कपास की खेती आत्महत्या का पर्याय बन चुकी है,शरद पवार की भी सुनवाई नहीं!कपास निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का चौतरफा विरोध!
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कपास नियंत्रण पर प्रतिबंध की समीक्षा का निर्देश दे चुके हैं। पर वाजिब दाम न मिलने से कपास उत्पादकों में रोष बड़ता जा रहा है। कपास की खेती महाराष्ट्र गुजरात, कर्नाटक और कई दूसरे राज्यों में में आत्महत्या का पर्याय बन चुकी है।खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। खाद. बिजली और पानी, मजदूरी की बढ़ती दरों से निपटने के लिए किसान कर्ज लेने को मजबीर होते हैं। तो फसल बेहतर होने के बावजूद घरेलू बाजार में उसे लागत खर्च निकालने लायक दाम भी नसीब नहीं होता। ज्यादातर इलाकों में छोटे किसानों को स्थानीय साहूकार से कर्ज लेने की भारी कीमत मौत को गले लगाकर अदा करनी होती है। सरकार इस हकीकत को नजरअंदाज कर रही है।हालत यह है कि इस सिलसिले में और कोई नहीं, देश के कृषि मंत्री महाराष्ट्र के मराठा मानुष शरद पवार की भी सुनवाई नहीं हो रही है। कृषि मंत्री शरद पवार के मुताबिक इस साल कपास का उत्पादन ज्यादा हुआ है, ऐसे में कपास के निर्यात पर रोक लगाने से किसानों को सही दाम नहीं मिल पाएगा। प्रतिबंध के फैसले की समीक्षा करने के लिए शुक्रवार को मंत्री समूह [जीओएम] की बैठक बेनतीजा रही।हालांकि सरकारी तरफ से दिल को तसल्ली वास्ते कहा यही जा रहा है कि कपास निर्यात पर लगी रोक को हटना ही है।
भारत में १० लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती की जाती है।कपास भारत की आदि फ़सल है, जिसकी खेती बहुत ही बड़ी मात्रा में की जाती है। यहाँ आर्यावर्त में ऋग्वैदिक काल से ही इसकी खेती की जाती रही है। भारत में इसका इतिहास काफ़ी पुराना है। हड़प्पा निवासी कपास के उत्पादन में संसार भर में प्रथम माने जाते थे। कपास उनके प्रमुख उत्पादनों में से एक था। भारत से ही 327 ई.पू. के लगभग यूनान में इस पौधे का प्रचार हुआ। यह भी उल्लेखनीय है कि भारत से ही यह पौधा चीन और विश्व के अन्य देशों को ले जाया गया। कपास सदियों से भारतीय किसानों की एक पसंदीदा फसल रह चुकी है। यह अच्छी और पर्याप्त आय अर्जित कर सकती है। कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण रेशेदार फसल होने के साथ-साथ देश की कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कपड़ा उद्योग के लिए कपास रीढ़ की हड्डी के समान है। कपड़ा उद्योग में 70 प्रतिशत रेशे कपास के ही इस्तेमाल होते है और भारत से विदेशों को होने वाले कुल निर्यात में लगभग 38 प्रतिशत निर्यात कपास का होता है, जिससे देश को 42 हजार करोड़ रुपये मिलते है।सबसे अच्छे कपास के रेशे की लम्बाई 5 सेंटीमीटर से भी अधिक होती है| इस तरह के कपास की किस्म सयुंक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी पूर्वी तट तथा वेस्टइंडीज में उगाई जाती है|यह दुनिया के करीब 60 देशों में उगायी जाती है। दस देश- अमरीका, पूर्व सोवियत संघ, चीन, भारत, ब्राजील, पाकिस्तान, तुर्की, मैक्सिको, मिस्र और सूडान दुनिया के कुल उत्पादन की करीब 85 प्रतिशत कपास पैदा करते हैं। इसका कुदरती रेशा वस्त्र उद्योग के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण कच्ची सामग्री है।भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां हाइब्रिड और कपास की सभी चार प्रजातियों- जी. हिरसुतुम, जी आर्बोरियम, जी. हरबेसियम और जी बार्बाडेन्स की व्यावसायिक खेती होती है। यहां 45 प्रतिशत क्षेत्र में हाइब्रिड, 34 प्रतिशत में जी हिरसतुम, 15 प्रतिशत में जी आर्बोरियम और 6 प्रतिशत क्षेत्र में जी हरबेसियम की खेती होती है जो बार्बाडेंस का रकबा नगण्य है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं। कपास पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अलीगढ़, आगरा, मथुरा, गाजियाबाद और सहारनपुर में, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल के सुन्दरबन में भी उगायी जाती है। लगभग 65 प्रतिशत कपास का रकबा पूरी तरह वर्षा पर निर्भर है जबकि 35 प्रतिशत में सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।भारत में कपास दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के आरम्भ के साथ ही बोयी जाती है, जबकि सिंचाई पर आश्रित कपास एक-दो महीने पूर्व ही बोयी जाती है। देश में 49 प्रतिशत कपास सिंचित क्षेत्रों में पैदा की जाती है। आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र कर्नाटक राज्य के दक्षिणी भाग में कपास जून से अगस्त के अन्त तक बोयी जाती है और चुनाई जनवरी से अप्रैल तक की जाती है। तमिलनाडु में इसको बोना दोनों ही मानसूनों के अनुसार होता है। दक्षिणी प्रायद्वीप के बाहर यह मार्च से जुलाई तक बोयी जाती है और अक्टूबर से जनवरी तक इसकी चुनाई होती है। कपास भारत की सामान्यतः खरीफ की फ़सल है।
