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Monday, 4 February 2013

अरी ओ करुणा प्रभामय


अरी ओ करुणा प्रभामय

Saturday, 02 February 2013 12:31
सुधीश पचौरी 
जनसत्ता 2 फरवरी, 2013: अज्ञेय की यह काव्यपंक्ति सहसा याद आई जब सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने बताया कि वे और उनकी टीम के अन्य दो सदस्य- न्यायमूर्ति लीला सेठ और वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम एक लड़की की बलात्कार-यातना की भयावह आपबीती सुन फूट-फूट कर रोने लगे। उस लड़की की मदद के लिए उन सब ने अपने पास से जोड़ कर डेढ़ लाख रुपए दिए ताकि कुछ सहारा हो सके।
यह वह दुर्लभ करुणा थी जिसने कानूनवेत्ताओं के हृदयों को विगलित कर दिया। यही करुणा इंडिया गेट पर बनी थी जिसके हाहाकार से हिल कर सरकार ने न्यायमूर्ति वर्मा की अगुआई में स्त्रियों पर होते अत्याचारों के प्रतिकार से जुड़ी अपराध-न्याय प्रक्रिया में सुधार करने के लिए एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। और यही वह अपेक्षित करुणा रही जिसने उनतीस दिनों में एक युगांतकारी रिपोर्ट तैयार करा दी, जो गृहमंत्रालय को सौंप दी गई, जिसके मुख्य अंश और प्रस्ताव मीडिया ने बराबर छापे। 
छह सौ इकतीस पेज की यह रिपोर्ट महिला सुरक्षा और सबलीकरण के समकालीन विमर्श में कई प्रस्थापना-परिवर्तन करने वाली है। यह विमर्श उस युवाक्षोभ का संताप है जो तेईस वर्षीया युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के विरोध में इंडिया गेट से लेकर जंतर मंतर तक क्षुब्ध दिखा और मीडिया का लाइव कवरेज पाकर हर गांव-कस्बे नगर-महानगर तक पहुंचा, जिसकी अनुगंूज दावोस सम्मेलन तक में सुनी गई। यह किसी आम आयोग की रिपोर्ट तरह नहीं बनी बल्कि एक अचानक बन चले ऐतिहासिक समय में बनी है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
निविड़ अकेले और निरे स्वार्थसंकुल समाज ने पता नहीं कब से दूसरे का दर्द महसूस करना बंद कर दिया था। बदहवासी और बर्बरता से संचालित समाज की आंखों के आंसू सूख चले थे। ऐसे में उस अनाम तेईस वर्षीया पेरामेडिक छात्रा की अन्याय, उत्पीड़न और यातना से चीत्कार करती, क्षोभ बिफरती कथा मानवीय संवेदना का विकट प्रतीक बन कर समाज की अवसन्न चेतना को झकझोर गई और वह सुषुप्त करुणा जग उठी जो समाज के सबसे कमजोर तबके की अंतहीन पीड़ा को देख कर द्रवित हो उठती है। वे कुछ दिन इंडिया गेट पाषाणों तक को हिला गए।
जिस टीवी ने मानवीय भावनाओं को अपनी चमकीली बदहवासी में सुला दिया था, उसी के प्रसारण देख-देख हरेक के दिल में स्त्री की रक्षा का भाव जाग उठा। समाज में तारी पुल्लिंगी विमर्श को अपने ठहरे स्पेस को पुनर्परिभाषित करने की मजबूरी महसूस हुई और तरह-तरह से स्त्री रक्षा के नुस्खे बताए जाने लगे। नए किस्म का स्त्रीत्ववादी विमर्श अपने सीमित अभिजात घेरे से बाहर निकल आया और सुरक्षा के ठोस उपायों के विमर्श में सक्रिय हो उठा! यह रिपोर्ट एक जटिल वातावरण की उपज है इसीलिए इसकी कीमत है। 
