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Monday 7 May 2012

बुध्द विष्णु के अवतार नही है।

बुध्द विष्णु के अवतार नही है।
बुध्द पूर्णीमा पर विशेष
पिछड़ा वर्ग के अध्ययन से बुद्ध की जाति पर पुनर्विचार करना लाजमी है,
क्योंकि इस जाति के आधार पर ही बुद्ध को ब्राम्हणों द्वारा विष्णु के
दसवें अवतार के रूप में प्रतिस्थापित किया गया। इसी प्रतिस्थापना के खेल
में बुद्ध की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर दिया गया, क्योंकि इस स्थापना
से बुद्धिजम का सीधे संविलियन हिन्दुइज्म में ही जाता है।
वास्तव में यह कोशिश हिन्दुवादियों द्वारा बुद्धिवादियों के पचाने की है।
इस कोशिश के पीछे आम जनता में 'पिछड़ा वर्ग' अपनी प्रभुता कायम रखना रहा
है। इसके एक मनतव्य यह भी रहा है कि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक छोटी
से शाखा प्रतीत हो तथा बुद्ध धर्म के प्रति आकर्षण खत्म हो जाये ।
ब्राम्हणवाद इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी रहा। वास्तव में अब बुद्ध
का जाति पर पुनर्विचार किये जाने की नितांत आवश्यकता है। इस बात के
प्रमाण अवश्य मिले हैं कि शाक्य जाति के थे, लेकिन ये जाति शूद्रों में
शुमार होती थी।
बुद्ध को क्षत्रिय कहने का सबसे बड़ा कारण उनका शासक का पुत्र होना है,
जबकि शासक किसी भी जाति का हो सकता था। ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मौजूद
हैं जिनमें यह तथ्य उभरकर आता है कि निचली जाति का व्यक्ति शासक बनने पर
अपनी वंशवाली में सुधार कर क्षत्रिय जाति में स्थापित हो जाता है। ऐसे
कृत्यों के ताजा उदाहरणों में महाराष्टं के शिवाजी तथा बंगाल के सेन वंश
को लिया जा सकता है। इस आधार पर बुद्ध को शाक्य शूद्र वंश का कहने में
कोई जल्दबाजी नहीं होगी, बल्कि कई जगह बुद्ध द्वारा ब्राम्हण के साथ
वार्तालाप में शाक्यों का पक्ष लेते हुए विवरण दिया गया है, लेकिन
बुद्धकाल में शाक्यों की जाति प्रतिष्ठि थी, ऐसा विवरण भी मिलता है। पहला
प्रश्न यह उठता है कि बुद्ध हिन्दु थे या नहीं, तो उसका यह जवाब प्राप्त
तथ्यों के आधार पर यह किया जा सकता है कि वे शाक्य थे और शाक्य भारत में
एक हमलावर के रूप में आये, बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई,
साधारण भाषा में कहंे तो हिन्दुओं से मिल गए। चूंकि वे शासक वर्ग के थे
अनचाहे ही क्षत्रिय होने का दर्जा पा गये, किन्तु महात्मा बुद्ध अपने कई
उपदेशों में शाक्य होने का वर्णन करते हैं तथा शाक्यों का भरपूर पक्षपात
करने की चेष्टा करते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि उस समय शाक्य एवं
ब्राम्हण में वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति थी और बुद्ध धर्म का फैलना यह
सिद्ध करता है कि शाक्यों ने अथवा बुद्ध ने हिन्दूवाद को जबरदस्त शिकस्त
दी थी।
गौरतलब तथ्य यह है कि बुद्ध ने कभी अपने-आपको क्षत्रिय नहीं कहा। बुद्ध
और ब्राम्हण के वार्तालाप में एक जगह ब्राम्हण ने शाक्य को नीच शूद्र
जाति बताया। इस पर अम्बष्ट माणवक का उनर ध्यान देने योग्य है-''श्रवण
गौतम दुष्ट हैं। हे गौतम! शाक्य जाति चण्ड है। है गौतम! शाक्य जाति शूद्र
है। हे गौतम! शाक्य जाति बकवादी है। इभ्य समान होने से शाक्य जाति