महंगाई वित्तीय और मौद्रिक नीतियों की वजह से बढ़ती है और राजकोषीय गाटे का दबाव बढ़ता है तो सारा बोझ बेरहमी से देश के बहुसंख्यक किसानों पर लाद दी जाती है।मालूम हो कि इससे पहले घरेलू बाजार में प्याज की बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए इसी ईजीओएम ने निर्यात पर पाबंदी लगाई थी। इसके बाद देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक क्षेत्र नाशिक के किसानों ने विरोध जताते हुए स्थानीय मंडी में दैनिक नीलामी बंद कर दी थी। यहां तक कि किसानों ने पिछले शुक्रवार को मंडी तक पहुंचे प्याज को भी नीलामी के लिए नहीं रखा। कृषि मंत्री शरद पवार ने नवंबर में ही कह दिया था कि सरकार को राज्यों को खाद्यान्न के आवंटन, भडारण सुविधाओ के साथ इसके निर्यात के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इस साल देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है। गौरतलब है कि बंगाल जैसे राज्य में भी धान की कीमत न मिलने से किसान खुदकशी कर रहे हैंष हालांकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुदकशी करनेवालों को किसान मानने से ही इंकार कर दिया।तो कैसे चल रही है इस देस में आयात निर्यात की बैसाखी पर कृषि विपणन व्यवस्था?सरकार चीनी निर्यात के फैसले पर अमल से ठिठक गई।पांच लाख टन चीनी निर्यात की घोषणा के चार महीने बाद भी सरकारी अधिसूचना जारी न होने से निर्यात संभव नहीं हो पाया।
टेक्सटाइल सचिव किरण ढींगरा ने शुक्रवार की बैठक के बाद कहा था कि निर्यात पर रोक के फैसले पर और अधिक चर्चा की जरूरत है और इस संबंध में जल्द ही बैठक बुलाई जाएगी। मामले पर चौतरफा विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद जीओएम की बैठक बुलाई गई थी। वाणिज्य मंत्रालय ने बीते सोमवार को कपास निर्यात पर रोक लगाने का फैसला कृषि मंत्रालय को विश्वास में लिए बगैर ही ले लिया था। इसके दायरे में पहले से जारी हो चुके पंजीकरण प्रमाण-पत्रों को भी शामिल कर लिया गया था। कृषि मंत्री शरद पवार समेत टेक्सटाइल उद्योग तथा मध्य प्रदेश और गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने इस फैसले की तीखी आलोचना की है। पवार का आरोप है कि इस बारे में उन्हें भी अंधेरे में रखा गया।वाणिज्य मंत्रालय अपने फैसले का बचाव करते हुए कह चुका है कि कपास निर्यात की छूट देते समय सरकार का अनुमान था कि कुल 84 लाख गांठ कपास का निर्यात हो जाएगा। लेकिन फरवरी के पहले सप्ताह तक कुल 1.20 करोड़ गांठ कपास निर्यात का रजिस्ट्रेशन कराया जा चुका है। इसके मुकाबले 94 लाख गांठ कपास का निर्यात हो चुका है। इसी के चलते यह फैसला लिया गया।
गौरतलब है कि कपास निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का चौतरफा विरोध के चलते सरकार पर कपास निर्यात पर लगी रोक हटाने का दबाव बन गया। पवार ने इस मामले में वाणिज्य मंत्रालय को चिट्ठी भी लिखी है। उन्होंने कहा है कि वाणिज्य मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय को सूचित किए बिना कपास के निर्यात पर रोक लगाई है।इससे भी काम नहीं हुआ तो उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की गुहार लगायी। वहीं इससे पहले सोमवार को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कपास के निर्यात पर रोक हटाने के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी।डीजीएफटी ने देश में कपास की मांग पूरी करने के लिए इसके निर्यात पर रोक लगाई है। जिसके बाद पहले से पंजीकृत कपास का भी निर्यात नहीं हो पाएगा। लेकिन निर्यात पर रोक की खबर आते ही इसके विरोध में आवाज उठने लगी।
कॉटन जिनर्स ने निर्यात पर लगी रोक के खिलाफ दो दिन के बंद का ऐलान किया है। इस बंद के दौरान 2 दिन तक कॉटन जिनर्स अपनी फैक्ट्रियां बंद रखेंगे।उन्होंने फैसला किया है कि वे नौ मार्च को मंत्री समूह की प्रस्तावित बैठक में समीक्षा के बाद ही अगला कदम उठाएंगी। समूचे सौराष्ट्र में आंदोलन शुरू हो गया है।
कपास उत्पादक ही क्यों, गन्ना, आलू, प्याज और धान किसी बी फसल का खुले बाजार में वाजिब दाम अब नही मिलता। दूसरी हरित क्रांति अभी शुरू भी नहीं हुई, पर किसान पहली हरित क्रांति का ही खामियाजा भुगत रहे हैं। देसी कृषि पद्धति कबकी खारिज हो गयी और विकल्प खेती सही मायने में मौत की अंधी गली बन गयी है। बीज, पानी, बिजली, खाद और मजदूरी सबकुछ किसानों की औकात से ऊपर की चीजें हो गयी हैं। पहले साहूकार और बिचौलिये से परेशान थे। अब न्यूनतम मूल्य और सरकारी संस्तान, मिलों, शीतगृहों और मंडियों के बावजूद किसान की किस्मत आयात निर्यात के खेल में दांव पर लगी होती है, जिस पर हर हाल में किसानों के बजाय दूसरे लोगों को ही फायदा होता है और हर हाल में किसानों को घाटा उठाना पड़ता है, उत्पादक और उपभोक्ता दोनों की हैसियत से क्योंकि खुले बाजार में बच निकलने के लिए जरूरी क्रयशक्ति उसके पास हो नहीं सकती। अव उद्योग जगत, अर्थ शास्त्री, कृषि विशेषज्ञ और राजनेता किसानों को मल्टी ब्रांड रीटेल एफडीआई और ठेके की खेती के जरिये मोक्ष दिलवाने की मुहिम में जुट गये हैं। किसानों का गोदान कभी मौत से पहले पूरा नहीं होता इसतरह।
बहरहाल राजनैतिक तौर पर किसान जाति जाटों के आरक्षण आंदोलन के मध्य कृषि मंत्री शरद पवार को विश्वास में लिए बगैर केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय की ओर से कपास निर्यात पर लगी रोक का मामला बुधवार को और गंभीर हो गया। प्रधानमंत्री ने मामले की तुरंत समीक्षा करने का निर्देश दिया। वैसे, मंत्री समूह की बैठक पहले ही 9 मार्च को बुला ली गई।शुक्रवार को मंत्री समूह [जीओएम] की यह बहुप्रतीक्षित बैठक बेनतीजा रही। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा को वियतनाम के दौरे पर ही कहना पड़ा कि वह लौटते ही कृषि मंत्री पवार से मुलाकात करेंगे। उन्होंने कहा कि इस बारे में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को पूरी जानकारी दे दी गई थी। अगर सरकारी नीति निर्धारन पद्धति की बात करें तो यह मामला टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले से कम गंभीर नहीं है। आखिर वाणिज्य मंत्रालय ने किसके हित साधने के लिए कृषि मंत्रालय को बाईपास करके ऐसा निर्णय ले लिया!
