अब बंगाल में खून की नदियां बहेंगी और कुलीन सत्तासंघर्ष में मारे जायेंग सिर्फ आम लोग!
पलाश विश्वास
अब बंगाल में खून की नदियां बहेंगी और कुलीन सत्तासंघर्ष में मारे जायेंग सिर्फ आम लोग!वैसे सत्ता का खेल ही ऐसा है कि बलि वेदी पर अपना सर चढ़ाने के लिए , शहीद का दर्जा पाने के लिए लाखों लोग तैयार हो जायेंगे। पक्ष विपक्ष में बंटे भावुक बंगाल में राजनीति का मैदान कुरुक्षेत्र बनकर तैयार है। परिवर्तन के बाद जो राजनीतिक हिंसा का वातावरण और राजनीतिक अराजकता का वातावरण बना है, पंचायत चुनावों में जनाधार की दखल की लड़ाई दिनोंदिन तेज होते जाने से धमाके ही धमाके होने हैं। रेज्जाक अली मोल्ला महज पूर्व माकपा मंत्री नहीं हैं। सत्तर पार जनआंदोलनों के जमीनी कार्यकर्ता और नेता हैं। उनपर हमले के बाद खुल्ला खेल फर्रूखाबादी शुरु हो चुका है। तीव्र घृणा अभियान में लहूलुहान है बंगाली मानस। दोनों तरफ से मारक मिसाइले दागी जा रही हैं। माकपा ने ४८ घंटे का अल्टीमेटम दिया है हमलावरों को पकड़ने के लिए, जबकि अस्पताल से जबरन मोल्ला को विदा किया जा रहा है और सत्ता पक्ष हमलावरों की पीठ थपथपाने में लगा है। माकपा पहले बंद का ऐलान करने के बारे में सोच रही थी। पर सागरद्वीप में गंगासागर मेले के कारण बंद टल गया। लेकिन जगह जगह अवरोध और संघर्ष केतो पूरे आसार हैं। आस्था का सफर भी इस बार जोखिम से खाली नहीं है।
सबसे चिंता की बात तो यह है कि अपार जनसमर्थन से सत्ता में आयीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उग्र माकपा विरोधी तेवर अभी ठंडा नहीं हुआ है। विधानसभा चुनावों के बाद से लगातार होते राजनीतिक संघर्ष को रोकने की उनकी ोर सेकोई राजनीतिक पहल नहीं हुई। वे जंगल महल और पहाड़ में अमन चैन कायम करने का दावा कर रही हैं तो पूरा बंगाल राजनीतिक हिंसा की आग में झुलस रहा है। राष्ट्रीय नेता बनने की महत्वाकांक्षा के मुताबिक लोकतंत्र में संयम और सहिष्णुता का परिचय अभी उन्होंने नहीं दिया। बतौर विपक्षी नेता वे माकपा के खिलाफ जिहाद का नेतृत्व देती रहीं और तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिलने से भी इंकार करती रहीं। फिछले लोकसभा चुनाव से उन्होंने बंगाल में लाल हटाओ का नारा दिया और रेलमंत्री बनने के बाद रेलवे की इमारतों का लाल रंग बदलने में लगी रहीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका यह लाल मिटाओ अभियान हिंसा और घृमा का सबसे बड़ा प्रतीक है। मोल्ला जैसे बुजुर्ग नेता पर हमले के मामले में उनके घनिष्ठ नेता और मंत्री जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं.जाहिर है, उसे दीदी का अनुमोदन मिला हुआ है। वैसे भी कबीर सुमन के मुताबिक तृणमूल कोई पार्टी तो है ही नहीं, वह कोई तदर्थ समिति जैसी काम करती है, जिसकी कहां कोई जिम्मेवारी नहीं बनती। तृणमूल में दीदी की मर्जी के खिलाफ कोई पत्ता तक नहीं हिलता तो यह युद्धघोषणा उनकी मर्जी के खिलाफ तो नहीं है।
बंगाल में वर्चस्ववादी आधिपात्य की संस्कृति इतनी प्रबल है कि हिंसा और घृणा, प्रतिपक्ष का सफाया इसका चरित्र ही है। तीन फीसद उच्च वर्ण के लोग जैसे जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व बनाये रखे हुए हैं और बहुसंख्यक जनता को गुलाम बनाये हुए हैं, वह हिंसा की संस्कृति के अलावा क्या है? यहां असुर मर्दिनी दुर्गा और ऱणचंडी काली की आराधना होती है जो जनसंहार की संस्कृति का ही परिवेश बनाती है।