ब्राम्हणों का सत्कार नहीं करते, ब्राम्हणों का मान नहीं करते, गुरूकार
नहीं करते, ब्राम्हणों की पूजा नहीं करते।  इस बात से इस संभावना को और
बल मिलता है कि ब्राम्हणों ने शाक्यों को इसी संघर्ष के कारण शूद्र में
ढकेल दिया गया। बुद्ध काल में वे बुद्ध को शूद्र कहते रहे, बाद में लगभग
1000 साल बाद स्मृति काल में अचानक ब्राम्हणों ने बुद्ध को क्षत्रिय बना
लिया, क्योंकि क्षत्रिय वर्ग ब्राम्हण का अनुगामी था। बुद्ध को क्षत्रिय
बताने के दो फायदे थे1 उन्हें शूद्र से सीधे क्षत्रिय में पदोन्नत करने
पर बुद्धवाद पर हिन्दुवाद लादा जा सकता था तथा तमाम आम जनता पिछड़ा वर्ग
जो बुद्धिष्ठ थी, को बिना अनुष्ठान के ही हिन्दू में तब्दील किया जा सकता
था।  यदि उन्हें शूद्र की संज्ञा दी जाती तो वे शूद्रों के स्थाई एवं
अकाट्य भगवान बन जाते। उन्हें शूद्रों से अलग नहीं किया जा सकता और पूरी
जनता हिन्दू धर्म से अलग मानी जाती । शाक्य कौन थे? श्री देवीप्रसाद
चट्टोपध्याय जी अपने अध्ययन लोकायत में बुद्ध को एक जनजाति समाज का बताते
है और तथ्य देते हैं।
बुद्ध स्वयं शाक्य थे। यह याद रखना आवश्यक है कि उस समय शाक्य जनजातीय
चरण में थे, यद्यपि विकास के काफी उच्च स्तर तक पहुंच चुके थे। कुछ
अगे्रज विद्वान भी इस तथ्य को नहीं पकड़ पाए । आगे श्री देवी प्रसाद
चट्टोपाध्याय जी लिखते हैं कि ''शाक्य जनजाति के अंदर संभवत: कई कबीले
'गोत्र' थे। स्वयं बुद्ध गौतम ''गोत्र'' से थे। ऐसा कहा गया है कि यह
ब्राम्हण कबीला था जो प्राचीन इसी १ऋषि१ गौतम के वंशज होने का दावा करते
थे किन्तु इसका प्रमाण बहुत मामूली है । हमेंे कहीं भी यह नहीं मिलता कि
शाक्य स्वयं को ब्राम्हण कहते हों। दूसरी और कई ऐसे कबीले हैं, जो इस
आधार पर बुद्ध के अवशेषों के कुछ भाग पर अपना दावा करते हैं कि बुद्ध की
भांति वे भी खनिय थे ।
यह खनिय का अर्थ योद्धा है१ इस प्रकार देवीप्रसाद जी शाक्य में जनजातीय
होने के तथ्य देते हैं। भगवान बुद्ध का जन्म 567 ई.पू. तथा निर्वाण 487
ई.पू. माना जाता है। पिता का नाम शुद्दोधन और माता का नाम महामाया था।
शुद्धोधन कपिलवस्तु गण के राजा थे। वे शाक्य जाति के इक्ष्वाकु वंश में
थे। डॉ. बुद्ध प्रकाश कहते हैं कि यक्षु शब्द अक्वासा, अक्कका, यकाकू,
यक्यू व इक्ष्वाकु का बदला हुआ रूप है। इनका सम्बन्ध उन हाइकसोस से हो
सकता है जो सेमिटिक लोग थे जिनहोंने 19750 ई.पू. में मिश्र पर आक्रमण
किया था । ये लोग मूल रूप से भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लम्बे सिर वाले
द्रविड़ लोग थे अर्थात बुद्ध आर्य नहीं थे । अनार्यो की तरह शाक्यों में
गणतंत्र गणसंघ व्यवस्था थी । शाक्यगण वज्जीसंघ का एक घटकगण था । इसी
प्रकार शाक्यों मेंे मातृप्रधान परिवार व्यवस्था थी ।`` श्री नवल वियोगी
संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि ''शाक्य बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा
इक्ष्वाकुओं की संतति से था । उनके धार्मिक जीवन के प्रारंभ में उन्हें
नागराजा मुचलिंदा की शरण व सुरक्षा प्राप्त थी । जीवन पर्यंत नागों के
साथ मित्रता के संबंध रहे और मुत्यु के समय के नाग राजाओं ने उनके अस्थि
