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Monday 20 February 2012

अब बाबा-संत अपनी मण्डली लेकर घर पहुँच जाया करते हैं। ऐसे में बहुत कुछ बदल चुका है।



 अब बाबा-संत अपनी मण्डली लेकर घर पहुँच जाया करते हैं। ऐसे में बहुत कुछ बदल चुका है।



घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी . 2

लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 : December 19, 2011  पर प्रकाशित
haldwani-girls-degree-collegeराम मन्दिर से लगी धर्मशाला सहित पूरा रामलीला मोहल्ला अब घिर चुका है। पं. गुरुदेव कहते हैं कि पहले की तरह अब गुड़ चढ़ाने वाले व्यापारी नहीं रहे लेकिन कम ही सही, पुरानी परम्परा चली आ रही है। श्रद्धालुओं के सहयोग से मन्दिर के कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। धार्मिक कार्यों में भी तेजी से बदलाव हुआ है। पहले जहाँ लोग मान्यताओं के साथ मत्था टेकने आया करते थे, अब बाबा-संत अपनी मण्डली लेकर घर पहुँच जाया करते हैं। ऐसे में बहुत कुछ बदल चुका है।
सन् 1901 में बाबू रामप्रसाद मुख्तार ने आर्य समाज भवन बनवाया तथा आर्य अनाथालय को संवत 1985 में श्रीमती त्रिवेणी देवी ने बनाया। सन् 1924 में चौ. कुन्दन लाल वर्मा ने सेवा समिति का भवन बनवाया। सन् 1902 में पं. छेदालाल पुजारी तथा पं. रामदत्त ज्योतिर्विद के प्रयासों से सनातनधर्म सभा की स्थापना हुई। 1938 में यहाँ सनातन धर्म समाज के नाम से एक संस्था बनाई गई जिसके अध्यक्ष पं. रामदत्त जोशी ज्योतिर्विद् व मंत्री देवीदत्त बेलवाल थे। संस्था में तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्द वल्लभ पन्त, नन्दकिशोर खण्डेलवाल एडवोकेट, पं. घनानन्द पाण्डे भी सदस्य रहे। इस संस्था का उद्देश्य संस्कृत विद्यालय चलाना भी था। फिर उत्तर मध्यमा तक संस्कृत विद्यालय शुरू कर दिया गया। लोगों से चन्दा व नगरपालिका के सहयोग से टिन का दुमंजिला भवन स्कूल के लिये बना और प्रथम प्रधानाचार्य के रूप में पं. केवलानन्द शास्त्री ने पदभार ग्रहण किया। इसी विद्यालय के प्रथम छात्र पद्मश्री प्रो. डी.डी. शर्मा रहे हैं। विद्यालय के दूसरे प्रधानाचार्य पं. मदन नारायण त्रिपाठी और वर्तमान में पं. गोपालदत्त त्रिपाठी हैं। सन् 70-75 के बीच इस विद्यालय को शास्त्री की मान्यता मिली, जो बीच में टूट भी गई। सन् 90 से यह मान्यता स्थायी रूप से है। उन तमाम कार्यक्रमों के लिये राममन्दिर का खुला स्थान था, जिसमें संस्कृत विद्यालय सम्बन्धी बड़ी बैठकें भी हुआ करती थीं। मन्दिर के पहले पुजारी राम चन्द्र वशिष्ठ थे। सन् 1975 के बाद रेलवे बाजार स्थित संस्कृत महाविद्यालय का नया भवन बनाया गया। भवन में 20-25 किरायेदार भी हैं। दुमंजिले में विद्यालय और छात्रावास है।
मंगलपड़ाव के निकट सन् 1932 में बेणीराम पांडे ने एक शिव का मंदिर बनवाया जिसका नाम बेणीरामेश्वर मंदिर है। यानी तत्कालीन स्थितियों के अनुरूप आम लोगों की जरूरतों को देखते हुए कई ऐसे कार्य यहाँ हुए। आज की स्थितियों में इन तमाम निर्माण कार्यों व स्थापनाओं को भुला दिया गया है और ये सारी चीजें भीड़ में गुम होकर रह गई हैं। सामाजिक चेतनाओं के ये सारे केन्द्र थे और इन्हीं के सहारे यहाँ का वर्तमान खड़ा हुआ है।
