टकराव के लिए बीमा से बेहतर कुछ नहीं!पॉलिसियों का महंगा हो जाना तय !
इस पर तुर्रा यह कि विनिवेश प्रक्रिया में तेजी लाने और वित्तीय बोझ कम करने के मकसद से सरकार की नजरें भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) पर टिकी है।
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
बीमा क्षेत्र में भारतीय जीवन बीमा निगम का एकाधिकार खत्म करके निजी कंपनियों को कारोबार की इजाजत और इरडा के गठन के बाद अब टकराव के लिए बीमा से बेहतर कुछ नहीं! इस पर तुर्रा यह कि विनिवेश प्रक्रिया में तेजी लाने और वित्तीय बोझ कम करने के मकसद से सरकार की नजरें भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) पर टिकी है। इसी के तहत एलआईसी को अब सार्वजनिक उपक्रमों में 10 फीसदी से ज्यादा इक्विटी निवेश की अनुमति देने की तैयारी हो रही है।सबसे बड़ी घरेलू संस्थागत निवेशक एलआईसी मौजूदा समय में किसी सार्वजनिक उद्यम द्वारा लगाई गई पूंजी के 10 फीसदी के बराबर या कंपनी के फंड आकार का 10 फीसदी (इसमें से जो भी कम हो) तक निवेश कर सकती है। निवेश पूंजी में शेयर पूंजी, डिबेंचर, बॉन्ड आदि शामिल हैं।
मसलन बीमा नियामक विकास प्राधिकरण (इरडा) ने वित्त मंत्रालय को चिट्ठी लिखकर कहा है कि री-इंश्योरेंस कंपनियों द्वारा बीमा कंपनियों को दिए जाने वाले कमीशन पर फैसला लेना उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और इस मामले में नॉर्थ ब्लॉक कोई भी एकतरफा कदम नहीं उठा सकता।गौरतलब है कि शेयर निवेशकों के हितों की रक्षा, शेयर बाजार के विकास और नियमन की जिम्मेदारी भारतीय प्रतिभूति व विनिमय बोर्ड को सौंपी गई। इसी तरह बीमा क्षेत्र का विकास बीमा नियामक वविकास प्राधिकरण के तहत हुआ।बीमा कंपनियों के लिए प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) मानकों की अधिसूचना शीघ्र आने की संभावना है, क्योंकि बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) की ओर से गठित दिशानिर्देशों को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) पहले ही मंजूरी दे चुका है। बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) ने यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्लान (यूलिप) जारी करने के नियम कड़े कर दिए हैं। शेयर बाजार से जुड़े इन वित्तीय उत्पादों को लेकर सेबी और आईआरडीए में विवाद की स्थिति पैदा हो गई थी।दरअसल, इकलौती रीइंश्योरेंस कंपनी जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ने वह कमीशन खत्म कर दिया है, जिसका भुगतान वह इन कंपनियों के जरिए बिकने वाली पॉलिसी के अनिवार्य रीइंश्योरेंस वाले हिस्से पर कर रही थी।
दरअसल सरकार को जीवन बीमा निगम के तबाह होने से ज्यादा निजी कंपनियों को घाटे की चिंता ज्यादा है। निजी बीमा कंपनियों को इन दिनों करीब सात सौ करोडड़ के घाटे का अंदेशा है। चूंकि खुली प्रतिद्वंद्विता के बावजूद भारतीय जनमानस में पीढ़ियों से एलआईसी की जो साख बनी हुई है, खुले बाजार में निजी कंपनियां आज तलक उसकी तोड़ नहीं निकाल पायी है। जबरदस्त कारपोरेट दबाव में वित्त मंत्रालयगाहे बगाहे निजी कंपनियों के हितों के मद्देनजर नीतियां बनाता बिगाड़ता है और इस प्रक्रिया में इरडा की भी परवाह नहीं करता, जो बीमा क्षेत्र में टकराव का सबब बन गया है।बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा) ने बीमा कंपनियों को अपने जोखिम के 10 फीसदी हिस्से का रीइंश्योरेंस जीआईसी से कराना अनिवार्य बनाया हुआ है। इसके बदले जीआईसी कमीशन के रूप में करीब 15 फीसदी रकम चुका रही थी, जिससे बीमा कंपनियों को कारोबार में होने वाले खर्च के एक हिस्से की आंशिक भरपाई हो रही थी। उद्योग की कुल कमाई करीब 45,000 करोड़ रुपए है। लेकिन अब यह कमीशन खत्म कर दिया है, इसलिए आईसीआईसीआई लोम्बार्ड और एचडीएफसी एरगो को नुकसान होना तय है। बीमा कंपनियां जनरल इंश्योरेंस काउंसिल के जरिए यह मामला सरकार के सामने उठाने की योजना बना रही हैं।
उधर, वित्त मंत्रालय का कहना है कि यह व्यावसायिक फैसला है और बीमा कंपनियां और नियामक यह डर फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि इस कदम से आम लोगों के लिए प्रीमियम महंगा हो सकता है। बीमा नियामक ने इस मामले में अपने पहले के रुख से अचानक यू-टर्न ले लिया है। कुछ हफ्ते पहले इरडा ने मंत्रालय से कहा था कि सरकारी जनरल इंश्योरेंस कंपनियों (जीआईसी) द्वारा दिए जाने वाले कमीशन पर फैसला लेने का काम इन फर्मों के मैनेजमेंट को करना है। न्यू इंडिया एश्योरेंस, नेशनल इंश्योरेंस, युनाइटेड इंडिया और ओरिएंटल इंश्योरेंस जैसी सरकारी कंपनियों पर इसका कोई असर नहीं होगा। कमीशन पर बचत की वजह से जीआईसी की कमाई बढ़ेगी और वह सरकार को इस फायदे का हिस्सा आगे बढ़ाएगी। निजी बीमा कंपनियों को यह नई चोट ऐसे वक्त लगी है, जब बीमा उद्योग पहले से काफी बुरे दौर से गुजर रहा है। इंश्योरेंस रेगुलेटर थर्ड-पार्टी मोटर पूल के लिए ज्यादा प्रोविजनिंग की जरूरत पर जोर दे रहा है। उद्योग को काफी ज्यादा अतिरिक्त पूंजी अलहदा रखनी पड़ी और उसे 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ है। इसके अलावा, बाजार में उठापटक जारी है, ऐसे में निवेश से होने वाली कमाई भी गड़बड़ा गई है।
जीवन बीमा कंपनियों को दीर्घावधि निवेश के अधिक विकल्प प्रदान करने और ब्याज दर जोखिम को कम किए जाने की कोशिश के तहत बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) उन्हें इक्विटी डेरिवेटिव और क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप (सीडीएस) में निवेश की अनुमति दे सकता है।
इसके अलावा बीमा नियामक बीमा कंपनियों के लिए एक साल से अधिक की अवधि के लिए इंटरेस्ट रेट फ्यूचर्स (आईआरएफ) के जरिये ब्याज दर जोखिम घटाने की अनुमति देने के लिए भी तैयार है। इस पहल का मकसद मुख्य रूप से यूनिट-लिंक्ड पेंशन योजनाओं पर गारंटीड प्रतिफल से जुड़े दीर्घावधि जोखिम से सुरक्षा प्रदान करना है। उद्योग के विश्लेषकों का मानना है कि जीवन बीमा उद्योग में यूनिट-लिंक्ड व्यवसाय को पुनर्जीवित किए जाने के लिए ये कदम उठाए जाने जरूरी हैं। यूलिप में कमीशन घटाए जाने के बाद सितंबर 2010 से यूलिप और पेंशन योजनाओं की बिक्री धीमी पड़ी है। अस्थिर इक्विटी बाजार और अर्थव्यवस्था में मंदी ने चिंताएं और बढ़ा दी हैं और चालू वित्त वर्ष में जीवन बीमा उद्योग का प्रदर्शन खराब रहा है। जीवन बीमा उद्योग का पहले वर्ष का प्रीमियम संग्रह अप्रैल-दिसंबर की अवधि के दौरान 17 फीसदी तक घटा।
पूर्व पेंशन निमायक डी. स्वरूप के नेतृत्व में गठित समिति की सिफारिशों पर अमल करते हुए सरकार जल्द ही बीमा एजेंटों को दिये जाने वाले कमीशन को खत्म करने जा रही है। म्युचुअल फंड और नई पेंशन योजना को पहले ही किसी तरह के कमीशन से अलग कर दिया गया है। स्वरूप समिति ने अपनी रिपोर्ट में अप्रैल 2011 से सभी तरह की खुदरा वित्तीय योजनाओं को किसी भी तरह के कमीशन से मुक्त रखने की सिफारिश की थी।
