http://mohallalive.com/2012/05/05/yagnyawalky-vashishth-on-naxal-alex-paul-menon-and-state-insident/
ढीठ सरकार का घमंड नक्सलियों ने तोड़ ही दिया!
5 MAY 2012
♦ याज्ञवल्क्य वशिष्ठ
यदि आप आदिवासीयों और गरीबों पर भी इतना ही ध्यान रखें जितना कि आपने एलेक्स पॉल मेनन के लिए रखा तो ऐसी घटनाएं कम होंगी। नक्सलियों की ओर से मध्यस्थ की भूमिका निबाहने वाले प्रोफेसर जी हरगोपाल की यह बात इस पूरे अपहरण की अंर्तकथा बताती है कि आखिर आइएएस ही निशाना क्यों बना? नक्सलियों ने जगह ताडमेटला ही क्यों चुनी? स्थानीय मीडिया को इस बार नक्सलियों ने फटकने क्यों नहीं दिया। इस जैसे कई सवालों के जवाब प्रो जी हरगोपाल की उसी अपील में मौजूद है, जो सुकमा में पत्रकारों से की गयी।
लंबे अरसे से बस्तर में जो कुछ हो रहा है, उसे लेकर लगातार मामले सामने आते रहे हैं। यह अलग बात है कि उन्हें वो जगह नहीं मिली जो मिलनी थी। प्रभावितों को पीड़ितों को वह इंसाफ या राहत नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। बल्कि इस मसले पर हुआ कुछ और ही। लगता है कि नक्सलियों ने इन्हीं बातों को याद रखा और मीडिया को घुसने नहीं दिया। मुझे दंतेवाड़ा में हुआ एक विरोध याद है। शायद नक्सलवादियों को इसके अलावा भी और बहुत कुछ याद रहा हो, जहां तटस्थ की भूमिका निबाहने के बजाय मीडिया के तुलनात्मक तौर पर प्रभावशाली पक्ष ने पक्ष विशेष के प्रवक्ता और मीडिया संरक्षक की भूमिका निबाही।
केंद्र से मिलने वाले अनुदान से चलने वाले नक्सल उन्मूलन अभियान के खर्चे का ब्यौरा किसी गैर सरकारी को सटीक कतई पता नहीं। पता चलने वाला भी नहीं है। मगर इस अभियान के नाम पर कई लोगों के अंदाज-मिजाज को बदलते सबने देखा। जिनके घर सूखा चना नहीं मिलता, वे स्कॉर्पियो जैसी चमकीली गाड़ियों में फिरने लगे। गुपचुप तरीके से दान किये गये सरकारी पैसे ने दरअसल एक नयी सेना खड़ी कर दी, जो आगे चलकर सरकार के लिए ही गले की हड्डी बन गयी। अनुशासनविहीन, नेतृत्वविहीन भीड़ का कथित आंदोलन, जो वास्तव में सरकार समर्थित अभियान था, के रूप में जाना गया … और वे लोग जिन्हें पुनर्वास के नाम पर अजीबोगरीब कथित कैंप में लाया गया, वहां से बलात्कार की खबरें आतीं रहीं, बदसलूकी की बातें आतीं रहीं। वो सब जो यहां थे, वे आदिवासी ही थे, जिन्हें नक्सलियों के नाम पर पकड़ा गया। उनके निर्दोष ग्रामीण होने की बातें आती रहीं और सब कुछ ठीक है टाइप से गायब भी होतीं रहीं। मुठभेड़ों की पुलिसिया दास्तान भी कुछ ऐसी ही रही है। मगर इन सबके बावजूद ग्रामीणों और नक्सलियों में फर्क न पुलिस ने किया न ही सरकार ने। इस पर थोड़ा और सोचें तो यह भी समझ आता है कि ऐसा कोई फर्क नक्सलियों ने भी नहीं किया।
ताडमेटला जैसे कई गांव के गांव उजाड़ दिये गये। घरों को जला कर राख कर दिया गया। यह अलहदा सवाल है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने अनूठी सोच दिखाते हुए जिन लोगों से यह जांबाजी करवायी, उसके बाद तो इस इलाके में नक्सलियों की मौजूदगी नहीं होनी थी। पर क्या उसके बावजूद नक्सलियों की मौजूदगी यह मानने को मजबूर नहीं करती है कि पुलिस ने यह इलाका और उन ग्रामीणों को नक्सलियों के पास ढकेल दिया? ग्रामीणों को यह समझने के लिए मजबूर किया कि नक्सली ही उनके ज्यादा हमदर्द हैं?