विभाजन के बाद कोलकाता में सांप्रदायिक उन्माद की राजनीतिक निरंतराता ही यहां राजनीति है। विपक्ष का बेरहमी से सफाया ही राजनीतिक दर्शन है। इसीलिए सत्तर दशक के गृहयुद्ध, खाद्यय आंदोलन व तेभागा के दौरान राजनीतिक संघर्ष, आनंदमार्गियों को जिंदा जला देने जैसी वीभत्स घटना, मरीचझांपी नरसंहार, केशपुर और नानुर के संघर्ष, नंदीग्राम महासंग्राम जैसे बंग इतिहास के अध्याय खून से ही लिखे गये हैं। हमेशा रक्तनदियों में नहाता रहा बंगाल , पर मारे जाते रहे प्यादे ही।पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान अगर हिंसा नहीं हुई तो सिर्फ इसलिे नहीं कि चुनाव आयोग ने खूब बढ़िया िइंतजाम किया था, तब बाहुबलियों की सेना माकपाइयों के साथ थी जिसने माकपा की हार के बाद पाला बदल दिया। तब तऋममूल समर्थक सड़क पर माकपाइयों को ललकारने की हालत में नहीं थे। लेकिन अब हैं। दूसरी ओर, मारपा भले ही चुनाव हार गयी हो और सत्ता से बाहर हो गयी हो, तृणमुल की हिंसा का जवाब हिंसा से देने के लिए वह पूरी तरह सक्षम है। हवा खिलाफ देखते हुए माकपा ने अब तक संयम ही बरता है। पर माकपाई संयम का बांध टूटते हुए नजर आ रहा है। ऐसे में अंजाम क्या होगा, अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल में जारी राजनीतिक झड़पों पर चिंता प्रकट करते हुए लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले जून महीने में हीकहा कि हर किसी को मतभेद दूर करने तथा स्थिति को सामान्य करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।चटर्जी ने कहा कि हत्याएँ रोजमर्रा की बात हो गई है और जीवन का कोई मूल्य नहीं रह गया है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल के बेहतर भविष्य के लिए झड़पें बंद होनी चाहिए। उन्होंने ‘निष्पक्ष समाचार संकलन के अभाव’के लिए मीडिया की भी आलोचना की।मेदिनीपुर, मुर्शिदाबाद, पूर्व मेदिनीपुर, दक्षिण 24 परगना, बर्धवान, नदिया, उत्तर 24 परगना, मालदा, हुगली, दक्षिण दीनाजपुर और कूचबिहार आदि जिलों मे 2009 से अब तक राजनीतिक दलों के 4,668 समर्थकों की हत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध है। बंगाल की हुकूमत की मंजिल पाने के लिए हिंसा के रास्ते पर चलना राजनीतिक दलों ने जरूरी मान लिया है। चुनाव की घोषणा के पहले ग्राम दखल और इलाका दखल के अभियान के अपने-अपने टाग्रेट राजनीतिक दलों ने लगभग पूरे कर लिए। अब जगह-जगह झंडे दिखते हैं। अलग-अलग रंग के झंडे लेकिन ये झंडे खून से भी सने हुए हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने की परिपाटी लोकसभा चुनाव के बाद से कुछ ज्यादा ही दिख रही है। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के सचिव सुजात भद्र के अनुसार, लोकसभा चुनाव के बाद अब तक 10 हजार विपक्षी कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं जबकि वाममोर्चा के ढाई हजार कैडरों की हत्या हुई है। दूसरी ओर, माओवादियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले मानवाधिकार संगठन 'बंदी मुक्ति' मोर्चा का दावा है कि दोनों के ढाई हजार लोगों की हत्या हुई है। ज्योति बसु सरकार के शुरुआती दिनों में फार्वड ब्लॉक के नेता हेमंत बसु हत्याकांड की जांच फाइलों तक ही सीमित रही। तृणमूल कांग्रेस को विधानसभा चुनाव की तैयारी में माकपा के उत्थान के दौर में केंदुआ कांड जैसी घटनाएं याद आ रही हैं। हुगली पार हावड़ा के केंदुआ गांव में 18 साल पहले माकपा कैडरों ने 12 लोगों के हाथ काट दिए थे। केंदुआ गांव के लोगों ने जो झेला वह नंदीग्राम से भी ज्यादा गहरा घाव था। राजनीतिक हत्याओं के लिए एक तरह से खुली छूट मिल गई। राजनीतिक संघर्ष की दृष्टि से नंदीग्राम कांड और नानूर इसका जीवंत उदाहरण हैं। पश्चिम बंगाल में 1977 से अब तक 55,408 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। 