भ्रष्टाचार के रास्ते
Monday, 23 January 2012 10:30 |
भीम सिंह अमेठी संसदीय क्षेत्र से मैंने 1981 में राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था। लोकदल के शरद यादव भी प्रत्याशी थे। राजीव गांधी के मुकाबले हम लोग बुरी तरह पिट गए। आज भी इस संसदीय क्षेत्र में 1214 मतदान केंद्र और पांच विधानसभा क्षेत्र हैं। पांच विधानसभा क्षेत्रों में गाड़ी, लाउडस्पीकर और जनसभाएं आयोजित करने के लिए प्रति क्षेत्र दस लाख रुपए ही लगाए जाएं तो पचास लाख वही हो गया। और फिर पोस्टर, बैनर, झंडे आदि का खर्च प्रति विधानसभा क्षेत्र दस लाख से कम नहीं होगा। इसमें खाना, हेलीकॉप्टर और राजनीतिक मेहमानों के खाने-रहने आदि के खर्च की बात नहीं कर रहा हूं, जो कम से कम पांच करोड़ रुपए होगा।जनसत्ता 23 जनवरी, 2012: आठ-दस महीनों से देश में भ्रष्टाचार को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले साल जून में काले धन के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव का सत्याग्रह हुआ, फिर अगस्त में मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर उसी स्थान पर अण्णा हजारे का अनशन। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ने वालों से, जो यह मान कर चल रहे हैं कि लोकपाल ही भ्रष्टाचार को खत्म करने का एकमात्र उपाय है, मैं कहना चाहता हूं कि पहले यह निदान करना बहुत जरूरी है कि भ्रष्टाचार का स्रोत कहां है। जब तक स्रोत को बंद नहीं किया जाएगा, भ्रष्टाचार केवल कानून बनाने से, चाहे वह कितना ही सख्त क्यों न हो, खत्म नहीं हो सकता। भारत के संसदीय इतिहास के साठ वर्षों के अनुभवों से पता चलता है कि चुनाव-प्रणाली में गंभीर खामियां हैं। संसद और विधानसभाओं में देश के कानून बनते हैं और इन्हीं से बनती हैं केंद्र और प्रदेशों में सरकारें। कानून बनाने वाले केंद्रों में अगर कोई कोताही आ जाती है या प्रतिबद्धता या ईमानदारी में कमी आ जाती है, तो लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर होने का खतरा रहता है। संसद का निर्माण जिस आधार पर होता चला आ रहा है, उसे समझना प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक है। लोकसभा में 543 और राज्यसभा में 245 सदस्य हैं, जो कानून बनाते हैं। ये ही अरबों रुपए का जो राजस्व सरकार इकट्ठा करती है उसे देश के विकास के लिए खर्च करने की मंजूरी देते हैं। लेकिन आज संसदीय व्यवस्था की साख संकट में है। सरकार चलाने वालों और विधायिका में बैठे लोगों पर देश के कोने-कोने से और समाज के हर वर्ग से उंगलियां उठ रही हैं। क्या कारण है कि कई बडेÞ नेता, वर्षों सांसद या विधायक और मंत्री के रूप में नाम कमाने के बाद भ्रष्टाचार में फंसे हुए हैं। लोकसभा चुनाव में खर्च-सीमा पचीस लाख रुपए है। क्या पचीस लाख रुपए में लोकसभा के लिए कोई व्यक्ति चुनाव जीत सकता है? मिसाल के तौर पर ऊधमपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में 1989 मतदान केंद्र हैं। इनमें से करीब आठ सौ मतदान केंद्रों तक पैदल पहुंचने में दो या तीन दिन भी लग जाते हैं। यानी केवल चुनाव के दिन एक मतदान केंद्र पर प्रत्याशी को अपने पोलिंग एजेंट नियुक्त करने और उनके भोजन या उनके एक दिन के रहने आदि का प्रबंध करने का खर्च हजार रुपए से कम नहीं होगा। बीस लाख रुपए केवल मतदान के दिन अपने पोलिंग एजेंटों के वाजिब खर्च के लिए चाहिए और फिर 1989 मतदान केंद्रों के लिए झंडा, इश्तिहार, बैनर आदि