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Friday, 4 May 2012

एक संपन्न देश की गरीबी


एक संपन्न देश की गरीबी

Thursday, 03 May 2012 11:04
सुनील 
जनसत्ता 3 मई, 2012:  यह 'सत्यकथा' नुमा अपराध-किस्सा दक्षिण अफ्रीका का है, अप्रैल 2010 का। वहां के एक दक्षिणपंथी गोरे नेता यूजीन टेरीब्लांश की हत्या हो गई। जो दो हत्यारे पकड़े गए वे उसी के विशाल फार्म में काम करने वाले काले मजदूर थे। एक नौजवान था और एक किशोर। अट्ठाईस वर्षीय नौजवान ने बताया कि टेरीब्लांश उसकी छह सौ रेंड प्रतिमाह की मामूली मजदूरी भी लंबे समय तक नहीं देता था। रेंड वहां की मुद्रा है और करीब तीन-चार रुपए के बराबर है। तुलना के लिए यह भी देखा जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका में विश्वविद्यालय के एक व्याख्याता का मासिक वेतन करीब बीस हजार रेंड है। हत्या का दूसरा पंद्रह वर्षीय अभियुक्त चौदह बरस की उम्र से फार्म पर काम कर रहा था। उसने जेल से छूटने के लिए जमानत का आवेदन देने से इनकार कर दिया। इसका कारण उसने वकील को यह बताया कि जेल में अपनी जिंदगी में पहली बार वह बिस्तर पर सो रहा है, तीन वक्त खा रहा है और पढ़ाई कर रहा है।
यह छोटा-सा किस्सा दक्षिण अफ्रीका में 1994 में रंगभेदी राज खत्म होने के डेढ़-दो दशक बाद भी वहां पर व्याप्त घोर शोषण, गरीबी, बाल श्रम, गैर-बराबरी और बहुसंख्यक काली आबादी की अमानवीय जिंदगी की एक झांकी है। अफ्रीकी राष्ट्रीय कांगे्रस के नेतृत्व में वहां पर गोरों के रंगभेदी राज के खिलाफ लंबा संघर्ष चला था। इसके घोषित लक्ष्य और रुझान समाजवादी और वामपंथी थे। पिछले अठारह बरसों से वहां अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का ही शासन चल रहा है। विडंबना देखिए कि उसी के राज में आज दक्षिण अफ्रीका दुनिया का सबसे ज्यादा गैर-बराबरी वाला देश बन गया है। 
2009 में दक्षिण अफ्रीका की आबादी के सबसे नीचे के बीस फीसद लोगों के हिस्से में वहां की राष्ट्रीय आय का केवल 1.6 फीसद था और ऊपर के बीस फीसद लोग राष्ट्रीय आय का सत्तर फीसद हिस्सा हड़प रहे थे। गोरों-कालों की आर्थिक स्थिति की खाई भी करीब-करीब ज्यों की त्यों हैं, सिर्फ इतना फर्क पड़ा है कि कालों के बीच का एक छोटा-सा वर्ग भी अमीर बन गया है। 1993 में वहां के एक काले परिवार की औसत आमदनी एक गोरे परिवार की आमदनी का नौवां हिस्सा थी। 2008 तक यह खाई बहुत मामूली पटी है और इस वर्ष में भी कालों की आमदनी गोरों की आमदनी का तेरह फीसद या आठवां हिस्सा थी। देश की जमीन, संपत्ति और कंपनियों पर अब भी बहुत हद तक गोरों का कब्जा बना हुआ है।
दक्षिण अफ्रीका की सैंतालीस फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। काली आबादी का छप्पन फीसद हिस्सा गरीब है, जबकि गोरों में मात्र दो फीसद गरीब हैं। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और भयानक हालत में पहुंच चुकी है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 35.4 फीसद यानी एक तिहाई से ज्यादा श्रमशक्ति बेकार पड़ी है। वैश्विक मंदी के बाद हालत और बिगड़ी है। दक्षिण अफ्रीका की राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर करीब साढेÞ तीन-चार फीसद है, लेकिन भारत की तरह यह भी 'रोजगार रहित विकास' है। बेरोजगारी, गरीबी और गैर-बराबरी के चलते दक्षिण अफ्रीका में अपराधों का भी बोलबाला है, जिसका एक उदाहरण ऊपर दिया गया है।