इसीलिए गृह मंत्रालय को रिपोर्ट पेश करने के बाद न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने जो बातें कहीं उन्हें भी रिपोर्ट के साथ ही पढ़ा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति वर्मा एक संवेदनशील जज रहे हैं। उन्होंने इंडिया गेट के युवा आक्रोश को अति मूल्यवान मान कर कहा कि 'सरकार जल्द कार्रवाई करे; अगर कार्रवाई नहीं की तो युवा वर्ग माफ नहीं करेगा।'
रिपोर्ट में बलात्कार के अपराधी के लिए सजा-ए-मौत का सुझाव नहीं दिया गया है। रासायनिक ढंग से बधिया कर देने की प्रक्रिया को स्वीकार नहीं किया है। बलात्कार करने वाले नाबालिगों की उम्र को कम करने के सुझावों को नहीं माना है। जाहिर है कि  रिपोर्ट निष्कपट करुणा से संचालित है, फौरी प्रतिशोध से नहीं। न वह किसी एक वर्ग की तुष्टि के लिए बनी है। उसने समय और समग्र समाज की सचाइयों के स्वीकार के बीच जरूरी कानूनी बदलाव का रास्ता बताया है। 
यह रिपोर्ट बलात्कारी की कैद की अवधि जीवनपर्यंत तक करने और बलात्कार की परिभाषा का पुनर्निर्धारण करने की सलाह देती है। छेड़छाड़, पीछा करने और ताक-झांक (वोयूरिज्म) को भी  रिपोर्ट अपराध की कोटि में मानती है (यह रिपोर्ट हिंदी में और अन्य भारतीय भाषाओं हो तो यह स्त्री रक्षा का व्यापक वातावरण तैयार करने में मददगार होगी)।
मीडिया में प्रसारित रिपोर्ट के अंश बताते हैं कि यह महज एक रिपोर्ट नहीं है बल्कि भारतीय स्त्री के स्पेस की नई परिभाषा देने वाली, प्रस्थापना परिवर्तनकारी रिपोर्ट है। वह स्त्री-विरोधी अपराधों के प्रचलित नाना रूपों पर विचार कर एक नई न्याय-व्यवस्था की पेशकश करने वाली है। इसे संसदीय पटल पर विचार के लिए रखा जाना जरूरी है और कानूनों में अपेक्षित परिर्वतन किए जाने जरूरी हैं। समयबद्ध सुधार जरूरी हैं। अगर यह रिपोर्ट अपने किंचित संशोधित रूप में पारित होकर विधान-परिवर्तनकारीहुई तो एक बहुत बड़ी बात होगी। हम स्त्री की स्वायत्तता और मुक्ति की दिशा में एक कदम आगे बढेंÞगे। नया समाज बन सकेगा। अकेली, अरक्षित स्त्री को अन्याय का शिकार नहीं होना होगा। उसे उसकी जरूरी आवाज और समय पर न्याय मिल सकेगा।
तो भी अनेक संशय सालते हैं: अपने हड़बड़ी, अवसरवाद और अंतर्कलह में फंसे पस्त समाज में क्या ऐसा गुणात्मक परिवर्तन हो पाएगा? और, अगर ऐसा हो भी गया तो क्या इतना भर पर्याप्त रहेगा या कि कुछ और भी जरूरी है जिसे आंदोलन ने जगाया है? 
जी हां, रिपोर्ट से बाहर आती आवाजों में एक आवाज वह भी है जो कहती है कि इस देश में कानून मात्र पर्याप्त नहीं है। जरूरी है, समाज की मानसिकता बदले। उसमें भी मर्दवादी समाज की मानसिकता बदले।

