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Saturday, 7 April 2012

जाति धर्म से ऊपर यानी क्या


जाति धर्म से ऊपर यानी क्या

Friday, 06 April 2012 10:40
रामेश्वर मिश्र 
जनसत्ता 6 अप्रैल, 2012: पंकज ऐसा अक्सर होता है कि अपने समय में बलशाली, प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा स्वीकृत और प्रचारित पदावलियों, मुहावरों और मान्यताओं से स्वयं वे लोग ही घिर जाते हैं। हमारे श्रेष्ठ या प्रभावशाली लेखक, पत्रकार, विश्लेषक और बौद्धिक भी इसके अपवाद क्यों होंगे? मुझे महाभारत पढ़ते हुए सदा यह आश्चर्य होता था कि भीष्म जैसे तेजस्वी, ज्ञानी, अनासक्त और धर्मनिष्ठ महापुरुष राज्य की रक्षा के नाम पर पापी राजा और राजपुत्र की रक्षा के फेर में किस मोह से पड़ गए थे? पांडवों ने किस मूढ़तापूर्ण वचनबद्धता के नाम पर या मां की आज्ञा की कैसी विचित्र और हास्यास्पद व्याख्या के नाम पर द्रौपदी से सामूहिक विवाह किया था?
द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म, द्रोण जैसे धुरंधर क्यों शांत थे और जुए को पत्नी के शील से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मूल्य मान रहे पांडव किस अर्थ में धर्मनिष्ठ थे? वर्तमान भारतीय पत्रकारों और विश्लेषकों के विश्लेषण पढ़-सुन कर यह आश्चर्य शांत हो जाता है। न जाने किन जुमलों और मुहावरों में, कैसी-कैसी व्याख्याओं के अविचारित आधारों के मोह में विश्लेषण होते रहते हैं। इनमें से एक सर्वाधिक रोचक मुहावरा है- 'जनता ने जाति-धर्म से ऊपर उठ कर वोट दिया।' मैं आज तक इस मुहावरे का अर्थ नहीं समझ पाया।
सबसे पहले यह नारा कांग्रेस ने दिया था- 'जात पर न पांत पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।' नारा बहुत साफ था- जाति और अन्य सामाजिक-सामुदायिक पहचानें व्यर्थ हैं, देश का प्रमुख राजनेता सर्वोपरि है, यानी व्यक्ति सर्वोपरि है। यह किस सिद्धांत या दृष्टि की उपज है, इस पर हमारे प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कोई गंभीर बहस मैंने कभी देखी-पढ़ी नहीं। क्या किसी राजनीतिक दल का प्रधान व्यक्ति अन्य सामाजिक पहचानों से ऊपर होता है? किस आधार पर? इस आधार की जानकारी थोडेÞ से ही लोगों को है, पर वे प्राय: इसकी चर्चा नहीं करते। हिंदी में तो किसी भी पत्रकार या विश्लेषक ने पहले कभी इसकी चर्चा की ही नहीं थी। मूलत: अंग्रेजी में लिखने वाले और बाद में हिंदी में भी सहज ही लिखने वाले प्रसिद्ध कम्युनिस्ट लेखक-पत्रकार भरत झुनझुनवाला ने एक अन्य संदर्भ में पहली बार इसकी ओर संकेत किया। इसके लिए मैंने स्वयं उनसे मिल कर बहुत प्रशंसा की। मुझे पता नहीं था कि किसी भी भारतीय कम्युनिस्ट को यह तथ्य ज्ञात है। क्योंकि मेरा अनुभव है कि भारतीय कम्युनिस्ट सामान्यतया इन सभी तथ्यों से अनजान हैं और बड़ी ही मासूम अवधारणाओं के उन्मत्त आवेश से परिचालित रहते हैं।
भरत झुनझुनवाला ने कम्युनिस्टों को सलाह देते हुए हिंदी के एक अखबार में अपने स्तंभ में लिखा- ''कम्युनिस्टों ने यूरोप में चर्च के 'गॉड' के स्थान पर राज्य को रखा और पार्टी को उस राज्य की साधना का साधन मान कर उसे चर्च के समान सर्वोपरि स्थान दे दिया। इसे बदलने की, इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। राज्य को ईश्वर का स्थानापन्न मान लेना गलती है।'' पढ़ कर मैं हर्ष से भर उठा। कम से कम एक लेखक तो ऐसा है जिसे इस तथ्य की जानकारी है। लेकिन देश की अन्य किसी भी पार्टी के किसी भी समर्थक बौद्धिक लेखक या पत्रकार को इस तथ्य की जानकारी नहीं है, यह मुझे ज्ञात है। 