वैसे दक्षिण अफ्रीका एक गरीब देश नहीं है। वह अफ्रीका के अमीर मुल्कों में से एक है। प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया में उसकी गिनती उच्च मध्य आय वाले देशों में होती है और वह करीब 70-75 वें स्थान पर रहता है। लेकिन घोर गैर-बराबरी और बहुसंख्यक काली आबादी की बुरी हालत के कारण 2009 के मानव विकास सूचकांक में उसका स्थान एक सौ बयासी देशों में बहुत नीचे, एक सौ उनतीस पर, था। 
जन्म के समय दक्षिण अफ्रीकियों की जीने की संभावना मात्र 51.5 वर्ष है जो भारत से भी काफी कम है, जबकि प्रतिव्यक्ति आय भारत से करीब साढ़े तीन गुना है। पांच साल तक की उम्र के बच्चों की मृत्यु दर दक्षिण अफ्रीका में 1990 में प्रति एक हजार पर चौंसठ थी, जो 2007 तक मामूली घट कर उनसठ पर बनी हुई थी। यानी रंगभेदी राज खत्म होने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। दक्षिण अफ्रीका दुनिया का सबसे ज्यादा एचआइवी-एड्स प्रकोप वाला देश भी है।
आवास, पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि जीवन की बुनियादी सुविधाओं में कुछ प्रगति हुई है, पर अब भी काफी गैर-बराबरी, भेदभाव और अभाव बना हुआ है। देश की पंद्रह फीसद संपन्न आबादी तो निजी चिकित्सा कंपनियों की चिकित्सा सहायता योजनाओं से जुड़ी है। देश के नब्बे फीसद डॉक्टर निजी क्षेत्र में हैं। लेकिन पचासी फीसद आबादी सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर निर्भर है जो काफी उपेक्षित और अपर्याप्त है।
प्राकृतिक संसाधनों के हिसाब से दक्षिण अफ्रीका एक संपन्न देश है। मगर भारत के कई इलाकों की तरह वह भी 'अमीरी में गरीबी' के विरोधाभास या आजकल प्रचलित 'संसाधन अभिशाप' के मुहावरे को चरितार्थ करता है। दुनिया के खनिजों का महत्त्वपूर्ण खजाना दक्षिण अफ्रीका की धरती में छिपा है। प्लूटोनियम, सोना, हीरा, लोहा, कोयला, बॉक्साइट, क्रोमियम आदि कई खनिज यहां बहुतायत में पाए जाते हैं। ये खनिज आज भी दक्षिण अफ्रीकी अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार हैं। जिन उद्योगों का विकास हुआ है, वे भी अधिकतर इन खनिजों पर आधारित हैं। देश के निर्यात में इनका हिस्सा साठ फीसद है। दक्षिण अफ्रीका दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला निर्यातक है। इन खनिजों का उत्पादन और व्यापार भी चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है।
भारत की ही तरह दक्षिण अफ्रीका का विदेश व्यापार भी काफी घाटे में चल रहा है। भुगतान संतुलन का चालू खाते का घाटा 2008 में दक्षिण अफ्रीका   की राष्ट्रीय आय के आठ-नौ फीसद के चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया था। वैश्विक मंदी का भी दक्षिण अफ्रीका पर काफी असर पड़ा है। सवाल यह उठता है कि आखिर गलती और गड़बड़ी कहां हुई? 
