शायरी के शुरुआती बेनूर दिन धीरे-धीरे नूरानी होते चले गये!
10 APRIL 2012 ONE COMMENT
♦ शबाना आजमी
फिल्म फेयर के युवा पत्रकार रघुवेंद्र सिंह ने कुछ महीनों पहले मशहूर और मरहूम शायर कैफी आजमी के बारे में उनकी काबिल बेटी शबाना आजमी से बात की थी। उन्होंने पूरी बातचीत रिकॉर्ड की और उसे ज्यों का त्यों उतार दिया। हम भी उस पूरी बातचीत को फिल्म फेयर से ज्यों का त्यों उतार रहे हैं : मॉडरेटर
कुकैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे। वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे। वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे। वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे। इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रुपये देती थी। उसी में घर का खर्च चलता था। उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था। कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई। उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो। कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था। उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है। उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो। तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए। उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बनी।
कैफी साहब ने 1951 में पहला गीत बुजदिल फिल्म के लिए लिखा रोते-रोते बदल गयी रात। हमको याद करना चाहिए कि कैफी साहब ट्रेडिशनल बिल्कुल नहीं थे। शिया घराने में एक जमींदार के घर में उनकी पैदाइश हुई थी। मर्सिहा शिया के रग-रग में बसा हुआ है। मुहर्रम में मातम के दौरान हजरत अली को जिन अल्फाजों में याद करते हैं, वह शायरी में है। उसकी एक रिद्म है। शिया घरानों में इस चीज की समझ हमेशा से रही है। उसके बाद, वे जिस माहौल में पले-बढ़े, वहां शायरी का बोल-बाला था। गयारह साल की उम्र में उन्होंने लिखा था, ''इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े…'' गैर मामूली टैलेंट उनमें हमेशा से था। उस जमाने में जो भी फिल्मों से जुड़े, चाहे वह साहिर हों, मजरूह हों, शैलेंद्र हों, कैफी साहब हों, सबने इसे रोजगार का जरिया बनाया। ये सब शायरी करते थे, लेकिन शायरी की वजह से कोई आमदनी नहीं थी। फिल्म आमदनी का एक जरिया बन गयी।
एक नानू भाई वकील थे, जो स्टंट टाइप की फिल्में लिखते थे। उनके लिए भी कैफी साहब ने गीत लिखे। साथ में वे पार्टी का काम भी करते रहते थे। उनको पहला बड़ा ब्रेक मिला 1959 में, फिल्म कागज के फूल में। अबरार अल्वी ने उन्हें गुरुदत्त से मिलवाया। गुरुदत्त से बड़ी जल्दी उनकी अच्छी बन गयी। कैफी साब कहते थे, ''उस जमाने में फिल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी। आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी। उसके बाद उसमें शब्द पिरोये जाते थे। ये ठीक ऐसे ही था कि पहले आपने कब्र खोद ली। फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश करें। तो कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था तो कभी कोई अंग। मेरे बारे में फिल्मकारों को यकीन हो गया कि ये मुर्दे ठीक गाड़ लेता है, इसलिए मुझे काम मिलने लगा।'' वे यह भी बताते हैं कि कागज के फूल का जो मशहूर गाना है, वक्त ने किया क्या हंसीं सितम… ये यूं ही बन गया था। एसडी बर्मन और कैफी आजमी ने यूं ही यह गाना बना लिया था, जो गुरुदत्त को बेहद पसंद आया। उस गाने के लिए फिल्म में कोई सिचुएशन नहीं थी, लेकिन गुरुदत्त ने कहा कि ये गाना मुझे दे दो। इसे मैं सिचुएशन में फिट कर दूंगा। आज अगर आप कागज के फूल देखें, तो ऐसा लगता है कि वह गाना उसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है।