सरकार के नाम जारी चिट्ठी जो बजरिया मीडिया पहुंची, उसमें माओवादियों ने युवा कलेक्टर एलेक्स के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया वो था, 'युवा दलित की चिंता नहीं है सरकार को' … उसके पहले किसी के दिमाग में यह बात नहीं थी कि वह अपहृत दलित है या सवर्ण। नक्सली इन शब्दों के साथ जो मैसेज दे रहे थे, वह एकदम साफ था।
क्या नक्सली इन सब मुद्दों को एक मंच देना चाहते थे? एक ऐसा मंच, जिस पर देश का विदेश का ध्यान चला जाए … और वो यह बता पाएं कि सरकार उन्मूलन के नाम पर क्या कर रही है … दूसरा यह कि आइएएस के अपहरण के एवज में उन लोगों को भी निकालने की कवायद हो, जिनसे सेंट्रल कमेटी का कोरम पूरा हो, जिसके अधिकांश सदस्य या तो पकड़े गये या मारे गये। सव्यसाची पंडा के लिए यह एक तीर से कई निशाने की तरह तो नहीं था? पर क्या यह एक ऐसा मुद्दा था कि सरकार को हद दर्जे तक किरकिरी का एहसास शिद्दत से हो जाए?
जैसा मुझे याद है वैसा ही कइयों को याद होगा, अपहरण के चौथे दिन तक रमन सिंह दहाड़ रहे थे कि नक्सली विकास विरोधी हैं और सरकार को दबाया नहीं जा सकता। फिर अचानक क्या हुआ? चल रहा अभियान थम गया। जो एजेंडे में नहीं था, काम कुछ उससे आगे बढ़ कर दिखने लगा। एजेंडें में कहीं भी यह नहीं था कि सरकार किसी को छोड़ेगी पर यह होते दिखने लगा। ब्रह्मदेव शर्मा के तीखे तेवर पर प्रदेश का शक्तिशाली मुख्यमंत्री यह कहते नजर आये कि मुझे कुछ नहीं कहना। उन्होंने सहयोग किया, उनका धन्यवाद। सरकार इलेक्टेड के चेहरे और सलेक्टेड के दिमाग से चलती है। आइएएस की फौज सरकार चलाती है और किसी भी सूरत में अपने आइएएस साथी का नुकसान बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुश्किल है यह कह पाना कि अगर कोई आइपीएस शिकंजे में होता तो क्या सरकार वो करती, जो उसने किया या करना पड़ गया।
हाई पॉवर कमेटी बनी है। इसने काम भी शुरू कर दिया है। ब्रह्मदेव शर्मा के पास चार सौ ऐसे लोगों की सूची है, जिन पर उनका दावा है, जिनके वे मध्यस्थ हैं कि ये वे नाम हैं, जो बेगुनाह हैं और बेवजह जेल में डाल दिये गये हैं। यह हाइ पावर कमेटी ऐसे मामलों की जांच करेगी … और अपनी सिफारिशें देगी।
जो सैकड़ों जवान मारे गये, उनके परिजनों को सरकार क्या कहेगी … या कहीं ऐसा तो नहीं कि कहने लायक ही नहीं समझती … या उसके पास कहने के लिए ही कुछ नहीं है …
(याज्ञवल्क्य वशिष्ठ। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार। खबरनवीसी नाम की मीडिया कंपनी से जुड़े हैं। ब्लॉगअपनी बात अपनों से। yagnyawalky@gmail.com पर संपर्क करें।)
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