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Thursday 12 January 2012

धर्म और सत्ता की जुगलबंदी

धर्म और सत्ता की जुगलबंदी PDF Print E-mail
Wednesday, 11 January 2012 10:16
नरेश गोस्वामी
जनसत्ता 11 जनवरी, 2012 : कुछ धार्मिक गुरुओं ने मांग की है कि उन्हें हवाई अड्डे पर होने वाली सुरक्षा-जांच से मुक्त रखा जाए। एक गुरु की ओर से सीधे सोनिया गांधी तक बात पहुंचाई गई, जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया। धर्म-गुरुओं की यह भी इच्छा है कि उनके वाहन को सीधे विमान के पास तक जाने दिया जाए। इसके पीछे कई तरह के कारण गिनाए गए हैं। कांग्रेस के एक मंत्री ने अपने पारिवारिक गुरु के पक्ष में तर्क दिया है कि उनके गुरु मानव-स्पर्श से दूर रहते हैं, इसलिए उन्हें भी सुरक्षा-जांच की अनिवार्यता से छूट मिलनी चाहिए।
कुछ ऐसी ही दलील दक्षिण भारत की एक धार्मिक पीठ के प्रमुख के बारे में दी जा रही है कि गुरुजी जिस बक्से को साथ लेकर चलते हैं, उसका एक्स-रे तो बेशक कर लिया जाए, पर उसे खोला न जाए। यह बात सभी जानते हैं कि सरकार के बडेÞ मंत्रियों और अन्य नेताओं को सुरक्षा जांच से नहीं गुजरना पड़ता।  इसके पीछे संभवत: कारण यही होगा कि नेताओं और मंत्रियों को जांच में होने वाली देरी से बचाया जाए ताकि वे अपने गंतव्य पर जल्दी पहुंचें और शासकीय कार्य को समय पर पूरा कर सकें।
लेकिन धर्म-गुरुओं द्वारा उठाई गई इस मांग का औचित्य समझ से परे है। इसके पीछे भावना शायद यह काम कर रही है कि धर्म-गुरु सामान्य मनुष्य नहीं हैं। यानी उन्हें सुरक्षा-जांच से इसलिए अलग रखा जाए क्योंकि उनका दर्जा आम लोगों से ऊपर है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उन्हें उन सामान्य प्रशासनिक और नियम-सम्मत प्रक्रियाओं से गुजरना क्यों स्वीकार नहीं हो रहा? याद करें कि हाल ही में हवाई यात्रा के दौरान एक बेहद लोकप्रिय गुरु ने ऐसा ही बखेड़ा खड़ा कर दिया था। उन्होंने और उनके शिष्यों ने सुरक्षा पेटी बांधने से इनकार करके चालक दल के साथ अन्य यात्रियों को भी परेशान कर दिया था। गुरुजी को पेटी बाधने की बाध्यता अपनी गरिमा से नीचे की बात लगी थी।
ऐसी घटनाओं को देख कर यही लगता है कि गुरुओं में कहीं न कहीं सत्ता का उपभोग करने और उसका प्रदर्शन करने की कोई प्रच्छन्न भावना रहती है, जो जब-तब जाहिर होने लगती है। कहना न होगा कि यह सत्ता की विकृत अभिव्यक्ति ही है। अगर ऐसी कोई मांग शारीरिक अस्वस्थता से निकली है, जैसा कि एक गुरु के बारे दलील दी गई है, तो उस पर सहानुभूति से विचार किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसे में हवाई अड््डे पर शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए वैसे भी वील चेयर जैसी कोई न कोई व्यवस्था की ही जाती है। इसलिए अगर मसला स्वास्थ्यगत नहीं है तो फिर यही मानना पडेÞगा कि यह एक आधुनिक राज्य-व्यवस्था का दम भरने वाले और स्वयं को घोषित रूप से धर्म-निरपेक्ष कहने वाले देश के राजनीतिक नेतृत्व और धार्मिक गुरुओं के बीच एक पारस्परिक हित-साधन की संधि का मसला है।
इस कोण से देखें तो फिर धर्म-गुरुओं का सत्ता-संबंधों से तय होता यह आचरण अजूबा नहीं लगेगा। और फिर इस प्रवृत्ति की तलहटी में मौजूद संरचना साफ  दिखने लगेगी। सत्ता का प्रदर्शन हमारी सामाजिक बुनावट में पहले चाहे जितना व्याप्त रहा हो, लेकिन जब से बाजार के साथ हमारे समाज में तरल नकदी और उपभोक्तावाद पनपा है तब से सत्ता का यह प्रदर्शन दिन-ब-दिन फूहड़ होता गया है।
रोजमर्रा के जीवन में इसके चिह्न बहुतायत से देखे जा सकते हैं। मसलन, अब जिस तरह मोहल्ला सुधार समिति के अध्यक्ष से लेकर गांव के प्रधान और वार्ड-सदस्य तक अपनी कार पर नेमप्लेट लगाए बिना नहीं चलते, उसी तरह छोटे-बडेÞ आश्रमों के साधु-संत भी पूरी धज से निकलते हैं। घुमंतू और जैसे-तैसे गुजर-बसर करने वाले साधुओं को छोड़ दें, तो जिस भी गुरु के पास कोई एक-दो कमरों का ठीहा होता है वह भी छोटे-बडेÞ वाहन पर अपने पद और संस्था की नेमप्लेट लगाए बिना समाज के बीच नहीं जाना चाहता।