समिति की सिफारिश के अनुसार कमीशन खत्म होने से निवेशकों को अब तक हो रहे बड़े नुकसान से बचाया जा सकेगा। वर्तमान में एलआईसी के पहले प्रीमियम भुगतान की 40-50 फीसदी राशि एजेंटों के कमीशन के रूप में चली जाती है।
सरकार के इस फैसले से देश में कार्यरत 30 लाख से अधिक बीमा एजेंटों के रोजगार छिन जाएंगे। भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारी का प्रतिशत काफी ज्यादा है, वहां इस तरह के कदम को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि बीमा नियामक प्राधिकरण इरडा यह नहीं चाहता है कि बीमा एजेंटों का कमीशन समाप्त हो। उसका मानना है कि एजेंटों की वजह से ही लोग बीमा पॉलिसी खरीदते हैं। ऐसे में कमीशन को समाप्त करने का मतलब होगा बीमा कारोबार को भारी झटका देना।
तमाम मोर्चों पर महंगाई से त्रस्त लोगों को अब हेल्थ, वीइकल या प्रॉपर्टी इंश्योरेंस कराना भी अगले फाइनैंशल ईयर से महंगा पड़ने जा रहा है। वित्त मंत्रालय ने नैशनल री-इंश्योरेंस कंपनी जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (जीआईसी) को साफ कह दिया है कि वह घाटे के इंश्योरेंस को फंडिंग करना बंद करे। सरकार ने यह भी कहा है कि यदि बीमा कंपनियां घाटे का इंश्योरेंस जारी रखती है तो उन्हें नुकसान अपनी जेब से भरना होगा। या फिर, प्रीमियम रेट्स बढ़ाने होंगे।
एलआईसी लंबे समय से निवेश नियमों में ढील देने की मांग कर रही थी। कंपनी का तर्क था कि मौजूदा नियम के तहत उसके पास निवेश के विकल्प बहुत सीमित हैं क्योंकि ज्यादातर ब्लूचिप कंपनियों में एलआईसी का निवेश मंजूरी सीमा तक पहुंच चुका है। नई योजना के तहत एलआईसी शुरू में केनरा बैंक, इलाहाबाद बैंक, सिंडिकेट बैंक और आंध्रा बैंक में तरीजीही आवंटन के तहत 5 फीसदी की हिस्सेदारी ले सककती है। उसके बाद दूसरे चरण में वह सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार की 5 से 10 फीसदी तक हिस्सेदारी ले सकती है। निवेश के लिए एलआईसी को पूंजी की दिक्कत नहीं होगी क्योंकि उसके पास निवेश योग्य पर्याप्त रकम है। बाजार में उतार-चढ़ाव को देखते हुए अप्रैल-दिसंबर के दौरान एलआईसी करीब 25,000 करोड़ रुपये का ही इक्विटी निवेश कर पाई है जबकि चालू वित्त वर्ष में कंपनी ने 40,000 करोड़ रुपये निवेश का लक्ष्य रखा है। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है।
जीआईसी सरकारी री-इंश्योरेंस यानी पुर्नबीमा कंपनी है। इसका काम इंश्योरेंस कंपनियों को होलसेल कवर देना है। इससे इन कंपनियों को फायदा यह होता है कि बीमा करने से होने वाले जोखिम का एक हिस्सा जीआईसी उठाती है। सरकार के नियम के मुताबिक, सभी बीमा कंपनियों को अपने वित्तीय जोखिम का एक हिस्सा जीआईसी के पास री-इन्श्योर करवाना ही होता है। बीमा कंपनियां इंश्योरेंस करने से मना करने का अधिकार रखती हैं, लेकिन जीआईसी के पास यह अधिकार नहीं है। उसे बीमा कंपनियों द्वारा उसके पास भेजे गए सभी इंश्योरेंसेस का एक हिस्सा री-इन्श्योर करना ही होता है। बीमा कंपनियां अपने नफे-नुकसान को मैनेज करने के लिए अन्य री-इन्श्योरेंस भी जीआईसी से करवा सकती है। जीआईसी को उसके द्वारा बीमा कंपनियों को दिए जाने वाले कमीशन के चलते भी नुकसान उठाना पड़ा। मंत्रालय ने जीआईसी से इस कमीशन को भी आधा करने को कहा है। गौरतलब है कि जीआईसी उन कंपनियों को अपना कारोबार चलाने के लिए कमीशन देती है, जिनपर अपने बीमा कारोबार के कम से कम पांच फीसदी का रीइंश्योरेंस कराने की बाध्यता होती है। इस कमीशन में जीआईसी की ओर से कटौती किए जाने का मतलब कंपनियों पर बीमे की लागत बढ़ना होगा, जिसका बोझ ग्राहकों पर आएगा।