2009 में राजनीतिक हत्याओं के 2,284 मामले दर्ज किए गए थे। 2010 में भी यह आंकड़ा कुछ इसी तरह का था। हालांकि 2009 में मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में पेश किए गए आंकड़ों से ये मेल नही खाते। मुख्यमंत्री के अनुसार एक जनवरी से 13 नवम्बर 2009 तक बंगाल में राजनीतिक संघर्ष की घटनाओं में कुल 69 लोग मारे गए। इनमें 47 लोग माकपा के कैडर थे। 15 तृणमूल कांग्रेस के और चार कांग्रेस से। '90 के दशक में कोलकाता के पास 17 आनंदमार्गी संन्यासियों को जिंदा जला दिया गया था। उसके बाद बानतला सामूहिक बलात्कार और हत्या जिसमें यूनिसेफ की वरिष्ठ अफसर और उसकी सहयोगी दो महिलाओं की इज्जत लूटने के बाद उन्हें जला मारा गया। इस घटना पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की टिप्पणी थी, सांझ ढले वे लोग उस सुनसान जगह क्या कर रही थीं ? मौत पर ऐसा मजाक सिर्फ नेता ही कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने का यह सिलसिला वर्षो से चला आ रहा है। सवाल उठता है कि ऐसी सत्ता का क्या अर्थ जो खून बहा कर हासिल की जाए, पर नेता हैं कि मानते ही नहीं। उन्हें तो सिर्फ सत्ता चाहिए; चाहे जैसे भी क्यों न हासिल हो। बंगाल के नेता जनता से अपना सरोकार नहीं समझते, आखिर क्यों?
नंदीग्राम में बुद्धदेव की जनसभा में उमड़ी भारी भीड़ के बाद पंचायत चुनावों में माकपा ने उन्हें ही अपना सेनाधिपति बनाकर विधानसभा चुनावों के बाद अख्तियार किये रक्षात्मक तेवर को तिलांजलि दे दी है। ममता बनर्जी भी लगता है कि जमीन आंदोलन और परिवर्तन का पूरा श्रेय हासिल करने के बाद एक इंच जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के नेता और मंत्री तक न केवल खुलेआम सड़क पर माकपाइयों से निपटने की चेतावनी दे रहे हैं, मोल्ला पर हमला बोलकर इसे बखूब अंजाम भी दे रहे हैं। अब देखना है कि माकपाई ईंट का जवाब कैसे पत्थरों से देते हैं।
गंगासागर मेले के बहुत पास डायमंड हारबार में रविवार को महती सभा से विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने हमलावरों को ४८ घंटे के भीतर गिरफ्तार करने की चेतावनी दी है।अब उन्होंने स्पष्ट किया है कि यह समयसीमा मंगलवार के दोपहर बारह बजे खत्म हो जायेगी।
कैनिंग के विधायक व पूर्व मंत्री मोल्ला ने आज कहा कि भांगड़ में उनके चेहरे पर घूंसे मारे हैं तृणमूल नेता अराबुल इस्लाम ने। पहले से कई मामलों में अभियुक्त अराबुल ने मोल्ला पर उलटे नाटक करने का आरोप लगाया है। अराबुल ने आज फिर घटनास्थल भांगड़ में पार्टी की आम सभा बुलाकर मोल्ला के किलाफ आरोप लगाये कि उन्होंने ही हिंसा भड़कायी। उन्होंने पूचा कि अगर वे माकपा की सभा में चले जायें तो क्या उनपर रसगुल्ला की बरसात होती? पहले ही राज्य के मंत्री और ममता दीदी के खासम खास फिरहाद हकीम ने टिप्पणी की थी कि मोल्ला कूदकर तृणमूल की सभा भंग करने पहुंचे थे और फिर कूदकर अस्पताल में पहुंच गये। अगर चार हजार तृणमूली उनपर हमला करते तो उनकी हालत अस्पताल पहुंचने लायक नहीं होती। एक अन्य मंत्री ज्योति प्रियमल्लिक जो माकपाइयों के सामाजिक बहिष्कार के आह्वान से पहले ही चर्चित हैं, पार्टी कार्यकर्ताओं को माकपाइयों की अच्छी खासी धुनाई कर देने के लिए ललकारा। अब फिर एक और मंत्री पूर्णेंदु बसु ने अराबुल का बचाव करते हुए टिप्पणी कर दी कि मोल्ला ने तो माकपा की छवि ही खराब कर दी। आरोप प्रत्यारोप पर किसी भी तरफ से कोई अंकुश नहीं है। दोनों तरफ से सड़क पर हिसाब बराबर करने की पूरी तैयारी है।दूसरी ओर,दक्षिण चौबीस परगणा जिला वाममोर्चा ने मंगलवार दोपहर दो बजे से जिला मुख्यालय अलीपुर, जो कि दीदी का गृहक्षेत्र है,धरना देने की घोषणा की है।
