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Wednesday, 2 May 2012

लफ्फाजी क्रांतिकारी व्यवहार का विकल्प नहीं हो सकती

लफ्फाजी क्रांतिकारी व्यवहार का विकल्प नहीं हो सकती

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/02/2012 02:17:00 AM
‘क्रांतिकारी’ आइसा के नेतृत्ववाले जेएनयूएसयू ने मई दिवस पर ‘क्रांतिकारी’ लाल बैंड का जो आयोजन किया था, उसकी शुरुआत 'वक्रतुंड महाकाय' के मंगलाचरण से हुई, जिसका छात्रों द्वारा विरोध करने पर जेएनयूएसयू को उसे बीच में ही रुकवाना पड़ा.
उसके पहले पटना से आई जसम से जुड़ी सांस्कृतिक संस्था हिरावल ने जो गीत पेश किए उनमें बहुत सोच-समझ कर नक्सलबाड़ी, श्रीकाकुलम, मार्क्स, लेनिन, माओ, भोजपुर आदि के संदर्भ हटा दिए गए थे (गीत था गोरख का - जनता की पलटनिया). यह पहला मौका नहीं था जब इन पंक्तियों को गीत में नहीं गाया गया...जबकि ये पंक्तियां ही गीत की वास्तविक राजनीति को पेश करती हैं. वैसे भी यह गीत बिहार-उत्तर प्रदेश की संघर्षरत जनता के बीच रचा गया था और गोरख ने इसे इस रूप में लिख कर बाकी इलाकों में बेहद लोकप्रियता दी थी. मूल गीत में भी ये पंक्तियां बेहद अहम हैं. हिरावल ने वीरेन डंगवाल की जो कविता (हमारा समाज) गाकर पेश की, वह अपनी मूल बनावट में निजी पूंजी और इससे पैदा हुए व्यापक संबंधों-संदर्भों को चुनौती देना तो दूर, खुद को इन संबंधों और संदर्भों के आधार पर ही विकसित करती है. यानी यह अपनी तमाम ईमानदारी और सदिच्छा के बावजूद बहुत हद तक यह मध्यवर्गीय असुरक्षा, उसके सपनों और चाहतों की ही कविता है:
बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज़्जत हो, कुछ मान मिले, फल-फूल जायं
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जायें किसी तो न घबराएं
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछताएं
लाल बैंड के तैमूर रहमान ने बीच में जितनी हिकारत से तालिबान और 'दहशतगर्दी' के खिलाफ जोश दिखाया, साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ उसका आधा भी नहीं दिखाया. पूरे कार्यक्रम पर क्रांतिकारिता का दिखावा करती लफ्फाजी और टोकनिज्म हावी रहे. उनके दावे इतने सतही थे कि समझना मुश्किल था कि आखिर अमेरिका अफगानिस्तान, इराक, ईरान, पाकिस्तान और दूसरी जगहों पर अपने 'चमचों' और 'टट्टुओं' पर बम क्यों बरसा रहा है. जिस तरह भारत और दूसरे अनेक देशों में चमचे और टट्टू शासक बना कर रखे गए हैं उसी तरह अमेरिका के लिए इन (इसलामी) 'चमचों-टट्टुओं' को ही उनके देशों का शासक बना कर उन देशों के संसाधनों की लूट करना मुमकिन क्यों नहीं हो पा रहा है? इस नाटक की पटकथा आखिर इतनी जटिल क्यों है कि अमेरिका को अपने 'चमचों और टट्टुओं' के विरोधियों और दुश्मनों को गद्दी पर बैठाना पड़ रहा है, और अपने चमचों-टट्टुओं पर बम गिराने पड़ रहे हैं. और इसके बावजूद फिर 'चमचे' चमचे क्यों बने हुए हैं और 'टट्टू' टट्टूगीरी करने पर क्यों मजबूर हैं?
साम्राज्यवाद विरोध के दावे के साथ-साथ वे धार्मिक कट्टरता के खिलाफ चीखते हुए नारे लगाते हैं, गीत गाते हैं...लेकिन इसी के साथ वे बिना किसी पूर्व सूचना के अप्रत्याशित तरीके से एक गायिका से कार्यक्रम की शुरुआत में 'वक्रतुंड महाकाय' का मंत्रजाप भी पेश करवाते हैं. कल तैमूर ने कहा था कि वे हिंदुइज्म को समझ रहे हैं. शायद यह उनकी समझ की पराकाष्ठा और 'क्रांतिकारी' राजनीति की तार्किक परिणति है.
