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Tuesday, 6 March 2012

बजट से पहले बिजली का झटका,​ बढ़ती हुई ईंधन लागत और वितरण खर्च में इजाफा के बहाने मंहगी होगी बिजली देश भर में!



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बजट से पहले बिजली का झटका,​ बढ़ती हुई ईंधन लागत  और वितरण खर्च में इजाफा के बहाने मंहगी होगी बिजली देश भर में!

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


बिजली की दरें बढ़ाने की पूरी तैयारी कर ली गई है। विद्युत वितरण कंपनियों ने दाम बढ़ाने के लिए याचिका दायर की हैं। यदि ये याचिकाएं आयोग स्वीकार कर लेता है तो जनता पर जबरदस्त बोझ आएगा। बिजली कारोबार में अच्छा मुनाफा होने की तस्वीर साफ झलकती है।बिजली स्वास्थ्य, शिक्षा,सड़क, पुल अब दूसरी जरूरी सेवाओं की तरह अब निजी हाथों में है। कभी महाराष्ट्र  में डोभाल परियोजना को लेकर हंगामा खूब हुआ थी, पर बिजली की किल्लत की वजह से औद्योगीकरण और शहरी करण , विदेशी पूंजी के खूब शोर के मध्य देश के लगभग सभी राज्यों में उद्योग धंधे चौपट होने की तरफ कोई अब इशारा भी नहीं करते। सारा जोर अब परमाणु ऊर्जा को लेकर है। केंद्र की यूपीए सरकार सबके लिए बिजली का नारा भूल गयी है और बिजली कितनी मंहगी की जा सकती है , इसकी चौतरफा होड़ मची है।ऐसे में बिजली कारोबार में अच्छा मुनाफा होने की तस्वीर साफ झलकती है।

देश भर में अगले महीने से बिजली एक-तिहाई महंगी हो सकती है। बिजली वितरण कंपनियां बढ़ती ईंधन खर्च की लागत और नुकसान का कुछ बोझ उपभोक्ताओं पर डालने के लिए टैरिफ बढ़ाना चाहती हैं। उन्होंने इसके लिए विद्युत नियामक आयोग का दरवाजा खटखटाया है। निजी कंपनियों ने एक बार फिर से बिजली दरों में 18 से 27 फीसदी बढ़ोतरी की मांग की है। पिछले साल कंपनियों ने 60 से 82 फीसदी वृद्धि करने की मांग की थी, लेकिन कंपनियों को समझा दिया गया था कि एक साथ वृद्धि नहीं की जा सकती है।दलील यी है कि बिजली कंपनियां लगातार घाटे में चल रही हैं और उनका घाटा दूर करने के लिए हर साल बिजली दरों में वृद्धि करनी पडे़गी।ज्यादातर बिजली वितरण कंपनियों ने बिजली बिल के फिक्स्ड और डिमांड चार्ज जैसे कंपोनेंट को भी बढ़ाने का प्रपोजल दिया है। टैरिफ बढ़ाने के लिए विद्युत नियामक आयोग को भेजी गई याचिकाओं से यह जानकारी मिली है। दाम बढ़ाने के प्रस्ताव से महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों के उपभोक्ताओं को दोहरा झटका लगेगा। विद्युत नियामक आयोग ने अगर बिजली कंपनियों के प्रस्तावों को स्वीकार कर विद्युत दरें बढ़ा दीं तो किसान एवं आम जनता बर्बाद हो जाएगी। बिजली की किल्लत से उत्तर प्रदेश समेत तमाम बड़े राज्यों में उद्योग धंधे पहले से चौपट हैं। विद्युत नियामक आयोग पिछले वर्षों की तरह ही जनसुनवाई का दिखावा करते हुए , कंपनियों के इन प्रस्तावों पर कुछ कतर-ब्यौंत के साथ , आम जनता पर भार लादने वाले इन प्रस्तावों पर ठप्पा ही लगाने जा रहा है। इसका पता इसी से चलता है कि जिन व्यक्तियों/संस्थाओं में विद्युत कंपनियों के प्रस्तावों पर अपनी लिखित में आपत्ति दर्ज की है , उनको भी इस सुनवाई की लिखित सूचना देना आयोग ने उचित नहीं समझा है।


मुंबई में कुछ उपभोक्ताओं को 11 रुपए यूनिट की दर से बिजली बिल चुकाने के लिए कहा जा सकता है।महाराष्ट्र के लोगों को सरकार ने पिछले साल नवंबर में बिजली का झटका दिया है। पूरे राज्य में बिजली की दरों में औसतन 41 पैसे की बढ़ोतरी की गई है। बढ़ी हुई बिजली की दरें आज रात 12 बजे से ही लागू कर दी गई हैं।राज्यसरकार महानगर मुंबई में परमाणु बिजली आपूर्ति का ख्वाब बेच रही है। पर परमाणु बिजलीकी क्या दरें होंगी, इसपर अभी खामोशी है!

