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Sunday 4 March 2012

देहरादून का कलिंगा स्मारक लेखक : कालिका प्रसाद काला


देहरादून का कलिंगा स्मारक

लेखक : कालिका प्रसाद काला :: अंक: 11 || 15 जनवरी से 31 जनवरी 2011:: वर्ष :: 34 : January 28, 2011  पर प्रकाशित

के. पी. काला 'मानस' एवं पुष्पा मानस
kalinga-war-memorial-dehradunआपने देहरादून की सहस्त्रधारा रोड पर स्थित कलिंगा स्मारक जरूर देखा होगा। ये वो 'कलिंगा' यानी उड़ीसा नहीं, जिसे सम्राट अशोक ने लगभग 260 या 265 वर्ष ईसा पूर्व जीता था। इस स्मारक का सम्बन्ध गोरखा सेनानायक बलभद्र सिंह खलिंगा थापा से है, जिसने सन् 1802-03 से 1815 के बीच कलिंगा स्मारक के ठीक पीछे दूर ऊपर पहाड़ी पर एक किला बनाया था जिसे खलिंगा फोर्ट कहा जाता था…..
उत्तराखंड में आठवीं शती तक कत्यूरी वंश का शासन रहा। उसके बाद यह कुमाऊँ और गढ़वाल में विभाजित हुआ। 1770-80 के बीच नेपाल ने पहले पूरब में सिक्किम का पश्चिमी हिस्सा और फिर आज के बिहार और उत्तर प्रदेश प्रान्तों का सारा का फुट-हिल्स का इलाका भी हड़पा। सन् 1790 में उसने कुमाऊँ पर अधिकार जमाया। व्यापार के एकछत्र अधिकार के लिये उसने तिब्बत पर भी आक्रमण किया। किन्तु चीन ने बीच में कूद 1792-93 में नेपाल को करारी मात दी। उसे चीन को युद्ध का हर्जाना भी देना पड़ा। सन् 1802-03 में नेपाल ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। गढ़वाल का राजा प्रद्युमन शाह बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। कुछ समय बाद गढ़वाल के राजा ने एक फौज बना कर नेपाली सेना से मोर्चा लेने का साहस किया। लेकिन नेपाल की सेना ने प्रद्युमन शाह को जनवरी 1804 में देहरादून के आज के खुड़बुड़ा मोहल्ले में मार गिराया। उस समय नेपाल का मुख्य सेनापति अमरसिंह थापा था। उसने देहरादून के विजित इलाके का शासन अपने भतीजे बलभद्र सिंह खलिंगा थापा को सौंपा। कांगड़ा, नहान, सिरमौर और शिमला तक के इलाके को अमरसिंह थापा ने जीत लिया। हालाँकि पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने थापा के अभियान ने रोक लगा दी, फिर भी नेपाल ने पूरब में तिस्ता नदी से लेकर पश्चिम में सतलुज तक का इलाका अपने आधिपत्य में ले लिया। शिमला के 'रिज' में लगे शिलालेख में इन घटनाओं का जिक्र है।
कुमाऊँ में 25 वर्ष (1790 से 1815) और गढ़वाल में 13 वर्ष (1802-03 से 1815 ) गोरखाओं का शासन रहा, जो लूट-पाट, नये-नये कर लगाना और न चुका पाने पर जमीन छीन लेना, मनुष्यों को जानवरों की तरह मारना-पीटना, गुलाम बना कर बेचना, खुकरी से काट डालना, गाँव जला देना जैसे अभूतपूर्व अत्याचारों के कारण 'गोरख्याणी' के नाम से कुख्यात है। एटकिन्सन के अनुसार 'गोरख्याणी' के दौरान लगभग अस्सी हजार और बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार दो लाख लोगों को हरि की पैड़ी, धारचूला, काठमांडू