इसी बीच उत्तर कोलकाताके श्यामपुकुर में मकानमालिक व किरायादारों का विवाद सुलझाने के लिए तृणमूल कार्यालय व स्थानीय पार्षद केघर बुलाय़ी गयी बैठक एक किरायेदार और उसकी बेटी की जमकर पिटाई की गयी। बुरीतरह जख्मी बुजुर्ग किरायेदार शुभेंदु दत्त को इलाज के आरजी कर अस्पताल ले जाया गया तो डाक्टरों ने उन्हें मृत पाया।
विद्रोही तृणमूल सांसद कबीर सुमन आज मोल्ला को देखने अस्पताल गये तो उन्होंने हिंसा की अराजक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए माओवादियों की मदद से सत्ता में आयी तृणमूल कांग्रेस को जमकर कोसा।
उन्होंने कहा कि माओवादी नहीं होते, सिंगुर नंदीग्राम और ललगढ़ के जनविद्रोह नहीं होते ते सत्ता में नहीं होती दीदी। उन्होंने यहां तक दावा किया कि वे और महाश्वेता देवी के बिना ममता ममता नहीं होती। उन्होंने अपनी पार्टी को चुनौती दी कि विपक्षी नेताओं और विरोधियों से सड़क पर निपटने की चेतावनी को अंजाम देकर देखें। उन्होंने कहा कि नंदीग्राम गोलीकांड से माकपा का जैसे पटाक्षेप हो गया , उसीतरह इस अराजक राजनीति और शत्रुतापूर्ण रवैये वाले घृणा अभियान से न केवल बंग संस्कृति ही प्रदूषित हो रही है , बल्कि बंगाल के इतिहास में दीदी के अध्याय का भी समापन हो रहा है। उन्होंने कहा कि अगर मान लें कि माकपाई शत्रु हैं तो भी ऐसी हरकतों से तृणमूल के नेता और मंत्री माकपा की वापसी का ही रास्ता बना रहे हैं।
मोल्लापर हमले की परिवर्तनपंथी बुद्धिजीवियों में सबसे बुजुर्ग मशहूर साहित्यकार महाश्वेता देवी ने भी कड़ी निंदा की है और उन्होंने फिर कहा कि बंगाल की जनता न हरगिज ऐसा परिवर्तन नहीं चाहा था।
माकपा ने आज अपने वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला पर हमले में कथित तौर पर शामिल तृणमूल कांग्रेस के नेता अराबुल इस्लाम को तत्काल गिरफ्तार किये जाने की मांग की।
माकपा ने एक बयान में कहा, ‘‘माकपा, वामदल और विपक्ष के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की ओर से जारी हिंसा का यह ताजा उदाहरण है । माकपा ने मांग की कि इस हमले के लिए जिम्मेदार तृणमूल नेता एवं अन्य लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए।’’
गौरतलब है कि मुल्ला पर कल दक्षिणी 24 परगना जिले के कांता तला क्षेत्र में तृणमूल कांग्रेस समर्थकों ने कथित तौर पर हमला किया था। माकपा ने आरोप लगाया कि मुल्ला पर अराबुल इस्लाम एवं अन्य लोगों ने उस समय हमला किया जब वह पार्टी कार्यालय जा रहे थे। कार्यालय को भी आग लगा दी गई।
पार्टी ने कहा कि वरिष्ठ नेता को चेहरे पर चोटें आई। हमले की निंदा करते हुए पार्टी ने कहा कि पोलित ब्यूरो सभी धर्मनिरपेक्ष बलों से पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस द्वारा किये जा रहे हिंसा के खिलाफ विरोध दर्ज कराने की अपील करता है। बहरहाल, तृणमूल कंग्रेस ने इस घटना में अपनी पार्टी के किसी सदस्य के शामिल होने से इंकार किया है और माकपा पर गलतबयानी करने का आरोप लगाया।
तृणमूल नेता और राज्य के शहरी विकास मंत्री फरहद हाकिम ने कहा, ‘‘ऐसे समय में जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जंगल महल और दार्जिलिंग में शांति स्थापित की है, उस समय माकपा प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा को हवा देने में लगी है।’’