नए फाइनैंशल इयर से आंध्र प्रदेश में 500 यूनिट से ज्यादा बिजली की खपत करने वाले घरों को 7 रुपए यूनिट का टैरिफ देना पड़ सकता है। तमिलनाडु की बिजली वितरण यूटिलिटी ने 2012-13 के लिए पावर टैरिफ में 64 फीसदी बढ़ोतरी की मांग की है।


बिजली वितरण कंपनियों को लोन देने वाले बैंक इस प्रपोजल से खुश हैं। उनका कहना है कि इससे पावर सेक्टर को राहत मिलेगी। बिजली वितरण कंपनियों की खराब फाइनैंशल हालत का असर बिजली कंपनियों, ट्रेडरों और इक्विपमेंट सप्लायरों पर पड़ा है। योजना आयोग के एक बड़े अफसर ने बताया कि टैरिफ में बढ़ोतरी जरूरी है, लेकिन बिजली वितरण यूटिलिटीज को बर्बादी से बचाने का यह अकेला रास्ता नहीं है। इन कंपनियों पर करीब 82,000 करोड़ रुपए का लोन है। उन्होंने कहा, उपभोक्ता एक लिमिट तक ही कॉस्ट का बोझ उठा सकते हैं। उन्हें सिस्टम की खामियों की कीमत चुकाने के लिए नहीं कहा जा सकता।'

भारत में बिजली वितरण लॉस दुनिया में सबसे ज्यादा है। करीब 30 फीसदी बिजली उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले ही बर्बाद हो जाती है। पूर्वोत्तर और बिहार में तो यह आंकड़ा 50-60 फीसदी तक है। यह हाल तब है, जब देश के 44 फीसदी लोगों को बिजली नहीं मिलती। पूर्व कैग वी के शुंगलू की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री ने एक पैनल बनाया था, जिसने बिजली वितरण कंपनियों की रिस्ट्रक्चरिंग, ज्यादा चोरी वाले इलाकों में कंज्यूमर्स पर पेनाल्टी लगाने, बिल नहीं चुकाने वालों के लिए प्री-पेड मीटर लगाने और ऐग्रिकल्चर उपभोक्ता की बिलिंग जैसे सुझाव दिए थे। इलेक्ट्रिसिटी ऐक्ट, 2003 में अहम सुधार के तहत बड़े इंडस्ट्रियल उपभोक्ता को मार्केट से बिजली खरीदने की इजाजत देने की बात कही गई थी। हालांकि, इसे अब तक लागू नहीं किया गया है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिजली के प्रेषण और वितरण में बढ़ते घाटे की पड़ताल के लिए 1 अगस्त 2010 को पूर्व नियंत्रक और महालेखापरीक्षक वीके शुंगलू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। शुंगलू समिति ने बिजली के वितरण को 2017 तक लाभकारी बनाने के लिए कार्य योजना की सिफारिश भी की है, जिसके चलते बिजली दरों में बढ़ोतरी ही समस्या का निदान बन गया है।शुंगलू समिति ने कहा है कि बिजली कंपनियों के कर्ज के पुनर्गठन के लिए दरों में नियमित वृद्घि एक पूर्व शर्त है। समिति के मुताबिक बिजली कंपनियों के नुकसान का एक बड़ा हिस्सा रोजाना खर्चों में चला जाता है।गौरतलब है कि बिजली क्षेत्र में सुधार पर शुंगलू समिति की रिपोर्ट आने से ठीक पहले उद्योग जगत ने भी लॉबींग शुरू कर दी है। बिजली क्षेत्र की कंपनियों की दिक्कतों का हवाला देते हुए उद्योग जगत की तरफ से मांग हुई है कि बिजली की दरों में हर साल एक बार संशोधन होना चाहिए।नतीजा सामने आ रहा है, कारपोरेट लाबिइंग के आगे बिजली उपभोक्ताओं की एक नहीं चल रही है।

भारतीय उर्जा क्षेत्र मुख्य रूप से तापीय बिजलीघरों पर टिका है। कोयले की कमी की वजह से यह क्षेत्र संकट में फंसा है। इसके अलावा पर्यावरण संबंधी अड़चनों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईंधन के बढ़ते दामों से भी बिजली क्षेत्र की स्थिति खराब हुई है। खराब मौसम के साथ तेलंगाना आंदोलन की वजह से कोयले के उत्पादन में भारी गिरावट आई थी, जिससे कई राज्यों में बिजली आपूर्ति प्रभावित हुई।

