मौत के मुहाने पर मनरेगा
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नरेगा नाम से शुरू हुई योजना अब मनरेगा नाम से जानी जाती है। नरेगा में म शब्द जुड़ा महात्मा गांधी के लिए। यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना को सबसे बड़े व्यक्तित्व के साथ जोड़ना कोई ज्यादती नहीं थी। न तो योजना के साथ और न ही महात्मा गांधी के साथ, लेकिन सात साल का सफर पूरा कर चुका मनरेगा अब अपनी मौत मर रहा है। 2 फरवरी को दिल्ली में हुए मनरेगा के आठवें सम्मेलन में भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने इसे दूसरी हरित क्रांति से जोड़कर इसकी सफलता का गुणगान गाया हो लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आम आदमी को रोजगार देने की इस महत्वाकांक्षी योजना को सरकारी भ्रष्टाचार का घुन लग चुका है। 100 दिन की तो दूर साल में औसत 25 दिन की मजदूरी मिल रही है और मेहनताने के नाम पर भ्रष्ट सरकारी तंत्र जो भुगतान कर रहा है वह पारिश्रिक के नाम पर भद्दा मजाक है।
नरेगा से मनरेगा: मनरेगा पहले नरेगा के नाम से जाना जाता था। इस महत्वपूर्ण योजना का शुभारम्भ 2 फरवरी, 2006 से आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिला में किया गया था। पहले सत्र में इस योजना को 200 जिलों में लागू किया गया, जिसे पाँच साल के अंदर पूरे देश में अमलीजामा पहनाया गया। अधिनियम के तहत ग्रामीण भारत के हर बालिग व्यक्ति को पूरे साल में 100 दिन तक अकुशल स्वरुप के रोजगार को मुहैया करवाने की गारंटी दी गई है। इस योजना का लाभ लेने की बहुत ही सरल प्रक्रिया है। सबसे पहले इच्छुक बालिग व्यक्ति को ग्राम सभा में निबंधन करवाना होता है। आवेदनों की जाँच ग्राम पंचायत के द्वारा की जाती है। जाँच में मोटे तौर पर यह देखा जाता है कि क्या आवेदक बालिग है? यदि है तो क्या वह संबंधित गाँव का निवासी है? दोनों शर्तों की कसौटी पर खरे उतरने वाले आवेदकों का निबंधन कर लिया जाता है। तदुपरांत उन्हें जॉब कार्ड जारी किया जाता है। जॉब कार्ड धारक सादे कागज पर लिखा आवेदन ग्राम पंचायत या ब्लॉक स्तर पर कार्यक्रम अधिकारी के पास समर्पित करके रोजगार की माँग कर सकता है।
इस बाबत आवेदक आवेदन प्राप्ति की रसीद भी संबंधित कर्मचारी या अधिकारी से माँग सकता है। आवेदन जमा करने की तिथि के 15 दिनों के बाद रोजगार उपलब्ध करवाने की माँग की जा सकती है। इसके बरक्स ध्यान देने योग्य बात यह है कि वैसे जॉब कार्ड धारक, जो पहले से काम कर रहे हैं, वे भी इस अधिनियम के तहत रोजगार की माँग कर सकते हैं। रोजगार उपलब्ध करवाने में महिलाओं को तरजीह देने की वकालत योजना में की गई है। प्रदान किये जाने वाले रोजगार में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करना जरुरी होता है। सप्ताह में 6 दिनों तक काम मुहैया करवाने का प्रावधान है, जिसे 14 दिनों तक लगातार उपलब्ध करवाया जा सकता है। प्रस्तावित लाभार्थियों को ग्राम पंचायत या कार्यक्रम अधिकारी के द्वारा रोजगार के स्वरुप, दिनांक, स्थान आदि की सूचना व्यक्तिगत तौर पर दी जाती है या फिर ग्राम पंचायत या ब्लॉक के नोटिस बोर्ड पर लाभार्थियों की सूची को चस्पां किया जाता है। अगर कोई किसी कारणवश निर्धारित तिथि को काम पर नहीं पहुँचता है तो वह रोजगारप्राप्त करने के लिए तत्कालिक तौर पर अयोग्य मान लिया जाता है। पुनः रोजगार पाने के लिए उसे फिर से आवेदन दाखिल करना पड़ता है। अधिनियम में आवेदक को उसके गाँव या निवास स्थान के 5 किलोमीटर के दायरे में रोजगार उपलब्ध करवाने की बंदिश है। इस नियम का अनुपालन नहीं करने पर आवेदक को आवागमन के मद में होने वाले खर्च को दृष्टिगत करके 10 प्रतिशत अधिक मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है। महिलाओं और बुर्जगों के मामले में 5 किलोमीटर के दायरे में रोजगार उपलब्ध करवाने के नियम का कड़ाई से अनुपालन किया जाता है।
