17 दिसम्बर, 2012
बाबरी मस्जिद के दो दशक बाद
-राम पुनियानी
आज से बीस वर्ष पहले (6 दिसम्बर 1992) बाबरी मस्जिद ढ़हा दी गई
थी। यह घटना भारत के इतिहास पर एक बदनुमा दाग है। इस घटना को अंजाम दिया था
साम्प्रदायिक ताकतों ने और इससे भारतीय राजनीति एक अवांछित दिशा में मुड़ गई। इस दिशापरिवर्तन
का खामियाजा हम आज भी भोग रहे हैं। लिब्रहान जांच आयोग ने अपनी रपट में साफ कहा है
कि बाबरी मस्जिद को संघ परिवार द्वारा, सोची-समझी साजिश के तहत, ढहाया गया था। आज भी संघ परिवार
इस कुकर्म को अपनी बड़ी उपलब्धि मानता है और हर वर्ष 6 दिसम्बर को शौर्य दिवस मनाता
है।
संघ परिवार और उसकी विचारधारा से
इत्तेफाक रखने वाले बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि बाबरी मस्जिद को जमींदोज करके
राष्ट्रनिर्माण की नींव रखी गई थी। दूसरी ओर, जिन व्यक्तियों की प्रतिबद्धता
प्रजातंत्र व धर्मनिरपेक्षता के प्रति है, उनकी यह मान्यता है कि इस दिन भारतीय राजनीति व
धर्मनिरपेक्षता शर्मसार हुई थी। इस घटना ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया
को गति दी। इस त्रासद दिन से शुरू हुई साम्प्रदायिक ताकतों के सुदृढ़ीकरण की
प्रक्रिया, जिसके नतीजे में भाजपा एक शक्तिशाली राजनैतिक दल के रूप में उभरी। इससे हमारी
संस्कृति शनैः-शनैः उदारता से संकीर्णता की ओर और बहुवाद से साम्प्रदायिकता की ओर
बढ़ने लगी। समाज में अलगाव का भाव बढ़ा और कमजोर वर्गों के प्रति सहिष्णुता घटी।
जहां साम्प्रदायिक ताकतों का
बोलबाला बढ़ने लगा वहीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी कांग्रेस इस घटनाक्रम को या तो
चुपचाप देखती रही या इस प्रक्रिया को और तेज करने में हाथ बंटाती रही। कांग्रेस,
बाबरी मस्जिद की
रक्षा करने में असफल रही और इस कारण उसे इस हद तक सिद्धांतविहीन माना जाने लगा कि
कुछ लोग उसकी तुलना भाजपा से तक करने लगे। यह कहा जाने लगा कि भाजपा जो काम सीना
ठोक कर, खुलेआम
करती है, कांग्रेस
वही काम दबे-छुपे ढंग से, पर्दे के पीछे से करती है। ये दोनों पार्टियां इस समय
भारतीय राजनीति के शीर्ष पर हैं। भाजपा की साम्प्रदायिकता के प्रति नीतिगत
प्रतिबद्धता है वहीं कांग्रेस, राजनैतिक फायदे के लिए साम्प्रदायिकता का सहारा लेने में
जरा भी नहीं सकुचाती। बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना, उसके तुरंत बाद हुई साम्प्रदायिक
हिंसा, उसकी
प्रतिक्रिया में हुए बम धमाके और इन सबके दौरान पुलिस की भूमिका से प्रजातंत्र और
धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध तबका हतप्रभ रह गया। उसे गहरा धक्का लगा। जब
बाबरी मस्जिद ढहायी जा रही थी तब उसकी रक्षा के लिए जिम्मेदार पुलिस दूसरी तरफ देख
रही थी। साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान भी पुलिस या तो मूक दर्शक बनी रही या फिर
दंगाईयों के साथ हो ली। साम्प्रदायिक दंगों के बाद भी पुलिस की भूमिका अत्यंत
संदिग्ध रही है। यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा का मुख्य शिकार अल्पसंख्यक होते हैं
तथापि दंगों के बाद सबसे ज्यादा संख्या में उन्हीं की गिरफ्तारियां होती हैं। कुछ
अपवादों को छोड़कर, अधिकांश पुलिसकर्मी
बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिकता के प्रति अपने प्रेम के चलते, कानूनी प्रक्रिया का खुलेआम मखौल
बनाते हैं।
साम्प्रदायिक हिंसा का एक निश्चित
ढर्रा होता है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, मुसलमानों का देश की कुल आबादी
