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Saturday 7 April 2012

आंकड़े बड़े काम आ रहे हैं सच को छुपाने के लिए,वन घायल हैं, डरी सी नदियाँ ..




आंकड़े बड़े काम आ रहे हैं सच को छुपाने के लिए,वन घायल हैं, डरी सी नदियाँ ..

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

जल जंगल और जमीन की लड़ाई दिनोंदिन तेज होती जा रही है और भारत सरकार इस लड़ाई का बखूबी दमन कर रही है। यह कोई नयी बात ​​नहीं है।  जनविद्रोह का दमन राष्ट्र का प्रथमित कर्तव्य रहा है। आज तो राष्ट्र परमाणु महाशक्ति है और जनता को माओवाद, अलगाववादी राष्ट्रद्रोही कुछ भी कहकर अपना एजंडा लागू करने में उसे महारत हासिल हुई है। लेकिन इधर सरकार के नीति निर्धारकों ने दमन के अलावा आंकड़ों के जरिये बहिष्कृत जनसमाज को मिटाने का काम करने लगी है। गरीबी की परिभाषा, विकास दर , मुद्रस्फीति और राजस्वघाटा तक यह कारनामा सामने आ चुका है। वन और पर्यावरण कानून प्राकृतिक संसाधनों के लूट खसोट में सबसे बड़े बाधक हैं तो उन्हें बदलने या बेअसर करने की कवायद जगजाहिर है। वनक्षेत्र के अतिक्रणण के खिलाफ सरकारी कार्रवाई हिमालय के उत्तुंग शिखरों से लेकर समुद्रतट पर सुंदरवन तक कोई खास बात नहीं मानी जाती। १९५८ में ढिमरी ब्लाक का किसान विद्रोह हो या १९७९ में सुंदरवन इलाके के मरीचझांपी में नरसंहार, आपको सर्वत्र चित्र एक से मिलेंगे। पर उत्तराखंड. झारखंड, छत्तीसगढ़,​ ​ महाराष्ट्र, ओड़ीशा,आंध्र हो या अरुणाचल, नगालैंड या त्रिपुरा कारपोरेट कंपनियों को जंगल के सफाये से कोई नहीं रोक सकता। हिमालय से हरियाली छिन ली गयी और मध्य भारत की वनभूमि खलास है।आंकड़े बड़े काम आ रहे हैं सिमटते हुए अरण्य के इस सच को छुपाने के लिए।

वन घायल हैं, डरी सी नदियाँ .. हर तरफ जंगलों का तेजी से ह्रास हो रहा है और इसे बचाने में वन विभाग विफल साबित हो रहा है,ऐसे में पिछले फरवरी महीने में जारी वन सर्वेक्षण द्विवार्षिक रपट में दावा किया गया है कि दो वर्षों में  भारत के वनक्षेत्र में १,१२८ किमी.यानी ०.१६  प्रतिशत वृद्धि हुई है। रपट के मुताबिक भारत में ६९२,०००वर्ग किमी वनभूमि भारतभूमि का २३ पतिशत कवर करती है।जल्द ही ३३ प्रतिशत वनभूमि का लक्ष्य हासिल कर लिया जायेगा , रपट में यह दावा भी किया गया है।पर इस रपट में वनभूमि की परिभाषा और सर्वेक्षण विधि पर खामोशी बरती गयी है।२००१ से वन सर्वेक्षण में वनावरण फारेस्ट कवर अवधारणा का इस्तेमाल किया जाता है और जमीन पर जरीप करने के बजाय देहरादून स्थित भारतीय वल सर्वेक्षण एफएसआई सौ सीटर बाई सौ मीटर सैटेलाइट इमेज का इस्तेमाल करता है।​​अगर पेड़ों की छाया इस एक हेक्टेअर भूमि में दस फीसद से ज्यादा है, तो यह भूमि वनभूमि हुई। इसी के जरिये चाय और काफी बगीचे, तरह तरह​ ​ के बागान जैसे अमरई और सेब के बागान, खेतों में टिंबर प्लांटेशन पार्क और उपवन वनभूमि है। इसीतरह नयी दिल्ली और बेंगलूर जैसे हमागर के अनेक हिस्से वनभूमि में​  तब्दील है। तो इसतरह छुपाया जा रहा है वनों का विध्वंस।गौरतलब है कि भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India (FSI / भवस) भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय अधीन एक संस्थान है। इसका प्रमुख अधिदेश, देश में वन सर्वेक्षण करना एवं वन संसाधनों का आकलन करना है।इसकी शुरूआत 1965 में, वन संसाधन निवेश पूर्व सर्वेक्षण (व-स-नि-पू-स-) संस्थान के रूप में एफ-ए-ओ-/यू-एन-डी-पी-/भारत सरकार परियोजना के अन्तर्गत हुई। सूचनाओं में परिवर्तन होने के परिणामस्वरूप वन संसाधनों के निवेश पूर्व सर्वेक्षण के क्रियाकलापों के कार्य क्षेत्र में विस्तार होने से 1981 में इसका भारतीय वन सर्वेक्षण के नाम से पुनर्गठन किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य है द्विवार्षिक वन स्थिति रिपोर्ट तैयार करना, देश के तात्कालिक वनावरण आकलन उपलब्ध करना एवं उसमें होने वाले परिवर्तन का अनुश्रवण करना।जबकि भारतीय वन सर्वेक्षण की पुरानी रपट भी इस बात की पुष्टि करता है कि 2003 से 2005 के बीच 728 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र खत्म हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि देश के कुल भू-भाग का मात्र 20.6 प्रतिशत हिस्सा ही वन क्षेत्र है!