पलाश विश्वास
अब बंगाल में खून की नदियां बहेंगी और कुलीन सत्तासंघर्ष में मारे जायेंग सिर्फ आम लोग!वैसे सत्ता का खेल ही ऐसा है कि बलि वेदी पर अपना सर चढ़ाने के लिए , शहीद का दर्जा पाने के लिए लाखों लोग तैयार हो जायेंगे। पक्ष विपक्ष में बंटे भावुक बंगाल में राजनीति का मैदान कुरुक्षेत्र बनकर तैयार है। परिवर्तन के बाद जो राजनीतिक हिंसा का वातावरण और राजनीतिक अराजकता का वातावरण बना है, पंचायत चुनावों में जनाधार की दखल की लड़ाई दिनोंदिन तेज होते जाने से धमाके ही धमाके होने हैं। रेज्जाक अली मोल्ला महज पूर्व माकपा मंत्री नहीं हैं। सत्तर पार जनआंदोलनों के जमीनी कार्यकर्ता और नेता हैं। उनपर हमले के बाद खुल्ला खेल फर्रूखाबादी शुरु हो चुका है। तीव्र घृणा अभियान में लहूलुहान है बंगाली मानस। दोनों तरफ से मारक मिसाइले दागी जा रही हैं। माकपा ने ४८ घंटे का अल्टीमेटम दिया है हमलावरों को पकड़ने के लिए, जबकि अस्पताल से जबरन मोल्ला को विदा किया जा रहा है और सत्ता पक्ष हमलावरों की पीठ थपथपाने में लगा है। माकपा पहले बंद का ऐलान करने के बारे में सोच रही थी। पर सागरद्वीप में गंगासागर मेले के कारण बंद टल गया। लेकिन जगह जगह अवरोध और संघर्ष केतो पूरे आसार हैं। आस्था का सफर भी इस बार जोखिम से खाली नहीं है।
सबसे चिंता की बात तो यह है कि अपार जनसमर्थन से सत्ता में आयीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उग्र माकपा विरोधी तेवर अभी ठंडा नहीं हुआ है। विधानसभा चुनावों के बाद से लगातार होते राजनीतिक संघर्ष को रोकने की उनकी ोर सेकोई राजनीतिक पहल नहीं हुई। वे जंगल महल और पहाड़ में अमन चैन कायम करने का दावा कर रही हैं तो पूरा बंगाल राजनीतिक हिंसा की आग में झुलस रहा है। राष्ट्रीय नेता बनने की महत्वाकांक्षा के मुताबिक लोकतंत्र में संयम और सहिष्णुता का परिचय अभी उन्होंने नहीं दिया। बतौर विपक्षी नेता वे माकपा के खिलाफ जिहाद का नेतृत्व देती रहीं और तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिलने से भी इंकार करती रहीं। फिछले लोकसभा चुनाव से उन्होंने बंगाल में लाल हटाओ का नारा दिया और रेलमंत्री बनने के बाद रेलवे की इमारतों का लाल रंग बदलने में लगी रहीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका यह लाल मिटाओ अभियान हिंसा और घृमा का सबसे बड़ा प्रतीक है। मोल्ला जैसे बुजुर्ग नेता पर हमले के मामले में उनके घनिष्ठ नेता और मंत्री जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं.जाहिर है, उसे दीदी का अनुमोदन मिला हुआ है। वैसे भी कबीर सुमन के मुताबिक तृणमूल कोई पार्टी तो है ही नहीं, वह कोई तदर्थ समिति जैसी काम करती है, जिसकी कहां कोई जिम्मेवारी नहीं बनती। तृणमूल में दीदी की मर्जी के खिलाफ कोई पत्ता तक नहीं हिलता तो यह युद्धघोषणा उनकी मर्जी के खिलाफ तो नहीं है।
बंगाल में वर्चस्ववादी आधिपात्य की संस्कृति इतनी प्रबल है कि हिंसा और घृणा, प्रतिपक्ष का सफाया इसका चरित्र ही है। तीन फीसद उच्च वर्ण के लोग जैसे जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व बनाये रखे हुए हैं और बहुसंख्यक जनता को गुलाम बनाये हुए हैं, वह हिंसा की संस्कृति के अलावा क्या है? यहां असुर मर्दिनी दुर्गा और ऱणचंडी काली की आराधना होती है जो जनसंहार की संस्कृति का ही परिवेश बनाती है।