वित्त मंत्रालय ने सरकारी कंपनी जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (जीआईसी) को घाटे वाली बीमा कारोबार को बंद करने को कहा है। मंत्रालय ने कंपनी को चेताया है कि अगर मनाही के बावजूद वह ऐसा करती है, तो घाटे का बोझ उसे खुद उठाना होगा या फिर प्रीमियम की दरें बढ़ानी होंगी। ऐसे में अप्रैल से जनरल इंश्योरेंस पॉलिसियों का महंगा हो जाना तय माना जा रहा है।
होम, ऑटो या हेल्थ इंश्योरेंस कराने की सोच रहे हैं, तो मार्च खत्म होने से पहले ही यह काम निपटा डालना आपके लिए फायदेमंद होगा। देर करने पर प्रीमियम भरते वक्त आपको जेब ज्यादा ढीली करनी पड़ सकती है। अप्रैल से स्वास्थ्य, वाहन, मकान का बीमा महंगा हो सकता है।
सरकारी क्षेत्र की जीआईसी को सरकार की ओर से राष्ट्रीय बीमाकर्ता (नेशनल इंश्योरर) का दर्जा मिला हुआ है। यह सीधे ग्राहकों का बीमा न करके बीमा कंपनियों को बीमा कवर प्रदान करती है। जाहिर है कि जीआईसी अगर अपना प्रीमियम बढ़ाती है, तो कंपनियां इसकी भरपाई ग्राहकों से अधिक प्रीमियम लेकर करेंगी। इस तरह प्रीमियम में बढ़ोतरी का बोझ आखिरकार आम बीमा ग्राहकों पर ही आने वाला है। वित्त मंत्रालय ने 7 फरवरी को जारी अपने एक पत्र में जीआईसी से बीमा कंपनियों को उनके ऐसे बीमा कवर पर रीइंश्योरेंस देने से मना किया है, जिनसे उसे घाटा उठाना पड़े। पत्र के मुताबिक ऐसे बीमा कवर के लिए कंपनियों को खुद रिस्क कवर के इंतजाम करने होंगे या फिर इससे होने वाले घाटे को खुद वहन करना होगा।
यह कदम बीमा नियामक इरडा की 2010-11 की सालाना रिपोर्ट को देखते हुए उठाया गया है, जिसके मुताबिक मोटर और स्वास्थ्य बीमे के कारोबार में क्लेम अदायगी की दर क्रमश: 103 और 100 फीसदी रही। इसका मतलब यह हुआ कि वाहन बीमे में कंपनियों को प्राप्त प्रीमियम की कुल राशि से तीन फीसदी ज्यादा का क्लेम भुगतान करना पड़ा जबकि स्वास्थ्य बीमे में यह राशि प्रीमियम की राशि के बराबर रही। इस तरह दोनों ही कारोबारों में मुनाफे की स्थिति नहीं रही और रीइंश्योरेंस के चलते इसका भार जीआईसी पर आया।
दूसरी ओर बीमा कंपनियों को एसएमई वेंचर कैपिटल में कुल निवेश का 20 फीसदी तक निवेश करने की इजाजत मिल सकती है। वित्त मंत्रालय की सिफारिश के बाद बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा) बीमा कंपनियों को एसएमई वेंचर कैपिटल में निवेश की इजाजत देने पर विचार कर रहा है। मौजूदा समय में बीमा कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्चर वेंचर कैपिटल में कुल निवेश का 10 फीसदी तक निवेश कर सकती हैं।
बीमा नियामक ने इस साल जून में मसौदा आईपीओ निशानिर्देश जारी किया था और उद्योग की प्रतिक्रिया के आधार पर कुछ बदलावों के बाद इसे सेबी को सौंपा गया था। बाजार नियामक के तौर पर सेबी को सरकार द्वारा अधिसूचित किए जाने से पहले दिशानिर्देशों को मंजूरी दिया जाना जरूरी है। अपने प्रारूप दिशा-निर्देश में आईआरडीए ने कंपनियों के लिए इस क्षेत्र में 10 वर्षों की मौजूदगी अनिवार्य बनाई है। दिशानिर्देशों में कंपनियों के लिए यह अनिवार्यता भी होगी कि उनका वित्तीय प्रदर्शन मजबूत रहा हो और नियामक रिकॉर्ड संतोषजनक हो।
