वे जो कलक्टर नहीं बन सके
Posted by Reyaz-ul-haque on 4/29/2012 11:51:00 AM
कलक्टर मेनन के लिए दुवाएं की जा रही हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता उन्हें निःशर्त रिहा किए जाने की
मांग कर रहे हैं. कलक्टर
के दोस्त उनसे जुड़ी पुरानी यादें सुना रहे हैं. मुख्यमंत्री ‘बेहद चिंतित’ हैं और
गृहमंत्री लगातार बढ़ रही ऐसी घटनाओं से ‘परेशान’. अखबारों के सम्पादक और पत्रकारों
के शब्द उलझन भरे ज़ेहन से निकले हुए लगते हैं. प्रधानमंत्री के 6 साल पहले रटे-रटाए वाक्य को
दुहराना वाजिब नहीं;[1] पर यह
देश की जो आंतरिक असुरक्षा है वह लगातार बढ़ती जा रही है और अब देश और सुरक्षा के
मायने समझ से परे हो गए हैं.[2]
आखिर एक कलक्टर जो ‘सुराज’ लाना चाहता है, उसे
बंधक बनाया जाना कितना उचित है, के
जवाब में एक बूढ़ा कलक्टर,
जिसने सरकार की नीतियों से तंग आकर वर्षों पहले कलेक्टरी से इस्तीफा दे दिया है,
कहता है- ‘युद्ध में सही और गलत को नहीं आंका जा सकता’.[3]
तो क्या सुराज=युद्ध?[4] किसी
डिक्शनरी के पन्नों
में ऐसे मायने नहीं जोड़े गए हैं.[5]
पिछले दो-तीन दशकों में छत्तीसगढ़ के इतिहास में ऐसे कई शब्द हैं जिनके अर्थ खोजना
व्यर्थ है; पर जिनका जिक्र करना यहां बेहद जरूरी. कि अखबारों में कलक्टर की रिहाई
के लिए उलझन भरे, दुखी और चिंतित लोगों के शब्द जो काले अक्षरों में छप रहे हैं,
वह बेहद स्याह पक्ष है, ‘सभ्य’ और अभिजात्यों का पक्ष.
यह अखबारों और किताबों के पन्ने से अलग एक
पन्ना हैं ‘पन्ना लाल’ जो छत्तीसगढ़ (छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का हिस्सा था) में उस
इलाके के पूर्व डी.आई.जी रह चुके हैं, जिन इलाकों में ये घटनाएं घटित हो रही हैं. 1992 में जब ‘जन जागरण’ अभियान इन
क्षेत्रों में चलाया गया. मकसद था नक्सलियों की सत्ता को खत्म ‘करना’. उसी वर्ष
गृह राज्यमंत्री गौरीशंकर शेजवार ने कुछ दिनों बाद नक्सलियों के ‘खात्मे’ की घोषणा
कर दी. अयोध्यानाथ पाठक और दिनेश जुगरान महानिरीक्षक के तौर पर नियुक्त किए गए थे.
जन-जागरण के इस अभियान में ‘जन-प्रताड़ना’ के आंकड़े जुटाना मुश्किल है. पर
करीगुंडम, एलमागुडा, पालोड़ी, पोटऊ पाली, दुगमरका, सल्लातोंग, टुडनमरका, साकलेयर
गावों के लोगों की यादों में आंकड़े नहीं, वृत्तांत और कहानियां पड़ी हुई हैं. सोड़ी
गंगा जो दूसरी कक्षा तक पढ़े हैं और एक गांव के अध्यापक हैं उनके पास जन-जागरण की
प्रताड़ना के कई किस्से हैं. तो क्या जन-जागरण=प्रताड़ना? शायद शब्दकोश के मायने समाज की अर्थवत्ता से
अलग है. यह अभियान कुछ वर्षों तक चलता रहा और पुलिस माओवादियों की वर्दी पहनकर
घूमती रही...घूमती रही कि माओवादियों जितनी स्वीकार्यता पुलिस को भी मिल जाए. गांवों
में नक्सली बनकर पुलिस जाती और गांव वालों के साथ जमीन पर बैठती, उनसे बातचीत
करती. पर यह हकीकत के एक हिस्से का नाट्यरूपांतरण था. माओवादियों ने आदिवासियों के
लिए तेंदू पत्ते के कीमत की लड़ाई, जंगल में हक की लड़ाई और 15000 एकड़ जमीन के बंटवारे तालाबों के निर्माण जैसे कई
काम करवाए थे. तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश था. यह समय था जब पुराने आरोप ध्वस्त हो रहे
थे और नक्सली आंध्र के इलाकों से नहीं आते थे. बल्कि आदिवासी माओवादी हो रहे थे और
माओवादी आदिवासी. जिसे मछली और पानी का संबंध कहा गया.[6]
सलवा-जुडुम यानि ‘शांति अभियान’ ‘सुराज’ के
ठीक पहले का अभियान है. पिछले सात वर्षों में चलाए गए इस ‘शांति-अभियान’ के सरकारी
आंकड़े 644 गांवों के
उजाड़े जाने के हैं. लगभग 3.5 लाख
लोगों के विस्थापन के. घरों के जालाए जाने, लोगों के पीटे जाने, पेड़ों पर टांग के
गोली मार देने और महिलाओं के बलात्कार के आंकड़े…..पिछले बरस माड़वी जोगी अपने साथ
हुए दुर्व्यवहार को बताते-बताते वापस घर में चली गई और हमने सैन्य बलों के उत्पात