आदि स्थानों पर मण्डियाँ लगाकर 10 रु. से लेकर 150 रु. तक की कीमत पर गुलामों के तौर पर बेचा गया। डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारण' ने इस विषय पर विस्तार से लिखा है। भारत में तब ईस्ट ईण्डिया कम्पनी का शासन था। वर्तमान बिहार और उ. प्र. की नेपाल से लगी सीमा पर कम्पनी और नेपाल की फौजों में आए दिन झड़पें होने लगीं। इतिहासकार अतुल सकलानी के अनुसार कम्पनी सरकार स्वयं भी गढ़वाल तथा कुमाऊँ के इलाके को हड़पना चाहती थी। उसने रदरफोर्ड, कैप्टैन रेपर, मूरक्राफ्ट आदि के द्वारा इन इलाकों का विस्तृत सर्वेक्षण और आकलन करवा लिया था। इन एजेन्टों ने अपनी रिपोर्टों में इस इलाके को कम्पनी की आर्थिक उन्नति के लिये बहुत अच्छा बताते हुए यह भी अनुशंसा की थी कि यहाँ से तिब्बत के साथ व्यापार की पूरी व्यवस्था भी कम्पनी को मिल सकती थी। वनों और खनिजों से भरपूर यह सारा इलाका कम्पनी की आर्थिक उन्नति के लिये उपयोगी आँका गया। हालाँकि यमुना और अलकनन्दा के बीच का इलाका (जो बाद में टिहरी रियासत बना) उतना लाभकारी नहीं माना गया।
1814 के शुरू में गोरखा सेना द्वारा अवध के 200 गाँवों पर नेपाल द्वारा कब्जा कर लेने के बाद 1 नवम्बर 1814 को गवर्नर जनरल लार्ड फ्रांसिस राउडन हेस्टिंग्स ने गोरखों के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया। कर्नल ऑक्टरलोनी ने धुर पश्चिम में शिमला के पास सतलुज और यमुना के बीच की ओर से एक डिवीजन आर्टिलरी के साथ अमर सिंह की फौज पर आक्रमण किया और जनरल गिलेस्पी ने दून पर कब्जा करने के लिये। जनरल जे. एस. वुड के नेतृत्व में गोरखपुर की ओर से 4,000 सैनिकों की फौज को मोर्चा लेना था चौथे फ्रंट पर जनरल मारले के नेतृत्व में 8,000 सैनिकों की फौज को बिहार से काठमांडू की ओर बढ़ना था। अल्मोड़ा में ब्रिटिश फौज का नेतृत्व कर्नल जैस्पर निकोल्स एवं एडविन गार्डनर कर रहे थे।
कुमाऊँ में 25 वर्ष (1790 से 1815) और गढ़वाल में 13 वर्ष (1802-03 से 1815 ) गोरखाओं का शासन रहा, जो लूट-पाट, नये-नये कर लगाना और न चुका पाने पर जमीन छीन लेना, मनुष्यों को जानवरों की तरह मारना-पीटना, गुलाम बना कर बेचना, खुकरी से काट डालना, गाँव जला देना जैसे अभूतपूर्व अत्याचारों के कारण 'गोरख्याणी' के नाम से कुख्यात है। एटकिन्सन के अनुसार 'गोरख्याणी' के दौरान लगभग अस्सी हजार और बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार दो लाख लोगों को हरि की पैड़ी, धारचूला, काठमांडू आदि स्थानों पर मण्डियाँ लगाकर 10 रु. से लेकर 150 रु. तक की कीमत पर गुलामों के तौर पर बेचा गया।