विद्युत अपीलीय न्यायाधिकरण ने हाल ही में एक आदेश पास किया जिसमें बिजली कंपनियों द्वारा दरों में नियमित वृद्घि पर बल दिया गया। इसके अलावा कई राज्यों ने पहले ही ईंधन लागत के आधार पर बिजली दरों में संशोधन सुनिश्चित करने के लिए नियम बना दिया है। खास बात यह है कि मुख्यमंत्रियों को तेजी से यह एहसास हो रहा है कि दरों में बढ़ोतरी के बिना बिजली संकट से निपटा नहीं जा सकता है।कोई भी क्षेत्र वित्तीय रूप से पूरी तरह सक्षम नहीं है। अक्सर रोजाना खर्चों में कार्यशील पूंजी का उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि कंपनियां इसके लिए बैंक से कर्ज लेती है और घाटे की पूर्ति के लिए बड़ा कर्ज लेने के बाद उसे लौटा देती है। शुंगलू समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि बिजली कंपनियों का सलाना घाटा 30,000 करोड़ रुपये का हो रहा है। इसमें से एक बड़ा हिस्सा राज्य सरकारों का भी है। अगर इसे शामिल कर भी लिया जाए तो भी यह घाटा कम होकर 20,000 करोड़ रुपये रह जाता है। हालांकि 2.5 लाख करोड़ रुपये के इस कारोबार यह बहुत बड़ा संकट नहीं है। लेकिन असली समस्या यह है कि साल दर साल बिजली कंपनियों का यह घाटा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में कोई भी कारोबार लंबे समय तक नहीं चल सकता है।बिजली मंत्रालय भी मानता है कि देश में बिजली की दरों को तर्कसंगत बनाए बगैर बिजली क्षेत्र की स्थिति नहीं सुधारी जा सकती, लेकिन राजनीतिक वजहों से इस बारे में दो टूक फैसला नहीं हो पाता है। राज्य सरकारें बिजली की दरों को बढ़ाने का निर्णय लगातार टाले जा रही हैं। दूसरी तरफ बिजली कंपनियां और इस क्षेत्र में निवेश करने वाले वित्तीय संस्थान घरेलू बिजली की दरों को बढ़ाने की मांग करते रहे हैं।

किसान संकट में हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की जरूरत है। सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी का एक माध्यम उन्हें सस्ती बिजली देना भी है।आत्महत्या-दर प्रति लाख किसान परिवारों में 60 है। ये आत्महत्याएं उनकी ऋ णग्रस्तता के कारण तो हैं ही, रोजगार के अभाव के कारण उनकी बदहाली, सिंचाई के उचित साधनों के अभाव उनकी फसलों के बर्बादी और फसलों के लाभकारी दाम तो दूर, न्यूनतम समर्थन मूल्य तक न मिलने के कारण भी हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की तरह विद्युत ऊर्जा भी आम जनता की मूलभूत आवश्यकता है और इसकी दरों में किसी भी प्रकार की वृद्धि का चैतरफा नकारात्मक असर पड़ता है। यह नकारात्मक असर कृषि पर तो पड़ेगा ही , उद्योगों - व्यवसाय पर भी पड़ेगा , घरेलू उपभोक्ताओं की रोजमर्रा की जिंदगी पर भी और प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भी ।

कई कमियों की वजह से 2011 का साल बिजली क्षेत्र के लिए रोशनी भरा साबित नहीं हो पाया। ईंधन की कमी, नियामक अक्षमता और धन की कमी की वजह से इस क्षेत्र की चमक गायब ही रही।
    
अब उर्जा क्षेत्र के लिए भूलने योग्य 12 महीने समाप्त हो रहे हैं। ऐसे में 2012 में यह क्षेत्र सुधार और पुनर्गठन की उम्मीद कर रहा है। मुंदड़ा की विशाल बिजली परियोजना (यूएमपीपी) सहित कई परियोजनाओं में देरी से इस क्षेत्र में अनिश्चितता का माहौल रहा, जिससे निवेश का प्रवाह प्रभावित हुआ।
     
ईंधन की कमी के अलावा राजनीतिक और व्यावसायिक दृष्टि से संवेदनशील दर बढ़ोतरी के अलावा आयातित बिजली उपकरणों पर शुल्क लगाने के प्रस्ताव विशेषकर चीन से आयात पर, की वजह से क्षेत्र में अनिश्चितता का माहौल रहा। हालांकि, उर्जा क्षेत्र के लिए 2011 की शुरुआत अच्छे तरीके से हुई। पावर फाइनेंस कारपोरेशन की हिस्सेदारी की बिक्री से 1,145 करोड़ रुपये जुटे। उसके बाद नकारात्मक खबरें आनी शुरू हुईं। इसमें एक खबर यह थी कि महंगे ईंधन की वजह से मुंदड़ा यूएमपीपी को परिचालन के पहले साल में 500 करोड़ रुपये का नुकसान होगा।
     
डिस्काम ने भी बुरी तस्वीर पेश की। पिछले वित्त वर्ष में उसका अनुमानित घाटा 70,000 करोड़ रुपये रहा। उच्चस्तरीय शुंगलू समिति ने इस घाटे को पूरा करने के लिए कुछ सुझाव दिए। उनमें से एक सुझाव विशेष कंपनी (एसपीवी) बनाने का भी था।
     
विशेषज्ञों का कहना है कि इन सब कारणों की वजह से बिजली क्षेत्र में कुल निवेश प्रवाह प्रभावित हुआ। खासकर 2011 की दूसरी छमाही में। रेटिंग एजेंसी फिच के निदेशक (एशिया प्रशांत यूटिलिटी टीम) सलिल गर्ग ने कहा कि यह पूरा साल जोखिम भरा रहा। खासकर कोयले की कमी की वजह से कई परियोजनाएं प्रभावित हुईं। नियामक, नीति और निवेश जैसी अन्य बाधाएं भी थीं। 2011 में बिजली क्षेत्र निचले स्तर पर चला गया।

