पर रोना क्या?
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
देश अब खुला बाजार है। सारी सेवाएं कारोबार है। कारोबार के हितों के लिए हर क्षेत्र माफियागिरि के हवाले हैं। जहां किसी को भी सुरक्षा नहीं मिल सकती। जहां कोई समर्पित नहीं है। सिर्फ पैसे का लेन देन है। बुनियादी सवाल क्रयशक्ति से जुड़ा है। पैसे हैं तो कोई समस्या नहीं कोई तनाव नहीं। पर कमाई के रास्ते में जोखिम भी होते हैं। यही बाजार का शाश्वत नियम है। जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों पर रोना क्या?
पहली अप्रैल को छपी अखबारी खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चिकित्सकों ने प्रदेश सरकार से चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील की है। उनकी मांग है कि आये दिन चिकित्सकों के साथ तीमारदारों द्वारा किये जाने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ इस अधिनियम को पारित कर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये। वे इसके लिए प्रदेश सरकार को ज्ञापन भी सौंपेगे। आइ एम ए अध्यक्ष डा ए एम खान व डा शरद अग्रवाल का कहना है कि यदि चिकित्सकों को नुकसान पहुँचाने वालों को भी सजा मिलने का कानून प्रदेश में लागू हो जाये तो कोई भी ऐसा करने से पहले डरेगा।
अब सवाल यह है कि सुरक्षा अधिनियम की असल में जरूरत किसे है? यहां यक्ष प्रश्न है कि सुरक्षा अधिनियम की असल जरूरत किसे है तीमारदारों को, मरीजों को या चिकित्सकों को?मान लेते हैं कि ऐसा कानून पास हो ही गया, तो क्या किसी की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी?
अस्पतालों में मरीजों के साथ क्या सलूक होता है, देश भर में छपने वाले किसी भी अखबार को उठाकर देख लें। बंगाल के अस्पतालों में थोक भाव में शिशुओं की मौत रोज की दिनचर्या है। देश के किसी न किसा हिस्से में अस्पताल में महिला मरीजों के साथ बलात्कार की खबरें होती है। अंग प्रत्यंग निकाल लेने की खबरें बी कम नहीं होतीं। छिकित्सकों पर हमले भी सर्वत्र होते हैं, सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं। अस्पतालों में दवा और डाक्टर न होना , मरीज के इलाज में लापरवाही आम बातें हैं।अभी हाल में कोलकाता के आमरी अस्पताल में अग्निकांड में बेमौत लोग मर गये।
कुल मिलाकर चिकित्सा क्षेत्र में घनघोर अविश्वास और असुरक्षा का माहौल है और इसकी प्रतिक्रिया में हिंसा की वारदातें होती हैं। ऐसा नही है कि हिंसा सिर्फ मरीज पक्ष की ओर से होता है। अस्पतालों में चिकित्सकों और दूसरे कर्मचारियों की गिरोहबंदी अक्सर इतनी पुख्ता होती है कि कोई चूं भी करें तो उसकी हड्डी पसली की खैर नहीं। बंगाल के अस्पतालों से ऐसी खबरें अक्सर मिलती हैं। चिकित्सकों की आफत तब आ जाती है , जब उनका बाहुबलियों या फिर राजनीतिक ताकत से सामना होता है। तब उनकी पिटाई होती है। इस देश में हाल यह है कि बाहुबलियों या राजनीतिक ताकत से बचने के लिहाज से कोई भी कानून सुरक्षा की गारंटी नहीं है।
दरअसल हिंसा और सुरक्षा के मसले मूल बीमारी नहीं है। बल्कि यह बीमारी से पैदा होने वाली विकृतियां हैं। परंपरागत तौर पर इस देश में चिकित्सकों और शिक्षकों पर जनता का सबसे ज्यादा विश्वास रहा है। जनता उन्हींका सबसे ज्यादा सम्मान करती रही है। पर आज परिस्थितियां उलट है। क्या कोई भी कानून इन परिस्थितियों को बदल सकती है?शिक्षा और चिकित्सा के साथ सेवा और समर्पण, प्रतिबद्धता और सरोकार जुड़े होने से इन क्षेत्रों को पवित्रतम माना जाता रहा है। सदियों से हमारे नायक चिकित्सक और शिक्षक रहे हैं। विडम्बना है कि आज दोनों की पिटाई होरही है और दोनों क्षेत्रों में घनघोर असुरक्षा का माहौल है। हिंसा की वारदातें उत्तर प्रदेश में बंगाल के मुकाबले कम ही होती होंगी। महानगरों में मरीजों के साथ जो सलूक होता है, उसका उत्तर प्रदेश में शायद अंदाजा लगाना ही मुश्किल हो। क्या महाराष्ट्र , गुजरात या दक्षिण भारत में हालात अलग हैं?क्या कानून बनाने से हालात बदल जायेंगे?