देश के पांच राज्यों में रिण सहित विभिन्न कारणों से किसानों की आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल और पंजाब में पिछले तीन सालों के दौरान किसानों की आत्महत्या की घटनाएं घटीं। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वर्ष 2008-2009 और 2010 में क्रमश: 469, 296 और 152 किसानों ने आत्महत्या की।
पवार ने बताया कि कर्नाटक में इसी अवधि में क्रमश: 182, 136 और 138 किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र में इस दौरान 735, 550 और 454 किसानों ने आत्महत्या की। उन्होंने कहा कि पंजाब में इस दौरान 12-15 और चार किसानों ने आत्महत्या की। केरल में 2008 में 11 किसानों ने आत्महत्या की।
कृषि मंत्री ने कहा कि राज्य सरकारों द्वारा दी गयी सूचना के अनुसार किसानों की आत्महत्याओं के पीछे विविध कारण हैं। इनमें फसल नहीं होना, सूखा, सामाजिक, आर्थिक और वैयक्तिक कारण शामिल हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार ने किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को रोकने के लिए कई प्रयास किए हैं।
कृषि संबंधी विपदा की समस्या का समाधान करने के लिए आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र में 31 जिलों को शामिल करते हुए 2006 में तीन वर्षो के लिए पुनर्वास पैकेज की घोषणा की गयी। 30 जून 2011 तक इस पैकेज के अधीन 19910.70 करोड रूपये की धनराशि जारी की गयी है। पैकेज के गैर रिण घटकों के कार्यन्वयन की अवधि 30 सितम्बर 2011 तक बढा दी गयी है।
* किसानों की आत्महत्या की घटनाएं महाराष्ट्र,कर्नाटक,केरल,आंध्रप्रदेश,पंजाब और मध्यप्रदेश(इसमें छत्तीसगढ़ शामिल है) में हुईं।
* साल १९९७ से लेकर २००६ तक यानी १० साल की अवधि में भारत में १६६३०४ किसानों ने आत्महत्या की। यदि हम अवधि को बढ़ाकर १२ साल का करते हैं यानी साल १९९५ से २००६ के बीच की अवधि का आकलन करते हैं तो पता चलेगा कि इस अवधि में लगभग २ लाख किसानों ने आत्महत्या की।
* आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से पिछले एक दशक में औसतन सोलह हजार किसानों ने हर साल आत्महत्या की। आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी जाहिर होगा कि देश में आत्महत्या करने वाला हर सांतवां व्यक्ति किसान था।
* साल १९९८ में किसानों की आत्महत्या की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी हुई। साल १९९७ के मुकाबले साल १९९८ में किसानों की आत्महत्या में १४ फीसदी का इजाफा हुआ और अगले तीन सालों यानी साल २००१ तक हर साल लगभग सोलह हजार किसानों ने आत्महत्या की।
* साल २००२ से २००६ के बीच यानी कुल पांच साल की अवधि पर नजर रखें तो पता चलेगा कि हर साल औसतन १७५१३ किसानों ने आत्महत्या की और यह संख्या साल २००२ से पहले के पांच सालों में हुई किसान-आत्महत्या के सालाना औसत(१५७४७) से बहुत ज्यादा है। साल १९९७ से २००६ के बीच किसानों की आत्महत्या की दर (इसकी गणना प्रति एक लाख व्यक्ति में घटित आत्महत्या की संख्या को आधार मानकर होती है) में सालाना ढाई फीसद की चक्रवृद्धि बढ़ोत्तरी हुई।
* अमूमन देखने में आता है कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है और यही बात किसानों की आत्महत्या के मामले में भी लक्ष्य की जा सकती है लेकिन तब भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में पुरुषों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा थी।देश में कुल आत्महत्या में पुरुषों की आत्महत्या का औसत ६२ फीसदी है जबकि किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में पुरुषों की तादाद इससे ज्यादा रही।
* साल २००१ में देश में किसानों की आत्महत्या की दर १२.९ फीसदी थी और यह संख्या सामान्य तौर पर होने वाली आत्महत्या की घटनाओं से बीस फीसदी ज्यादा है।साल २००१ में आम आत्महत्याओं की दर (प्रति लाख व्यक्ति में आत्महत्या की घटना की संख्या) १०.६ फीसदी थी। आशंका के अनुरुप पुरुष किसानों के बीच आत्महत्या की दर (१६.२ फीसदी) महिला किसानों (६.२ फीसदी) की तुलना में लगभग ढाई गुना ज्यादा थी।
* साल २००१ में किसानों की आत्महत्या की सकल दर १५.८ रही।यह संख्या साल २००१ में आम आबादी में हुई आत्महत्या की दर से ५० फीसदी ज्यादा है।पुरुष किसानों के लिए यह दर १७.७ फीसदी रही यानी महिला किसानों की तुलना में ७५ फीसदी ज्यादा।
महाराष्ट्र कपास के उत्पादक क्षेत्रों में प्रमुख है। यहाँ कुल क्षेत्र का 31 प्रतिशत पाया जाता है, जबकि कुल उत्पादन का 21.7 प्रतिशत होता है, अर्थात उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का देश में दूसरा स्थान है। यहाँ कपास जून से अगस्त तक बोयी जाती है और दिसम्बर-जनवरी तक चुन ली जाती है। यहाँ कपास का उत्पादन कई क्षेत्रों में किया जाता है- (1) अंकोला और अमरावती ज़िलों में ऊमरा और कम्बोडिया कपास बोयी जाती है। (2) यवतमाल ज़िले में पूसद, दरवाहा ताल्लुको में ऊमरा और कम्बोडिया कपास होती है। (3) बुलढाना ज़िले के मल्कपुर, महकार, खामगांव और जलगांव ताल्लुकों में ऊमरा और कम्बोडिया कपास पैदा की जाती है। इन सब ज़िलों में कपास वर्षा के सहारे पैदा की जाती है। (4) नागपुर, वर्धा, चन्द्रपुर और छिन्दवाड़ा ज़िलों में कम्बोडिया कपास वर्षा के सहारे ही पैदा की जाती है। (5) सांगली, बीजापुर, नासिक, अहमदनगर, गोलापुर, पुणे तथा प्रभानी अन्य उत्पादक ज़िलें हैं, यहाँ ऊमरा और खानदेशी कपास होती है। इस राज्य में 43 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
