चुनाव तंत्र बनाम लोकतंत्र
Saturday, 10 March 2012 13:37 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' प्रथम आम चुनाव आते-आते साधारण राजनीतिक दल भी व्यक्तिवादी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति की संस्था में परिवर्तित हो गया। उससे अगले बीस बरसों में- 1971 में पांचवीं लोकसभा के लिए हुए मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से नवोदित नेहरू राजवंश की निजी कर्तव्यनिष्ठ 'पलटन' के रूप में संगठित हो गई। मानव इतिहास की इस विलक्षण घटना- एक व्यक्ति-परिवार ने इतनी व्यापक जन क्रांति को अपने पिछलग्गू कारिदों के संघ में समेट लिया- का नृवैज्ञानिक (एंथ्रोपोलॉजिकल) अध्ययन नहीं हुआ है। ऐसे अध्ययन की आवश्यकता तक दृष्टि से ओझल है।सुरेंद्र सिंघल जनसत्ता 10 मार्च, 2012: भारत का प्रजातंत्र अजूबा है। चुनाव प्रक्रिया में जनता की भागीदारी, उत्साह बेमिसाल है। लेकिन मतदान की प्रक्रिया पूरी होते ही जनता की भूमिका का अंत हो जाता है। आम नागरिक की तो वाजिब शिकायत दर्ज कराने की हैसियत भी नहीं बचती। जनता के राजनीतिक आचरण और 'प्रजातांत्रिक' शासन तंत्र में ऐसा संबंध-विच्छेद हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रमुख और विचित्र लक्षण है। पचास-साठ के दशकों में समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया जनता को सलाह देते थे कि वोट के विवेकपूर्ण उपयोग से सुशासन विकसित होगा। जनता ने चौथे आम चुनाव (1967) से यह करतब शुरू कर दिया- जो भी परिवर्तन या अ-परिवर्तन संभव और जरूरी दिखाई पड़ा उसे मतदान से व्यक्त करने की रस्म डाल दी। लेकिन वस्तुस्थिति वही 'ढाक के तीन पात' वाली जारी है। प्रत्येक अनुवर्ती शासन अपने पूर्ववर्ती की तुलना में असंवेदनशील, भ्रष्ट और निकम्मा रूप लेकर अवतरित हो रहा है। गरीबी हटाओ, सुशासन, जन भागीदारी, भ्रष्टाचार उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास आदि महज मुहावरेबाजी हैं- ऐसे वचन जिनका अर्थ कथ्य से अलग, बल्कि उलट होता है। इन शब्दों-वाक्यों का उपयोग केवल वाकयुद्ध, आपसी छीछालेदर या भाषणों को प्रभावी बनाने के लिए होता है। अब तो राजनेताओं की दशकों से खुली घोषणा है कि वे कोई साधु-संत नहीं, महज सत्ता-संघर्ष में जुटे लोग हैं। यानी सत्ता की दौड़ में नैतिकता की कोई जगह नहीं, सभी हथकंडे वाजिब हैं। लोकतंत्र के अपराधीकरण का किस्सा पुराना है। देश में प्रथम आम चुनाव (1952) से लेकर आज तक जितने भी लोकसभा, विधानसभा सदस्य चुने गए, कुछ अपवादों छोड़ दीजिए, तो सभी ने अपना विधायी जीवन कानून और सत्य को धता बता कर शुरू किया। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक ने चुनाव खर्च के जो भी ब्योरे निर्वाचन आयोग के सामने प्रस्तुत किए उनकी सत्यता असंदिग्ध नहीं होती थी। तीसरे आम चुनाव में यह लेखक फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में नेहरू के प्रतिद्वंद्वी लोहिया का कार्यकर्ता था। चुनाव के दिन बीस हजार से अधिक कांग्रेस समर्थक, स्वयंसेवक मतदान केंद्रों पर उपस्थित थे। इन सफेद टोपी पहने स्वयंसेवकों या कार्यकर्ताओं में से अधिकतर इलाहाबाद से दूरदराज क्षेत्रों से आए थे। इन सभी को फूलपुर तक पहुंचाने और वापस इलाहाबाद ले जाने की समुचित व्यवस्था उम्मीदवार के चुनाव प्रबंधकों ने की थी। दोपहर तक भोजन-पैकेट भी वितरित करवा दिए थे। याद दिला दें कि उस जमाने में लोकसभा उम्मीदवार की खर्च-सीमा पैंतीस हजार रुपए थी। आज पार्टियां और उम्मीदवार हवाई यात्राओं से लेकर सभा-आयोजनों पर जो खर्च करते हैं, उस पूरे व्यय में मामूली हिस्सा भी दान-चंदे का नहीं होता। इस तरह खर्च होने वाला समस्त धन भ्रष्टाचार या धौंसपट्टी से उगाहा जा रहा है। भ्रष्ट राजनीति के पीछे मूल कारण धन का दुरुपयोग या