का खर्च पांच सौ रुपए प्रति केंद्र भी लगाया जाए, तो यह हो जाता है लगभग दस लाख रुपए। यानी तीस लाख रुपए तो मतदान वाले दिन के लिए ही चाहिए। इसके बाद मान लीजिए कि पंद्रह दिन ही चुनाव अभियान किया जाए और उसमें कार्यकर्ताओं को भोजन-पानी और बिस्तर का खर्च न भी जोड़ा जाए तो ऊधमपुर की सत्रह विधानसभाओं में सोलह दिन के प्रचार के लिए एक-एक गाड़ी के किराए, तेल और ड्राइवर का खर्च एक दिन का तीन हजार रुपए से कम नहीं होगा। यानी सोलह दिन के प्रचार-अभियान का खर्च आठ लाख रुपए से कम नहीं बैठेगा। चुनाव-अभियान में झंडे और चुनाव चिह्न का प्रचार और पोस्टर आदि अनिवार्य हैं। एक रंगीन पोस्टर का खर्च चार रुपए से कम नहीं है। मेरा अपना अनुभव यह है कि एक प्रत्याशी को संसद के चुनाव में बडेÞ और छोटे पोस्टर मिला कर कम से कम दो लाख पैंफलेट-पोस्टर वितरित करने ही होंगे। इस प्रकार आठ-दस लाख रुपए पोस्टरों और प्रतीकों पर खर्च हो जाते हैं। अब रही बात चुनाव के लिए जनसभाएं आयोजित करने की। अगर एक विधानसभा क्षेत्र में एक जनसभा भी की जाए, तो प्रति जनसभा कम से कम चार लाख रुपए की जरूरत पड़ती है। इसमें कोई ‘वैसा’ खर्च शामिल नहीं है, जैसे कि मतदाताओं को चुनाव की रात बांटे जाने वाले पैसे, शराब, सिगरेट वगैरह। जो कर्मठ कार्यकर्ता हैं, जो दिन-रात गाड़ियों में प्रचार कर रहे होते हैं, उनके खर्च को भी यहां शामिल नहीं किया गया है। इन सब खर्चों को जोड़ कर लोकसभा के एक उम्मीदवार के चुनाव पर वास्तविक व्यय एक करोड़ रुपए से ऊपर ही बैठेगा। यह है भ्रष्टाचार का स्रोत। एक सांसद कम से कम दो करोड़ रुपए खर्च करके संसद में पदार्पण कर पाता है। जिन पूंजीपतियों और बाहुबलियों ने उसको जिताने के लिए धन दिया हो, उनकी भरपाई करनी पड़ती है और यहीं से भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है। जब तक चुनाव प्रणाली में बुनियादी परिवर्तन नहीं लाया जाता, भ्रष्टाचार की इस बाढ़ को कोई नहीं रोक सकता। चुनावों में धांधली की एक और विडंबना प्रस्तुत करना चाहता हूं। 1988 में मैं ऊधमपुर से लोकसभा का चुनाव जीत चुका था, लेकिन चुनाव में धांधली करते हुए मुझे पराजित घोषित करवा दिया गया। न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तो इस राज का पर्दाफाश हुआ कि मैं बत्तीस हजार मतों से जीत चुका था। न्यायालय ने मुझे विजयी घोषित किया। अब त्रासदी देखिए, जब मुझे विजयी घोषित किया गया, तब तक लोकसभा भंग हो गई। विजयी होने के बावजूद मुझे लोकसभा में प्रवेश से वंचित रहना पड़ा। जब मेरे जैसे सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता के साथ ऐसा शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण सलूक किया जा सकता है तो कानून की बारीकियों से अनजान प्रत्याशियों के साथ क्या नहीं हो सकता। राज्यसभा के चुनाव में वोटों की हेराफेरी तो नहीं होती, क्योंकि आम लोग मतदाता नहीं होते, मगर वोटों की सौदेबाजी खूब होती है। अनेक पूंजीपतियों ने करोड़ों रुपए देकर वोट खरीदे और किसी तरह राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त कर ली, यह भी किसी से छिपा नहीं है। इतना ही नहीं, एक नई संस्कृति यह पनप रही है कि बडेÞ-बडेÞ राजनीतिक दलों की उम्मीदवारी चाहने वाले टिकट के लिए करोड़-दो करोड़ रुपए तक देने को तैयार हैं। जो प्रत्याशी करोड़ों रुपए खर्च करके लोकसभा में पहुंचेगा, वह भी सिर्फ पांच वर्षों के लिए, तो क्या वह इस खर्च की भरपाई या बदले