खुद भाजपा का भी कोई समर्थक यह तथ्य नहीं जानता कि किसी राजनीतिक मतवाद को राष्ट्रीय जीवन में सर्वोपरि स्थान देने का अर्थ होता है, समाज में यूरो-क्रिश्चियन चर्च की तरह की एक संस्था को प्रतिष्ठित करने का प्रयास। यह हिंदू-दर्शन और भारतीय परंपरा के अज्ञान से ही संभव है। पर भाजपा में भी ऐसी स्थिति है।
कभी एकात्ममानववाद को, कभी गांधीवादी समाजवाद को और कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भारतीय राजनीति का और भारतीय समाज का भी आदर्श मान और बता रहा समूह यह नहीं समझता कि राजनीतिक मतवाद राज्य-प्राप्ति का एक साधन मात्र हो सकता है, वह राष्ट्रीय जीवन का शास्ता नहीं हो सकता। होने पर महा अनर्थ होगा, जैसा सोवियत संघ, चीन और अन्य कम्युनिस्ट देशों में हुआ। एकात्ममानव-दृष्टि श्रेष्ठ जीवन-दृष्टि तो है, पर वह राजनीतिक सिद्धांत कहां से बन गया? राजनीतिक सिद्धांत बिल्कुल अलग चीज है।
कांग्रेस की तो बात ही अलग है। वहां विचार का कोई आग्रह व्यापक स्तर पर नहीं है। व्यावहारिक राजनीतिक बुद्धि से काम चलाया जाता रहा है। पर स्वयं जवाहरलाल नेहरू का आग्रह यही था कि उनके द्वारा परिकल्पित विशिष्ट समाजवाद नामक राजनीतिक मतवाद के अनुशासन में देश को संचालित किया जाना चाहिए।
इसकी अंत्येष्टि व्यवहार में उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने कर दी और फिर सिद्धांत में उसका श्राद्ध कर्म उनके नाती राजीव गांधी ने उस समय कर दिया, जब आपातकाल में अपनी मां द्वारा लाए गए संशोधन के जरिए संविधान में स्वयं प्रस्तावना में जोडेÞ गए दो अव्याख्यायित-अपरिभाषित प्रत्ययों- 'समाजवाद' और 'सेक्युलरिज्म' को यथावत रखते हुए उन्होंने मुक्त अर्थव्यवस्था, वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियां तेजी से चलार्इं और इसके साथ ही भारतीय समाज के बहुसंख्यकों के धर्म को वह आवश्यक वैधानिक, आधिकारिक राजकीय संरक्षण भी प्रदान नहीं किया, जो कि विश्व के प्रत्येक सेक्युलर राष्ट्र में दिया जाता है। परिणामस्वरूप व्यवहार में कांग्रेस के नेताओं की मनमर्जी ही देश के लिए मान्य आदर्श मान ली गई और बताई जाती रही। सेक्युलरिज्म क्या है? वह जो कांग्रेस का हाईकमान बताए। सोशलिज्म? वह जो कांग्रेस का शासन लागू करे। ऐसी ही व्यावहारिक दशा बनाई गई।
कम्युनिस्ट तो खैर अपने वर्गयुद्धवाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के   राजनीतिक मतवाद को राष्ट्र का सर्वोपरि आदर्श मानते ही हैं। समाजवादी भी पहले कम्युनिज्म से प्रभावित मतवाद को और बाद में डॉ लोहिया द्वारा व्याख्यायित समाजवाद को राष्ट्र का सर्वोपरि आदर्श मान कर चलते रहे। इसमें से बड़ी रोचक मान्यताएं निकलीं। पहले तो जाति को बुरा और वर्ग को स्वाभाविक या अच्छा मान लिया गया। इसके पीछे कैसा प्रचंड अज्ञान था, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि महात्मा गांधी ने बार-बार नेहरू को, नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण को यह याद दिलाया कि वर्ग की कोई भी परिभाषा स्वयं मार्क्स ने नहीं दी है और आज तक वर्ग की कोई सर्वमान्य परिभाषा सामने नहीं आई है और विश्व इतिहास में वर्ग-संघर्ष के कोई भी साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिलते, तब भी न तो इन तीनों बौद्धिकों ने गांधीजी को कभी कोई उत्तर दिया और न ही कभी इस तथ्य पर विचार की कोई आवश्यकता समझी। यहां तक कि संपूर्ण क्रांति के दौर में भी जेपी अहिंसक वर्ग-संघर्ष की बात करते रहे। बिना यह ध्यान में रखे कि वर्ग तो एक अपरिभाषित और अज्ञात धारणा मात्र है।