मजदूरों को मजदूरी: मनरेगा के तहत निबद्ध मजदूरों को संबंधित राज्य के कृषि मजदूरों के बराबर मजदूरी दिया जाता है। सामान्यतः हर राज्य में राज्य सरकार कृषि कार्य से जुड़े मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण करती है। मजदूरी का भुगतान प्रत्येक सप्ताह किया जाता है। विशेष परिस्थिति में काम करने वाले दिन से 15 दिनों के अंदर मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है। रोजगार के लिए आवेदन देने के बाद भी यदि किसी आवेदक को काम नहीं मिलता है तो उसे अधिनियम के प्रावधानों के तहत बेरोजगारी भत्ता देने का प्रचलन है। 30 दिनों तक तय मजदूरी का 25 प्रतिशत बेरोजगारी भत्ता के रुप में भुगतान किया जाता है। उसके बाद भत्ता बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया जाता है, जिसे 100 दिनों तक रोजगार पाने की पात्रता के अनुसार चालू वित्त वर्ष में उपलब्ध करवाना होता है। कार्यस्थल पर ठेकेदार के द्वारा मजदूरों के लिए पीने योग्य पानी, आराम करने के लिए आश्रयस्थल, फर्स्ट एड बॉक्स आदि की व्यवस्था की जाती है। दुघर्टना की स्थिति में मजदूरों का समुचित ईलाज संबंधित राज्य सरकार के द्वारा करवाया जाता है। अस्तपताल में भर्ती करवाने पर दवाई एवं ईलाज का इंतजाम भी राज्य सरकार के द्वारा करने का प्रावधान है। साथ ही, उक्त अवधि में 50 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान दुघर्टनाग्रस्त मजदूर को किया जाता है। कार्यस्थल पर पूर्ण रुप से अपंग या मृत्यु होनेकी स्थिति में संबंधित मजदूर या उसके वारिस को 25,000 हजार रुपये हर्जाने के तौर पर प्रदान किया जाता है। सामान्य तौर पर इस अधिनियम के तहत भूजल संरक्षण, वनीकरण, भूमिसुधार, परम्परागत जल स्रोतों के नवीनीकरण, बाढ़ नियंत्रण, सड़क निर्माण आदि से जुड़े हुए काम मजदूरों से करवाये जाते हैं।
गबन और घोटाले का राज: जाहिर है, मनरेगा की संकल्पना रोजगारपरक होने के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्र के संपूर्ण विकास से जुड़ा हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार के कारण इस योजना का लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहा है। भ्रष्टाचार की परत मोटी हो चुकी है, जिसकी शुरुआत ग्राम सभा से होती है। आवेदन जमा करने से लेकर उसकी जाँच की प्रक्रिया को पूरा करने के क्रम में खुलेआम अनियमितता बरती जाती है। एक ही व्यक्ति का निबंधन आसपास के कई गाँवों की ग्राम सभाओं में हो जाता है। बेजा लाभ कमाने के लिए फर्जी व्यक्तियों, जिनका हकीकत में कोई अस्तित्व नहीं होता है का निबंधन सरपंच और सचिव की मिलीभगत से किया जाता है। बैंक के माध्यम से लाभार्थियों को उनकी मजदूरी का भुगतान करने की व्यवस्था करने के बाद से सरकारी धन के दुरुपयोग में कमी आई है। फिर भी मजदूरों को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है। इसके बाबत भ्रष्टाचारियों ने एक नई विधा को विकसित किया है। अनपढ़ मजदूर बैंक से अपनी मजदूरी की निकासी तो जरुर करते हैं, लेकिन बिचैलिया जबर्दस्ती उनसे अपना कमीशन ले लेताहै। कार्य को संपन्न करवाने वाली एजेंसी या संस्था कागजों पर कार्यों को पूरा करने में माहिर होते हैं। बाकायदा फर्जी मजदूरों को बैंकों के माध्यम से मजदूरी का भुगतान किया जाता है। तालाब व कुएँ खोदने और पुनष्चः उसी को भरने जैसे कई मामले प्रकाश में आये हैं। इस परिप्रेक्ष्य में बैंकों में फर्जी खाते खुलने जैसी सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है। बैंकरों के ऐसे मामलों में मिलीभगत भी हो सकती है। कई मामलों में यह पाया गया है कि सरपंच एवं सचिव ने फर्जी दस्तखत के द्वारा आवंटित राशि का गबन किया है। भ्रष्टाचार का यह खेल कभी समाप्त नहीं होता है। ब्लॉक स्तर के कार्यक्रम अधिकारी से लेकर अन्यान्य समस्त प्रशासनिक अधिकारी योजना के मद में आवंटित राशि के बंदरबाँट में शामिल होते हैं। स्वभाविक रुप से इस काले धन में सबसे बड़ा हिस्सा नेताओं व मंत्रियों का होता है। आज तकरीबन सभी राज्यों में मनरेगा के लिए आवंटित फंड का व्यापक पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, छतीसगढ़, ओडिसा आदि राज्यों का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