आज जिस एम. बी. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में दस हजार से अधिक विद्यार्थी हैं और जो धींगामुस्ती का अखाड़ा बन गया है, लाला बाबू लाल जी के धन से सन् 1888 में एक अंग्रेजी मिडिल स्कूल के रूप में स्थापित हुआ था। 1961 में यहाँ बी.ए. तक की प्रातःकालीन कक्षायें प्रारम्भ की गयीं। तब यह आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। अब कुमाऊँ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो कर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हो गया है। नौकरीपेशा लोग भी इन प्रातःकालीन कक्षाओं में अध्ययन कर सकते थे। तब अध्यापक रविवार अथवा छुट्टी के दिन भी अपना समय देकर छात्रों की कक्षायें लेते थे। बाबूलाल गोयल इस महाविद्यालय के प्रिंसिपल थे। प्राध्यापकों को शायद उस जमाने में तीन-चार सौ रुपया वेतन मिलता था। छात्र मन लगा कर पढ़ते थे, अध्यापक मन लगाकर पढ़ाते थे। आज अध्यापकों को तीस-चालीस हजार वेतन मिलने लगा है इसके बाद भी वेतन वृद्धि को लेकर हड़ताल होती हैं। न छात्र पढ़ना चाहते हैं, न शिक्षक पढ़ाना चाहते हैं। अब नवाबी रोड में एक राजकीय कन्या महाविद्यालय भी स्थापित हो गया है, लेकिन अधिकांश लड़कियाँ एम.बी. महाविद्यालय में ही प्रवेश लेना पसंद करती हैं। प्रसंगवश एम.बी. इंटर कालेज के अध्यापक एम.सी. त्रिवेदी का जिक्र करना अनुचित नहीं होगा। उन्हें अधिकांश लोग 'बॉक्सर' के नाम से जानते थे। वे बड़े शांत स्वभाव के धीर-गम्भीर व्यक्ति थे। खाली समय में स्टाफ रूम में न बैठ कर वे विद्यालय के बाहर पेड़ की छाया में कुर्सी लगाकर पुस्तक पढ़ते रहते थे। उनका नाम सुनते ही इस विद्यालय के ही नहीं, अन्य विद्यालयों के बच्चे भी शरारत करना छोड़ देते थे। यद्यपि उन्होंने कभी किसी को पीटा नहीं था। कहा जाता था कि एक बार कहीं बाहर से आया कोई बॉक्सर मुकाबले के लिए शहर में चुनौती देता फिर रहा था। उसकी चुनौती को कोई स्वीकार ही नहीं कर पाया, किन्तु शान्त स्वभाव के त्रिवेदी जी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने उसे परास्त कर दिया। तब से उन्हें 'बॉक्सर' के नाम से जाना जाने लगा।
haldwani-open-university-ho1970 से पहले यहाँ पब्लिक स्कूल नहीं थे। जेल रोड, राजपुरा, बद्रीपुरा, सदर बाजार, रामपुर रोड में नगरपालिका के प्राइमरी और काठगोदाम में एक इंटर कालेज थे। सरस्वती शिशु मंदिर, लक्ष्मी शिशु मंदिर, मिशन स्कूल, टिक्कू माडर्न स्कूल, भारतीय बाल विद्या मंदिर तथा कुछ छोटे-छोटे अन्य व्यक्तिगत स्कूल अवश्य थे। लक्ष्मी शिशु मंदिर एम.बी. कालेज के प्रबंधन का ही एक हिस्सा था। बाबूलाल जी की पुत्री और जगमोहन गर्ग की पत्नी लक्ष्मी के नाम से यह विद्यालय बरेली रोड में खोला गया था। महात्मा गांधी इंटर कालेज, एचएन विद्यालय, राजकीय कन्या विद्यालय, ललित महिला विद्यालय, खालसा स्कूल, गुरु तेग बहादुर विद्यालय के अलावा बाद में सेंट पॉल, निर्मला कॉन्वेंट और बीर शिवा आदि स्कूल खुले। पब्लिक स्कूलों में बच्चों को भेजने का क्रेज बढ़ जाने और सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई मजाक बन कर रह जाने से अब हर गली में कई-कई पब्लिक स्कूल खुल गए हैं। लोग इन विद्यालयों की कार्यप्रणाली व लूट की आलोचना भी करते हैं और अपने बच्चों को भेजते भी वहीं हैं। सरकारी और पुराने मान्यत प्राप्त विद्यालयों में आधुनिक स्तर की पठन-पाठन व्यवस्था न होने के कारण भी बच्चे इन हाइटेक विद्यालयों की ओर रुख कर रहे हैं। अब कई प्रकार के तकनीकी और कोचिंग सेंटरों के अलावा उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की भी स्थापना यहाँ हो गई है।
लकड़ी का कारोबार हल्द्वानी में बहुतायत में होता था। काठगोदम में काठबाँस की चौकी थी। पहाड़ों से गौला में बह कर पहुँची लकड़ी का भंडार होने के कारण काठगोदाम नाम पड़ा था। जिस सँकरी घाटी को आजकल गुलाबघाटी कहते हैं, उसे पहले बमौरी का दर्रा या घाटा नाम से जाना जाता था। 24 अप्रैल सन् 1884 को काठगोदाम के बियाबान जंगल में पहली बार रेल पहुँची। रेल की पटरियों पर हाथी और शेर घूमा करते थे। धुआँ उगलती रेल को अंग्रेजों का खतरनाक कारनामा समझ कर लोग इसे देख कर भागने लगते थे। 16 अप्रैल 1853 में पहली बार भारत में रेल चली और उसके महज 31 साल बाद वह काठगोदाम तक पहुँचा दी गई। सन् 1905 में अंग्रेजों ने टनकपुर- बागेश्वर और चौखुटिया, जौलजीवी रेल लाईन का सर्वेक्षण करवाया, जो 1911 में पूरा हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण सरकार का ध्यान इससे हट गया।
हल्द्वानी तक बड़ी रेलवे पहुँचाने के लिए भी कई बार सर्वे किया गया। 6 अक्टूबर 1968 को तत्कालीन राज्य वित्तमंत्री के.सी. पन्त के साथ यहाँ पहुँचे तत्कालीन रेलमंत्री सी.एम. पुनाचा ने भी बड़ी रेल लाइन के प्रस्ताव को स्वीकारा। रामपुर से हल्द्वानी ऊँचा पुल तक रेल लाइन का प्रस्ताव बना और कई वर्षों तक क्षेत्र के लोगों को इसका इंतजार रहा। फिर वन अधिनियम आड़े आ जाने के कारण यह नहीं बन सका। उधर वर्षों के इंतजार के बाद मई 1994 के प्रथम सप्ताह में काठगोदाम से रामपुर बड़ी रेल सेवा चालू हो सकी। काठगोदाम में गौला नदी पर सन् 1913-14 में लार्ड हार्डिंग के नाम पर 350 फुट लम्बा आकर्षक धनुषाकार पुल बना, जिसमें नीचे से गौलापार को नहर जाती थी और ऊपर लोग चलते थे। वर्षों तक यह पुल दर्शनीय बना रहा। 24 मई 1961 के दिन मरम्मत के लिए इंजीनियरों ने पुल के दोनों सिरों की आधार रस्सी के नट-बोल्ट खोल रखे थे कि अचानक आयी आँधी में यह पुल ध्वस्त हो गया। इस बेजोड़ पुल जैसा पुल यहाँ दुबारा नहीं बन सका। अलबत्ता बढ़ते यातायात व नगर के विस्तार को देखते हुए गौजाजाली के निकट से बाइपास रोड बना कर गौला में एक पुल वर्ष 2003 में 4.46 करोड़ की लागत से बना। मगर यह पाँच साल बाद ही जुलाई 2008 में ही ध्वस्त होकर गौला में समा गया।