राजनीति में सक्रिय लोगों की तरह अब धर्म-गुरुओं ने भी मीडिया के साथ पारस्परिक लाभ का रिश्ता गांठ लिया है। आज लगभग हर चैनल पर कोई न कोई न गुरु या बाबा किसी न किसी समय विराजमान रहता है। इन चैनलों पर प्रवचन, कीर्तन, सत्संग लगभग खबरों की तरह ही नियमित रूप से प्रसारित किए जाते हैं। मीडिया-अर्थशास्त्र के जानकार बताते हैं कि इसके लिए गुरुओं के प्रबंधक चैनलों को मोटी रकम देते हैं। अब अगर इसमें कस्बों से लेकर महानगरों में लगभग हर दिन होने वाले प्रवचनों, सार्इं और भगवती जागरण आदि को भी जोड़ लें तो हमारा देश-समाज अतिशय धार्मिक और आध्यात्मिक दिखेगा। खुद गुरुओं को प्रवचन करते कई बार इतना भावुक होते देखा जा सकता है कि मानो सारे जगत की करुणा उन्हीं में समा गई है। साधारण भक्तों की बात यहां अलग है, क्योंकि भारत के औसत पारिवारिक जीवन में जीविका और आपसी रिश्तों से जुड़े इतने दबाव और तनाव होते हैं कि उन्हें तो एक तरह से ऐसे सत्संग में आकर राहत ही महसूस होती है।
भक्तों को सत्संग, कीर्तन और प्रवचन भले ही दुख और निराशा से बचने और जीवन में कोई सही ठौर पाने का उपाय लगते हों लेकिन गुरुओं और मीडिया के बीच यह पूरी तरह एक व्यावसायिक मामला होता है। यहां यह गौरतलब है कि कई बडेÞ गुरु तो प्रवचन के मंच से अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए यह बताने से नहीं चूकते कि अभी कौन-सा नौकरशाह या मंत्री उनके पैर छूकर गया है।
असल में गुरुओं के सत्ता-तंत्र के इन बाहरी लक्षणों के पीछे

काम करने वाली व्यवस्था आमतौर पर बहुत गोपन रखी जाती है। पिछले बीस-पचीस   सालों में धर्म का प्रभामंडल और उसकी दृश्यता कुछ ऐसे ही संदिग्ध साधनों के सहारे परवान चढ़ी है। मजे की बात यह है कि धार्मिक गुरु और उनके संगठन अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि लोगबाग धर्म-च्युत होते जा रहे हैं, जबकि ठीक इसी बीच धर्म-गुरुओं के बीच सत्ता का यह प्रदर्शन लगातार बढ़ता गया है।  
यह संभवत: इस बात का परिणाम है कि हमारे समाज में राजनीतिक नेतृत्व ने धर्म को हमेशा पड़ताल से अलग रखा है। जबकि हम जानते हैं कि मठों, मंदिरों, और बडेÞ आश्रमों में गद््दी के लिए भयावह खूनी संघर्ष चलते रहे हैं। यही नहीं, पिछले दिनों आश्रमों में होने वाली दुर्घटनाओं को लेकर सीधे तौर पर जिम्मेदार होने के बावजूद इन आश्रमों के कर्ताधर्ताओं पर किसी तरह की आंच नहीं आई है। हैरत की बात है कि इतना सब होने के बाद भी समाज पर उनका प्रभाव कम नहीं होता। विचित्र यह है कि किसी बड़े खुलासे या प्रकरण के बाद नेता का राजनीतिक जीवन तो चौपट हो सकता है लेकिन धर्म-गुरु की हैसियत और रुतबा वैसा ही बना रहता है।
हमारे समाज में धर्म के सामाजिक और राजनीतिक इस्तेमाल का यह अजीब पहलू है कि आम आदमी तो जीवन की परेशानियों से निजात पाने के लिए गुरुओं की शरण में जाता है, जबकि राजनेता बाकायदा अपने राजनीतिक लाभ-हानि का पंचांग जानने के लिए उनकी सेवा लेते हैं। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा तो अपना इस्तीफा भी गुरु या ज्योतिषी आदि से पूछ कर देते हैं। और जैसे ही उनकी सत्ता डिगने लगती है तो उन्हें यही लगता है कि उन्हें अनिष्टकारी शक्तियों ने घेर लिया है। विरोधियों को परास्त करने के लिए भी वे तंत्र-मंत्र का ही सहारा लेते हैं।
अब से कई वर्ष पहले हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री ने भी सत्ता में अपनी वापसी के लिए हरिद्वार में कई घंटे चलने वाला एक गोपनीय कर्मकांड कराया था। क्या इसे राजनीति और धर्म का वैसा ही अपवित्र और अवांछित गठजोड़ नहीं कहा जाएगा जैसा कि राजनीति और अपराध के बारे में कहा जाता है?