प्रमुख उद्योग चैंबर फिक्की और अंतरराष्ट्रीय एजेंसी आइसीएफ की ओर से भारत में पावर क्षेत्र के भविष्य पर एक प्रपत्र जारी किया गया। इसमें कहा गया है कि यहां बिजली क्षेत्र में व्यापक सुधार के लिए जरूरी है कि कंपनियों को हर वर्ष दरों में संशोधन की अनुमति मिले। साथ ही बिजली क्षेत्र में सब्सिडी देने की परंपरा भी बंद होनी चाहिए। प्रपत्र के मुताबिक सभी राज्यों की बिजली कंपनियों में एक निश्चित अवधि के बाद बिजली की दरों को संशोधन करने का तरीका लागू होना चाहिए। इस प्रपत्र ने केंद्र सरकार को एक तरह का अल्टीमेटम दिया है कि अगर उसने बिजली क्षेत्र की नीतियों को तत्काल वरीयता के तौर पर नहीं लिया तो आगामी योजना के दौरान भी इस क्षेत्र की स्थिति जस की तस बनी रहेगी।

यह अध्ययन बताता है कि ईधन की समस्या नए बिजली संयंत्रों के लिए एक बड़ी मुसीबत बनी हुई है। कोयला और गैस की अनुपलब्धता की वजह से तमाम मंजूरियों के बावजूद 25 हजार मेगावाट की परियोजनाओं पर काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इन परियोजनाओं में एक लाख करोड़ रुपये की राशि फंसी हुई है।

एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार 20 औद्योगिक राज्यों में से गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और कर्नाटक निवेश आकर्षित करने के मामले में सबसे तेजी से उभर रहे हैं। देश में होने वाले कुल खर्च में से सबसे ज्यादा निवेश बिजली के क्षेत्र में हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार कुल निवेश का 35.9 प्रतिशत बिजली क्षेत्र में, 25.3 फीसदी मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में, 21.8 फीसदी सेवा क्षेत्र में, 11.8 फीसदी रियल स्टेट में, 3.1 प्रतिशत सिंचाई क्षेत्र में तथा 2.1 फीसदी भाग खनन क्षेत्र में खर्च हो रहा है।

पर्याप्त सुविधा और सरकारी मदद नहीं मिलने पर गांव छोड़ने से इनकार कर रहे गोसीखुर्द प्रकल्प के प्रभावितों को हटाने की प्रक्रिया सरकार ने तेज कर दी है। सरकार ने सख्त भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा कि अगर प्रकल्पग्रस्त नहीं हटते हैं तो एनटीपीसी के मौदा प्रकल्प में 1000 मेगावॉट बिजली उत्पादन का कार्य ठप हो सकता है।


इससे विदर्भ सहित संपूर्ण महाराष्ट्र, अतिरिक्त बिजली से भी वंचित हो सकता है। सरकार ने चेताते हुए कहा कि अगर नहीं हटे तो किसानों को भविष्य में सुविधा नहीं मिलेगी। सरकार ने प्रभावितों की जिद्द के कुछ दुष्परिणाम भी गिनाए। विदर्भ सिंचाई विकास महामंडल के अनुसार, अगर प्रकल्पग्रस्त नहीं हटते हैं तो मोखेबडऱ्ी उपसा सिंचाई योजना अंतर्गत 126 गांवों के किसान 28,235 हेक्टेयर और गोसीखुर्द दायीं नहर के 90 गांवों के किसान 40206 हेक्टेयर सिंचाई सुविधा से वंचित रह सकते हैं।


निरंतर बिजली की आपूर्ति और सेवा में सुधार की बात कह कर करीब दस साल पहले दिल्ली में बिजली वितरण का काम निजी कंपनियों के हाथों में तो सौंप दिया गया, लेकिन जितनी व्यवस्था नहीं सुधरी उससे कहीं अधिक आर्थिक बोझ लोगों पर बढ़ गया। हाल यह है कि पिछले दस साल में प्रति यूनिट बिजली की दर में दोगुना वृद्धि हो गई है। इसके अलावा मीटर तेज चलने से लोगों को अधिक बिल भी भरना पड़ रहा है। क्योंकि निजी कंपनियों का सारा ध्यान मुनाफा कमाने पर केंद्रित है।राज्यों में विद्युत सेवाओं का अंधाधुंध निजीकरण जारी है जिससे बढ़ी बिजली दरों के कारण उपभोक्ताओं के लिए आधुनिक जीवन पद्धति मौत की सौगात बनती जा रही है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ हो या बंगाल, सर्वत्र बिजली का निजीकरण हो रहा हो। इस आंधी को थामने की किसी की हिम्मत नहीं है।विकट स्थिति है कि एकतरफ तो बांधों और नदियों को निजी कंपनियों को ठेके पर दिया जा रहा है, वहीं बिजली अब निजी हाथों में। आम उपभोक्ता, किसान और उद्यमी सभी परेशान हैं। पर परवाह किसको है?इसपर तुर्रा यह कि विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि राज्य बिजली बोर्डों की माली हालत तभी सुधरेगी जब उनका निजीकरण कर दिया जाए।बिजली उत्पादन का दावा सिर्फ कागजों पर कैसे सिमट कर रहा गया है। महानगर हो या छोटे शहर सब बिजली का रोना रो रहे हैं। सरकार के तमाम दावों के बावजूद जनता का हाल बेहाल है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिजली की कोई कमी नहीं है, लेकिन हालात ठीक उलट हैं।