हरे-भरे घने जंगलों से कंक्रीट के जंगल में बदल चुका कस्बा हल्द्वानी अपने शुरू के दिनों में लकड़ी व्यापार का बड़ा केन्द्र था। पहाड़ और मैदान को जोड़ने के लिये आढ़त का जोर यहाँ था और पड़ाव लगते थे। 1910 में हरिदत्त सॉ मिल (आरा मशीन) खुली जो शुरूआती दौर में लकड़ी का कारोबार करती थी। ससवनी, रामगढ़ से नीचे भदेलिया (नैनीताल) के रहने वाले जयदेव जी अपने कारोबार के सिलसिले में हल्द्वानी आकर रहने लगे। गाँव में खेतीबाड़ी के अलावा भीमताल तक उनकी ठेकेदारी चलती थी। उन्होंने हल्द्वानी आकर नया बाजार में आढ़त शुरू की। इनके भवानीदत्त, रघुवरदत्त, हरिदत्त, नित्यानन्द, चार पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। हरिदत्त जी के नाम पर ही घने जंगलों से आच्छादित कालाढूंगी रोड में यह सॉ मिल लगाई गई। 1930 में लंकाशायर का बना बॉयलर यहाँ लगाया गया, जिससे आरा मशीन, धान मिल, शुगर मिल चलाई जाती थी। बॉयलर के निरीक्षण के लिये कानपुर से अधिकारी आया करते थे। कारखाना में समय से सायरन बजता था। उस परम्परा के तहत आज भी 'हल्द्वानी फर्नीचर मार्ट' में चौकीदार रात को हर घंटे घण्टी बजाता है। फर्नीचर का कारोबार अंग्रेजों के कारण शुरू हुआ। अंग्रेज नैनीताल में किराये का फर्नीचर मंगवाया करते थे। माँग देखने पर हरिदत्त जोशी ने 1940 में फर्नीचर मार्ट की एक शाखा भी नैनीताल में खोली।
हरिदत्त जोशी आर्यसमाजी थे। राम मन्दिर की धर्मशाला और बनभूलपुरा में बारातघर के लिये उन्होंने दान किया। इनके एक पुत्र जगन्नाथ और दो पुत्रियाँ हुईं। बड़ी पुत्री का विवाह पूर्णानन्द जी के साथ हुआ था। उनके निधन के बाद पूर्णानन्द जी ने दूसरा विवाह बल्यूटिया परिवार की लड़की से किया, जिन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री एन.डी. तिवारी को जन्म दिया। वर्तमान में कालाढूंगी रोड पर मेरे प्रतिष्ठान के ठीक सामने इसे 'हल्द्वानी फर्नीचर मार्ट' के नाम से अपनी विरासत के रूप में सँभाल रहे सुरेश जोशी बताते हैं कि तब भाबर का यह इलाका टिम्बर के कारोबार के लिये जाना जाता था। उनके दादा का कारोबार नेपाल तक फैला था। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान के टिम्बर व्यापारी यहाँ आया करते। रेलवे बाजार में पटरियों के पास टिम्बर पड़ाव में ठेकेदारों के फड़ लगते थे। चीड़ की लकड़ी के विशेष प्रकार के स्लीपरों की खास माँग थी, जो खराब नहीं होते थे क्योकि इनसे लीसा नहीं निकाला गया होता था। अब तो वे स्लीपर दिखाई नहीं देते। जोशी बताते हैं कि बचपन में आरा मशीन से चारों ओर फैले जंगल और खेतों के बीच से वे पगडंडी से गुजरते हुए सीधे नवाबी रोड चले जाते थे, जिसे तब हैडि़या गाँव कहा जाता था। उस स्थान पर ज्यादातर हैडि़या परिवार रहते थे और उनके खेत भी थे। चारों ओर बगीचे थे। आरा मशीन के पास सरकारी बाग और खाम बंगले के आसपास बहुत बड़े-बड़े कटहल हुआ करते थे। बरगद के बड़े भारी पेड़ों के नीचे यात्री विश्राम करते थे। लुकाट, जिसकी प्रजाति समाप्त हो चुकी है, भी होता था। हरिदत्त जी के पुत्र जगन्नाथ जी कांग्रेसी थे, कुछ समय साबरमती आश्रम में रहे और आजादी के आन्दोलन में जेल भी गये। शास्त्रीय संगीत और होली की महफिलें उनके आवास पर जमती थीं। सुरेश जोशी को याद है कि सन् 1960 तक भी उनके वहाँ शंकर लाल साह नामक मिस्त्री था, जो अच्छा गायक माना जाता था।