मध्य प्रदेश में जून में बुवाई की जाती है और नवम्बर से फ़रवरी तक चुनाई की जाती है। यहाँ मालावाड़ के पठार एवं नर्मदा और तापी की घाटियों में काली और कछारी मिट्टियों में इसका उत्पादन किया जाता है। पश्चिम नीमाड़, इन्दौर, रायपुर, धार, देवास, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर ज़िलों में ऊमरा, जरीला, बिरनार, मालवी और इन्दौरी कपास बोयी जाती है। मध्य प्रदेश में प्रतिवर्ष लगभग 12 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
राजस्थान में गंग नहर क्षेत्र में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ ज़िलें में पंजाब-देशी और पंजाब-अमरीकन; झालावाड़, कोटा, टोंक, बूंदी ज़िलों में मालवी कपास तथा भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, चित्तौड़ और् अजमेर ज़िलों में राजस्थान देशी और अमरीकन कपास बोयी जाती हैं। इस राज्य में 6 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
पंजाब में कपास की बुवाई मार्च से अगस्त तक और चुनाई जनवरी तक की जाती है। अधिकतर उत्पादन सिंचाई के सहारे किया जाता है। प्रमुख उत्पादक ज़िले पंजाब में अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला, संगरूर और भटिंडा हैं। इनमें अधिकतर पंजाब-अमरीकन कपास पैदा की जाती है, यहाँ पर वर्तमान में 24 लाख गांठ का उत्पादन होता है।
हरियाणा में भी पंजाब के समान सिंचाई के सहारे ही कपास उत्पन्न की जाती है। गुड़गांव, करनाल, हिसार, जिन्द, अम्बाला और रोहतक प्रमुख कपास उत्पादक ज़िलें हैं। यहाँ पंजाब अमेरीकन और पंजाब-देशी कपास बोयी जाती है। इस राज्य में 8 से 10 लाख गांठ का प्रतिवर्ष उत्पादन होता है।
उत्तर प्रदेश में कपास मुख्य रूप से गंगा और यमुना के दोआब तथा रुहेलखण्ड और बुन्देलखण्ड संभागों में सिंचाई के सहारे छोटे रेशे वाली पैदा की जाती है। लम्बे रेशे वाली कपास का उत्पादन भी अब किया जाने लगा है। मेरठ, बिजनौर, मुजफ़्फ़रनगर, एटा, सहारनपुर, बुलन्दशहर, अलीगढ़, आगरा, इटावा, कानपुर, रामपुर, बरेली, मथुरा, मैनपुरी और फ़र्रुख़ाबाद प्रमुख उत्पादक ज़िले हैं। यहाँ देशी और पंजाब-अमेरिकन कपास पैदा की जाती है।
तमिलनाडु में कपास दोनों ही मानसून कालों में किसी-न-किसी क्षेत्र में बोयी जाती है। यहाँ अधिकतर कम्बोडिया, यूगेंडा, मद्रास-यूगेंडा, सुजाता, सलेम, तिरुचिरापल्ली, लक्ष्मी, कारूंगानी क़िस्म की कपास पैदा की जाती है। यह सारा उत्पादन काली मिट्टी के क्षेत्रों में किया जाता है। कपास उत्पादक प्रमुख ज़िले कोयम्बटूर, सलेम, रामनाथपुरम, मदुरै, तिरुचिरापल्ली, चिंगलपुट, तिरुनलवैली व तंजावूर हैं।
आन्ध्र प्रदेश में कपास का उत्पादन गुण्टूर, कडप्पा, कुर्नूल, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, महबूबनगर, आदिलाबाद और अनन्तपुर ज़िलों में किया जाता है। यहाँ मुख्यतः मुगारी, चिरनार, कम्पटा, काकीनाडा, सभानी-अमरीकन, लक्ष्मी, समुद्री क़िस्म बोयी जाती है। भारत में आन्ध्र प्रदेश तीसरा कपास उत्पादक राज्य है। कपास के कुल उत्पादन का 13.49 प्रतिशत आन्ध्र प्रदेश में उत्पादित होता है।
कर्नाटक में कुल क्षेत्रफल का 12 प्रतिशत और उत्पादन का 5.3 प्रतिशत प्राप्त होता है। यहाँ दो प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। प्रथम क्षेत्र काली मिट्टी का है, जिसे 'सलाहट्टी क्षेत्र' कहते हैं। इसके अन्तर्गत वेल्लारी, हसन, शिवामोग्गा, चिकमंगलुरु, रायचूर, गुलबर्गी, धारवाड़, बीजापुर और चित्रदुर्ग ज़िलों में वर्षा के सहारे अधिकतर देशी कपास पैदा की जाती है। दूसरा क्षेत्र लाल मिट्टी का है, जिसे 'दोड़ाहट्टी' कहते हैं। इसमें वर्षा और सिंचाई दोनों के सहारे पंजाब अमरीकन कपास बोयी जाती है।
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कपास नियंत्रण पर प्रतिबंध की समीक्षा का निर्देश दे चुके हैं। पर वाजिब दाम न मिलने से कपास उत्पादकों में रोष बड़ता जा रहा है। कपास की खेती महाराष्ट्र गुजरात, कर्नाटक और कई दूसरे राज्यों में में आत्महत्या का पर्याय बन चुकी है।खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। खाद. बिजली और पानी, मजदूरी की बढ़ती दरों से निपटने के लिए किसान कर्ज लेने को मजबीर होते हैं। तो फसल बेहतर होने के बावजूद घरेलू बाजार में उसे लागत खर्च निकालने लायक दाम भी नसीब नहीं होता। ज्यादातर इलाकों में छोटे किसानों को स्थानीय साहूकार से कर्ज लेने की भारी कीमत मौत को गले लगाकर अदा करनी होती है। सरकार इस हकीकत को नजरअंदाज कर रही है।हालत यह है कि इस सिलसिले में और कोई नहीं, देश के कृषि मंत्री महाराष्ट्र के मराठा मानुष शरद पवार की भी सुनवाई नहीं हो रही है। कृषि मंत्री शरद पवार के मुताबिक इस साल कपास का उत्पादन ज्यादा हुआ है, ऐसे में कपास के निर्यात पर रोक लगाने से किसानों को सही दाम नहीं मिल पाएगा। प्रतिबंध के फैसले की समीक्षा करने के लिए शुक्रवार को मंत्री समूह [जीओएम] की बैठक बेनतीजा रही।हालांकि सरकारी तरफ से दिल को तसल्ली वास्ते कहा यही जा रहा है कि कपास निर्यात पर लगी रोक को हटना ही है।