जनरल वुड के डिवीजन को नेपाली सेना ने इतना मारा कि वह विशाल सेना भाग खड़ी हुई। जनरल मारले इतने डरपोक साबित हुए कि वे काठमांडू की ओर बढ़े ही नहीं। अपनी सेना छोड़कर न जाने कहाँ भाग खड़े हुए। नालापानी (देहरादून) के खलिंगा किले में बलभद्र सिंह खलिंगा थापा ने केवल 4 सौ सैनिकों के साथ लड़ते हुए उसके सात-आठ सौ जवानों को मार डाला। चार में से तीन मोर्चों पर पराजय से एकबारगी गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स भी बिना शर्त यह युद्ध छोड़ने को तैयार हो गये थे। मगर अंग्रेज आसानी से हार मानने वाली कौम नहीं थी। उन्होंने बिना समय गँवाये नई योजना बनाई। कर्नल सीब्राइट मावबाइ ने नालापानी के खलिंगा किले की एक महीने तक जबरदस्त घेराबन्दी की। अन्ततः बलभद्र सिंह को रात के अन्धेरे में चुपचाप भाग जाना पड़ा। 31 नवम्बर 1814 को अंगे्रजी सेना ने सारे किले को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उधर कई दिनों के युद्ध के बाद ऑक्टरलोनी ने गोरखा सेना को बुरी तरह परास्त कर शिमला के मोर्चे पर विजय प्राप्त की। मलाऊँ के किले पर कब्जा जमाये नेपाली सेना का कमाण्डर भक्ति थापा मारा गया। अंगे्रजों ने अन्ततः 15 मई 1815 को सेनापति अमर सिंह थापा व उसके बेटे रणजोर सिंह को आत्मसमर्पण करने पर बाध्य किया। उन्हें सुरक्षित वापस नेपाल जाने की अनुमति दे दी गई। अल्मोड़ा में कर्नल जैस्पर निकोल्स एवं गार्डनर ने गोरखों की जबरदस्त घेराबन्दी कर उन्हें भी समझौता करने और काली नदी के दूसरी ओर जाने पर मजबूर कर दिया। इन दो महत्वपूर्ण जीतों से पाँसा पलट गया। गोरखों को शिमला, कांगड़ा, सिरमौर, देहरादून, श्रीनगर और गढ़वाल का सारा इलाका, अल्मोड़ा और कुमाऊं का पूरा इलाका छोड़ना पड़ा और यह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। गोरखों की वीरता और शौर्य से प्रभावित अंग्रेजों ने बाद में हिन्दुस्तानी सेना में भी एक गोरखा रेजीमेंट स्थापित की, जिसका एक हिस्सा आज भी ब्रिटेन में मौजूद है। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को सख्ती से कुचलने में यह रेजीमेंट कम्पनी सरकार के बहुत काम आयी।
इस प्रकार कुमाऊँ-गढ़वाल में युद्ध प्रत्यक्षतः समाप्त हुआ। युद्ध का व्यय, ब्रिटिश कुमाऊँ तथा नेपाल के बीच तथा टिहरी रियासत के साथ सीमाओं का निर्धारण जैसे मामलों को सुलझाने में ब्रिटिश कुमाऊँ के पहले कमिश्नर के रूप में एडविन गार्डनर का डेढ़ वर्षीय कार्यकाल लग गया। नेपाल की सुप्रीम गवर्नमेंट द्वारा मई 1815 में गार्डनर साहब को भेजे गये सन्धि के मसौदे पर गवर्नर जनरल ने विचार किया। 28 नवम्बर 1815 को एक संधि हुई, किन्तु इसे नेपाल की सुप्रीम गवर्नमेंट ने स्वीकार नहीं किया। फिर युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। जनरल ऑक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने बिहार की ओर से नेपाल पर धावा बोल कर उत्तर प्रदेश और बिहार प्रान्तों की उत्तरी सीमा में स्थित फुट हिल्स की सारी जमीन नेपाल के कब्जे से छुड़ा कर नेपाल की सीमा में काफी अन्दर तक घुसकर नेपाल के फुट हिल्स की काफी जमीन भी हथिया ली। नेपाल की सेना 28 फरवरी 1816 को मकवानपुर में बुरी तरह परास्त हुई।