में और ज्यादा धन इकट्ठा करना नहीं चाहेगा? ऐसे में अवैध खनन या घोटाले और विवेकाधीन कोटे के तहत अपने कृपापात्रों को सरकारी जमीन दिलाने के मामले क्यों नहीं होंगे? लोकपाल विधेयक पर हुई बहस में ग्रुप-सी और डी के कर्मचारियों को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने की मांग पर बड़ा बवाल मचा। लेकिन उनकी भी दास्तान ऐसी ही है। यहां भी स्रोत यानी उनकी भर्ती से ही भ्रष्टाचार शुरू हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि पुलिसकर्मी और क्लर्क की नौकरी पाने के लिए चार-पांच लाख रुपए ‘खर्च’ करना पड़ जाता है। इसी तरह इंजीनियर और डॉक्टर की पढ़ाई के दाखिले और ग्रुप-बी के अधिकारी की नौकरी पर आठ-दस लाख खर्च होना मामूली बात है। स्वाभाविक है कि ये लोग भर्ती होते ही अपनी इस लगाई गई पूंजी को हासिल करने की भरसक कोशिश करते हैं और यही है प्रशासन में भ्रष्टाचार का स्रोत। जब भ्रष्टाचार से ही उनकी भर्ती होती है तो फिर उनसे ईमानदारी की आशा करना बेमानी है। आम लोग अपने स्वार्थों के कारण वास्तविकता से रूबरू होने से कतराते हैं। चाहे संसद और विधानसभाओं के चुनाव हों या फिर सरकारी पदों पर भर्ती, ये जिस तरह से हो रहे हैं उसका समाज और देश के लिए दूरगामी परिणाम बहुत बुरा हो सकता है। अगर इसकी अनदेखी की गई तो एक दिन विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र भयानक उथल-पुथल में फंस जाएगा। इसलिए हर वर्ग के और हर समुदाय के मतदाता के लिए यह जरूरी है कि वह लोकतंत्र का सजग प्रहरी बने। जब तक व्यवस्था के हर स्तर पर फैली लूट-खसोट की मानसिकता बदली नहीं जाती, भ्रष्टाचार पर काबू पाना नामुमकिन है। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को इसी समूल क्रांति की ओर अग्रसर होना होगा। लोकपाल तो सिर्फ एक ‘राजदंड’ का काम कर सकता है। वह यह भय पैदा कर सकता है कि अगर किसी ने रिश्वत लेने की जुर्रत की तो उसके खिलाफ कार्रवाई अवश्य होगी, कोई अपनी पहुंच के बल पर बच नहीं पाएगा। अभी हालत यह है कि बड़े नौकरशाहों और राजनीतिकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए सीबीआई को केंद्र सरकार का मुंह जोहना पड़ता है। यह बात राज्यों की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों पर भी लागू होती है। अगर सीबीआई लोकपाल के तहत हो तो अपने कृपापात्र दागियों को बचाने का यह खेल बंद हो सकता है। पर भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए सिर्फ दंड का भय काफी नहीं है। समाज में सदाचार की प्रेरणा भी पैदा करनी होगी। वह कहां से आएगी? भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हर नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह भ्रष्ट, बाहुबली या आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशी को वोट न दे। अगर ऐसे उम्मीदवार जीतते रहेंगे तो राजनीतिक दलों की भी यह मजबूरी हो जाएगी कि इन्हें टिकट दें। इसलिए सबसे पहले हर मतदाता को जागरूक बनना होगा और निडर और निस्वार्थ होकर अपना वोट भ्रष्ट और बाहुबली प्रत्याशियों को न देने का संकल्प लेना होगा। दूसरा तकाजा है कि चुनाव प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किया जाए; चुनाव अभियान को पूंजीपतियों, बाहुबलियों और सांप्रदायिकता के प्रभाव से मुक्त किया जाए। क्या संसद इसके लिए ठोस पहल करने की इच्छाशक्ति दिखा सकेगी? |
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