विद्युत जीवन के सभी क्षेत्रों के लिए अनिवार्य आवश्‍यकता है और मूल मानवीय आवश्‍यकता के रूप में माना गया है। यह महत्‍वपूर्ण मूल संरचना है जिस पर देश का सामाजिक-आर्थिक विकास निर्भर करता है। प्रतिस्‍पर्धी दरों पर भरोसेमंद और गुणवत्‍ता विद्युत की उपलब्‍धता अर्थव्‍यवस्‍था के सभी क्षेत्रों के विकास को बनाए रखने के लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण है अर्थात प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक। यह घरेलू बाजारों को वैश्विक रूप से प्रतिस्‍पर्धी बनाने में सहायता करती है और इस प्रकार से लोगों का जीवन स्‍तर सुधारता है।हकीकत यह है कि आज प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति का 10 से 12 फीसदी नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से आता है। इसमें पनबिजली परियोजनाओं से आने वाली बिजली को शामिल नहीं किया गया है। लेकिन भविष्य की नई नवीकरणीय ऊर्जा तकनीक अभी भी इस आपूर्ति का 1 या 2 फीसदी हिस्सा ही है। पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की डाटा बुक हमें बताती है कि पूरी दुनिया ऊर्जा की भारी कमी से जूझ रही है और नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत अभी भी पारंपरिक ऊर्जा माध्यमों के मुकाबले काफी महंगे हैं। समस्या की जड़ यहीं है। गरीब लोगों को ऊर्जा के उन माध्यमों तक पहुंच बनानी है जो अभी सबसे महंगे बने हुए हैं। इस प्रौद्योगिकी की कीमत कम करने का एक ही तरीका है। भारी सरकारी सहायता से उसकी लागत को कम करना।

अभी ज्यादा अरसा नही बीता, राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर को बिजली, हर गांव को सड़क जैसे नारे खास तौर पर उछाले जाते थे।अब सबने खुली विश्व अर्थव्यवस्था को मंजूरी दे दी है, वैश्वीकरण की नीति पर चलकर ही भारत का विकास एवं समस्याओं का समाधान होना है तो भारत के लोगों की जिंदगी चाहे वे ग्रामीण भारत में रहें या शहरी भारत में दिनोदिन कठिन, खर्चीली, तनावपूर्ण और अराजक व लाचार क्यों होती जा रही हैं? रोजगार की समस्या तो अब कोई माई का लाल सुलझा नहीं सकता। मातृभाषा में काम, स्थानीय रोजगार और अदक्ष अपढ़ अल्पशिक्षित लोगों को रोजगार की किसी को चिंता है नहीं। खेतों में पानी हो या न हो , अब कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खेत और किसान दोनों को मौत के रास्ते धकेल दिया गया​ ​ है। बाजार के विस्तार के लिए जरूर पीपी माडल के मुताबिक गांव गांव तक सड़कें पहुंचनी शुरू हो गयी है जिससे विनिरमाण उद्योग की चांदी हो गयी है। मनरेगा में काम भी मुख्यतः यही है। पर जिस शाइनिंग इंडिया के विकास दर को लेकर इतनी माथापच्ची होती है, जिस अर्थ व्यवस्था के २०३० तक विश्व की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था बन जाने की बात करते हैं, उसमें ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने का क्या इंतजामात है? तेल संकट की बात तो समझ में​ ​ आती है, बिजली क्यों अक्सर गुल रहती है?

उत्तर प्रदेश का कानपुर कभी उद्योग लगाने और रोजगार के लिए सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी। यहां कपड़े और चमड़े के हजारों कारखाने हैं, लेकिन पिछले दो दशक से कानपुर के उद्योगों की हालत बेहद खराब होने लगी है, क्योंकि सारे उत्पादन बिजली पर निर्भर हैं। शहर में कारखानों की संख्या हजारों में है, लेकिन बिजली की कमी की मार ने वहां के उद्योग धंधों को चौपट कर दिया है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं और हजारों उद्यमियों को दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ा।


देशभर में कोयले से चलने वाले कुल 81 पावर प्लांट हैं, जिनमें से 35 कोयले की कमी से जूझ रहे हैं।गौरतलब है कि कुल बिजली जरूरतों का लगभग 60 फीसदी कोयले से चलने वाले प्लांट्स से पूरा होता है। जिन समस्याओं से निजात दिलाने के नाम पर बिजली वितरण का निजीकरण किया गया है वह बदस्तूर जारी है। साथ ही बिजली बिल का कई गुना ज्यादा आना, बिजली मीटर की शिकायतें और आम शिकायतों की कोई सुनवाई नहीं हो पाना ऐसी तमाम शिकायतों ने जीवन को और अंधकारमय कर दिया है। जहां एक तरफ बिजली की कटौती से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, वहीं अचानक से हुई ट्रीपिंग और घंटों छाए अंधेरे में मरीजों के इलाज में भी खासी दिक्कत आ रही है।बढ़ती बिजली कटौती का ही नतीजा है कि इन दिनों इंवर्टर्स और बैट्री के साथ पावर बैकअप का बाजार बढ़ता जा रहा है। लेकिन यहां भी परेशानी है कि घंटों बिजली जाने से इंवर्टर की बैट्री चार्ज ही नहीं हो पाती।