भारत में १० लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती की जाती है।कपास भारत की आदि फ़सल है, जिसकी खेती बहुत ही बड़ी मात्रा में की जाती है। यहाँ आर्यावर्त में ऋग्वैदिक काल से ही इसकी खेती की जाती रही है। भारत में इसका इतिहास काफ़ी पुराना है। हड़प्पा निवासी कपास के उत्पादन में संसार भर में प्रथम माने जाते थे। कपास उनके प्रमुख उत्पादनों में से एक था। भारत से ही 327 ई.पू. के लगभग यूनान में इस पौधे का प्रचार हुआ। यह भी उल्लेखनीय है कि भारत से ही यह पौधा चीन और विश्व के अन्य देशों को ले जाया गया। कपास सदियों से भारतीय किसानों की एक पसंदीदा फसल रह चुकी है। यह अच्छी और पर्याप्त आय अर्जित कर सकती है। कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण रेशेदार फसल होने के साथ-साथ देश की कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कपड़ा उद्योग के लिए कपास रीढ़ की हड्डी के समान है। कपड़ा उद्योग में 70 प्रतिशत रेशे कपास के ही इस्तेमाल होते है और भारत से विदेशों को होने वाले कुल निर्यात में लगभग 38 प्रतिशत निर्यात कपास का होता है, जिससे देश को 42 हजार करोड़ रुपये मिलते है।सबसे अच्छे कपास के रेशे की लम्बाई 5 सेंटीमीटर से भी अधिक होती है| इस तरह के कपास की किस्म सयुंक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी पूर्वी तट तथा वेस्टइंडीज में उगाई जाती है|यह दुनिया के करीब 60 देशों में उगायी जाती है। दस देश- अमरीका, पूर्व सोवियत संघ, चीन, भारत, ब्राजील, पाकिस्तान, तुर्की, मैक्सिको, मिस्र और सूडान दुनिया के कुल उत्पादन की करीब 85 प्रतिशत कपास पैदा करते हैं। इसका कुदरती रेशा वस्त्र उद्योग के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण कच्ची सामग्री है।भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां हाइब्रिड और कपास की सभी चार प्रजातियों- जी. हिरसुतुम, जी आर्बोरियम, जी. हरबेसियम और जी बार्बाडेन्स की व्यावसायिक खेती होती है। यहां 45 प्रतिशत क्षेत्र में हाइब्रिड, 34 प्रतिशत में जी हिरसतुम, 15 प्रतिशत में जी आर्बोरियम और 6 प्रतिशत क्षेत्र में जी हरबेसियम की खेती होती है जो बार्बाडेंस का रकबा नगण्य है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं। कपास पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अलीगढ़, आगरा, मथुरा, गाजियाबाद और सहारनपुर में, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल के सुन्दरबन में भी उगायी जाती है। लगभग 65 प्रतिशत कपास का रकबा पूरी तरह वर्षा पर निर्भर है जबकि 35 प्रतिशत में सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।भारत में कपास दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के आरम्भ के साथ ही बोयी जाती है, जबकि सिंचाई पर आश्रित कपास एक-दो महीने पूर्व ही बोयी जाती है। देश में 49 प्रतिशत कपास सिंचित क्षेत्रों में पैदा की जाती है। आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र कर्नाटक राज्य के दक्षिणी भाग में कपास जून से अगस्त के अन्त तक बोयी जाती है और चुनाई जनवरी से अप्रैल तक की जाती है। तमिलनाडु में इसको बोना दोनों ही मानसूनों के अनुसार होता है। दक्षिणी प्रायद्वीप के बाहर यह मार्च से जुलाई तक बोयी जाती है और अक्टूबर से जनवरी तक इसकी चुनाई होती है। कपास भारत की सामान्यतः खरीफ की फ़सल है।
महंगाई वित्तीय और मौद्रिक नीतियों की वजह से बढ़ती है और राजकोषीय गाटे का दबाव बढ़ता है तो सारा बोझ बेरहमी से देश के बहुसंख्यक किसानों पर लाद दी जाती है।मालूम हो कि इससे पहले घरेलू बाजार में प्याज की बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए इसी ईजीओएम ने निर्यात पर पाबंदी लगाई थी। इसके बाद देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक क्षेत्र नाशिक के किसानों ने विरोध जताते हुए स्थानीय मंडी में दैनिक नीलामी बंद कर दी थी। यहां तक कि किसानों ने पिछले शुक्रवार को मंडी तक पहुंचे प्याज को भी नीलामी के लिए नहीं रखा। कृषि मंत्री शरद पवार ने नवंबर में ही कह दिया था कि सरकार को राज्यों को खाद्यान्न के आवंटन, भडारण सुविधाओ के साथ इसके निर्यात के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इस साल देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है। गौरतलब है कि बंगाल जैसे राज्य में भी धान की कीमत न मिलने से किसान खुदकशी कर रहे हैंष हालांकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुदकशी करनेवालों को किसान मानने से ही इंकार कर दिया।तो कैसे चल रही है इस देस में आयात निर्यात की बैसाखी पर कृषि विपणन व्यवस्था?सरकार चीनी निर्यात के फैसले पर अमल से ठिठक गई।पांच लाख टन चीनी निर्यात की घोषणा के चार महीने बाद भी सरकारी अधिसूचना जारी न होने से निर्यात संभव नहीं हो पाया।