विभाजन के बाद कोलकाता में सांप्रदायिक उन्माद की राजनीतिक निरंतराता ही यहां राजनीति है। विपक्ष का बेरहमी से सफाया ही राजनीतिक दर्शन है। इसीलिए सत्तर दशक के गृहयुद्ध, खाद्यय आंदोलन व तेभागा के दौरान राजनीतिक संघर्ष, आनंदमार्गियों को जिंदा जला देने जैसी वीभत्स घटना, मरीचझांपी नरसंहार, केशपुर और नानुर के संघर्ष, नंदीग्राम महासंग्राम जैसे बंग इतिहास के अध्याय खून से ही लिखे गये हैं। हमेशा रक्तनदियों में नहाता रहा बंगाल , पर मारे जाते रहे प्यादे ही।पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान अगर हिंसा नहीं हुई तो सिर्फ इसलिे नहीं कि चुनाव आयोग ने खूब बढ़िया िइंतजाम किया था, तब बाहुबलियों की सेना माकपाइयों के साथ थी जिसने माकपा की हार के बाद पाला बदल दिया। तब तऋममूल समर्थक सड़क पर माकपाइयों को ललकारने की हालत में नहीं थे। लेकिन अब हैं। दूसरी ओर, मारपा भले ही चुनाव हार गयी हो और सत्ता से बाहर हो गयी हो, तृणमुल की हिंसा का जवाब हिंसा से देने के लिए वह पूरी तरह सक्षम है। हवा खिलाफ देखते हुए माकपा ने अब तक संयम ही बरता है। पर माकपाई संयम का बांध टूटते हुए नजर आ रहा है। ऐसे में अंजाम क्या होगा, अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल में जारी राजनीतिक झड़पों पर चिंता प्रकट करते हुए लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले जून महीने में हीकहा कि हर किसी को मतभेद दूर करने तथा स्थिति को सामान्य करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।चटर्जी ने कहा कि हत्याएँ रोजमर्रा की बात हो गई है और जीवन का कोई मूल्य नहीं रह गया है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल के बेहतर भविष्य के लिए झड़पें बंद होनी चाहिए। उन्होंने ‘निष्पक्ष समाचार संकलन के अभाव’के लिए मीडिया की भी आलोचना की।मेदिनीपुर, मुर्शिदाबाद, पूर्व मेदिनीपुर, दक्षिण 24 परगना, बर्धवान, नदिया, उत्तर 24 परगना, मालदा, हुगली, दक्षिण दीनाजपुर और कूचबिहार आदि जिलों मे 2009 से अब तक राजनीतिक दलों के 4,668 समर्थकों की हत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध है। बंगाल की हुकूमत की मंजिल पाने के लिए हिंसा के रास्ते पर चलना राजनीतिक दलों ने जरूरी मान लिया है। चुनाव की घोषणा के पहले ग्राम दखल और इलाका दखल के अभियान के अपने-अपने टाग्रेट राजनीतिक दलों ने लगभग पूरे कर लिए। अब जगह-जगह झंडे दिखते हैं। अलग-अलग रंग के झंडे लेकिन ये झंडे खून से भी सने हुए हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने की परिपाटी लोकसभा चुनाव के बाद से कुछ ज्यादा ही दिख रही है। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के सचिव सुजात भद्र के अनुसार, लोकसभा चुनाव के बाद अब तक 10 हजार विपक्षी कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं जबकि वाममोर्चा के ढाई हजार कैडरों की हत्या हुई है। दूसरी ओर, माओवादियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले मानवाधिकार संगठन 'बंदी मुक्ति' मोर्चा का दावा है कि दोनों के ढाई हजार लोगों की हत्या हुई है। ज्योति बसु सरकार के शुरुआती दिनों में फार्वड ब्लॉक के नेता हेमंत बसु हत्याकांड की जांच फाइलों तक ही सीमित रही। तृणमूल कांग्रेस को विधानसभा चुनाव की तैयारी में माकपा के उत्थान के दौर में केंदुआ कांड जैसी घटनाएं याद आ रही हैं। हुगली पार हावड़ा के केंदुआ गांव में 18 साल पहले माकपा कैडरों ने 12 लोगों के हाथ काट दिए थे। केंदुआ गांव के लोगों ने जो झेला वह नंदीग्राम से भी ज्यादा गहरा घाव था। राजनीतिक हत्याओं के लिए एक तरह से खुली छूट मिल गई। राजनीतिक संघर्ष की दृष्टि से नंदीग्राम कांड और नानूर इसका जीवंत उदाहरण हैं। पश्चिम बंगाल में 1977 से अब तक 55,408 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। 