इस तथ्य की भले ही आधिकारिक रूप से पुष्टि न की जा सके, लेकिन यह एक आम सच्चाई है कि देश में हर बडेÞ आश्रम पर एक नहीं बल्कि कई सारे नेताओं का वरदहस्त रहता है। अगर उन आश्रमों के बारे में कुछ गड़बड़ियां भी सामने आती हैं तो सिर्फ रस्मी कार्रवाई होती है। ऐसे आश्रमों की आय और उनके वित्तीय ढांचे के बारे में कोई जानना चाहे तो उसे पहले कदम पर ही निराश होना पडेÞगा।
समूचे प्रसंग में इस बात को अलग से कहना जरूरी है कि हमारे समाज में भाग्यवाद और अंधविश्वास की बढ़ती प्रवृत्ति राजनीतिक जवाबदेही की विफलता का ही परिणाम है। क्योंकि अगर राजनीतिक व्यवस्था जनकल्याण के लिए प्रतिबद्ध होकर काम करे तो शायद आम जनता को धर्म-गुरुओं की शरण ही न लेनी पड़े। विडंबना यह है कि धर्म और राजनीति के इस गठजोड़ पर लोगों का अलग से ध्यान नहीं जाता। इस सबका दुखद पहलू यह है कि धर्म की यह जकड़न ठीक उसी दौर में ज्यादा सख्त हुई है जब यह कहा जा रहा है कि देश पिछडेÞपन से निकल कर समृद्धि और विकास के रास्ते पर जा रहा है। हमारे समाज में एक ऐसी धार्मिकता बढ़ती जा रही है जिसका जीवन में शांति, आपसदारी, नैतिकता और ईमानदारी से कोई ताल्लुक नहीं दिखता। यह एक ऐसी धार्मिकता है जो लोगों को अपने निजी स्वार्थों को किसी भी तरह हासिल कर लेने के नुस्खे बताती है। उसे इस बात की जैसे कोई चिंता ही नहीं रह गई है कि सिर्फ निजी हितों को किसी भी कीमत पर साध लेने की इस भावना को प्रश्रय देने से समाज का वह बुनियादी ढांचा ही बिखर जाएगा जो विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति के लिए संबल का काम करता है।
दरअसल, आर्थिक उदारीकरण के इन वर्षों में जैसे-जैसे व्यावसायिकता से संरचित यह धार्मिकता फलती-फूलती गई है वैसे-वैसे लोक-धर्म के उस सहज, सरल और लंद-फंद से मुक्त रूप का भी अवसान होता गया है जिसमें दूसरों का हक मारने या किसी के साथ अन्याय करने को अधार्मिक कृत्य माना जाता था और आमतौर पर लोग ऐसे किसी कर्म से यथासंभव बचने की कोशिश करते थे। लेकिन तरल नकदी, उपभोग की कामनाओं और शहरी जीवन के अनिश्चित घालमेल में पनपी यह धार्मिकता लोगों को कुछ भी श्रेयस्कर नहीं दे पाती, जो अब या तो प्रतिस्पर्धा में जीते हैं या फिर अजनबियत में।
गुरुओं के पास सत्संग और प्रवचनों में आने से पहले तो लोग  आत्म-केंद्रित जीवन जीते ही हैं, लेकिन इस तरह के धार्मिक अनुष्ठान से भी उन्हें कोई ऐसी अंतर्दृष्टि नहीं मिलती कि वे खुद को अपने संकीर्ण आत्म से निकाल कर वृहत्तर समाज के दुख-सुख के साथ जोड़ सकें। धर्म-गुरु शास्त्रों से चाहे कितने भी उद्धरण दे लें, लोगों को किसी भी सीमा तक भाव विभोर कर दें, हकीकत यह है कि खुद उन्हीं के पास इस बात की दृष्टि नहीं रह गई है कि सामूहिक जीवन को कैसे सह-अस्तित्व की सुंदरता में बदला जाए।
कहना न होगा कि सुरक्षा-जांच से छूट की मांग सत्ता की इसी मानसिकता से पैदा हुई है जिसमें धर्म-गुरु खुद साधारण नागरिक न रहकर विशेषाधिकारों के आदी हो गए हैं। इसीलिए देश में नैतिकता के चौतरफा पसरे संकट के बीच धर्म-गुरुओं का आचरण कतई ऐसा नहीं रह गया है जिससे साधारण जन अच्छा और नेक होने की प्रेरणा लें सकें।

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