टेक्सटाइल सचिव किरण ढींगरा ने शुक्रवार की बैठक के बाद कहा था कि निर्यात पर रोक के फैसले पर और अधिक चर्चा की जरूरत है और इस संबंध में जल्द ही बैठक बुलाई जाएगी। मामले पर चौतरफा विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद जीओएम की बैठक बुलाई गई थी। वाणिज्य मंत्रालय ने बीते सोमवार को कपास निर्यात पर रोक लगाने का फैसला कृषि मंत्रालय को विश्वास में लिए बगैर ही ले लिया था। इसके दायरे में पहले से जारी हो चुके पंजीकरण प्रमाण-पत्रों को भी शामिल कर लिया गया था। कृषि मंत्री शरद पवार समेत टेक्सटाइल उद्योग तथा मध्य प्रदेश और गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने इस फैसले की तीखी आलोचना की है। पवार का आरोप है कि इस बारे में उन्हें भी अंधेरे में रखा गया।वाणिज्य मंत्रालय अपने फैसले का बचाव करते हुए कह चुका है कि कपास निर्यात की छूट देते समय सरकार का अनुमान था कि कुल 84 लाख गांठ कपास का निर्यात हो जाएगा। लेकिन फरवरी के पहले सप्ताह तक कुल 1.20 करोड़ गांठ कपास निर्यात का रजिस्ट्रेशन कराया जा चुका है। इसके मुकाबले 94 लाख गांठ कपास का निर्यात हो चुका है। इसी के चलते यह फैसला लिया गया।
गौरतलब है कि कपास निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का चौतरफा विरोध के चलते सरकार पर कपास निर्यात पर लगी रोक हटाने का दबाव बन गया। पवार ने इस मामले में वाणिज्य मंत्रालय को चिट्ठी भी लिखी है। उन्होंने कहा है कि वाणिज्य मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय को सूचित किए बिना कपास के निर्यात पर रोक लगाई है।इससे भी काम नहीं हुआ तो उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की गुहार लगायी। वहीं इससे पहले सोमवार को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कपास के निर्यात पर रोक हटाने के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी।डीजीएफटी ने देश में कपास की मांग पूरी करने के लिए इसके निर्यात पर रोक लगाई है। जिसके बाद पहले से पंजीकृत कपास का भी निर्यात नहीं हो पाएगा। लेकिन निर्यात पर रोक की खबर आते ही इसके विरोध में आवाज उठने लगी।
कॉटन जिनर्स ने निर्यात पर लगी रोक के खिलाफ दो दिन के बंद का ऐलान किया है। इस बंद के दौरान 2 दिन तक कॉटन जिनर्स अपनी फैक्ट्रियां बंद रखेंगे।उन्होंने फैसला किया है कि वे नौ मार्च को मंत्री समूह की प्रस्तावित बैठक में समीक्षा के बाद ही अगला कदम उठाएंगी। समूचे सौराष्ट्र में आंदोलन शुरू हो गया है।
कपास उत्पादक ही क्यों, गन्ना, आलू, प्याज और धान किसी बी फसल का खुले बाजार में वाजिब दाम अब नही मिलता। दूसरी हरित क्रांति अभी शुरू भी नहीं हुई, पर किसान पहली हरित क्रांति का ही खामियाजा भुगत रहे हैं। देसी कृषि पद्धति कबकी खारिज हो गयी और विकल्प खेती सही मायने में मौत की अंधी गली बन गयी है। बीज, पानी, बिजली, खाद और मजदूरी सबकुछ किसानों की औकात से ऊपर की चीजें हो गयी हैं। पहले साहूकार और बिचौलिये से परेशान थे। अब न्यूनतम मूल्य और सरकारी संस्तान, मिलों, शीतगृहों और मंडियों के बावजूद किसान की किस्मत आयात निर्यात के खेल में दांव पर लगी होती है, जिस पर हर हाल में किसानों के बजाय दूसरे लोगों को ही फायदा होता है और हर हाल में किसानों को घाटा उठाना पड़ता है, उत्पादक और उपभोक्ता दोनों की हैसियत से क्योंकि खुले बाजार में बच निकलने के लिए जरूरी क्रयशक्ति उसके पास हो नहीं सकती। अव उद्योग जगत, अर्थ शास्त्री, कृषि विशेषज्ञ और राजनेता किसानों को मल्टी ब्रांड रीटेल एफडीआई और ठेके की खेती के जरिये मोक्ष दिलवाने की मुहिम में जुट गये हैं। किसानों का गोदान कभी मौत से पहले पूरा नहीं होता इसतरह।
बहरहाल राजनैतिक तौर पर किसान जाति जाटों के आरक्षण आंदोलन के मध्य कृषि मंत्री शरद पवार को विश्वास में लिए बगैर केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय की ओर से कपास निर्यात पर लगी रोक का मामला बुधवार को और गंभीर हो गया। प्रधानमंत्री ने मामले की तुरंत समीक्षा करने का निर्देश दिया। वैसे, मंत्री समूह की बैठक पहले ही 9 मार्च को बुला ली गई।शुक्रवार को मंत्री समूह [जीओएम] की यह बहुप्रतीक्षित बैठक बेनतीजा रही। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा को वियतनाम के दौरे पर ही कहना पड़ा कि वह लौटते ही कृषि मंत्री पवार से मुलाकात करेंगे। उन्होंने कहा कि इस बारे में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को पूरी जानकारी दे दी गई थी। अगर सरकारी नीति निर्धारन पद्धति की बात करें तो यह मामला टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले से कम गंभीर नहीं है। आखिर वाणिज्य मंत्रालय ने किसके हित साधने के लिए कृषि मंत्रालय को बाईपास करके ऐसा निर्णय ले लिया!