2009 में राजनीतिक हत्याओं के 2,284 मामले दर्ज किए गए थे। 2010 में भी यह आंकड़ा कुछ इसी तरह का था। हालांकि 2009 में मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में पेश किए गए आंकड़ों से ये मेल नही खाते। मुख्यमंत्री के अनुसार एक जनवरी से 13 नवम्बर 2009 तक बंगाल में राजनीतिक संघर्ष की घटनाओं में कुल 69 लोग मारे गए। इनमें 47 लोग माकपा के कैडर थे। 15 तृणमूल कांग्रेस के और चार कांग्रेस से। '90 के दशक में कोलकाता के पास 17 आनंदमार्गी संन्यासियों को जिंदा जला दिया गया था। उसके बाद बानतला सामूहिक बलात्कार और हत्या जिसमें यूनिसेफ की वरिष्ठ अफसर और उसकी सहयोगी दो महिलाओं की इज्जत लूटने के बाद उन्हें जला मारा गया। इस घटना पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की टिप्पणी थी, सांझ ढले वे लोग उस सुनसान जगह क्या कर रही थीं ? मौत पर ऐसा मजाक सिर्फ नेता ही कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने का यह सिलसिला वर्षो से चला आ रहा है। सवाल उठता है कि ऐसी सत्ता का क्या अर्थ जो खून बहा कर हासिल की जाए, पर नेता हैं कि मानते ही नहीं। उन्हें तो सिर्फ सत्ता चाहिए; चाहे जैसे भी क्यों न हासिल हो। बंगाल के नेता जनता से अपना सरोकार नहीं समझते, आखिर क्यों?
नंदीग्राम में बुद्धदेव की जनसभा में उमड़ी भारी भीड़ के बाद पंचायत चुनावों में माकपा ने उन्हें ही अपना सेनाधिपति बनाकर विधानसभा चुनावों के बाद अख्तियार किये रक्षात्मक तेवर को तिलांजलि दे दी है। ममता बनर्जी भी लगता है कि जमीन आंदोलन और परिवर्तन का पूरा श्रेय हासिल करने के बाद एक इंच जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के नेता और मंत्री तक न केवल खुलेआम सड़क पर माकपाइयों से निपटने की चेतावनी दे रहे हैं, मोल्ला पर हमला बोलकर इसे बखूब अंजाम भी दे रहे हैं। अब देखना है कि माकपाई ईंट का जवाब कैसे पत्थरों से देते हैं।
गंगासागर मेले के बहुत पास डायमंड हारबार में रविवार को महती सभा से विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने हमलावरों को ४८ घंटे के भीतर गिरफ्तार करने की चेतावनी दी है।अब उन्होंने स्पष्ट किया है कि यह समयसीमा मंगलवार के दोपहर बारह बजे खत्म हो जायेगी।
कैनिंग के विधायक व पूर्व मंत्री मोल्ला ने आज कहा कि भांगड़ में उनके चेहरे पर घूंसे मारे हैं तृणमूल नेता अराबुल इस्लाम ने। पहले से कई मामलों में अभियुक्त अराबुल ने मोल्ला पर उलटे नाटक करने का आरोप लगाया है। अराबुल ने आज फिर घटनास्थल भांगड़ में पार्टी की आम सभा बुलाकर मोल्ला के किलाफ आरोप लगाये कि उन्होंने ही हिंसा भड़कायी। उन्होंने पूचा कि अगर वे माकपा की सभा में चले जायें तो क्या उनपर रसगुल्ला की बरसात होती? पहले ही राज्य के मंत्री और ममता दीदी के खासम खास फिरहाद हकीम ने टिप्पणी की थी कि मोल्ला कूदकर तृणमूल की सभा भंग करने पहुंचे थे और फिर कूदकर अस्पताल में पहुंच गये। अगर चार हजार तृणमूली उनपर हमला करते तो उनकी हालत अस्पताल पहुंचने लायक नहीं होती। एक अन्य मंत्री ज्योति प्रियमल्लिक जो माकपाइयों के सामाजिक बहिष्कार के आह्वान से पहले ही चर्चित हैं, पार्टी कार्यकर्ताओं को माकपाइयों की अच्छी खासी धुनाई कर देने के लिए ललकारा। अब फिर एक और मंत्री पूर्णेंदु बसु ने अराबुल का बचाव करते हुए टिप्पणी कर दी कि मोल्ला ने तो माकपा की छवि ही खराब कर दी। आरोप प्रत्यारोप पर किसी भी तरफ से कोई अंकुश नहीं है। दोनों तरफ से सड़क पर हिसाब बराबर करने की पूरी तैयारी है।दूसरी ओर,दक्षिण चौबीस परगणा जिला वाममोर्चा ने मंगलवार दोपहर दो बजे से जिला मुख्यालय अलीपुर, जो कि दीदी का गृहक्षेत्र है,धरना देने की घोषणा की है।