वह बदलाव पुल्लिंगी समाज के अपने बीच से उपजे। समाज अपना दिमाग बदले। बदलाव   के उपायों पर खुद विचार करे। अपेक्षित संवेदनायुक्त बने। अपने जरूरी और बुनियादी बदलाव की नींव स्वयं रखे।
कानूनी बदलाव के अतिरिक्त एक बड़ा एजेंडा समाज के सांस्कृतिक ढांचे में बदलाव का है। कानून से न्याय की प्रक्रिया अधिक मानवीय और फौरी भले हो जाए लेकिन कानून लोगों के दिमाग नहीं बदला करते। कानून से आदमी डर सकता है लेकिन वह नए चोर-रास्ते बना लेता है। आखिर कानून में मर्दवाद ही हावी है न! और सिर्फ पुरुषों की पुल्लिंगी मानसिकता बदलने से भी काम नहीं चलने वाला। समाज में स्त्री के भीतर संस्कार-स्वरूप बैठा दी गई पुल्लिंगी चेतना समाई रहती है, उसमें भी अपेक्षित संवेदनशील परिवर्तन जरूरी है।
सेक्सिज्म के अनाचार को रोकना है तो भाषा तक को बदलना होगा। यह काम व्याप्त संस्कारों को बदलने से ही संभव है। और एक दिन या किसी के आदेश से नहीं होना है। सुधार के लिए अपेक्षित धैर्य और परस्पर मित्र-संवाद-विवाद आवश्यक है। संसद और सरकार का काम तो हो जाएगा लेकिन अगर मानसिकता में बदलाव नहीं हुआ तो कुछ नहीं होगा। एक समान नागरिक के रूप में स्त्री अपने आपको निडर, महफूज और स्वतंत्र न समझे तो सारा कानून धरा रह जाएगा!
यहीं अंग्रेजी अभिजात वर्ग को स्त्रीत्ववादी विमर्श संबंधी भाषा की सीमा को समझना होगा। यह भाषा प्राय: विशेषाधिकृत महफूज बाशिंदों की भाषा होती है जिसमें कानूनी सख्ती की मांग और तुरंत दंड देने के आग्रह तर्क पर हावी रहते हैं। वे अक्सर पश्चिमी विमर्शों से परिचालित रहते हैं। स्त्रीत्व की देशज भाषा नहीं बन पाती। उसमें एक आम हिंदुस्तानी औरत का मुहावरा शामिल नहीं होता। आम औरत उनके विचार के लिए 'एक मुद््दा' जरूर बनती है लेकिन उसकी नाना जटिल यातनाओं की रिकार्डिंग नहीं होती।
यह विमर्श सही होते हुए भी अपर्याप्त नजर आता है। गरीबी में घर चलाती अकेली, 'जो मार खा रोई नहीं' स्त्री को, जिसकी भाषा तक उसे नहीं मिली है, जितने संताप और दुख झेलने पड़ते हैं, वे अभिजात परिधि के निजी दर्द बन कर नहीं आते। अभिजात तर्क से प्रताड़ना का प्रतिवेदन करते हैं लेकिन संवेदनात्मक अनुभव बहुत जगह नहीं पाते। वे पक्षधर होकर भी निचली सतहों पर नाना तरह से आहत औरतों के दिलों में जगह नहीं बना पाते। 
शिकार बनाई गई स्त्री अन्याय का एक संदर्भ या फुटनोट बन कर रह जाती है। प्रसारित बहसें महत्त्वपूर्ण सूत्र देने के बावजूद एक सीमित दायरे में चक्कर मारती रह जाती हैं। वे वंचिताएं घर के कलह भरे कामकाज में दिन-रात उलझी बिखरी गंवई कस्बाती औरतों की वाणी नहीं बन पातीं। मीडिया घटना और आक्रोश का प्रसारण कर फिर अपनी चमक-दमक वाली बाजार की मायानगरी में लौट जाता है। 
अभिजात मिजाज का मीडिया इसके आगे जा भी नहीं सकता। स्त्री-संगठन स्त्री-अधिकार संबंधी जरूरी आंदोलन कर सकते हैं लेकिन वे स्त्री के अचेतन मन के डरों में नहीं घुस पाते। वे इतने दिन से सक्रिय हैं तो भी सतत सामाजिक सुधार उनका एजेंडा नहीं बनता। इस दूरी को कानून नहीं, सामाजिक सुधार के आत्मीय प्रयत्न ही पाट सकते हैं।
हमारा समाज अर्ध कानूनी और अर्ध सभ्य है। उसका दिल-दिमाग कुछ देर के लिए चौंक कर करुणाप्लुत भले हो, अंतत: वह एक सनकीपन में रमता है जहां बदलाव का हर प्रयत्न शुरू होने से ही पहले संदिग्ध माना जाता है। ऐसी पथरीली मानसिकता है कि बदलाव की संभावनाओं तक को संदेह से देखती है या फिर इतने तुरंता बदलाव की बात करती है जो दिए गए ढांचे में संभव नहीं होते।
बलात्कार के प्रतिरोधी जनविमर्श की प्रतिक्रिया में जो पुराणपंथी मत प्रकट हुए उनकी सीमाएं इस बार तुरंत ही प्रकट हुर्इं। वे अपेक्षित उपहास और धिक्कार का विषय बने। वे मर्दवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति थे जो स्त्री की रक्षा के लिए स्त्री को अपनी पुरानी संहिता में कैद करना चाहते थे। 
यह सामूहिक बलात्कार की भयावह घटना से घबराया और अपने ही अपराध-बोध से विचलित मर्दवाद था जो अपने चारों ओर व्याप्त मर्दवादी मूल्यों को जिम्मेदार न मान कर स्त्री को, उसकी देह को, उसके मन को अपनी बची-खुची बौखलाई ताकत से एक बार फिर परिभाषित करना चाहता था।
यह आश्चर्य का विषय नहीं कि ऐसी तर्कहीन पुल्लिंगी मानसिकता लगभग हर दल के एक न एक नेता या धार्मिक नेता के मुखारविंद से प्रकट हुई। यह समाज में समाए पुल्लिंगी मर्दवादी विमर्श की व्याप्ति और ताकत को बताती है जिसे पहली बार चुनौती मिली है। अब तक का प्रचलित अभिजात स्त्रीत्ववादी विमर्श बिना किसी प्रकट और ठोस प्रतिलोम के विचार के स्तर पर बनता आया था। मथुरा या शाहबानो के केस समय-समय पर जागे आकुल पल रहे जो कानूनी बहसों में बीत गए। इंडिया गेट ने इन सबके दुख को नवीन करुणा से जोड़ दिया। नवीन 'परदुखकातरता' इसे भूलने नहीं देगी। वह बलात्कार सबकी त्वचा तक में सिहरन पैदा कर गया है।
करुणा कमजोर की रक्षा का भाव है। करुणा स्वतंत्रता, सक्रियता और विकास की सहयात्री है। करुणा सेंत में नहीं बनती। वह आग्रह करती है कि तुम निष्क्रिय और निष्करुण न बनो! अगर पचास फीसद युवा निष्करुण होने की जगह आज सकरुण सक्रिय बनते हैं तो एक समय बाद आप समाज को स्त्री के पक्ष में सचमुच ही हमदर्दी भरा बनते देख सकते हैं। समाज में करुणा की ऐसी वापसी ऐतिहासिक अनुभव है!


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