(शायद साम्राज्यवाद विरोध की लड़ाई में इसलाम की भूमिका और योगदान पर स्वीडन के प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, नाटककार, फिल्मकार और भारत तथा साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित देशों पर लगातार लिखने वाले यान मिर्डल (जो नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्रियों अल्वा और गुन्नार मिर्डल के बेटे भी हैं) उनकी कुछ रहनुमाई कर सकें, जिनके मुताबिक 'आज अनेक देशों और खास कर एशिया में मुसलमान और इसलामी विचारधारा साम्राज्यवादी उत्पीड़न के खिलाफ लोकप्रिय प्रतिरोध की चालक शक्ति बन गई है'). खुद तैमूर परोक्ष रूप से तब इसे ही स्वीकार कर रहे होते हैं, जब वे बताते हैं कि कार्यक्रमों में लोगों को जुटाने के लिए वे गांवों में मसजिदों से एलान करते हैं. लेकिन फिर भी वे ओरहान पामुक के उस निम्न मध्यमवर्गीय मौकापरस्त कवि का की रीढ़विहीन अभिजात नैतिकता से ग्रस्त हैं, जो अपने फायदे के लिए तमाम समझौते करता है, लेकिन जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से हिकारत करते हुए उससे दूरी बनाए रखता है... हम स्नो उपन्यास के चरित्र की बात कर रहे हैं.
कार्यक्रम के बाकायदा शुरू होने से पहले आइसा के छात्रसंघ ने छात्रों और दूसरे लोगों को जेएनयू के वी.सी. एस. के. सोपोरी का यह आप्तवचन भी सुनने पर मजबूर किया कि दिमाग से काम मत लीजिए, यानी सोचिए-विचारिए मत.
जेएनयू में जो मजदूर काम करते हैं, उनका निर्मम शोषण होता है. उनको जरूरी, बुनियादी सुविधाएं और अधिकार भी नहीं मिले हुए हैं. जब वे न्यूनतम मजदूरी की मांग करते हैं तो निकाल दिए जाते हैं. अभी कुछ समय पहले सैकड़ों कंस्ट्रक्शन मजदूरों को निकाल दिया गया. समय-समय पर वे हड़ताल और संघर्ष के दूसरे तरीके अपनाते हैं. वे छात्रों से सहयोग की अपेक्षा भी करते हैं. लेकिन छात्रों के प्रतिनिधित्व का दावा करता हुआ ‘क्रांतिकारी’ आइसा के नेतृत्व वाला जेएनयूएसयू जब मई दिवस मनाता है और मजदूरों की शहादतों और संघर्षों को ‘याद’ करता है तो वह जेएनयू के मजदूरों के संघर्षों और भारत के विभिन्न हिस्सों में किसानों-मजदूरों-दलितों-आदिवासियों के संघर्षों का जिक्र नहीं करता (मारूति के मजदूरों का चलते-चलाते हवाला भर दे दिया गया). लेकिन वह जेएनयू में मजदूरों के खिलाफ शोषण और उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार जेएनयू प्रशासन के शीर्ष अधिकारी विश्वविद्यालय के कुलपति को मंच पर जरूर बुलाकर उनको कई मिनट बोलने के मौका देता है. जेएनयू में मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न पर एक वाक्य भी किसी ने नहीं कहा, किसी ने भी नहीं. और इसमें हैरानी की बात नहीं है क्योंकि 2007-08 में जब दो-दो बार मजदूरों ने जेएनयू में बड़े आंदोलन किए तो आइसा के नेतृत्ववाले जेएनयूएसयू ने उनके आंदोलन में कुछ समय तक साथ देने के लिए एसएफआई के साथ जाकर वीसी से माफी मांग ली थी (तब एसएफआई का नारा हुआ करता था कि छात्रों का काम मजदूरों के लिए संघर्ष करना नहीं है).
...तो इस तरह मनाया गया मजदूर दिवस, जिसमें सिवाय दिखावे, तड़क-भड़क, लफ्फाजी और बेईमान वादों के दूसरा कुछ भी नहीं था. बेशक यह आयोजकों और उनके साथियों (आइसा समेत लिबरेशन, सीपीएम, सीपीआई वगैरह) की राजनीतिक जमीन को ही दिखाता है.
लाल बैंड के प्रमुख गायक रहे शहराम अजहर का बयान याद आता रहा...लाल बैंड एक अभिजात सनक में तबदील हो गया है.
मैं नहीं जानता कि शहराम बाकी बातों में कितने सही हैं...लेकिन उनकी यह बात तो बेशक सही है.
साथियों को यह समझना पड़ेगा कि सिर्फ मे-डे कॉफी हाउसों, सिनेमा उत्सवों और चमक-दमक से भरे कार्यक्रमों से न क्रांति मुमकिन है और न ही आंदोलनों में जनता की गोलबंदी. एक समय लाल के साथ लोगों के जुड़ने की वजह सिर्फ यह थी कि वे लोग जमीन पर उनके साथ लड़ रहे थे. लेकिन गलत राजनीतिक समझ उनको जमीनी लड़ाई में भी नाकामी और फिर गलत रास्ते पर ले गई और सांस्कृतिक लड़ाई में भी पतन की तरफ ले आई है. 
 

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