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Friday 13 April 2012

रंगाली बिहू यानी स्नेह का गमोछा



http://mohallalive.com/2012/04/13/writeup-on-rangali-bihu/
 रिपोर्ताज

रंगाली बिहू यानी स्नेह का गमोछा

13 APRIL 2012 
♦ रविशंकर रवि
रंगाली बिहू महज नृत्य-गीत का उत्सव नहीं, प्रकृति और परंपराओं से सीधा जुड़ने का मौका है। कपौ फूल और गमोछा इसके दो महत्वपूर्ण प्रतीक हैं।
बिहू असमिया संस्कृति, सभ्यता और समाज का महत्वपूर्ण उत्सव है। शहरों में पली-बढ़ी पीढ़ी अपनी जीवंत संस्कृति के बारे में बहुत कुछ नहीं जानती है और बहुत सारे लोग यह मान लेते हैं कि बिहू का मतलब सिर्फ मंचों पर नाचना-गाना है। इसमें दो राय नहीं है कि भागदौड़ की जिंदगी में बहुत कुछ पीछे छूट जाता है और जिंदा रहने की जद्दोजहद में लोग बहुत कुछ भूल जाते हैं। ऐसे उत्सव लोगों को परंपराओं से जोड़े रखते हैं और प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष रूप से संस्कृति को जिंदा रखते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि बिहू नृत्य और गीत पथार से मंच तक पहुंच चुकी है और मंच के चकाचौंध और ग्लैमर में संस्कृति का सोंधापन कम हुआ है। लेकिन बहुत कुछ इस बिहू से बचा हुआ है, जो असमिया समाज को परंपराओं और संस्कृति से जोड़े हुए हैं। इसमें दो राय नहीं है कि समय के साथ जरूरतें बदली हैं। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का तेजी से शहरीकरण होता जा रहा है और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। कृषि के प्रति सरकारी उदासीपन से शहर में रोजगार पाने की बढ़ती प्रवृत्ति ने समूह में जीने की आदत को एकल जीवन बिताने को मजबूर किया है। लेकिन यह उत्सव शहरी होती सभ्यता को प्रकृति के करीब जाने को मजबूर करता है और अपनत्व की डोर में बांधे रखता है। उत्सव के दौरान ही सामाजिक होने का भाव पैदा होता है, क्योंकि उत्सव का मतलब ही समूह से होता है। यही वजह है कि बिहू पंडालों के पास लोगों की काफी संख्या जमा हो जाती है। उस दिन लोग घर में अकेला रहना पसंद नहीं करते, क्योंकि वे तमाम अवसादों को दरकिनार करके कुछ क्षण जीना चाहते हैं।
देखा जाए तो बिहू प्रकृति के करीब जाने का उत्सव है। बिना कपौ फूल के बिहू हो नहीं सकता। ये कपौ फूल नये असमिया वर्ष के आगमन का प्रतीक है। कपौ फूल दिखते ही प्रकृति का यह संदेश चारों तरफ फैल जाता है कि वैशाख यानी रंगाली बिहू आ गया है। यानी कपौ फूल मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है। इसके साथ मनुष्य को यही संदेश मिलता है कि संस्कृति को बचाने के लिए जंगलों का रहना भी भी जरूरी है। जंगल रहेंगे तो मनुष्य जिंदा रहेगा और तभी उत्सव का आनंद मिलेगा। जानवर रहेंगे तो पेपा तैयार होगा। तब भैंस की पीठ पर प्रियतमा के हाथों बना बिहूवान (गमोछा) अपने माथे पर बांधकर प्रियवर पेपा बजाएगा और प्रियवर के हाथों भेंट किये गये कपौ फूल को अपने जूड़े में लगाकर पथार में प्रियतमा बिहू नृत्य करेगी। तब प्रकृति जीवंत हो उठती है। इसलिए बिहू मनुष्य को प्रकृति के पास ले जाता है। बिहूवान स्नेह और अपनत्व का प्रतीक है। यह बिहूवान कोई साधारण गमोछा नहीं है। स्नेह के धागे बुनी हुई एक भावना है। वह प्यार का प्रतीक है। ऐसे में उनके प्यार का धागा बेहद मजबूत हो जाता है। भले ही कई वर्षों तक उनका विवाह नहीं हो पाये, लेकिन पति-पत्नी बनकर दांपत्य जीवन के आरंभ तक उनका प्यार जीवित रहता है। लेकिन जब तक शादी नहीं होती, प्रेमिका हर रंगाली बीहू में अपने प्रियतम के लिए गमोछा बनाते रहती है और प्रियतम अपनी प्रेमिका के लिए कपौ का फूल तलाशता रहता है। प्यार का यह रिश्ता इतने लंबे समय तक टिकने की सबसे बड़ी वजह है – अपने प्रियतम के प्रति आग्रह और निष्ठा।
इतना ही नहीं है, ऐसे अवसर पर पुत्र अपने माता-पिता और अन्य अग्रजों को गमोछा भेंटकर अपना सम्मान प्रकट करता है और बड़ों का आर्शीवाद प्राप्त करता है। घर आये मेहमानों को भी गमोछा भेंटकर अपना बना लिया जाता है। यह अलग बात है कि अब शहरों में बाजार से खरीदे गये गमोछा ही भेंट किये जाते हैं, क्योंकि हर किसी के पास इतना वक्त नहीं है। लेकिन भावना वही रहती है। इसलिए बिहू का बिहूवान भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण है।
परंपराएं जिंदा रहें, सभी को मिलकर प्रयास करना होगा। बाजार का प्रभाव बढ़ा है। ऐसे मौके का उत्पादों के प्रचार के लिए इस्तेमाल होता है। उसे रोका भी नहीं जा सकता है। बस, कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि उत्सव का मूल मकसद और इसके पीछे की भावना जिंदा रहे। स्नेह का भाव बाजार के दबाव में सूख नहीं जाए।
(रविशंकर रवि। वरिष्‍ठ पत्रकार। पूर्वोत्तर में लंबे समय से पत्रकारिता। गुवाहाटी से प्रकाशित हिंदी दैनिक दैनिक पूर्वोदय के कार्यकारी संपादक हैं। कथा रिपोर्ताज के विशेषज्ञ। पाकुड़ (झारखंड) और भागलपुर (बिहार) से पढ़ाई-लिखाई के बाद बरास्‍ते आंदोलन… पत्रकारिता में आये। उनसे ravighy@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)



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