देश के पांच राज्यों में रिण सहित विभिन्न कारणों से किसानों की आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल और पंजाब में पिछले तीन सालों के दौरान किसानों की आत्महत्या की घटनाएं घटीं। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वर्ष 2008-2009 और 2010 में क्रमश: 469, 296 और 152 किसानों ने आत्महत्या की।
पवार ने बताया कि कर्नाटक में इसी अवधि में क्रमश: 182, 136 और 138 किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र में इस दौरान 735, 550 और 454 किसानों ने आत्महत्या की। उन्होंने कहा कि पंजाब में इस दौरान 12-15 और चार किसानों ने आत्महत्या की। केरल में 2008 में 11 किसानों ने आत्महत्या की।
कृषि मंत्री ने कहा कि राज्य सरकारों द्वारा दी गयी सूचना के अनुसार किसानों की आत्महत्याओं के पीछे विविध कारण हैं। इनमें फसल नहीं होना, सूखा, सामाजिक, आर्थिक और वैयक्तिक कारण शामिल हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार ने किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को रोकने के लिए कई प्रयास किए हैं।
कृषि संबंधी विपदा की समस्या का समाधान करने के लिए आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र में 31 जिलों को शामिल करते हुए 2006 में तीन वर्षो के लिए पुनर्वास पैकेज की घोषणा की गयी। 30 जून 2011 तक इस पैकेज के अधीन 19910.70 करोड रूपये की धनराशि जारी की गयी है। पैकेज के गैर रिण घटकों के कार्यन्वयन की अवधि 30 सितम्बर 2011 तक बढा दी गयी है।
* किसानों की आत्महत्या की घटनाएं महाराष्ट्र,कर्नाटक,केरल,आंध्रप्रदेश,पंजाब और मध्यप्रदेश(इसमें छत्तीसगढ़ शामिल है) में हुईं।
* साल १९९७ से लेकर २००६ तक यानी १० साल की अवधि में भारत में १६६३०४ किसानों ने आत्महत्या की। यदि हम अवधि को बढ़ाकर १२ साल का करते हैं यानी साल १९९५ से २००६ के बीच की अवधि का आकलन करते हैं तो पता चलेगा कि इस अवधि में लगभग २ लाख किसानों ने आत्महत्या की।
* आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से पिछले एक दशक में औसतन सोलह हजार किसानों ने हर साल आत्महत्या की। आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी जाहिर होगा कि देश में आत्महत्या करने वाला हर सांतवां व्यक्ति किसान था।
* साल १९९८ में किसानों की आत्महत्या की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी हुई। साल १९९७ के मुकाबले साल १९९८ में किसानों की आत्महत्या में १४ फीसदी का इजाफा हुआ और अगले तीन सालों यानी साल २००१ तक हर साल लगभग सोलह हजार किसानों ने आत्महत्या की।
* साल २००२ से २००६ के बीच यानी कुल पांच साल की अवधि पर नजर रखें तो पता चलेगा कि हर साल औसतन १७५१३ किसानों ने आत्महत्या की और यह संख्या साल २००२ से पहले के पांच सालों में हुई किसान-आत्महत्या के सालाना औसत(१५७४७) से बहुत ज्यादा है। साल १९९७ से २००६ के बीच किसानों की आत्महत्या की दर (इसकी गणना प्रति एक लाख व्यक्ति में घटित आत्महत्या की संख्या को आधार मानकर होती है) में सालाना ढाई फीसद की चक्रवृद्धि बढ़ोत्तरी हुई।
* अमूमन देखने में आता है कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है और यही बात किसानों की आत्महत्या के मामले में भी लक्ष्य की जा सकती है लेकिन तब भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में पुरुषों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा थी।देश में कुल आत्महत्या में पुरुषों की आत्महत्या का औसत ६२ फीसदी है जबकि किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में पुरुषों की तादाद इससे ज्यादा रही।
* साल २००१ में देश में किसानों की आत्महत्या की दर १२.९ फीसदी थी और यह संख्या सामान्य तौर पर होने वाली आत्महत्या की घटनाओं से बीस फीसदी ज्यादा है।साल २००१ में आम आत्महत्याओं की दर (प्रति लाख व्यक्ति में आत्महत्या की घटना की संख्या) १०.६ फीसदी थी। आशंका के अनुरुप पुरुष किसानों के बीच आत्महत्या की दर (१६.२ फीसदी) महिला किसानों (६.२ फीसदी) की तुलना में लगभग ढाई गुना ज्यादा थी।
* साल २००१ में किसानों की आत्महत्या की सकल दर १५.८ रही।यह संख्या साल २००१ में आम आबादी में हुई आत्महत्या की दर से ५० फीसदी ज्यादा है।पुरुष किसानों के लिए यह दर १७.७ फीसदी रही यानी महिला किसानों की तुलना में ७५ फीसदी ज्यादा।
