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Monday, 4 February 2013

जख्मी जज्बात और सियासत


जख्मी जज्बात और सियासत


Sunday, 03 February 2013 13:02
तवलीन सिंह 
जनसत्ता 3 फरवरी, 2013: इतने लोगों के जज्बातों को चोट पहुंचती है इन दिनों कि शायद जरूरत है एक नए सरकारी महकमे की, जो सिर्फ दुखियारों के चोट खाए जख्मों पर मरहम लगाने का काम करे। नाम कई हो सकते हैं, लेकिन विनम्रता से एक सुझाव पेश करती हूं: मंत्रालय-ए-जख्मी जज्बात। हिंदी में: दुखी भावनाओं का मंत्रालय। इस मंत्रालय के गठन हो जाने के बाद शायद इस देश की असली समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने का समय मिलेगा हमें। 
जिन मुसलमानों और दलितों की भावनाओं को हाल में सदमा पहुंचा है किसी के वक्तव्य के कारण या किसी नई फिल्म के कारण, उनको फुरसत मिलेगी उन गंभीर मसलों की तरफ ध्यान देने की, जिनके बारे में कभी सोचते ही नहीं हैं। क्यों नहीं उनकी भावनाओं को उस समय चोट पहुंचती है जब देखते हैं कि गरीबी रेखा के नीचे अक्सरियात है दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों की? क्यों नहीं तब उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है जब रातों को उनके बच्चे भूखे सोते हैं? या जब बेरोजगारी से बेहाल घूमते हैं उनके नौजवान बेटे-बेटियां? 
क्या इसलिए नहीं उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती कि उनके राजनेता, उनके धार्मिक रहनुमा उनको जानबूझ कर गलत मुद्दों को लेकर भड़काते हैं? उनका फायदा है ऐसा करने में, क्योंकि जानते हैं कि अगर आम आदमी भावनाओं में उलझा रहेगा तो उनका अपना जीवन आसान हो जाता है। चुनावों में रोटी, कपड़ा, मकान के वादे भुला दिए जाते हैं। बेरोजगारी, गरीबी भुला दी जाती है उन क्षणों के लिए जब किसी सिनेमा घर पर हल्ला बोलने का मौका मिलता है या किसी बुद्धिजीवी के वक्तव्य को लेकर अदालतों में मुकदमे दर्ज करने का मौका मिलता है। सलमान रुश्दी या कमल हासन जब निशाने पर होते हैं तो कौन याद करता है रोजमर्रा की मुसीबतें?
जाहिर है कि जब हर दूसरे दिन किसी नई फिल्म या पुस्तक पर प्रतिबंध लग जाता है या किसी लेखक या फिल्म निर्माता को निशाना बनाया जाता है तो भारत के बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों को नुकसान होता है, लेकिन इसकी किसको परवाह है? लेकिन परवाह होनी चाहिए हमें, क्योंकि भारत देश की सबसे बड़ी उपलब्धि है, सबसे बड़ी शक्ति। लोकतंत्र अगर कमजोर हो जाएगा तो भारत कमजोर हो जाएगा, सो मेरा मानना है कि जो लोग आम जनता को फिजूल की बातों में उलझाए रखते हैं वे देश के साथ गद्दारी करते हैं।
इसलिए समझ में नहीं आता कि क्यों राज्य सरकारें उनके साथ सख्ती से नहीं पेश आती हैं जो सिनेमाघरों को जलाने की साजिश रचते हैं, जो लेखकों और कलाकारों को मार डालने की धमकियां देते हैं? सलमान रुश्दी को कोलकाता में आने से रोकने के बदले क्यों नहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने उन लोगों पर पाबंदी लगाई, जो अपनी दुखी भावनाओं के बहाने इस लेखक को मार डालने की फिराक में थे? तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने उन गुटों को क्यों नहीं रोकने की कोशिश की जो उन सिनेमाघरों को जलाने की तैयारी कर रहे थे जिनमें विश्वरूपम दिखाई जाने वाली थी?
गुंडागर्दी अपराध है भारत में, फिल्में बनाना नहीं। बिना फिल्म को देखे नाराज हो गए थे ये लोग, इस बात के बहाने कि जिहादी आतंकवादियों को खलनायक के रूप में दर्शाया गया है इस फिल्म में। अजीब सोच है इन लोगों का कि उनको एतराज इस बात पर ज्यादा नहीं है कि जिहादी आतंकवादी सबसे गंभीर नुकसान करते हैं इस्लाम की छवि का, जब बेगुनाह लोगों को मारते हैं, जब गैर-मुसलिम देशों को दुश्मन समझ 26/11 जैसी घिनौनी हरकतें करते हैं। 
इन लोगों के अजीब सोच से और भी अजीब है सोच हमारी राज्य सरकारों का जो अभी तक समझी नहीं हैं कि उनका प्रथम दायित्व है आम नागरिक की सुरक्षा, उसकी निजी जमीन-जायदाद की सुरक्षा। यह समझ होती अगर तो कोई समस्या ही नहीं रहती क्योंकि उनका ध्यान उन लोगों पर होता जो हिंसा का रास्ता चुनते हैं। उन पर नहीं जो अपने शब्दों या अपनी रचनाओं से दुनिया की गंभीर समस्याओं का विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, उनको समझने की कोशिश में लगे रहते हैं।
क्या कहा जाए इसके बारे में इसके अलावा कि भारत देश में लेखकों और कलाकारों को परेशान करने का दस्तूर पुराना है। याद कीजिए कि सलमान रुश्दी की किताब 'शैतान की आयतें' पर पहली पाबंदी लगाई थी राजीव गांधी की सरकार ने। भारत के महान लेखकों में हैं रुश्दी साहब, लेकिन उनके साथ जो बर्ताव किया है हमारे राजनेताओं ने, हमारे आला अधिकारियों ने, किसी अपराधी के साथ हुआ होता तो ज्यादती होती।
एक दशक तक उनको आने ही नहीं दिया भारत और अब जब आने की इजाजत मिली है उन्हें अपने देश में आने की तो जब भी आते हैं किसी न किसी मुसलिम गुट के कहने पर उनके आने-जाने पर नई पाबंदियां लग जाती हैं। इस बार कोलकाता के साहित्य सम्मेलन में जाने से उनको रोक दिया गया है। कारण? वही दुखी भावनाएं जो कानून व्यवस्था को ऐसी चोट पहुंचा सकती हैं कि बड़े-बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री घुटने टेक देते हैं गुंडागर्दी के सामने।


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