अत्याचारी रंगभेदी राज से लंबी शानदार लड़ाई के दौरान दक्षिण अफ्रीका के अवाम ने अपनी मुक्ति और बेहतरी का जो सपना देखा था, वह इतनी जल्दी क्यों बिखर गया? सत्ताईस साल तक जेल में रहे नेल्सन मंडेला दुनिया की दबी-शोषित जनता की मुक्ति की आकांक्षा और उसके संघर्ष के प्रतीक बने, उन्हीं का दक्षिण अफ्रीका उन्हीं के नेतृत्व में आज इस मुकाम पर क्यों पहुंच गया?
इसका जवाब करीब-करीब वही है जो भारत या गरीब दुनिया के अन्य देशों के अनुभव से मिलता है। 1994 मेंं रंगभेदी राज खत्म होने के बाद सत्ता हस्तांतरण तो हुआ, लेकिन आर्थिक ढांचे को बदलने का काम नहीं हुआ। यानी राजनीतिक आजादी तो मिली, लोकतंत्र कायम हुआ, मगर आर्थिक आजादी नहीं मिल पाई। राजनीतिक और कानूनी रंगभेद तो खत्म हुआ, लेकिन आर्थिक रंगभेद जारी रहा।
हालांकि अफ्रीकी राष्ट्रीय कांंग्रेस का 1952 का 'आजादी का घोषणापत्र' काफी क्रांतिकारी था, जिसमें खदानों के राष्ट्रीयकरण, जमीन और संपत्ति के पुनर्वितरण आदि बातें थीं और मंडेला समेत कांग्रेस के नेता इसकी कसमें खाते थे, लेकिन ऐसा लगता है कि इन नेताओं ने 1994 आते-आते इसे तजने का मन बना लिया था। इसके संकेत उन्होंने ब्रिटेन-अमेरिका को भी दे दिए थे। बाद में तो धीरे-धीरे वे पूरी तरह उन्हीं के रंग में रंग गए। वे न केवल पूंजीवादी रास्ते पर चलने लगे, बल्कि नवउदारवादी नीतियों और वैश्वीकरण को भी पूरी तरह अंगीकार कर लिया।
सत्ता में आने के तुरंत बाद उन्होंने गैट और विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने का फैसला लिया। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, सिटी बैंक, मेरील लिंच, गोल्डमेन सेक्स और हावर्ड-शिक्षित अर्थशास्त्री उनकी नीतियां तय करने लगे। दक्षिण अफ्रीकी मंत्री भी दावोस के विश्व आर्थिक मंच के जलसे में पहुंचने लगे।
1994 में 'पुनर्निमाण एवं विकास कार्यक्रम' शुरू किया गया था। लेकिन दो साल बाद ही इसे चुपचाप बंद कर दिया गया। इसकी जगह 'विकास, रोजगार एवं पुनर्वितरण कार्यक्रम' शुरू किया जिसका जोर वित्तीय कंजूसी, घाटे में कमी, करों में कमी आदि पर था। आयात-निर्यात शुल्क कम किए गए। पूंजी और विदेशी मुद्रा के लेन-देन पर नियंत्रण उत्तरोत्तर कम किए गए जिससे दक्षिण अफ्रीका की कई कंपनियां अपनी पूंजी विदेश ले जाने लगीं। सरकारी उद्यमों को या उनके शेयरों को निजी हाथों में बेचने का सिलसिला शुरू किया गया। विदेशी कंपनियों को बुलाने के लिए रियायतें दी गर्इं। 
लोगों के असंतोष का ध्यान बंटाने के लिए दक्षिण अफ्रीका ने 2010 के फुटबॉल विश्वकप का आयोजन किया और पांच-छह साल पहले जो पैसा अस्पताल, स्कूल, पेयजल या गरीबों के आवास के लिए खर्च होना चाहिए था, उसे अति-महंगे विशाल स्टेडियम बनाने में लगा दिया। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन जैसा ही यह मामला था।