सरकार फिलहाल जीडीपी का तकरीबन एक प्रतिशत इस योजना पर खर्च कर रही है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सभी राज्यों में सामाजिक अंकेक्षण करवाने की सरकार की योजना है। विगत वर्षों में इसकी मदद से भ्रष्टाचार के अनेकानेक बड़े मामले प्रकाश में आये हैं। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में मनरेगा में व्याप्त खामियों का खुला सासामाजिक अंकेक्षण के दरम्यान ही हुआ था। दूसरे राज्यों में भी इस प्रणाली के द्वारा भ्रष्टाचार उजागर हो रहा है। उल्लेखनीय है कि आंध्र प्रदेश के मॉडल पर सामाजिक अंकेक्षण को पूरे देश में लागू करने का प्रस्ताव है। इसके अंतगर्त देश के हर राज्य में एक स्वतंत्र इकाई की स्थापना की जाएगी। इस इकाई को डायरेक्टरेट ऑफ स्टेट के नाम से जाना जायेगा, जिसके अध्यक्ष नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक होंगे। इस बॉडी में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के अलावा चार्टड एकाउंटेंट एवं गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। इसके लिए होने वाले खर्च को केंद्र सरकार वहन करेगी। मनरेगा के आलोक में ग्राम सभा के स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले में तेजी आने के कारण सामाजिक अंकेक्षण को प्रभावषाली बनाने के लिए ग्राम सभा को पूर्व में प्रदत्त विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया है। गौरतलब है कि पहले ग्रामीण स्तर पर सामाजिक अंकेक्षण का काम सरपंच करते थे। इसके पीछे यह अवधारणा थी कि मनरेगा से संबंधित विवादों का निपटारा ग्रामीण स्तर पर ही कर लिया जाएगा। इस कार्य को अंजाम देने के लिए इस अधिनियम के अनुच्छेद 1 की कंडिका 13 बी को हटाया गया है। इस परिप्रेक्ष्य में ग्रामीण मंत्रालय चाहता है कि हर राज्य सामाजिक अंकेक्षण का कार्य अपने स्तर पर पूरा करके मंत्रालय को छह माह के अंतराल पर रिपोर्ट भेजता रहे, ताकि मंत्रालय मनरेगा के तहत चल रही हर गतिविधि पर अपनी नजर रख सके और माहौल बिगड़ने परसमयानुसार कदम भी उठा सके।
रोजगार उपलब्ध करवाने की गारंटी वाली इस योजना की सातवीं वर्षगांठ पर सप्रंग सरकार ने इसके हर पहलू की समीक्षा की है। इसके बरक्स चिंता की बात यह है कि आहिस्ता-आहिस्ता इस योजना की लोकप्रियता में कमी आ रही है।अर्थ का अकाल: जानकारों के मुताबिक खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में पैसों की कमी सबसे बड़ी रुकावट है। चालू वित्त वर्ष के जनवरी, 2013 तक बेरोजगारों को औसतन 34.65 दिनों तक ही काम मिला है। वित्तीय वर्ष 2009-10 में कार्यदिवसों की संख्या 53.99दिन थी, वहीं वित्तीय वर्ष 2010-11 में यह 46.79 दिन था और वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह आँकड़ा महज 42.43 दिन था। मनरेगा के तहत राज्यवार प्रदर्शन के मामले में वित्तीय वर्ष 2011-12 में आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक औसतन 57 दिन ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध करवाया गया, वहीं सबसे कम काम पश्चिम बंगाल में दिया गया। वहाँ वित्तीय वर्ष 2011-12 में 31 दिन काम उपलब्ध करवाया गया, वहीं वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह आँकड़ा महज 26 दिन था। चालू वित्त वर्ष में इस राज्य में जनवरी, 2013 तक केवल 25 दिन काम उपलब्ध करवाया गया है। इस संदर्भ में राजस्थान का प्रदर्शन वर्ष, 2010 तक अच्छा रहा था। वहां उस साल ग्रामीणों को 52 दिन काम दिया गया था, जो चालू वित्त वर्ष में जनवरी, 2013 तक घटकर 37 दिन रह गया है। कर्नाटक में भी कार्यदिवसों की संख्या घटकर 50 से 24 हो हो गई है।
