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आखिरी फैसला तो कॉरपोरेट करते हैं, सरकार नहीं
अभी हाल में देश में हुए दो बड़े फैसलों से हमारी यह धारणा पुष्ट हुई कि इस देश में राज इस देश के नुमाइन्दे नहीं करते, कारपोटरेट करते हैं। पिछले 21 साल से हम हर तरह से देशवासियों के ध्यान में यह बात लाते रहे हैं कि देश फिर से एक नयी गुलामी में फँस गया है, जिसे हम बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद या कॉरपोरेटी उपनिवेशवाद कहते रहते हैं। जिस प्रकार अंग्रेजों के राज्य उपनिवेशवाद के दौरान नीतिगत फैसले लंदन में होते थे, उन्हें लागू करने के लिये यहाँ वायसराय और उसकी काउंसिल बैठती थी, उसी तर्ज पर भारत में नीतिगत फैसले देशी-विदेशी कॉरपोरेट घराने लेते हैं और उनका अनुपालन केन्द्र और राज्यों की सरकारें करती हैं।
जिन दो ताजा घटनाओं ने कॉरपोरेट उपनिवेशवाद की उपस्थिति उजागर कर देश-दुनिया को दिखा दिया कि भारत सरकार और उसके मंत्रालय कॉरपोरेटों के सामने झुक जाते हैं, अपने सुविचारित फैसले बदल डालते हैं, उनका संबंध है केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मंत्री जयराम रमेश द्वारा घोषित अपने दो फैसले अंत में बदलने से। पहला फैसला है उड़ीसा के जगतसिंहपुर में दक्षिण कोरिया की कम्पनी पोस्को द्वारा स्टील प्लांट लगाने के बारे में। 2 मई को पर्यावरण एवं वन मंत्री ने पोस्को को प्लांट लगाने की इजाजत दे दी, इस शर्त के साथ कि जितना जंगल इस प्लांट के लगने से नष्ट होगा, कम्पनी को उतना ही जंगल लगाना पड़ेगा उड़ीसा सरकार से भूमि लेकर। अभी पिछले महीने में ही रमेश ने पोस्को को इजाजत देने से मना किया था क्योंकि प्रभावित होने वाले दोनों गाँवों की ग्राम सभा ने प्रस्ताव पास करके प्लांट न लगने देने का फैसला किया है और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा बनायी मीना गुप्ता समिति ने भी अपनी पूरी जाँच के बाद सिफारिश की थी कि हर दृष्टि से यह प्लांट हानिकारक होगा।
पिछले 6 सालों से जगतसिंहपुर इलाके के आदिवासी, किसान पोस्को प्लांट का विरोध करते आ रहे हैं। पुलिस की गोली से दो आदिवासी मारे जा चुके हैं। पोस्को परियोजना विदेशी पूंजी निवेश की दृष्टि से सबसे बड़ी परियोजना है, जिसमें 54,000 करोड़ रुपये का निवेश होगा। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इस परियोजना के लिये 3100 एकड़ वन भूमि कम्पनी को देने के मंजूरी दे दी है।
गाँव के आदिवासी नहीं चाहते, विशेषज्ञ नहीं चाहते, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भी नहीं चाहता। फिर भी कम्पनी को हरी झंडी मिल गयी प्लांट लगाने की। ऐसा क्यों ? इसलिये कि देश में कॉरपोरेटी (कम्पनी) राज है।
कम्पनी राज का दूसरा उदाहरण है महाराष्ट्र के जैतापुर न्यूक्लियर प्लांट को पर्यावरण मंत्री द्वारा हरी झंडी देना। पहले जयराम रमेश ने फ्रांस की अरेवा कम्पनी द्वारा लगाये जाने वाले न्यूक्लियर प्लांट को 35 शर्तें लगाकर इजाजत दे दी थी। पर फुकुशिमा के बड़े हादसे के बाद रमेश ने विचार बदला, कहा प्लांट निर्माण पर रोक लगायी जाये और केन्द्र सरकार भी इस विचार से सहमत है। लेकिन 26 अप्रेल को (चेर्नोबिल हादसे की 25वीं वर्षगांठ के दिन) केन्द्र सरकार ने जैतापुर न्यूक्लियर प्लांट के निर्माण को मंजूरी दे दी। जयराम रमेश को चुप करा दिया गया। आखिर बात तो कॉरपोरेट की चलेगी। चिल्लाते रहें सरकारी मंत्री-संतरी!
दुनिया का सबसे बड़ा 10,000 मेगावाट का जैतापुर न्यूक्लियर प्लांट विवाद का मुद्दा बना हुआ है। सरकार और सरकारी वैज्ञानिक कहते हैं कि इस प्लांट से कोई खतरा नहीं, जबकि आम जन, कुछ वैज्ञानिक, समाजकर्मी यह कहते हैं कि यह अत्यन्त खतरनाक परियोजना है। दुर्घटना होने पर पूरा महाराष्ट्र, मुंबई, पुणे जैसे नगर बर्बाद हो जायेंगे। जैतापुर के आसपास के सभी गाँववासी इसका विरोध कर रहे हैं। 4 किसान, मछुवारे शहीद हुए हैं। देशभर के समाजकर्मी, बुद्धिजीवी, पत्रकार, न्यायविद, वैज्ञानिक भी विरोध में निकल पड़े हैं। अभी 23 से 26 अप्रेल तक तारापुर से जैतापुर तक ऐसे 100 लोगों ने न्यूक्लियर प्लांट विरोधी यात्रा निकाली, जिसमें सरकार ने हर तरह से अड़ंगे लगाये। महाराष्ट्र सरकार इन लोगों को ‘बाहरी’ तत्व कहती है। फ्रांस की अरेवा कम्पनी और इसके अधिकारी शायद उसके लिये ‘अंदर’ के लोग हैं। चम्पारण में गांधीजी को भी अंग्रेज ‘बाहरी’ तत्व कहते थे। गुलामी की भाषा नहीं बदलती। पहले जो थी, अभी वही है।
सवाल पोस्को, जैतापुर जैसे प्लांटों को लगाने, न लगाने का नहीं है। देश की नीति कौन बनायेगा, यह सवाल है। सरकारें कॉरपोरेटों के सामने झुक गयी हैं। देश के आम जन को इस नयी गुलामी से देश को मुक्त कराने के संग्राम में कूदना होगा।
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