कोयला आपूर्ति को लेकर पिछले कुछ समय से देश के बिजली उद्योग और कोल इंडिया के बीच चल रही खींचतान में उद्योग ने जीत हासिल की है। कोयले की उपलब्धता में आ रही अप्रत्याशित गिरावट पर कड़ा रुख अपनाते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया को बिजली कंपनियों से किए गए पूरी आपूर्ति का वादा निभाने का निर्देश दिया है। हालांकि इस आदेश से बिजली कंपनियों के लिए 50,000 मेगावॉट बिजली के उत्पादन लक्ष्य तक पहुंचना मुमकिन हो सकेगा लेकिन उत्पादन में आई ऐतिहासिक गिरावट से उबरने को जूझ रही कोल इंडिया की मुश्किल बढ़ जाएगी।

प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा घोषित फैसले के बाद कोल इंडिया को मार्च 2015 तक परिचालन शुरू करने वाले सभी बिजली संयंत्रों के साथ आपूर्ति करारों पर हस्ताक्षर करने होंगे। इसके साथ ही कंपनी को एक महीने के भीतर उन सभी बिजली संयंत्रों के साथ आपूर्ति करार करने की ताकीद की गई है, जिनका परिचालन पिछले साल 31 दिसंबर तक शुरू हुआ है।

यह फैसला प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी की अध्यक्षता में हुई सचिवों की समिति की बैठक में लिया गया। पिछले महीने बिजली उद्योग के प्रतिनिधियों की प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद सचिवों की समिति का गठन किया गया था। टाटा पावर के चेयरमैन रतन टाटा, लैंको इन्फ्राटेक के चेयरमैन एल मधुसूदन राव, रिलायंस पावर के चेयरमैन अनिल अंबानी और जिंदल पावर के नवीन जिंदल ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी। कोल इंडिया ग्राहकों के साथ पहले आश्वस्ति पत्र पर हस्ताक्षर करती है। ग्राहकों द्वारा समयसीमा में परियोजना विकसित करने की शर्त पूरी होने पर यह पत्र ईंधन आपूर्ति करार में तब्दील हो जाता है। अभी तक कोल इंडिया ने सभी आश्वस्ति पत्र 90 फीसदी के ट्रिगर स्तर पर ही किए हैं। इसका मतलब है कि अगर कंपनी 90 फीसदी से कम कोयला आपूर्ति करती है, तो उस पर जुर्माना लगेगा और अगर इससे ज्यादा आपूर्ति करती है, तो उसे फायदा दिया जाएगा। लेकिन हाल में कंपनी ने 50 फीसदी ट्रिगर स्तर पर करार करने शुरू किए हैं।

दूसरी ओर एक अहम फैसला लेते हुए सरकार ने बिजली क्षेत्र की कंपनियों को निजी इस्तेमाल के लिए कोयला ब्लॉक के आवंटन की नीलामी में शामिल नहीं होने की छूट दी है। हालांकि गैर बिजली क्षेत्र की कंपनियों को प्रतिस्पर्धी बोली लगानी होगी। फिलहाल अंतरमंत्रालयीय समिति की सिफारिशों के आधार पर निजी क्षेत्र की कंपनियों को कोयले के ब्लॉक आवंटित किए जाते हैं। माना जा रहा है कि इस कदम से कोयला आवंटन प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी। पहले चरण के तहत बिजली और गैर-बिजली क्षेत्र की कंपनियों को 54 ब्लॉक की पेशकश की जाएगी।नई प्रक्रिया के तहत गैर-बिजली क्षेत्र की कंपनियों को नीलामी के जरिये कोयला ब्लॉक आवंटित किए जाएंगे, जबकि बिजली क्षेत्र की कंपनियों को ब्लॉक से जुड़े संयंत्र से उत्पादित बिजली की कीमत  के आधार पर आवंटन किया जाएगा।

देश में एक लाख से अधिक गांवों में रहने वाले करीब साढ़े तीन करोड़ लोग आज भी लालटेन युग में जी रहे हैं।  बिजली नहीं होने से उद्योग-धंधे चौपट हुए तो उद्यमियों ने उच्च क्षमता के जनरेटर का उपयोग करना शुरू कर दिया। यह तथ्य यूपीए सरकार-2 की योजना 'सभी के लिए बिजली' की पोल खोलने के लिए काफी है।

गौरतलब है कि गांव-गांव बिजली पहुंचाने के लिए सरकार ने 80 के दशक में ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम शुरू किया, लेकिन भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण यह योजना मकसद में कामयाब होती नहीं दिखी तो सरकार ने 2005 में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना की शुरुआत की और यूपीए-2 की सरकार ने दिसंबर 2012 तक सभी घरों में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है!