दक्षिण अफ्रीका में पिछले अठारह वर्षों में तीन राष्ट्रपति रहे हैं- नेल्सन मंडेला, थाबो मबेकी और जेकब जुमा। लेकिन तीनों के कार्यकाल में दक्षिण अफ्रीका की आर्थिक नीतियों की दिशा कमोबेश एक ही रही। इनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका 1995 से 2008 तक वित्तमंत्री रहे ट्रेवोर मेनुएल की रही, जैसे भारत में मनमोहन सिंह या चिदंबरम की रही है। वर्ष 2008 में राष्ट्रपति पद से मबेकी की विदाई इन्हीं नीतियों से उपजे असंतोष का नतीजा थी। लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय पूंजी, कंपनियों, शेयर बाजार, नवउदारवाद समर्थकों और अमेरिका-यूरोप की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि जुमा भी इस जाल से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए और उसी धारा में बहने लगे।
'अश्वेत आर्थिक सशक्तीकरण' का एक कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसका कुल मिला कर मतलब रहा है काले लोगों में पूंजीपति, ठेकेदार और अभिजात वर्ग पैदा करना। कंपनियों के निदेशक बोर्ड में कुछ काले लोगों को जगह मिल गई और कुछ ठेके और आॅर्डर काले लोगों को मिलने लगे। 
इस छोटे-से काले तबके ने अमेरिकी विलासितापूर्ण जीवन-शैली अपनाई, मर्सिडीज बैंज जैसी महंगी आयातित गाड़ियों में घूमने लगा और यह भी वैश्वीकरण-नवउदारवाद का समर्थक बन गया। एक तरह से अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस ने गोरे पूंजीवाद की जगह काले पूंजीवाद को कायम करने की कोशिश की। 
अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व की शायद एक मुश्किल यह भी थी कि सोवियत प्रयोग के धराशायी होने के बाद पूंजीवाद से अलग वैकल्पिक विकास की कोई कल्पना उसके सामने नहीं रही। वह मुक्त बाजार का अनुगामी बन गया। घोर विषमतापूर्ण नीतियों को अपनाते हुए वह भी फायदों के 'रिसाव' की बात करने लगा। देश के अंदर जमीन और संपत्ति का क्रांतिकारी पुनर्वितरण करके, यूरोपीय-अमेरिकी नकल के बजाय रोजगार-प्रधान देशज उत्पादन पद्धति को अपना कर, प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण-समाजीकरण करके उनका देश के अंदर के विकास में इस्तेमाल करके, अमीर पूंजीवादी देशों के साथ गैर-बराबर विनिमय को बंद या सीमित करके, बहुराष्ट्रीय पूंजी के साथ संबंध विच्छेद करके, समानता, स्वावलंबन और विकेंद्रीकरण पर आधारित विकास का प्रयोग करके दक्षिण अफ्रीका के नेता एक नया इतिहास रच सकते थे। पर उन्होंने यह मौका गंवा दिया। 
कुल मिला कर दक्षिण अफ्रीका की यह त्रासदीपूर्ण कहानी भारत या अन्य कई देशों की कहानी से मिलती-जुलती है। इससे कुछ सबक मिलते   हैं। एक तो यही कि दुनिया की शोषित-पीड़ित जनता की मुक्ति के लिए महज राजनीतिक स्वतंत्रता काफी नहीं है, आर्थिक-सामाजिक समानता और आर्थिक ढांचे में बुनियादी बदलाव भी जरूरी हैं। लोकतंत्र की कायमी महत्त्वपूर्ण है, लेकिन एक घोर विषमतापूर्ण पूंजीवादी ढांचे में लोकतंत्र स्वत: समस्याओं को हल नहीं कर पाता है। पूंजीवाद लोकतंत्र पर हावी हो जाता है। इसीलिए लोकतंत्र और समाजवाद परस्पर पूरक और अभिन्न हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है।


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