अवशेषों में से अपना हिस्सा मांगा और प्राप्त करने पर उन पर स्तूपों का
निर्माण किया । डॉ नवल वियोगी अपनी इस बात के समर्थन में आगे कहते हैं कि
-''बुद्ध धर्म तथा असुर नागों की संतानों में निकटता के क्या संबंध थे,
इसके प्रमाण अमरावती व सांची के महास्तूपों के मूर्तियों तथा उभरे हुए
चित्रों में मिलते हैं । इन महास्तूपों में हमें नागलोक, भगवान बुद्ध तथा
उनके चिन्हों का सम्मान अथवा पूजा करते हुए दिखाई पड़ते हैं ।- - - इनमें
से कुछ में बुद्ध के सिरों को फैले हुए सात नागफनों की सुरक्षा में देखा
जाता है । यह नागफन नाग राजाओं की मुख्य पहचान है । ऐसा लगता है अवश्य ही
बुद्ध व नाग जातियों में कोई खून का संबंध था ।`` अत: उपर्युक्त अध्ययन
से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं । १. बुद्ध को क्षत्रिय
कहने के पीछे केवल एक ही दावा है कि वो राजा की संतान है। यह एक बहुत ही
हल्का दावा है । २. बुध़्द द्वारा कई जगह शाक्य का पक्ष लेते हुए
ब्राम्हणों से विवाद करना तथा ब्राम्हणों द्वारा शाक्यों को नीचा दिखाने
की कोशिश यह सिद्ध करती है कि शाक्य निश्चित रूप से वर्ण व्यवस्था से
बाहर की जाति थी, क्योंकि शाक्यों के क्षत्रिय होने पर ब्राम्हणों द्वारा
नीचा दिखाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । ३. श्री देवीप्रसाद
चट्टोपाध्याय का तर्क कि शाक्य जनजातीय थे, बिना ठोस तथ्य के स्वीकार
योग्य नहीं है, किन्तु ब्राम्हण नहीं है । 'गौतम` गोत्र के आधार पर उनके
तर्क स्वीकार योग्य हैं । यदि थोड़ी देर के लिये श्री देवीप्रसाद
चट्टोपध्याय का जनजातीय वाला तर्क स्वीकार कर लिया जाये तो श्री नवल
वियोगी के द्वारा अनार्य होने के लिए दिये गये तथ्य उन्हें अनार्य तो
सिद्ध करती है, किन्तु 'जनजातीय' होने पर अभी और पुष्टि की अपेक्षा है ।
४. अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर इस नतीजे पर पहु!चा जा सकता है कि
बुद्ध आर्य नहीं थे, न ही क्षत्रिय थे, किन्तु बुद्ध के नागवंशी संतति
होने के स्पष्ट प्रमाण भी नहीं मिलते हैं । 5 डॉ. बुद्ध प्रकाश द्वारा
प्रस्तुत तर्क कि` बुद्ध अनार्य है, स्वीकार योग्य है, क्योंकि अनार्य की
विशेषता थी – 1गणतंत्र व्यवस्था 2. मातृप्रधान परिवार 3. द्रविड़ की तरह
लम्बे सिर की बनावट ४. बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्काकुओ से था, जो
कि अनार्य वंश से सम्बन्धित थे। अत: इस निष्कर्ष की पुष्टि देती है कि
बुद्ध भारत के मूलवासी अनार्य की संतान थे। इतिहास से ऐसा ज्ञात होता है
कि बौद्ध शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुद्ध की जाति बदल कर
क्षत्रिय की गई तथा उन्हें विष्णु का दसवां अवतार भी इसी काल में बनाया
गया । यह प्रव्यि बौद्धों का हिन्दुकरण कहलाती है
टीप:-इस लेख को प्रकाशित किया जा सकता है बशर्ते इसके स्त्रोत का उल्लेख
अवश्य करते हुऐ हमें सूचीत करे।
पुस्तक अंश -आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह मिथक एवं
वास्तविकताएं) लेखक- संजीव खुदशाह



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*संजीव खुदशाह**
Sanjeev Khudshah
www.sanjeevkhudshah.blogspot.com*

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