संविधान में सर्वाधिक अनुसरण इंग्लैंड का किया गया, इंडिया एक्ट 1935 को आधार बनाया गया। पर इंग्लैंड का अलिखित संविधान वहां की सभी श्रेष्ठ परंपराओं को विधिक मान्यता देता है; वहां के सभी राजनीतिक दल वहां के प्रोटेस्टेंट चर्च के विराट तंत्र को निर्विघ्न काम करने देते हैं और राज्य, प्रशासन और न्याय-व्यवस्था में प्रोटेस्टेंट पंथाचार्यों (बिशप आदि) की अधिकृत रूप से खासी भूमिका है। दूसरी ओर, वहां कोई भी दल बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इंग्लैंड में व्याप्त भयंकर अमानवीय प्रथाओं- नस्लवाद, स्त्री में आत्मा का होना न स्वीकार करना, चर्च और बिशपों के पास अद््भुत और असीमित न्यायिक, दंडात्मक, शैक्षणिक और सामाजिक अधिकार होना, भिन्न पंथ वालों की खुलेआम पिटाई को विधिक मान्यता, गैर-ईसाई को दंडनीय और दयनीय हीदन्स मानना, गैर-गोरों को अविकसित मानव मानना, आदि- की चर्चा तक नहीं करता।
एक राष्ट्रीय चुप्पी है और हजारों वर्षों तक प्रताड़ित समूहों को आरक्षण देने की कोई चर्चा तक नहीं है। कोई भी प्रमुख दल वहां वर्गों के संघर्ष की बात नहीं करता है। वर्ग विश्लेषण केवल अकादमिक क्षेत्र तक सीमित है। वह भी आंशिक रूप में। कोई भी हाउसेज या प्रमुख कुलों के सफाए की बात तक नहीं करता। पर भारत के राजनेता तो बिना किसी व्यापक अध्ययन के सदा समाज वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की भंगिमा में बोलते हैं। मानो बिना विशद अध्ययन के भी समाज वैज्ञानिक या दार्शनिक बना जा सकता है, केवल किसी पार्टी का सदस्य बनते ही। समाज के विषय में ज्ञान कुछ न हो, पर आप उसके भविष्य की दिशा तय करेंगे। जाति मिटाएंगे, वर्ग लड़ाएंगे आदि-आदि। इसका दिलचस्प परिणाम यह है कि जाति को भारत की सबसे प्रमुख सामाजिक संस्था बताया जाता है और फिर उसे नष्ट करने को एक श्रेष्ठ आदर्श भी बताया जाता है।
यहां तक कि यह भी कह दिया जाता है कि हिंदू धर्मशास्त्रों ने जाति को ही मुख्य सामाजिक इकाई माना है। मैंने आज तक ऐसे सभी लोगों से पूछा कि कृपया बताएं कि किस हिंदू यानी भारतीय धर्मशास्त्र में जाति को भारतीय समाज की इकाई बताया गया है, क्योंकि मैंने प्राय: सभी धर्मशास्त्र श्रद्धा से पढेÞ हैं और मुझे तो कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो आज तक कोई जाति-विरोधी व्यक्ति इसका उत्तर नहीं दे पाया। वे कभी वर्णों का हवाला देते हैं तो कभी जनों या कुलों का। 
रोचक बात यह है कि इन महानुभावों को यह तथ्य भी ज्ञात नहीं है कि वर्तमान में पिछले डेढ़ सौ वर्षों से जो भौगोलिक क्षेत्र इतिहास में पहली बार यूरोप कहा जा रहा है, उस संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में शताब्दियों तक राज्य और चर्च यानी धर्मपंथ या उपासनापंथ- दोनों ही क्षेत्रों में सर्वोपरि सत्ता कुलों यानी 'हाउसेज' की ही रही है और आज भी एक बड़ी सीमा तक है। चर्च में तो कुलों का सर्वोपरि महत्त्व है ही, विभिन्न राजाओं के भी कुलों का ही महत्त्व है, व्यापार में भी शीर्ष पर वहां कुलों का ही महत्त्व है, कला और अन्य क्षेत्रों में भी 'हाउसेज' का विशिष्ट महत्त्व है।
न्यायाधीशों के चयन के लिए भिन्न-भिन्न यूरोपीय देशों में जो परिषदें बनती हैं, उन सभी में चर्च के बिशप आदि महत्त्वपूर्ण सदस्य होते हैं और ये सभी चर्च मुख्यत: 'हाउसेज' को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण बिशप और पंथाधिकारी अपने अमुक हाउस से जुडेÞ होने पर गर्व करता है। भारत में स्वयं कांग्रेस के लोग 'नेहरू-गांधी हाउस' से जुड़ कर परम गौरव का अनुभव करते हैं, जो यूरोप के अनुसरण में ही है। हो सकता है, कल को सपा भी मुलायम-अखिलेश यादव कुल का गौरव प्रचारित करे, अन्य पार्टियां भी अन्य कुलों का गौरव महिमामंडित करें। यही चलेगा। कुल-विशेष का गौरव और जातियों का विरोध! वाह! कुलों से चिपटेंगे और जाति को झिड़केंगे। क्या कहने!              (जारी)...


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