कैफी साहब के गाने बेइंतहां मशहूर हुए, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं हुई। गुरुदत्त डिप्रेशन में चले गये। उसके बाद कैफी साहब के पास शोला और शबनम फिल्म आयी। उसके गाने बहुत मशहूर हुए। जाने क्या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें और जीत ही लेंगे बाजी हम-तुम, लेकिन फिर फिल्म नहीं चली। फिर अपना हाथ जगन्नाथ आयी। एक के बाद एक कैफी साहब की काफी फिल्में आयीं और सबके गाने मशहूर, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक भी फिल्म नहीं चली। शमां जरूर एक फिल्म थी, जिसमें सुरैया थीं, उसके गाने मशहूर हुए और वह पिक्चर भी चली। लेकिन ज्यादातर जिन फिल्मों में इन्होंने गाने लिखे, वह नहीं चलीं। फिर फिल्म इंडस्ट्री ने इनसे पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया और लोग यह बात कहने लगे कि कैफी साहब लिखते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन ये अनलकी हैं।
इस माहौल में चेतन आनंद एक दिन हमारे घर में आये। उन्होंने कहा कि कैफी साहब, बहुत दिनों के बाद मैं एक पिक्चर बना रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के गाने आप लिखें। कैफी साहब ने कहा कि मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है और आपके साथ काम करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, लेकिन लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में हैं। चेतन आनंद ने कहा कि मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं। मैं मनहूस समझा जाता हूं। चलिए, क्या पता दो निगेटिव मिलकर एक पॉजिटिव बन जाए। आप इस बात की फिक्र न करें कि लोग क्या कहते हैं। कर चले हम फिदा जाने तन साथियो… गाना बना। हकीकत (1964) फिल्म के तमाम गाने और वह पिक्चर बहुत बड़ी हिट हुई। उसके बाद कैफी साहब का कामयाब दौर शुरू हुआ। चेतन आनंद साहब की तमाम फिल्में वो लिखने लगे, जिसके गाने बहुत मशहूर हुए।
हीर रांझा (1970) में कैफी साहब ने एक इतिहास कायम कर दिया। उन्होंने पूरी फिल्म शाइरी में लिखी। हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। आप उसका एक-एक शब्द देखें, उसमें शायरी है। उन्होंने इस फिल्म पर बहुत मेहनत की। वह रात भर जागकर लिखते थे। उन्हें हाई ब्लडप्रेशर था। सिगरेट बहुत पीते थे। इसी दौरान उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर पैरालासिस हो गया। उसके बाद फिर एक नया दौर शुरू हुआ। नये फिल्ममेकर्स कैफी साहब की तरफ अट्रैक्ट होने लगे। उनमें चेतन आनंद के बेटे केतन आनंद थे। उनकी फिल्म टूटे खिलौने के गाने उन्होंने लिखे। उसके बाद उन्होंने मेरी दो-तीन फिल्मों टूटे खिलौने, भावना, अर्थ के गाने लिखे। बीच में सत्यकाम, अनुपमा, दिल की सुनो दुनिया वालों बनीं। ऋषिकेश मुखर्जी के साथ भी उन्होंने काम किया। अर्थ के गाने बहुत पॉपुलर हुए और फिल्म भी बहुत चली।
कैफी साहब का लिखने का अपना अंदाज था। जब डेडलाइन आती थी, तब वे लिखना शुरू करते थे। वो रात को गाने लिखने बैठते थे। उनका एक खास तरह का राइटिंग पैड होता था। वे सिर्फ मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे। बाकी उनकी कोई जरूरत नहीं होती थी। ऐसा नहीं होता था कि बच्चों शोर मत करो, अब्बा लिखना शुरू कर रहे हैं। उनका अपना स्टडी का कमरा था, उसको वो हमेशा खुला रखते थे। हम लोग कूदम-कादी करते रहते थे। रेडियो चलता रहता था, ताश खेला जा रहा होता था। मैं हमेशा अब्बा से यह सवाल पूछती थी कि क्या गाने हकीकत की जिंदगी से प्रेरित होते हैं? अब्बा कहते थे कि शायर के लिए, राइटर के लिए, यह बहुत जरूरी है कि जो घटना घटी है, वह उससे थोड़ा सा अलग हो जाए, तब वह लिख सकता है। फिल्म की जो लिरिक राइटिंग है, वह महदूद होती है। वो सिचुएशन पर डिपेंड होती है। शायर जिंदगी को परखता है। जब आप जिंदगी के दर्द को महसूस करते हैं, जिंदगी से मुहब्बत महसूस करते हैं तब आप अपने अंदर के इमोशन से इन टच रहते हैं।