काले धन का प्रभाव नहीं है। बुनियादी समस्या शासन तंत्र में अराजनीतिक किस्म के व्यक्तियों के प्रभाव और अधिकार की है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में घोषित अपराधियों की भरमार हो गई है। विडंबना यह है कि आज की राजनीति में ऐसे कई लोग काफी हैसियत रखते हैं जो आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया से मतगणना तक जो समस्त प्रक्रिया पहले आम चुनाव से आज तक कायम है, उसी का प्रतिफल है कि संपूर्ण राजनीतिक तंत्र में जो इने-गिने राजनीतिक व्यक्ति बच गए हैं वे भी संदेह के घेरे में दिखाई पड़ते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक राजनीति में आए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की चौधराहट कायम है, लेकिन प्रतिकार या निराकरण का प्रयास औपचारिक राजनीतिक प्रक्रिया में नदारद है। विख्यात समाजशास्त्री रजनी कोठारी और कई अन्य अध्येताओं ने 1970-80 के दशकों में ही इस पतनशीलता की ओर ध्यान आकर्षित किया था। हालांकि प्रशासनिक सुधारों और चुनाव सुधारों पर अरसे से चर्चा होती रही है, पर जो भी विश्लेषण उपलब्ध हैं उनमें व्याधि के मूल कारणों और उनके निराकरण की प्रक्रिया का जिक्र सिरे से नदारद है। लगभग पचास बरस पहले समाजवादी-सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण से लेकर अनेक सरकारी आयोगों, विद्वत समितियों ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा और सुझाया है। ऐसे समस्त संवाद में उन जड़मूल कारकों का जिक्र नहीं होता, जिनके चलते कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत-प्रजातंत्र वंशवाद पर आश्रित है। वंशवाद अपराधीकरण के समांतर पनपा है। दोनों संश्लिष्ट प्रक्रियाएं एक दूसरे की पूरक हैं। दोनों ही मतदान द्वारा अनुमोदित हैं इसलिए वैध हैं! दरअसल, हमारे बुद्धिवादियों की दृष्टि से यह तथ्य ओझल है कि सिर्फ 'प्रजातंत्र' और प्रशासनिक ढांचा नहीं, बल्कि चुनाव तंत्र भी अंग्रेजी हुकूमत से विरासत में मिला है। हमने तो गुंधे हुए आटे में केवल खमीर लगाया है। समसामयिक इतिहास का असमंजसकारी, पर प्रचलित 'विद्वता' और 'वाहक विद्वतजन' की योग्यता को उजागर करने वाला तथ्य है कि एक भी देशी-विदेशी विद्वान नहीं, जिसने उस घटनाक्रम और विधि-प्रक्रिया पर गौर किया हो कि 1885 से 1945 तक साठ बरस चला भारत का राष्ट्रीय आंदोलन आजादी की पूर्ववेला में सहज ही राजनीतिक दल में परिवर्तित हो गया! जून 1945 में अचानक 'शिमला सम्मेलन' की घोषणा हुई और भारत छोड़ो आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व को उसमें भागीदारी के लिए रिहा कर दिया गया। तत्कालीन वायसराय वेवेल ने प्रस्तावित आजादी की तजवीज सुझाई। एक बरस दो माह बाद दो सितंबर 1946 को नेहरू जी ने अंतरिम सरकार के मुखिया की शपथ ली। बस इन्हीं चार सौ दिनों के अंतराल में सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और नेहरू की त्रिमूर्ति ने साठ बरस के अनवरत आंदोलन को लपेट-समेट कर ताक पर धर दिया- और इंडियन नेशनल कांग्रेस की जगह कांग्रेस पार्टी अवतरित हो गई। कहीं कोई जद्दोजहद नहीं, हील-हुज्जत नहीं; चूं-चपड़ तक सुनने में नहीं आई। पिछले पैंसठ बरसों में इस विषय पर विद्वत समाज में कहीं कोई अचंभा देखा-सुना नहीं गया। इस असाधारण 'व्यवस्था' पर कोई विवाद नहीं है कि गुजरात से बंगाल तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक समूचा प्रजातंत्र या तो वंशवाद पर निर्भर है या व्यक्तिवादी करिश्मे का मोहताज है। करिश्मों की लंबी सूची पर गौर करें- मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, एमजीआर, एनटीआर, वाइएसआर, बंगाल में माकपा, मुंबई में शिवसेना, गुजरात में नरेंद्र मोदी, बिहार में नीतीश कुमार और इस बार उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव... अंतहीन सिलसिला है। यह करिश्मे की फितरत है कि उसमें से अपराधीकरण और वंशवाद जुड़वां भाई-बहन की तरह पैदा हो जाते हैं। वास्तव में मूल करिश्मा तो फिरंगी हुकूमत द्वारा आयोजित विभाजित आजादी थी। शेष करिश्मा उस मूल करिश्मे का तर्कसंगत प्रतिफलन है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि यह घटनाक्रम महात्मा गांधी की दो विफलताओं से उपजी जटिलता है। पहली विफलता, देश का बंटवारा। दूसरी विफलता, योग्य-उपयुक्त उत्तराधिकारी का पूर्ण अभाव। ये दो विफलताएं बापू के कुल सत्य-संघर्ष को बौना कर देती हैं। यह कड़वा सच है कि आजादी की वेला में जिस नेतृत्व को सत्ता हस्तांतरित हुई वह नैतिकता में कमतर था, उसका राजनीतिक कद ऊंचा नहीं था। गांधी की विफलता की अति विस्तृत और जटिल कथा के मात्र दो पहलुओं का जिक्र यहां संभव है। एक, फिरंगी हाकिम ने गांधी से मिली शिकस्त को निरस्त कर दिया और अंतिम दांव यों खेला कि गांधी के जीते-जी देश पुन: गुलाम हो गया, यानी इस सोने का अंडा जनने वाली मुर्गी का साम्राज्यवादी शोषण निरंतर जारी है। यह चाल गांधी को धोखा देकर ही चली जा सकती थी। ऐसा करने में फिरंगी सफल इसलिए हो सका क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संघर्ष से थक चुका था। दूसरी बात पहली से ज्यादा कड़वी है- गांधीजी ने इस सौदेबाजी को अपनी आंखों से देखा। वायदे के मुताबिक उचित समय पर इच्छामृत्यु का वरण नहीं किया। बलिदान का सर्वथा उपयुक्त मुहूर्त आजादी से छह माह पूर्व का था, न कि पांच माह बाद का। गांधी की शहादत की विवेचना हमारा विषय नहीं, हम केवल याद दिला रहे हैं: औपनिवेशिक निजाम (प्रशासन से लेकर संविधान और चुनावी आडंबर तक) की निरंतरता सत्ता हस्तातंरण की शर्त थी। इसीलिए राष्ट्रीय आंदोलन के आवे में तप कर निकली फौज की 'नए निजाम' में भूमिका शून्य हो गई। इस तथ्य के दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं कि शिमला सम्मेलन और अंतरिम मुखिया बनने के दौरान ही पंडितजी खंडित आजादी और भारतीय प्रशासनिक सेवा के लौह-ढांचे (स्टील फ्रेम) को बरकरार रखने का संकल्प ले चुके थे। इसी दौरान वे अपने पुराने साथियों की क्षुद्रता, कांग्रेसियों के अंतर्कलह, संगठन हथियाने के लिए किए जाने वाले हथकंडों, विविध अयोग्यता आदि से क्षुब्ध हो चुके थे। औपनिवेशिक हुकूमत की कार्यशैली, ऊंची नैतिकता और व्यवहार कौशल के वे अपने बचपन से कायल थे। इन्हीं कारणों से मजबूर होकर उन्हें फिरंगी हुकूमत से सौदेबाजी करनी पड़ी थी। नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने पहला आम चुनाव उसी अंदाज में लड़ा जैसे 1937 और 1946 में लड़ा था। संगठन की भूमिका गौण थी- नेतृत्व द्वारा मनोनीत प्रबंधकों ने सरकारी हाकिमों, मुलाजिमों के सहयोग से आयोजन किया था। मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए थे। 'चुनाव प्रबंधन' की व्यवस्था के बावजूद निर्वाचन पर्व के दौरान भीड़-प्रदर्शन अनिवार्य है। प्रबंधक और उम्मीदवार को 'नेताजी' की जनसभा के लिए भीड़ जुटानी पड़ती है। बस इसी प्रक्रिया में प्रबंधक उम्मीदवार बन जाता है और उम्मीदवार जुगाड़ू प्रबंधक। इस विश्लेषण के विपरीत, यह भी सच है कि प्रथम चुनाव से ही आम मतदाता ने शराब-कबाब, पैसे और सांप्रदायिक-जातिवादी स्वार्थों के दबाव के बावजूद अद््भुत संयम और विवेक का परिचय दिया है। इस विश्लेषण का निष्कर्ष यह नहीं है कि जनता इस विवेक से प्रभावित होकर मुलायम सिंह यादव वंश, नेहरू वंश की लीक से हट कर कोई नई ताबीर लिखनी शुरू कर देगी। वैसी पहल की तदबीर तो जनता को दो कदम और आगे बढ़ कर स्वयं रचनी होगी। उसी की बुनियाद पर मुल्क की नई तकदीर की इबारत लिखी जा सकेगी। |
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