के बारे में सवाल पूछना ज्यादती समझा. माड़वी लेके नाम की एक महिला को उनके पिता और
भाई माड़वी जोगा और माड़वी भीमा के सामने पुलिस ने नग्न किया और पुलिस स्टेशन से घर
तक जाने को कहा….. बीबीसी हिन्दी में अभी
खबर लगी है कि कलक्टर
को कुछ कपड़े और दवाईयां पहुंचाई जा चुकी हैं और उसके साथ कुछ खाने-पीने की चीजें
भी.[7]
आंकड़ों में 16 मार्च, 2011 को ताड़मेटला में 7 साल के एक बच्चे को सैन्य बलों
ने पीटा, यह दर्ज नहीं है, हवाई फायरिंग सुनकर गांव के कितने लोग भागे, यह भी दर्ज
नहीं है. कुछ गैर सरकारी दस्तावेजों और पत्रिका की रिपोर्टों में 207 घरों का जलाया जाना दर्ज है. आंकड़ों में घटित हुई इन घटनाओं ने हर
आदमी को क्रोधित किया, आंकड़े में हर आदमी गुस्से में है, आंकड़े में उसकी उग्रता
स्वाभाविक है और इस संगठित उग्रता में हर आदमी उग्रवादी है. देश और सरकार के
दस्तावेजों में इनसानी
स्वभावों के आंकड़े नहीं दर्ज किए जाते. तो क्या ‘शांति अभियान’=तबाही. डिक्शनरी
देख सकते हैं. राज्य सरकार ‘शांति-अभियान’ चलाती है और देश की सर्वोच्च न्यायालय एक
फैसले में उसे तत्काल बंद करने का आदेश देती है. राज्य शान्ति चाहता है? न्यायालय
शांति नहीं चाहता? शांति और न्याय एक दूसरे के विरुद्ध कैसे हैं? ऐसे ढेरों सवाल.
कलक्टर मेनन का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और माओवादी
उनकी दवा को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं और उन्हें दवाइयां सामाजिक कार्यकर्ताओं और
पत्रकारों द्वारा दूसरे दिन भी भेज दी गई हैं. आज कलक्टर को अगवा किए 6 दिन बीत चुके है. 6 बरस पहले 2006 से सैन्य बलों द्वारा गायब की गई
2 लड़कियों का
अभी तक कोई पता नहीं चला है जिनका नाम मडकम हूँगी और वेको बजारे
है. ‘शान्ति-अभियान’
की तबाही में ऐसे कई लोग गायब हुए जिनका पता नहीं चला, पिछले बरस देवा[8]
बता रहे थे कि करीगुंडम में नाले के पास दो लाशें मिली थी और कई ऐसी लाशें हैं जो
किसी नाले के किनारे नहीं मिली.
आदिवासियों पर हुए अनगिनत जुल्म के विरुद्ध
क्या माओवादियों की
इस लोकतांत्रिक कार्रवाई
की सराहना की जानी चाहिए? मसलन राजनैतिक कैदी के तौर पर कलक्टर को सुविधाएं मुहैया कराना, अगवा
की जिम्मेदारी लेना और बातचीत के जरिए 6 दिनों में हल करने का प्रयास करना. 6 वर्षों से और 6 वर्षों में सरकार द्वारा …..
क्या सैन्यबलों द्वारा गायब किए गए, हत्या किए गए या जाने क्या किए गए की निंदा
नहीं करनी चहिए? कि वे जो गायब हुए हैं वे कलक्टर नहीं थे आदिवासी थे बस.
[1] सरकारी दस्तावेजों में
यकीन रखने वाले प्रधानमंत्री के इस बयान को नक्सल प्रभावित
राज्यों के मुख्यमंत्री व डी.जी.पी. से हुई किसी बैठक के दस्तावेज में देखें या
दूसरे दिन के अखबार पर भरोसा करें.
[2] विस्तार के
लिए सभी के
संदर्भ पुराने अखबारों मे देखें, यदि
अखबारों में यकीन रखते हो तो.
[3] मेरे फेसबुक पर बी.डी. शर्मा के
बयान देखें, जिसे बीबीसी हिन्दी की साइट से उठाया गया
है. बीबीसी के
बजाए फेसबुक पर यकीन करना सीखें या चीन के क्रान्तिकारी माओत्से तुंग के
वाक्य “सब पर शक करो’ में यकीन
करें.
[4] सुराज के
अन्य मायने समझने के लिए गांधी द्वारा लिखित पुस्तक हिन्द स्वराज भी देखें, मूल गुजराती में और
अब दुनिया के तमाम भाषाओं में अनुदित. दो वर्ष पहले हिन्द स्वराज के सौ वर्ष पूरे
हुए.
[5] दुनिया की किसी भी भाषा में
बनाई गयी अब
तक की कोई
भी डिक्शनरी देखें. एक
डिक्शनरी कुछ लोग मिलकर बनाते हैं और उसपर लोग यकीन करते
हैं….इकाई व्यक्ति के तौर पर मुझ पर यकीन कर सकते हैं.
[6] माओवादी पार्टी के शीर्षस्थ नेता ‘गणपति’ का ओपेन पत्रिका में साक्षात्कार देखें
[7] बी.बीसी. हिन्दी डॉट
काम,
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