में प्रतिशत 13.6 है। परंतु दंगों में मरने वालों में 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान होते
हैं। मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से समाज में उनके विरूद्ध हिंसा के लिए
उपजाऊ भूमि तैयार हो गई है। राजनैतिक पार्टियों के नेतृत्व व नौकरशाही और पुलिस के
बड़े तबके सहित, समाज का अधिकांश हिस्सा इन पूर्वाग्रहों की गिरफ्त में है और इसका शिकार होते
हैं असहाय व निर्दोष अल्पसंख्यक। यह मानकर चला जाता है कि वे अपराधी हैं और हिंसा
में विश्वास रखते हैं। यह सोच अधिकारियों व राज्यतंत्र की कार्यशैली में स्पष्ट
प्रतिबिंबित होती है।
इस हिंसा के चलते समाज का
साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। यह ध्रुवीकरण इस सीमा तक बढ़ गया
है कि स्कूलों, कालेजों और उन चन्द कार्यस्थलों में-जहां मुसलमानों को रोजगार मिल पाता है-धार्मिक आधार पर भेदभाव
स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस ध्रुवीकरण के कारण ही साम्प्रदायिक ताकतें चुनावों
में जीत हासिल कर पा रही हैं और सत्ता पर काबिज होने में भी सफल हो रही हैं। मुंबई
में साम्प्रदायिक हिंसा का नेतृत्व शिवसेना ने किया था। दंगों के बाद हुए चुनावों
में उसे भारी सफलता मिली। लिब्रहान व
श्रीकृष्ण जैसे न्यायिक जांच आयोगों की रपटें सरकारी दफ्तरों की अलमारियों में कैद
हैं। साम्प्रदायिक पार्टियां तो इन रपटों को रद्दी कागजों का ढेर समझती ही हैं,
कांग्रेस भी सत्ता
में आने पर इनकी सिफारिशों को लागू करने में तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाती। वोट
बैंक की राजनीति के चलते कोई पार्टी बहुसंख्यक समुदाय को नाराज करने के लिए तैयार
नहीं है। इस मामले में न्यायपालिका की भूमिका भी कोई खास प्रशंसनीय नहीं रही है।
अगर इस देश में कानून का राज होता तो वे लोग जो समाज में नफरत फैलाते हैं, वे लोग जो दंगे भड़काते
हैं और वे लोग जो दंगों में निर्दोषों की जान लेते हैं, आज सींखचों के पीछे होते। इसकी
बजाए वे सड़कों पर दहाड़ रहे हैं और उन्हें ‘हिन्दू हृदय सम्राट‘ जैसे तमगों से नवाजा जा रहा है।
यह संयोग नहीं है कि बाल ठाकरे, जिन्होंने 1992-93 के मुंबई दंगों का नेतृत्व किया था और नरेन्द्र
मोदी, जो 2002 के गुजरात कत्लेआम के
केन्द्र में थे-दोनों को ही हिन्दू हृदय सम्राट की पदवी दी गई। साम्प्रदायिक सोच
की जकड़ से न्यायपालिका भी नहीं बच सकी है। यही कारण है कि गुजरात दंगों के शिकार
हुए लोगों को न्याय तभी मिल सका जब उनके मामले गुजरात से बाहर के न्यायालयों में
स्थानांतरित किए गए। इलाहबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या मामले में फैसले में तीन
में से दो जजों ने सुबूतों से ज्यादा तव्वजो आस्था को दी और यह हुक्म सुनाया कि ‘‘विवादास्पद भूमि को सभी
दावेदारों के बीच बराबर-बराबर बांट दिया जाए।‘‘ ऐसी मांग न तो मामले के
पक्षकारों ने की थी और न ही ऐसा करना विधि सम्मत है। साम्प्रदायिक हिंसा और ध्रुवीकरण
के कारण विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच भावनात्मक दीवारें तो खड़ी हुई ही हैं,
भौतिक दीवारें भी
खड़ी हो गई हैं। साम्प्रदायिक हिंसा के निशाने पर रहने वाले समुदाय के सदस्य
अपने-अपने मोहल्लों और दड़बों में सिमट गए हैं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भरसक
प्रयासों के बावजूद शिक्षा, उदारवादी मूल्यों और प्रगति की रोशनी उन तक नहीं पहुंच पा
रही है। मुंबई में अवश्य मोहल्ला समितियों ने कुछ सकारात्मक भूमिका निभाई थी और