महाराष्ट्र कपास के उत्पादक क्षेत्रों में प्रमुख है। यहाँ कुल क्षेत्र का 31 प्रतिशत पाया जाता है, जबकि कुल उत्पादन का 21.7 प्रतिशत होता है, अर्थात उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का देश में दूसरा स्थान है। यहाँ कपास जून से अगस्त तक बोयी जाती है और दिसम्बर-जनवरी तक चुन ली जाती है। यहाँ कपास का उत्पादन कई क्षेत्रों में किया जाता है- (1) अंकोला और अमरावती ज़िलों में ऊमरा और कम्बोडिया कपास बोयी जाती है। (2) यवतमाल ज़िले में पूसद, दरवाहा ताल्लुको में ऊमरा और कम्बोडिया कपास होती है। (3) बुलढाना ज़िले के मल्कपुर, महकार, खामगांव और जलगांव ताल्लुकों में ऊमरा और कम्बोडिया कपास पैदा की जाती है। इन सब ज़िलों में कपास वर्षा के सहारे पैदा की जाती है। (4) नागपुर, वर्धा, चन्द्रपुर और छिन्दवाड़ा ज़िलों में कम्बोडिया कपास वर्षा के सहारे ही पैदा की जाती है। (5) सांगली, बीजापुर, नासिक, अहमदनगर, गोलापुर, पुणे तथा प्रभानी अन्य उत्पादक ज़िलें हैं, यहाँ ऊमरा और खानदेशी कपास होती है। इस राज्य में 43 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
मध्य प्रदेश में जून में बुवाई की जाती है और नवम्बर से फ़रवरी तक चुनाई की जाती है। यहाँ मालावाड़ के पठार एवं नर्मदा और तापी की घाटियों में काली और कछारी मिट्टियों में इसका उत्पादन किया जाता है। पश्चिम नीमाड़, इन्दौर, रायपुर, धार, देवास, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर ज़िलों में ऊमरा, जरीला, बिरनार, मालवी और इन्दौरी कपास बोयी जाती है। मध्य प्रदेश में प्रतिवर्ष लगभग 12 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
राजस्थान में गंग नहर क्षेत्र में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ ज़िलें में पंजाब-देशी और पंजाब-अमरीकन; झालावाड़, कोटा, टोंक, बूंदी ज़िलों में मालवी कपास तथा भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, चित्तौड़ और् अजमेर ज़िलों में राजस्थान देशी और अमरीकन कपास बोयी जाती हैं। इस राज्य में 6 लाख गांठ कपास का उत्पादन होता है।
पंजाब में कपास की बुवाई मार्च से अगस्त तक और चुनाई जनवरी तक की जाती है। अधिकतर उत्पादन सिंचाई के सहारे किया जाता है। प्रमुख उत्पादक ज़िले पंजाब में अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला, संगरूर और भटिंडा हैं। इनमें अधिकतर पंजाब-अमरीकन कपास पैदा की जाती है, यहाँ पर वर्तमान में 24 लाख गांठ का उत्पादन होता है।
हरियाणा में भी पंजाब के समान सिंचाई के सहारे ही कपास उत्पन्न की जाती है। गुड़गांव, करनाल, हिसार, जिन्द, अम्बाला और रोहतक प्रमुख कपास उत्पादक ज़िलें हैं। यहाँ पंजाब अमेरीकन और पंजाब-देशी कपास बोयी जाती है। इस राज्य में 8 से 10 लाख गांठ का प्रतिवर्ष उत्पादन होता है।
उत्तर प्रदेश में कपास मुख्य रूप से गंगा और यमुना के दोआब तथा रुहेलखण्ड और बुन्देलखण्ड संभागों में सिंचाई के सहारे छोटे रेशे वाली पैदा की जाती है। लम्बे रेशे वाली कपास का उत्पादन भी अब किया जाने लगा है। मेरठ, बिजनौर, मुजफ़्फ़रनगर, एटा, सहारनपुर, बुलन्दशहर, अलीगढ़, आगरा, इटावा, कानपुर, रामपुर, बरेली, मथुरा, मैनपुरी और फ़र्रुख़ाबाद प्रमुख उत्पादक ज़िले हैं। यहाँ देशी और पंजाब-अमेरिकन कपास पैदा की जाती है।
तमिलनाडु में कपास दोनों ही मानसून कालों में किसी-न-किसी क्षेत्र में बोयी जाती है। यहाँ अधिकतर कम्बोडिया, यूगेंडा, मद्रास-यूगेंडा, सुजाता, सलेम, तिरुचिरापल्ली, लक्ष्मी, कारूंगानी क़िस्म की कपास पैदा की जाती है। यह सारा उत्पादन काली मिट्टी के क्षेत्रों में किया जाता है। कपास उत्पादक प्रमुख ज़िले कोयम्बटूर, सलेम, रामनाथपुरम, मदुरै, तिरुचिरापल्ली, चिंगलपुट, तिरुनलवैली व तंजावूर हैं।
आन्ध्र प्रदेश में कपास का उत्पादन गुण्टूर, कडप्पा, कुर्नूल, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, महबूबनगर, आदिलाबाद और अनन्तपुर ज़िलों में किया जाता है। यहाँ मुख्यतः मुगारी, चिरनार, कम्पटा, काकीनाडा, सभानी-अमरीकन, लक्ष्मी, समुद्री क़िस्म बोयी जाती है। भारत में आन्ध्र प्रदेश तीसरा कपास उत्पादक राज्य है। कपास के कुल उत्पादन का 13.49 प्रतिशत आन्ध्र प्रदेश में उत्पादित होता है।
कर्नाटक में कुल क्षेत्रफल का 12 प्रतिशत और उत्पादन का 5.3 प्रतिशत प्राप्त होता है। यहाँ दो प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। प्रथम क्षेत्र काली मिट्टी का है, जिसे 'सलाहट्टी क्षेत्र' कहते हैं। इसके अन्तर्गत वेल्लारी, हसन, शिवामोग्गा, चिकमंगलुरु, रायचूर, गुलबर्गी, धारवाड़, बीजापुर और चित्रदुर्ग ज़िलों में वर्षा के सहारे अधिकतर देशी कपास पैदा की जाती है। दूसरा क्षेत्र लाल मिट्टी का है, जिसे 'दोड़ाहट्टी' कहते हैं। इसमें वर्षा और सिंचाई दोनों के सहारे पंजाब अमरीकन कपास बोयी जाती है।
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