रोजगार उपलब्ध करवाने की गारंटी वाली इस योजना की सातवीं वर्षगांठ पर सप्रंग सरकार ने इसके हर पहलू की समीक्षा की है। इसके बरक्स चिंता की बात यह है कि आहिस्ता-आहिस्ता इस योजना की लोकप्रियता में कमी आ रही है।अर्थ का अकाल: जानकारों के मुताबिक खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में पैसों की कमी सबसे बड़ी रुकावट है। चालू वित्त वर्ष के जनवरी, 2013 तक बेरोजगारों को औसतन 34.65 दिनों तक ही काम मिला है। वित्तीय वर्ष 2009-10 में कार्यदिवसों की संख्या 53.99दिन थी, वहीं वित्तीय वर्ष 2010-11 में यह 46.79 दिन था और वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह आँकड़ा महज 42.43 दिन था। मनरेगा के तहत राज्यवार प्रदर्शन के मामले में वित्तीय वर्ष 2011-12 में आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक औसतन 57 दिन ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध करवाया गया, वहीं सबसे कम काम पश्चिम बंगाल में दिया गया। वहाँ वित्तीय वर्ष 2011-12 में 31 दिन काम उपलब्ध करवाया गया, वहीं वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह आँकड़ा महज 26 दिन था। चालू वित्त वर्ष में इस राज्य में जनवरी, 2013 तक केवल 25 दिन काम उपलब्ध करवाया गया है। इस संदर्भ में राजस्थान का प्रदर्शन वर्ष, 2010 तक अच्छा रहा था। वहां उस साल ग्रामीणों को 52 दिन काम दिया गया था, जो चालू वित्त वर्ष में जनवरी, 2013 तक घटकर 37 दिन रह गया है। कर्नाटक में भी कार्यदिवसों की संख्या घटकर 50 से 24 हो हो गई है।
पड़ताल से स्पष्ट है कि वर्ष, 2010 तक कार्यदिवसों के मामले में तकरीबन सभी राज्यों का प्रदर्शन अच्छा रहा था, लेकिन बाद में यह योजना ही अकालग्रस्त होती नजर आ रही है। इस योजना के लिए सरकार द्वारा आवंटित की जाने वाली राशि में भी भारी कमी आई है। वित्तीय वर्ष 2010-11 में मनरेगा के लिए 39377 करोड़ रुपये खर्च किये गये, जबकि वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह राशि 37637 करोड़ रुपये थी। चालू वित्त वर्ष 2012-13 में जनवरी, 2013 तक मनरेगा के लिए सिर्फ 26,508 करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण में भी भारी विवाद रहा है। राजस्थान में कृषि मजदूरों को 147 रुपया भुगतान किया जा रहा है, जबकि मनरेगा के अंतर्गत 133 रुपया बतौर मजदूरी देने का प्रावधान है। हाल ही में राजस्थान के जयपुर जिले के डुडू ब्लॉक में मनरेगा के तहत प्रतिदिन सिर्फ 1 रुपये से 15 रुपये तक मजदूरी देने का मामला प्रकाश में आया है। संबंधित कार्य को करवाने वाले कनीय अभियंता के अनुसार उक्त कार्य के लिए मजदूरी के तौर भुगतान की गई राशि प्रर्याप्त थी। मजदूरी के भुगतान में देरी, आवेदन देने के बाद भी रोजगार या बेरोगार भत्ता का नहीं मिलना, राज्य के द्वारा निर्धारित मजदूरी से कम मजदूरी का भुगतान करना, संपत्ति का निर्माण नहीं हो पाना जैसी समस्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। देश के लगभग सभी राज्यों में चल रही इस तरह की समस्या के कारण मनरेगा अपनी मौत की ओर अग्रसर हो रहा है, जबकि इस पर सरकार के द्वारा अब तक 1.3 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। बावजूद इसके राजस्थान में इस अधिनियम के अंतगर्त साल में 100 दिन के बजाए 200 दिन रोजगार मुहैया करवाने की गारंटी की माँग की जा रही है।
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