ओबीसी साहित्य के सिद्धांत और सिद्धांतकार
Publish date (Thursday, April 05, 2012)
ओबीसी और ओबीसी साहित्य नए युग की नई अवधारणाएँ हैं। पर क्या प्राचीनकाल मंे ओबीसी के लोग नहीं थे? क्या न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्शण नहीं था? क्या गैलेलियो से पहले पृथ्वी गोल नहीं थी? सब कुछ था, सिर्फ दृश्टि नहीं थी। कोई नया षोध आएगा तो निष्चित रूप से उसके नए नामकरण की जरूरत पड़ेगी। लेकिन नए नामकरण के कारण उसकी विशयवस्तु की प्राचीनता अथवा उसके अस्तित्व के पुरानेपन को खारिज नहीं किया जा सकता है। ओबीसी के लोग भारत मंे पुराने हैं। उनका अलग सिद्धांत और मान्यताएँ रही हैं। उनके अलग विचारक और ग्रंथ भी रहे हैं। उनकी ब्राह्मणवादी संस्कृति से अलग नए ढंग की श्रममूलक संस्कृति भी रही है। बात सिर्फ उसे रेखांकित करने की है। भारत मंे ओबीसी के कई सिद्धांतकार हुए हैं। उन सभी सिद्धांतकारांे के सिद्धांत मिश्रित रूप से ओबीसी साहित्य का वैचारिक आधार है।
ओबीसी साहित्य के प्रथम मौलिक सिद्धांतकार कौत्स:
डॉ. लक्ष्मण सरूप ने लिखा है कि कौत्स एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। वे एक आंदोलन के नेता थे जिनके दर्षन को भौतिक बुद्धिवाद से मिलता-जुलता कहा जा सकता है। कौत्स की चर्चा यास्क ने निरुक्त के प्रथम अध्याय के पन्द्रहवें खंड मंे की है। निरुक्त का यह अध्याय पूरी तरह से कौत्स के विचारों पर आधारित है। इससे साबित होता है कि कौत्स का समय यास्क से पहले था। पुरातŸवीय खोजांे, साहित्यिक संकेतों तथा ज्ञात ऐतिहासिक या राजनैतिक घटनाआंे की प्रासंगिक चर्चाआंे से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर कहा जाता है कि यास्क का समय 600 ई.पू. के आसपास है। इसलिए कौत्स सातवीं षताब्दी ई.पू. या इसके पहले मौजूद थे। वे वरतंतु के षिश्य थे। वरतंतु बुनकर (तंतुवाय) परिवार से आते थे जबकि कौत्स का परिवार किसान (पहले के किसान आज के कुर्मी, कोयरी आदि हैं) था। इसीलिए दुर्ग ने ‘‘कुत्स’’ का अर्थ ‘‘कृशीवल’’ (किसान) किया है। जाहिर है कि किसानी और बुनाई का कार्य प्राचीन भारत मंे ओबीसी के लोग किया करते थे। इसलिए इसमंे कोई षक नहीं कि वरतंतु और उनके षिश्य कौत्स ओबीसी थे।
कौत्स वेदविरोधी थे। वे सिर्फ वेदांे की मान्यता का ही विरोध नहीं करते थे, अपितु यह भी कहते थे कि वैदिक मंत्र अर्थहीन हैं। वे वेद को बकवास साबित करने के लिए अनेक युक्तियाँ दिया करते थे। यह दुर्भाग्य की बात है कि कौत्स का पूरा साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। बावजूद इसके, उनका लिखा हुआ जो भी साहित्य मिलता है, उससे पता चलता है कि कौत्स ओबीसी साहित्य के प्रथम मौलिक सिद्धांतकार थे। निष्चित रूप से बुद्ध और कबीर से लेकर आधुनिक काल मंे फुले और अर्जक संघ तक के जो वेदविरोधी सिद्धांत हैं, उसकी बुनियाद कौत्स ने डाली है।
कौत्स की वेदविरोधी विचारधारा को वेदवादियांे ने ‘कुत्सित’ विचारधारा कहकर खारिज किया है। आज हम ‘‘कुत्सा’’ का अर्थ निंदा या बुराई लेते हैं। हिंदी षब्दकोष मंे ‘‘कुत्सित’’ का अर्थ अधम या नीच है। निष्चित रूप से कुत्सन, कुत्सा, कुत्सित, कुत्स्य जैसे ओबीसी साहित्य के लिए अपमानजनक षब्दांे को हिंदी षब्दकोष से बाहर कर देना चाहिए। कारण कि ये षब्द ओबीसी साहित्य के संस्थापक सिद्धांतकार कौत्स और उनके पिता कुत्स को गलियाते हैं।
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