Kaliga-fort-now-in-dehradunइस पराजय से आतंकित गोरखों ने न केवल सन्धि का मसौदा स्वीकार कर लिया, बल्कि नेपाल दरबार में एक अंग्रेजी रेजीडेंट स्थाई रूप से रखे जाने पर भी सहमति दे दी। अंततः 4 मार्च 1816 को वर्तमान बिहार प्रान्त में रक्सौल के पास, सुगौली नामक कस्बे में संधि के बाद युद्ध पर पूर्ण युद्ध विराम लग गया। संधि के तहत नेपाल को सिक्किम, कुमाऊं, गढ़वाल, नेपाल की दक्षिणी सीमा से जुड़ा बिहार और उ.प्र. का तराई का इलाका, छोड़ना पड़ा और ईस्ट इण्डिया कम्पनी को नेपाल की तराई के इलाके के एवज में दो लाख रु. प्रति वर्ष मुआवजा नेपाल को देना तय हुआ। बाद में कम्पनी ने नेपाल की तराई का सारा जीता हुआ इलाका नेपाल को वापस लौटा दिया और कम्पनी द्वारा मुआवजा देने की शर्त समाप्त कर दी गई। पूरब में माची नदी और पश्चिम में महाकाली नदी तक के भूभाग को नेपाल की स्थाई सीमा मान लिया गया। डॉ. आर. एस. टोलिया के अनुसार गवर्नर जनरल द्वारा कमिश्नर के फर्स्ट असिस्टेंट के रूप मे गढ़वाल तथा देहरादून का कार्यभार लेने भेजे गये डब्ल्यू. बी. फ्रेजर को टिहरी नरेश सुदर्शन शाह से बात कर सीमाओं के निर्धारण का कार्य करना था। सुदर्शन शाह चाहते थे कि पुरानी राजधानी श्रीनगर का इलाका उन्हें मिले, किन्तु कम्पनी नहीं मानी और अन्ततः देहरादून तथा रवाँई परगना छोड़कर यमुना और अलकनंदा के बीच का भूभाग ही टिहरी रियासत को मिला। कम्पनी सरकार को मिला अलकनंदा के पूर्वी तट का पूरा भाग ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में जाना जाने लगा।
डेविड ऑक्टरलोनी को 'नाइट ग्रैण्ड क़्रॉस ऑफ दि ऑडर ऑफ दि बाथ' से सम्मानित किया गया। उसे बाद में दिल्ली मुग़ल दरबार में रेजीडेंट बनाया गया। मुगलों से प्रभावित होकर उसने अपना नाम बदल 'नासिर – उद -दौला' रख लिया। वह मुगलों की तरह ही शानोशौकत से जिया भी। कम्पनी सरकार ने उसकी स्मृति में तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में ऑक्टरलोनी स्तम्भ बनाया, जो आज भी मौजूद है।
…..गोरखा सेनानायक बलभद्र सिंह खलिंगा थापा खलिंगा के किले से दून के सारे इलाके पर शासन चलाया करता था। शायद अंग्रेज 'ख' को शुद्ध नहीं पढ़ पाते, इसीलिए 'खलिंगा' शब्द अपभ्रंश होकर 'कलिंगा' हो गया। अंग्रेजों ने वह खलिंगा किला 1814 में ही नष्ट कर दिया था। देहरादून का यह कलिंगा स्मारक अंग्रेज-गोरखा युद्ध में मारे गये जरनल गिलेप्सी, लेफ्टि. गौसलिंग, लेफ्टि. ल्यूकफोर्ट, लेफ्टि. हैरिंगटन, लेफ्टि. ओ' हारा, लेफ्टि. कनिंघम आदि सैनिक अधिकारियों और हजारों सैनिकों की याद में अंगे्रजों द्वारा बनाया गया एक स्मारक है, जिन्होंने कुख्यात 'गोरख्याणी' से उत्तराखण्ड को आजाद करवाया था। अब उत्तराखण्ड सरकार ने भी हाल ही में गोरखा सेनानायक बलभद्र सिंह खलिंगा थापा के खलिंगा फोर्ट के उसी स्थल पर एक स्मारक बनाया है।
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