सरकारी दावा कि पिछले तेरह सालों के दरम्यान वनभूमि का विस्तार हुआ है,हिमालय और मध्य बारत के जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता।​
​अंधाधुंध शहरी करण, औद्योगीकरण, सेज, परमाणु संयंत्र, बड़े बांध, एक्सप्रेस हाईवे के जरिये वनों का विनाश रोजमर्रे का तमाशा है। झारखंड,​
​ छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे तीन नये राज्य अस्मिता और पहचान के सवाल पर बने और इन तीनों राज्यों में जल, जंगल और जमीन की लड़ाई की विरासत सदियों पुरानी है। बिरसा मुंडा, सिधो कानहो, रानी दुर्गावती से लेकर उत्तराखंड के चिपको आंदोलन तक फैली है यह विरासत। विडंबना है कि तीनं राज्य अब वहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट घरानों के हवाले हैं। टिहरी से लेकर नर्मदा, दामोदर घाटी , गोदावरी तक बांधों का अटूट सिलसिला वनभूमि को लील चुका है और जनप्रतिरोध कोई काम नहीं आया। नौकरशाही ने वनभूमि की परिभाषा ही बदल डाली और सरकारी आंकड़ों में लोदी गार्डन तक वनभूमि है। मुगल गार्डन को बी आंकड़ों की बाजीगरी के लिए वनभूमि में शामिल कर लिया जाये, तो अचरज की बात नहीं है। नये खनन अधिनियम को जमीन के​ ​ मालिकों को मुनाफे का हिस्सा देने के मकसद से बनाया गया बताते हैं, पर दर हकीकत यह निषिद्ध वनभूमि में खनन का खुला लाइसेंस हासिल करने का कारपोरेट उद्यम के सिवाय कुछ नहीं है। अभी कोयला ब्लाक निजी कंपनियों को सौंपे जाने हैं। नीलामी का फर्जीवाड़ा जगजाहिर हो चुका है। पर्यावरण हरी झंडी के लिए एक पर्यावरण प्रेमी बतौर उभर रहे केंद्रीय मंत्री का विभाग से स्थानांतरण हो गया। लहासा परियोजना को पेनाल्टी भरकर हरी झंडी मिल ही गयी। अब इंटरनेट के विंडो के जरिये, जहां बहिष्कृत जनसमाज का प्रवेश निषिद्ध है, पर्यावरण बाधा पार करले की तैयारी है।प्रकृति  से जुड़े​ ​ समुदायों को उनके गांवों और आजीविका से उखाड़ने का काम कभी वन कानून तो कभी विकास के बहाने बदस्तूर टालू है। संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूची का खुला उल्लंघन हो रहा है क्योंकि इन अनुसूचियों के तहत प्राकृतिक संपदा पर इन्हीं मूलनिवासियों का हक है और उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता। पर ज्यादातर आदिवासी गांव राजस्व पंजीकृत नहीं होने से दखल छोड़ते ही वे फिर अपने घर वापस नहीं हो पाते। आधार कार्ड योजना का भी बाकायदा इन्ही लोगों की बेदखली के लिए इस्तेमाल होना है।

वनों के अन्धाधुन्ध दोहन, वन्यजीवों के शिकार, तथा स्थानीय निवासियों के बलपूर्वक विस्थापन से पूरा इतिहास भरा पड़ा है।समुद्र किनारे होता तीव्र शहरी विकास, समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी, तटीय आबादी की जलीय खेती पर बढ़ती निर्भरता और वनों की अंधाधुंध कटाई इसमें सबसे अहम है। हाल में सुंदरी प्रजाति की मैंग्रोव वनस्पति एक दूसरे कारण से भी तबाह हुई है। इस प्रजाति में 'टाप डाइंग' नाम की बीमारी लग गई, जिसने खासतौर से सुंदरवन को काफी नुकसान पहुंचाया। सुंदरवन का नामकरण इसी सुंदरी प्रजाति की वनस्पति के कारण हुआ है जो वहां बहुतायत में पाई जाती है। सुंदरवन के निचले इलाके में सत्तर फीसद पेड़ इसी प्रजाति के हैं। 'टाप डाइंग' का कारण अज्ञात है लेकिन विशेषज्ञ अभी तक जिस नतीजे पर पहुंचे हैं उसका निहितार्थ यही है कि पानी में बढ़ता खारापन और ऑक्सीजन की कमी इसके लिए जिम्मेदार है। मैंग्रोव वनस्पति सिर्फ सुंदरवन में प्रभावित हुई हो ऐसा नहीं है। खासतौर से समुद्र तटीय शहरी विकास का प्रभाव तो मैंग्रोव से जुड़े हर क्षेत्र में है बल्कि पश्चिमी किनारे इस कारण अधिक प्रभावित हैं। पश्चिमी किनारे में शहरी विकास के चलते चालीस फीसद मैंग्रोव वन खत्म हो चुके हैं। मुंबई की स्थिति और भी विकट है। यहां दो तिहाई से अधिक मैंग्राव वन खत्म हो गए हैं। इधर के कुछ वर्षों में वहां जल जमाव की जो स्थिति पैदा हुई है, इसके पीछे भी वैज्ञानिक मैंग्रोव का खात्मा मानते हैं। इसी तरह गुजरात के तटीय इलाके भी तेजी से उघोगीकृत हो रहे हैं। वहां सीमेंट और तेलशोधक कारखाने, पुराने जहाजों को तोड़ने की इकाइयां, नमक बनाने की इकाइयां काफी विकसित हुई हैं। इन कारणों से समुद्री किनारों पर बस्तियों का भी जमाव हो रहा है और वन तेजी से काटे जा रहे हैं।


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