इसी बीच उत्तर कोलकाताके श्यामपुकुर में मकानमालिक व किरायादारों का विवाद सुलझाने के लिए तृणमूल कार्यालय व स्थानीय पार्षद केघर बुलाय़ी गयी बैठक एक किरायेदार और उसकी बेटी की जमकर पिटाई की गयी। बुरीतरह जख्मी बुजुर्ग किरायेदार शुभेंदु दत्त को इलाज के आरजी कर अस्पताल ले जाया गया तो डाक्टरों ने उन्हें मृत पाया।
विद्रोही तृणमूल सांसद कबीर सुमन आज मोल्ला को देखने अस्पताल गये तो उन्होंने हिंसा की अराजक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए माओवादियों की मदद से सत्ता में आयी तृणमूल कांग्रेस को जमकर कोसा।
उन्होंने कहा कि माओवादी नहीं होते, सिंगुर नंदीग्राम और ललगढ़ के जनविद्रोह नहीं होते ते सत्ता में नहीं होती दीदी। उन्होंने यहां तक दावा किया कि वे और महाश्वेता देवी के बिना ममता ममता नहीं होती। उन्होंने अपनी पार्टी को चुनौती दी कि विपक्षी नेताओं और विरोधियों से सड़क पर निपटने की चेतावनी को अंजाम देकर देखें। उन्होंने कहा कि नंदीग्राम गोलीकांड से माकपा का जैसे पटाक्षेप हो गया , उसीतरह इस अराजक राजनीति और शत्रुतापूर्ण रवैये वाले घृणा अभियान से न केवल बंग संस्कृति ही प्रदूषित हो रही है , बल्कि बंगाल के इतिहास में दीदी के अध्याय का भी समापन हो रहा है। उन्होंने कहा कि अगर मान लें कि माकपाई शत्रु हैं तो भी ऐसी हरकतों से तृणमूल के नेता और मंत्री माकपा की वापसी का ही रास्ता बना रहे हैं।
मोल्लापर हमले की परिवर्तनपंथी बुद्धिजीवियों में सबसे बुजुर्ग मशहूर साहित्यकार महाश्वेता देवी ने भी कड़ी निंदा की है और उन्होंने फिर कहा कि बंगाल की जनता न हरगिज ऐसा परिवर्तन नहीं चाहा था।
माकपा ने आज अपने वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला पर हमले में कथित तौर पर शामिल तृणमूल कांग्रेस के नेता अराबुल इस्लाम को तत्काल गिरफ्तार किये जाने की मांग की।
माकपा ने एक बयान में कहा, ‘‘माकपा, वामदल और विपक्ष के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की ओर से जारी हिंसा का यह ताजा उदाहरण है । माकपा ने मांग की कि इस हमले के लिए जिम्मेदार तृणमूल नेता एवं अन्य लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए।’’
गौरतलब है कि मुल्ला पर कल दक्षिणी 24 परगना जिले के कांता तला क्षेत्र में तृणमूल कांग्रेस समर्थकों ने कथित तौर पर हमला किया था। माकपा ने आरोप लगाया कि मुल्ला पर अराबुल इस्लाम एवं अन्य लोगों ने उस समय हमला किया जब वह पार्टी कार्यालय जा रहे थे। कार्यालय को भी आग लगा दी गई।
पार्टी ने कहा कि वरिष्ठ नेता को चेहरे पर चोटें आई। हमले की निंदा करते हुए पार्टी ने कहा कि पोलित ब्यूरो सभी धर्मनिरपेक्ष बलों से पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस द्वारा किये जा रहे हिंसा के खिलाफ विरोध दर्ज कराने की अपील करता है। बहरहाल, तृणमूल कंग्रेस ने इस घटना में अपनी पार्टी के किसी सदस्य के शामिल होने से इंकार किया है और माकपा पर गलतबयानी करने का आरोप लगाया।
तृणमूल नेता और राज्य के शहरी विकास मंत्री फरहद हाकिम ने कहा, ‘‘ऐसे समय में जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जंगल महल और दार्जिलिंग में शांति स्थापित की है, उस समय माकपा प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा को हवा देने में लगी है।’’
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