बिजली मंत्रालय ने बिजली परियोजनाओं के लिए आयातित उपकरणों पर शुल्क व्यवस्था में संशोधन के बारे में मंत्रिमंडल के विचार हेतु जो नोट भेजा था उसमें  समझा जाता है कि 19 फीसद तक शुल्क लगाने का प्रस्ताव है। बिजली सचिव पी उमाशंकर ने पीटीआई से कहा ''हमने जो मंत्रिमंडल के लिए जो नोट भेजा था उस पर सभी संबद्ध मंत्रालयों से टिप्पणी मिली है अब इस पर किसी भी समय विचार किया जा सकता है।''

हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि 1,000 मेगावाट से अधिक क्षमता वाली परियोजनाओं के लिए उपकरणों के आयात पर कितना शुल्क लगेगा। सूत्रों ने बताया कि संबंधित नोट में पावर गीयर पर 19 फीसद तक शुल्क लगाने की मंजूरी दी जा सकती है ताकि भेल और लार्सन एंड टूब्रो (एलएंडटी) जैसी घरेलू उपकरण निर्माताओं को सुरक्षा प्रदान की जा सके। पिछले साल दिसंबर में बिजली मंत्रालय ने मंत्रिमंडल नोट का मसौदा जारी किया था, जिसमें बिजली उपकरणों के आयात पर 14 फीसद शुल्क लगाने का प्रस्ताव था।

भेल और एलएंडटी बिजली उपकरणों पर आयात शुल्क लगाने की मांग कर रही हैं क्योंकि उन्हें चीनी कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करना पड़ रहा है। योजना आयोग के सदस्य अरुण मैड़ा की अध्यक्षता वाली समिति ने इन उपकरणों को 10 फीसद सीमा शुल्क और चार फीसद विशेष अतिरिक्त शुल्क लगाने का सुझाव दिया था।

फिलहाल 1,000 मेगावाट से कम क्षमता वाली परियोजनाओं पर पांच फीसद आयात शुल्क लगता है जबकि शेष परियोजनाओं के लिए आयातित उपकरणों पर कोई शुल्क नहीं लगता। इधर निजी बिजली उत्पादों ने आयात शुल्क के प्रस्ताव का विरोध किया है और कहा है कि इससे बिजली महंगी होगी।


भारत के संविधान के अंतर्गत बिजली समवर्ती सूची का विषय है जिसकी सातवीं अनुसूची की सूची iii में प्रविष्टि संख्‍या 38 है। भारत विश्‍व का छठा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्‍ता है जो विश्‍व के कुल ऊर्जा खपत का 3.5 प्रतिशत उपभोग करता है। तापीय, जल बिजली और नाभिकीय ऊर्जा भारत में बिजली उत्‍पादन के मुख्‍य स्रोत हैं। कुल संस्‍थापित विद्युत उत्‍पादन क्षमता 1,47,402.81 मेगावॉट (31 दिसम्‍बर, 2008 के अनुसार), रही है, जिसमें 93,392.64 मेगावॉट (थर्मल); 36,647.76 मेगावॉट (हाइड्रो); 4,120 मेगावॉट (न्‍यूक्लियर); और 13,242.41 मेगावॉट (अक्षय ऊर्जा स्रोत) शामिल हैं।

विद्युत मंत्रालय, ने एक महत्‍वाकांक्षी मिशन '2012 तक सभी के लिए बिजली' शुरू किया है, जो विद्युत क्षेत्रक के विकास के लिए व्‍यापक ब्‍लू प्रिंट है। मिशन के लिए अपेक्षा है कि वर्ष 2012 तक संस्‍थापित विद्युत उत्‍पादन क्षमता कम से कम 2,00,000 मेगावॉट होना चाहिए। इसका लक्ष्‍य कम से कम लागत पर सभी क्षेत्रों को भरोसेमंद पर्याप्‍त और गुणवत्‍ता पूर्ण विद्युत की आपूर्ति करना और विद्युत उद्योग की वाणिज्यिक व्‍यवहार्यता को बढ़ाना है। ऐसे लक्ष्‍यों को हासिल करने में समर्थ होने के लिए, निम्‍नलिखित कार्यनीतियां अपनाई जा रही है:-
कम लागत का उत्‍पादन, क्षमता उपयोग का अनुकूलन, निवेश लागत का नियंत्रण, ईंधन मिश्रण का अनुकूलन, प्रौद्योगिकी उन्‍यन और अपारम्‍परिक ऊर्जा स्रोतों के उपयोग पर बल देते हुए विद्युत उत्‍पादन कार्यप्रणाली;
अंतरराष्‍ट्रीय कनेक्‍शन सहित नेशनल ग्रिड का विकास प्रौद्योगिकी उन्‍नयन और पारेषण लागत को अनुकूल बनाने पर जोर देते हुए पारेषण कार्यप्रणाली;

प्रणाली उन्‍नयन, क्षय की कटौती, चोरी पर नियंत्रण, उपभोक्‍ता सेवा अभिमुखीकरण गुणवत्‍ता विद्युत आपूर्ति वाणिज्‍यीकरण विकेंद्रीकृत वितरित उत्‍पादन और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आपूर्ति पर जोर देते हुए वितरण कार्यप्रणाली;