कुछ हद तक वे आज भी ऐसा कर रही हैं। इस पहल के पीछे थे कुछ पुलिस अधिकारी और
सामाजिक कार्यकर्ता, जो समाज में शांति और सद्भाव के पक्षधर थे।
दुर्भाग्यवष, देश के सामने खड़ी इस
भारी समस्या का मुकाबला करने के लिए न राज्यतंत्र और न ही सामाजिक संगठनों ने
पर्याप्त प्रयास किए। सरकार ने ‘नेशनल फाउंडेशन ऑफ कम्यूनल हारमोनी‘ की स्थापना अवश्य की परंतु उसका
एजेंडा और उसके संसाधन इतने सीमित हैं कि वह समाज के विभिन्न तबकों में
धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक मूल्यों के संबंध में जागृति फैलाने के विशाल व कठिन
काम को करने में सक्षम नहीं है। एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित स्कूली पाठ्यपुस्तकों
में सकारात्मक परिवर्तन किए गए हैं परंतु इनका प्रभाव भी सीमित है क्योंकि राज्यों
के शिक्षा बोर्डों ने इन परिवर्तनों को नहीं अपनाया है। पुलिस व नौकरशाही को
साम्प्रदायिकता से जुड़े मुद्दो के प्रति संवेदनशील बनाने का काम न के बराबर हुआ
है। यह बहुत आवश्यक है कि पुलिस व नौकरशाहों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों के
पाठ्यक्रमों में व्यापक सुधार लाए जाएं। निश्चित ही पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों
को उनके मूल कार्य से संबधित प्रशिक्षण दिया जाना अनिवार्य है परंतु राष्ट्रीय
एकीकरण से संबंधित मसलों के बारे में उन्हें शिक्षित किया जाना भी कम महत्वपूर्ण
नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक, जो कि साम्प्रदायिक
हिंसा पर काफी हद तक काबू पाने में हमारी मदद कर सकता था, ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है।
सामाजिक संगठनों की भी अपनी
सीमाएं हैं। कुछ सामाजिक संगठनों ने केवल पीड़ितों को न्याय दिलाने के काम तक स्वयं
को सीमित रखा है और उन्होंने प्रशंसनीय उपलब्धियां भी हासिल की हैं परंतु समाज में
साम्प्रदायिक विचारधारा के फैलाव से उत्पन्न समस्या इतनी व्यापक है कि उससे
मुकाबला करने के संसाधन सामाजिक संगठन नहीं जुटा सकते। कुछ संगठन जनजागृति के
कार्यक्रम चला रहे हैं परंतु उनकी पहुंच सीमित है और वे उन लोगों तक नहीं पहुंच पा
रहे हैं जहां उनको पहुंचना चाहिए। नुक्कड़ नाटकों, गीतों, फिल्मों आदि के जरिए
धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रचार-प्रसार का काम यद्यपि चल रहा है तथापि वह अभी अपने
शुरूआती दौर में ही है। हमें एक लंबी राह तय करनी है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के
मूल्य ही हमारे राष्ट्र के निर्माण की नींव बन सकते हैं। बाबरी मस्जिद का ढ़हाया
जाना राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का प्रयास था। इसके बाद साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़ती
ताकत ने घाव पर नमक छिड़कने का काम किया है। हमें आशा है कि बाबरी कांड से
राज्यतंत्र व सामाजिक संगठनों ने उपयुक्त सबक सीखे होंगे और जो दानवी ताकतें बाबरी
मस्जिद के मलबे से उभरी हैं उनसे मुकाबला करने के लिए प्रभावी व दूरगामी नीतियां व
कार्यक्रम बनाए जाएंगे। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश
हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में
पढ़ाते थे और सन् 2007 के
नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
संपादक महोदय,
.
कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने
प्रकाशन में स्थान देने की .कृपा करें।
- एल. एस. हरदेनिया
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