पहाड़ के लोगों को एक जमाने में यह पता ही नहीं था कि जड़ी-बूटियाँ कितनी बहुमूल्य हुआ करती हैं। सन् 1934 में मूल रूप से अमरोहा (मुरादाबाद) के निवासी नरोत्तम शरण शारदा ने पहाड़ से आने वाली बहुमूल्य जड़ी-बूटियों का कारोबार काठगोदाम में स्थापित किया। 1948 में उन्होंने रोजिन टर्पेन्टाइन का व्यवसाय शुरू किया। 1967 में 'बरबरीन हाइड्रोक्लोराइट' का निर्यात कर क्षेत्र के निर्यातकों की सूची में प्रथम पंक्ति में उनका नाम अंकित हो गया। एम.बी. एजूकेशन ट्रस्ट के लम्बे समय तक वे सचिव भी रहे। 'शारदा चौरिटेबल ट्रस्ट' के अन्तर्गत एक डिस्पेन्सरी भी उन्होंने काठगोदाम में स्थापित की। वर्ष 1945 में टनकपुर रोड में आगरा निवासी शिवराज भार्गव को फ्रूट प्रोसेसिंग के लिए 200 गुणा 700 वर्ग फीट भूमि 90 साला लीज पर दी गई। इसे जी.जी. फ्रुट फैक्ट्री कहा जाता था। यह अब बन्द हो गई है और यह स्थान लीज का नवीनीकरण न हो पाने के कारण विवादों में घिर गया है।
haldwani-gaula-baraz-kathgodamगौला नदी के किनारे टनकपुर रोड के आसपास और कालाढूँगी रोड स्थित ऐश बाग में लकड़ी का भारी कारोबार हुआ करता था। दानवीर दान सिंह मालदार का भी यहाँ लकड़ी का कारोबार रहा। ठा. बिशन सिंह, पानसिंह, खुशाल सिंह, धरमबीर, अमृतलाल, विद्यारतन, जगन्नाथ पांडे, चतुरसिंह तड़ागी, हरनन्दन पांडे, जी.एस. भंडारी, रामकिशन सांगुड़ी जैसे बड़े ठेकेदरों ने अपना कारोबार यहाँ स्थापित किया। सैकड़ों मजदूर लकड़ी के चट्टों को लगाने, लादने, ढोने में लगे रहते थे। इन्हीं के सहारे कई आरा मिलें भी यहाँ स्थापित हुईं। लकड़ी के ठेकेदारों का जमघट लगा रहता था। खैर से कत्था बनाने का कारोबार भी ठेकेदार किया करते थे। जंगलों में ही कत्था बनाने की भट्टियाँ लगाते। रामपुर रोड में बिशन दास मेहता जी ने गणेश कत्था फैक्ट्री व बरेली रोड में सतीश गुप्ता ने कृष्णा कत्था फैक्ट्री लगायी थी। कृष्णा कत्था फैक्ट्री बाद में बन्द हो गयी। लेकिन मेहता जी का कारोबार चलता रहा। तब खैर यहाँ बहुतायत में मिलता था। मगर खैर का दोहन भी बहुत हुआ। खैर की लकड़ी और कच्चा कत्था काफी मात्रा में यहाँ से बाहर भेजा जाता था। मेहता जी का बनाया 'मेहता चैरिटेबल ट्रस्ट' का अस्पताल आज भी चालू है।
उस जमाने में भाबर का यह इलाका साल, शीशम, खैर, हल्दू आदि मूल्यवान प्रजाति के वृक्षों से आच्छादित था। कुमाऊँ के बेताज बादशाह कहे जाने वाले कमिश्नर सर हेनरी रामजे इस क्षेत्र को 'घर का बगीचा' कहते थे। जंगलों की जो दुर्गति आजादी के बाद हुई उसी का परिणाम है कि अब साँस लेने के लिए भी यहाँ जगह नहीं बची है। हेनरी रामजे के प्रयासों से ही इस बीहड़ क्षेत्र को बसने लायक बनाया गया और कई सुविधायें देकर लोगों को बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया। काठगोदाम से गौला नदी में गाँवों तक बहुत मजबूत व पक्की नहरें बनवायी गयीं। शहर के मध्य से ही तब तीन नहरें जाया करती थीं। इन नहरों ने शहर का आकर्षण कई गुना अधिक बढ़ा दिया था। इन्हीं नहरों का पानी पीने के भी काम में आता था। गाँवों में तो हाल-हाल तक इन्हीं नहरों के पानी को संचित कर काम में लाया जाता था। अब तो इन नहरों में सारा कचरा, यहाँ तक कि सीवर भी बहा करता है।
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