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
देश अब खुला बाजार है। सारी सेवाएं कारोबार है। कारोबार के हितों के लिए हर क्षेत्र माफियागिरि के हवाले हैं। जहां किसी को भी सुरक्षा नहीं मिल सकती। जहां कोई समर्पित नहीं है। सिर्फ पैसे का लेन देन है। बुनियादी सवाल क्रयशक्ति से जुड़ा है। पैसे हैं तो कोई समस्या नहीं कोई तनाव नहीं। पर कमाई के रास्ते में जोखिम भी होते हैं। यही बाजार का शाश्वत नियम है। जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों पर रोना क्या?
पहली अप्रैल को छपी अखबारी खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चिकित्सकों ने प्रदेश सरकार से चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील की है। उनकी मांग है कि आये दिन चिकित्सकों के साथ तीमारदारों द्वारा किये जाने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ इस अधिनियम को पारित कर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये। वे इसके लिए प्रदेश सरकार को ज्ञापन भी सौंपेगे। आइ एम ए अध्यक्ष डा ए एम खान व डा शरद अग्रवाल का कहना है कि यदि चिकित्सकों को नुकसान पहुँचाने वालों को भी सजा मिलने का कानून प्रदेश में लागू हो जाये तो कोई भी ऐसा करने से पहले डरेगा।
अब सवाल यह है कि सुरक्षा अधिनियम की असल में जरूरत किसे है? यहां यक्ष प्रश्न है कि सुरक्षा अधिनियम की असल जरूरत किसे है तीमारदारों को, मरीजों को या चिकित्सकों को?मान लेते हैं कि ऐसा कानून पास हो ही गया, तो क्या किसी की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी?
अस्पतालों में मरीजों के साथ क्या सलूक होता है, देश भर में छपने वाले किसी भी अखबार को उठाकर देख लें। बंगाल के अस्पतालों में थोक भाव में शिशुओं की मौत रोज की दिनचर्या है। देश के किसी न किसा हिस्से में अस्पताल में महिला मरीजों के साथ बलात्कार की खबरें होती है। अंग प्रत्यंग निकाल लेने की खबरें बी कम नहीं होतीं। छिकित्सकों पर हमले भी सर्वत्र होते हैं, सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं। अस्पतालों में दवा और डाक्टर न होना , मरीज के इलाज में लापरवाही आम बातें हैं।अभी हाल में कोलकाता के आमरी अस्पताल में अग्निकांड में बेमौत लोग मर गये।
कुल मिलाकर चिकित्सा क्षेत्र में घनघोर अविश्वास और असुरक्षा का माहौल है और इसकी प्रतिक्रिया में हिंसा की वारदातें होती हैं। ऐसा नही है कि हिंसा सिर्फ मरीज पक्ष की ओर से होता है। अस्पतालों में चिकित्सकों और दूसरे कर्मचारियों की गिरोहबंदी अक्सर इतनी पुख्ता होती है कि कोई चूं भी करें तो उसकी हड्डी पसली की खैर नहीं। बंगाल के अस्पतालों से ऐसी खबरें अक्सर मिलती हैं। चिकित्सकों की आफत तब आ जाती है , जब उनका बाहुबलियों या फिर राजनीतिक ताकत से सामना होता है। तब उनकी पिटाई होती है। इस देश में हाल यह है कि बाहुबलियों या राजनीतिक ताकत से बचने के लिहाज से कोई भी कानून सुरक्षा की गारंटी नहीं है।
दरअसल हिंसा और सुरक्षा के मसले मूल बीमारी नहीं है। बल्कि यह बीमारी से पैदा होने वाली विकृतियां हैं। परंपरागत तौर पर इस देश में चिकित्सकों और शिक्षकों पर जनता का सबसे ज्यादा विश्वास रहा है। जनता उन्हींका सबसे ज्यादा सम्मान करती रही है। पर आज परिस्थितियां उलट है। क्या कोई भी कानून इन परिस्थितियों को बदल सकती है?शिक्षा और चिकित्सा के साथ सेवा और समर्पण, प्रतिबद्धता और सरोकार जुड़े होने से इन क्षेत्रों को पवित्रतम माना जाता रहा है। सदियों से हमारे नायक चिकित्सक और शिक्षक रहे हैं। विडम्बना है कि आज दोनों की पिटाई होरही है और दोनों क्षेत्रों में घनघोर असुरक्षा का माहौल है। हिंसा की वारदातें उत्तर प्रदेश में बंगाल के मुकाबले कम ही होती होंगी। महानगरों में मरीजों के साथ जो सलूक होता है, उसका उत्तर प्रदेश में शायद अंदाजा लगाना ही मुश्किल हो। क्या महाराष्ट्र , गुजरात या दक्षिण भारत में हालात अलग हैं?क्या कानून बनाने से हालात बदल जायेंगे?
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