विद्युत क्षेत्रक का अपेक्षित विकास के लिए संसाधनों का सृजन करने हेतु वित्‍त पोषण कार्यप्रणाली; आदि
इसके अलावा देश में वर्ष 2012 तक चरण गत रूप से लगभग 37,700 मेगावॉट की विद्युत अंतरण अंतर क्षेत्रीय क्षमता सहित समेकित 'राष्‍ट्रीय पावर ग्रिड' की स्‍थापना की जानी है। पहला चरण वर्ष 2002 में पूरा किया गया है जहां क्षेत्रीय ग्रिडों को मुख्‍यतया एचवीडीसी बैक टू बैक द्वारा जोड़ा गया है और अंतरक्षेत्रीय विद्युत अंतरण क्षमता 5050 मेगावॉट स्‍थापित की गई है। दूसरे चरण का क्रियान्‍वयन पहले ही शुरू हो चुका है और तालचर कोलार एचवीडीपी बाइपोल, रायपुर, राउरकेला 400 कि.वा. डी/सी ट्रांसमिशन प्रणाली का श्रृंखला कंपन्‍सेशन और गाजुवाका में द्वितीय बैक टू बैक सिस्‍टम के साथ शुरू होने से अंतर क्षेत्रीय विद्युत अंतरण क्षमता 9450 मेगावॉट बढ़ गई है। इसने अरुणाचल प्रदेश से गोवा तक 2500 कि.मी. विस्‍तृत समक्रमिक ग्रिड का सृजन किया है जिसमें 16 लाख वर्ग कि.मी. का क्षेत्र शामिल है जिसकी संस्‍थापित क्षमता 50,000 मेगावॉट से अधिक है। अन्‍य संबंधों के साथ कार्यान्‍वयन / योजना के अधीन संचित अंतर क्षेत्रीय विद्युत अंतरण क्षमता 2012 तक 37,150 मेगावॉट हो जाने की आशा है।

इसके अतिरिक्‍त ग्रामीण विद्युतीकरण ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम समझा जाता है। इसके लक्ष्‍य हैं :- आर्थिक विकास तेज करना और कृषि और ग्रामीण उद्योगों में उत्‍पादकता उपयोगों के लिए निवेश के रूप में विद्युत मुहैया कराने द्वारा रोजगार का सृजन करना तथा घरों, दुकानों, सामुदायिक केंद्रों और सभी गांवों में सार्वजनिक स्‍थानों में प्रकाश व्‍यवस्‍था के लिए बिजली की आपूर्ति करने द्वारा ग्रामीण जनता के जीवन स्‍तर में सुधार लाना है।

भारत सरकार ने समय-समय पर देश में ग्रामीण क्षेत्रों के विद्युतीकरण के लिए अनेकानेक कार्यक्रम शुरू किया है। उदाहरण के लिए 'रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन सप्‍लाई टेक्‍नोलॉजी (आरईएसटी)' मिशन की शुरूआत वर्ष 2012 तक स्‍थानीय नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों, विकेंद्रीकृत प्रौद्योगिकियों तथा पारम्‍परिक ग्रिड कनेक्‍शन द्वारा निरन्‍तर सभी गांवों और घरों के विद्युतीकरण को त्‍वरित करने की दृष्टि से की गई है। इसका लक्ष्‍य ग्रामीण क्षेत्रों को खरीद सकने लायक और भरोसेमंद विद्युत आपूर्ति मुहैया कराना और जहां कहीं भी व्‍यावहार्य हो संवितरित उत्‍पादन योजनाओं के द्वारा क्रियान्‍वयन करना है।

इसके अतिरिक्‍त 'राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना (आरजीजीवीवाई) नाम योजना ग्रामीण विद्युतीकरण मूल संरचना और घरेलू विद्युतीकरण' के लिए अप्रैल 2005 में शुरू की गई है, यह राष्‍ट्रीय साझा न्‍यूनतम कार्यक्रम लक्ष्‍य चार वर्षों की अवधि तक सभी ग्रामीण घरों को बिजली की पहुंच उपलब्‍ध कराने के लिए है। ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (आरईसी) योजना के क्रियान्‍वयन के लिए नोडल एजेंसी है। इस योजना के तहत 90 प्रतिशत पूंजी आर्थिक सहायता ग्रामीण विद्युतीकरण मूल संरचना परियोजनाओं के लिए निम्‍नलिखित के माध्‍यम से मुहैया करायी जाएगी:-

प्रत्‍येक ऐसे ब्‍लॉक के एक 33/11 केवी (या 66/11 केवी) वाले सबस्‍टेशन में सहित ग्रामीण विद्युत वितरण आधार (आरईडीबी) का सृजन, जहां यह नहीं है।

सभी अविद्युतीकृत गांवों/अधिवास के विद्युतीकरण के लिए और प्रत्‍येक गांव/अधिवास में उपयुक्‍त क्षमता की वितरण ट्रांसफार्मर की व्‍यवस्‍था करने के लिए ग्रामीण विद्युत मूल संरचना का सृजन,
गांवों/अधिवास के लिए जहां ग्रिड आपूर्ति किफायती नहीं है और जहां अपारम्‍परिक ऊर्जा स्रोत मंत्रालय अपने कार्यक्रमों के माध्‍यम से विद्युत मुहैया नहीं कराने वाला है, के लिए पारम्‍परिक स्रोतों से विकेंद्रीकृत संवितरित उत्‍पादन (डी डी जी) और आपूर्ति प्रणाली।

यह योजना सभी अविद्युतीकृत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले घरों को विद्युतीकरण के लिए शत प्रतिशत पूंजी सबसिडी भी प्रदान करती है।

यह योजना अन्‍य बातों के साथ-साथ सभी अविद्युतीकृत गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले घरों को 100 प्रतिशत पूंजी आर्थिक सहायता सहित विद्युतीकरण के लिए वित्‍तीय सहायता मुहैया कराती है।


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