कैफी साहब ने गर्म हवा (1973) के डायलॉग लिखे, जो जिंदगी से जुड़े हुए थे। जावेद साहब को एक-एक डायलॉग याद हैं। मजेदार बात है कि गर्म हवा में सबको एक किरदार जो याद रहता है, वह है बलराज साहनी की मां का, जो कोठरी में जाकर बैठ जाती है और कहती है कि यह घर मैं बिल्कुल नहीं छोड़ूंगी। यह किस्सा मम्मी की नानी के साथ हुआ था, जो उन्होंने कैफी साहब को सुनाया था, जिसे उन्होंने हूबहू लिख दिया था। गीता और बलराज जी के बीच में बहुत सारे सीन हैं। वह मेरे और अब्बा के बीच के रिश्ते से हैं। फारुक और गीता के बीच के सीन मेरे और बाबा के बीच के हैं। वो हमेशा अपने आस-पास की घटनाओं पर नजर रखते थे। मैं आजाद हूं फिल्म के गीत कितने बाजू कितने सर में उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सक्रियता का असर देखा जा सकता है।
कैफी साहब ने बहुत मुख्तलिफ डायरेक्टरर्स के साथ काम किया। उस वक्त जिन लोगों का बहुत नाम था, जिनमें कैफी साहब, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जांनिसार अख्तर और शैलेंद्र थे, ये सब लेफ्टिस्ट मूवमेंट से जुड़े थे और सब प्रोग्रेसिव राइटर्स थे। उनके पास जुबान की माहिरी थी। उस जमाने में गानों में जो जुबान इस्तेमाल होती थी, वो हिंदुस्तानी थी और उसमें उर्दू बहुत अच्छी तरह से शामिल थी। चाहे आप शैलेंद्र को देख लें, साहिर को देखें, जां निसार अख्तर को देखें या फिर कैफी साहब को, सबके गीतों में बाकायदा शायरी और जिंदगी का एक फलसफा भी होता था।
कैफी साहब के लिखे तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो (अर्थ), कर चले हम फिदा (हकीकत), दो दिन की जिंदगी (सत्यकाम), जरा सी आहट (नौनिहाल), झूम-झूम ढलती रात (कोहरा), ये नैन (अनुपमा) मुझे बहुत पसंद हैं। मैं इन गीतों को बार-बार सुनती हूं। हां, पाकीजा (1972) फिल्म का चलते-चलते कोई यूं ही मिल गया था… भी मुझे बहुत पसंद है।
आज जिस तरह के गाने लिखे जाते हैं और उनमें जिस तरह के अल्फाज होते हैं, उस पर मुझे बहुत अफसोस है। मैं सोचती हूं कि कहां चले गये वो गाने। आज हम हिंदी फिल्म के गानों को खो रहे हैं। मुझे लगता है कि यह हम गलती कर रहे हैं। जाहिर है कि वक्त के साथ सबको बदलना चाहिए, लेकिन हिंदी फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसके गाने हैं। यह उसे दुनिया के सभी सिनेमा से अलग बनाता है। अगर हम उसकी खूबी यानी यूएसपी को निकाल देंगे तो फिर हमारे पास रह क्या जाएगा? मुझे लगता है कि हमें इस दौर से निकलना चाहिए।
आजकल के गानों में अल्फाज सुनाई ही नहीं देते हैं। बिना अल्फाज के मुझे गाने का मतलब ही नहीं समझ में आता है। मैं सोचती हूं कि कब आएगा वह पुराना वक्त? मुझे यकीन है कि वह वक्त आएगा जरूर, क्योंकि आप देखिए जिस जमाने में एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा… गाना चल रहा था, उसी जमाने में सरकाई लेओ खटिया जाड़ा लगे भी चला था। ठीक वैसा ही दौर चल रहा है आज। हम लोगों के साथ ज्यादती कर रहे हैं। हम कहते हैं कि उनको अच्छे गीत का टेस्ट नहीं है, लेकिन अगर हम उन्हें वैसे गाने दे ही नहीं रहे हैं, तो वो सुनेंगे कहां से? और फिर हम इस गलत नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि गाने की कोई अहमियत नहीं होती है। मुझे लगता है कि कैफी साहब की दसवीं सालगिरह पर हमें एक बार फिर कमिट करना चाहिए… वो इतने बड़े शायर थे, हम उनके काम को उठाएं, संभालें, देखें और युवा लेखकों को प्रेरणा दें ताकि वे कुछ सीखें।
(शबाना आजमी। जानी-मानी अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता। समांतर सिनेमा के दौर की एक महत्वपूर्ण कड़ी। अंकुर, अर्थ, मासूम, मंडी सहित कई सारी फिल्मों में अभिनय। 1997 से 2002 तक राज्यसभा की मेंबर। अपने गांव मिजवां (आजमगढ़) के लिए कई तरह के सामाजिक कामों में जुटी हैं। उनसे shabana@sansad.nic.in पर संपर्क किया जा सकता है।)
(रघुवेंद्र सिंह। फिल्म पत्रकार। दैनिक जागरण से शुरुआत। कुछ सालों से फिल्म फेयर में हैं। सामाजिक कामों में भी दिलचस्पी। अपने शहर आजमगढ़ में एक स्वयंसेवी संस्था के जरिये कुछ सार्थक करने की कोशिश। उनसे raghuvendra.s@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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