हालांकि बीमा नियामक एकमात्र प्राधिकरण है जो सार्वजनिक पेशकश की योजना बनाने वाली किसी भी बीमा कंपनी के आवेदन को स्वीकार कर सकता है या ठुकरा सकता है, लेकिन कंपनियों को आईसीडीआर (इश्यू ऑफ कैपिटल ऐंड डिस्क्लोजर रिक्वायरमेंट्स) विनियामक-2009 के तहत सेबी के अनिवार्य लिस्टिंग मानकों को भी पूरा करना होगाा। इसके अलावा यदि सार्वजनिक निर्गम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) मानकों से जुड़ा हो तो उसे भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति भी लेनी होगी।
अगर स्वास्थ्य बीमा धारक भी अपनी कंपनी के काम से संतुष्ट नहीं हैं तो वे वर्तमान शर्तों पर ही अपनी बीमा कंपनी बदल पाएँगे। हाल में उपभोक्ता संघों और पॉलिसी धारकों के बीमा क्षेत्र में पोर्टेबिलिटी शुरू किए जाने के आग्रह के बाद इरडा ने यह फ़ैसला किया है।बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (इरडा) ने एक बयान जारी कर कहा है कि प्राधिकरण ने स्वास्थ्य बीमा से जुड़े कई मुद्दों का अध्ययन करने के बाद यह आदेश जारी किया है जो एक जुलाई 2011 से लागू होगा.इस व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली बीमा कंपनियाँ कम से कम पूर्व बीमा पॉलिसी के बराबर कवर उपलब्ध कराएंगी.इस सुविधा से उन बीमा धारकों को भी फ़ायदा होगा जो पहले से जारी बीमारियों का कवर न मिलने के डर के कारण पुरानी बीमा कंपनियो से जुड़े रहते थे।
इरडा का बयान ऐसे वक्त में आया है, जब वित्त मंत्रालय जीआईसी द्वारा इंश्योरेंस कंपनियां को 5 फीसदी कमीशन दिए जाने पर सहमत हो गया है। दरअसल, इंश्योरेंस कंपनियों के लिए बीमा के कुल 10 फीसदी हिस्से का रीइंश्योरेंस जरूरी है और इसी के एवज में जीआईसी बीमा कंपनियों को कमीशन देती है।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के मुताबिक, नियामक ने निजी बीमा कंपनियों और ब्रोकरों के दबाव के बाद अपने रुख में बदलाव किया है। नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर अधिकारी ने बताया, 'जब हमने इस बारे में जीआईसी से पूछ तो उन्होंने बताया कि इस बारे में नियामक फैसला करेगा। इरडा ने उस वक्त कहा था कि इस पर जीआईसी निर्णय लेगी। अब नियामक फिर से अधिकार क्षेत्र का मुद्दा उठाने लगा है।'
इरडा के एक और अधिकारी ने बताया कि इस मामले पर सरकार और जीआईसी दोनों से बातचीत की जा रही है। सरकार ने जीआईसी को नुकसान में चल रहे कारोबार की अंडरराइटिंग भी बंद करने का निर्देश दिया है।
इस पूरे मामले पर सरकारी अधिकारी ने बताया, 'बीमा कंपनियां यह दिखाने की कोशिश कर रही हैं कि इससे प्रीमियम में इजाफा होगा। हालांकि, सचाई यह है कि जीआईसी सिर्फ उनके 10 फीसदी बिजनेस का रीइंश्योरेंस करती है। प्राइवेट बीमा कंपनियां घाटे में चल रहे अपने सारे बिजनेस को जीआईसी के हवाले कर रही थीं। हम सिर्फ इस पर लगाम लगाना चाहते हैं।'
वित्त मंत्रालय को शिकायत मिली थी कि बीमा कंपनियां ब्रोकरों के साथ मिलकर अपने सारे बैड बिजनेस को जीआईसी के हवाले कर रही हैं और सुरक्षित हिस्से को विदेशी रीइंश्योरेंस कंपनियों को दे रही हैं, क्योंकि वहां उन्हें बेहतर मार्जिन मिलता है। सरकारी अधिकारी के मुताबिक, कई बीमा कंपनियों का विदेशी रीइंश्योरेंस फर्मों के साथ गठबंधन है और ऐसे में जाहिर है कि वे विदेशी फर्मों को बेहतर बिजनेस मुहैया कराएंगी।
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Palash Biswas
Pl Read:
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