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Saturday 18 February 2012

सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र



सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/11890-2012-02-18-06-07-05 

Saturday, 18 February 2012 11:36
पुण्य प्रसून वाजपेयी
जनसत्ता 18 फरवरी, 2012: बजट के जरिए देश को समझना और देश को समझ कर बजट बनाना, दोनों दो स्थितियां हैं। नया अर्थशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता कि समूचे देश को साथ लेकर चला जाए। अर्थशास्त्री यह मान रहे हैं कि आजादी के बाद न्यूनतम जरूरतों को बुनियादी ढांचे के दायरे में लाने का जितना काम होना था, वह या तो हो गया या फिर आधारभूत संरचना को नए तरीके से परिभाषित करने की जरूरत है। इसलिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि अब रियल इस्टेट के जरिए नगर-क्षेत्र के विकास को बुनियादी ढांचे से जोड़ दिया जाए। निजी कंपनियों की हवाई उड़ानों से जो एअरलाइंस बाजार फल-फूल रहा है उसमें तेजी लाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर के दायरे में एअरलाइंस को भी ले आया जाए। 
इन दो क्षेत्रों के विकास के लिए सबसे बड़ा संकट जमीन का है। अगर ये दोनों क्षेत्र आधारभूत संरचना के दायरे में आ जाएं तो सरकार के लिए भी इन क्षेत्रों के लिए जमीन की मुश्किल दूर करने का रास्ता खुल जाएगा और निजी कंपनियां इस क्षेत्र में तेजी से पैर पसार सकेंगी। इसी तर्ज पर मनमोहन सिंह दौर के अर्थशास्त्री यह भी मानते हैं कि कर के दायरे में खेती से होने वाली आय को भी लाना जरूरी है। यानी खेती से होने वाली परंपरागत आय पर ही नहीं, बल्कि हर स्तर पर नकदी फसल से लेकर कॉरपोरेट फसल से होने वाली आय पर भी टैक्स लगना चाहिए, इससे देश की विकास दर बढ़ेगी। ऐसे बहुतेरे सुझाव अर्थशास्त्रियों ने वित्तमंत्री को दिए हैं। 
लेकिन जो सवाल इस बातचीत में नहीं उभरा, वह उत्पादन बढ़ाने के तरीकों का है, खेती को उद्योग की तर्ज पर इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने का है, ग्रामीण जीवन से रोजगार को जोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाने का है, खनिज संपदा के जरिए शहर और गांव के बीच की दूरी पाटने का है। तमाम योजनाओं से लीक होने वाला पैसा जाता कहां है इस पर भी चर्चा नहीं हुई। दरअसल, उदारीकरणवादी अर्थशास्त्र बाजार, उपभोक्ता, कॉरपोरेट, निजीकरण और मुनाफे में ही समूचे देश के विकास का अक्स देख रहा है। एक जगह से मुनाफा बनाना और दूसरी जगह उस मुनाफे का एक हिस्सा राजनीतिक लाभ के लिए लगा देना इसका मूलमंत्र है। राजनीतिक लाभ किसे कितना दिया जाए यह मुनाफे की पूंजी पर टिका है। मुनाफा कैसे बनाया जा सकता है अर्थशास्त्र इसी को कहते हैं। 
इस परिभाषा के तहत देश कैसे बन रहा है यह अब किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यहीं से सवाल निकलता है कि आखिर अर्थशास्त्र का कौन-सा पाठ इस दौर में भुला दिया गया और अब उसकी जरूरत क्यों आ पड़ी है। पहली नजर में लग सकता है कि सवाल सिर्फ पाठ भर का नहीं है, बल्कि अर्थशास्त्र के जो नियम समाज में आर्थिक पिरामिड बना रहे हैं जरूरत उन्हें उलटने की है। 
आर्थिक सुधारों ने कुछ क्रांतिकारी बदलाव सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में ला दिया है। मसलन, बुनियादी ढांचे के विकास का कामसरकार से निकल कर काफी हद तक कॉरपोरेट हाथों में पहुंच चुका है। मसलन, पीने का पानी, शिक्षा, प्राथमिक इलाज, सड़क-बस से सफर आदि। दूसरी तरफ जिन चीजों की गिनती सुविधाओं में होती थी उन्हें न्यूनतम जरूरतों में शामिल किया जा चुका है। मसलन, शहर में रहने वाले के पास दोपहिया गाड़ी या कार, कपड़ा धोने की मशीन, फ्रिज, टीवी, मोबाइल ये सब न्यूनतम जरूरत की चीजें मान ली गई हैं। 
यानी बाजार-अर्थव्यवस्था ने उस अर्थशास्त्र को ही बदल दिया जिसके सहारे न्यूनतम जरूरतों का पैमाना पूरे देश के लिए एक सरीखा होता था। अब निचले वर्ग की जरूरत और मझोले वर्ग की जरूरत और उच्चवर्ग की भी न्यूनतम जरूरतें हैं। इतना ही नहीं, किसान से लेकर कॉरपोरेट घरानों तक की भी अपनी-अपनी न्यूनतम जरूरतें हैं। अगर किसान को बीज, खाद, सिंचाई से लेकर बाजार तक उपज पहुंचाने का रास्ता चाहिए तो कॉरपोरेट को खनिज संपदा, जमीन और उद्योग के लिए वह बुनियादी ढांचा चाहिए जिसके ऊपर वह विकास की मीनार खड़ी कर सके।
मुश्किल यह है कि जो कॉरपोरेट को चाहिए वह तो सरकार अपनी सियासी सौदेबाजी के जरिए, लाइसेंस या योजनाओं के जरिए बांटती है। लेकिन जो किसान को चाहिए वह भी निजी कंपनियां सरकार से ले लेती हैं, उसके बाद किसान को अपनी अंगुलियों पर न सिर्फ कीमतों बल्कि खेती के तरीकों और बीज तक को लेकर नचाती हैं।
कीमतें सरकार नहीं निजी कंपनियां तय करती हैं- चाहे बीज हो या खाद। सिंचाई का ढांचा तो दूर की बात है, उलटे खेती की जमीन को ही कॉलोनियां बनाने, बिजली परियोजनाएं लगाने और स्टील-सीमेंट फैक्ट्री से लेकर सेज बनाने के नाम पर हड़पने का ऐसा सिलसिला चला दिया गया है कि सिंचाई के लिए जो प्राकृतिक व्यवस्था जमीन के नीचे (पानी की) थी वह भी किसान से दूर हो चुकी है। जमीन के नीचे का पानी क्रंक्रीट की योजनाओं तले इतना नीचे चला गया है कि किसानी करने के लिए इन्हीं कंपनियों को मुनाफा देकर, डीजल खरीद कर मोटर चलाना है। यानी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए खड़ा होने वाला ढांचा खेती की संरचना को खत्म कर रहा है।
निवेश का मतलब बाजार का विस्तार है। इस विस्तार का मतलब भारत की अर्थव्यवस्था की देसी कीमत को अंतरराष्ट्रीय तौर पर आंकते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कच्चे माल से लेकर श्रम तक सब कुछ सस्ते में उपलब्ध कराना है। यानी जिस खनिज-संपदा का मोल भारत में कौड़ियों का है उसे बाहर भेजने के लिए वह हर उपाय   सरकार निजी कंपनियों के लिए करती है ताकि वे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा अंतरराष्ट्रीय बाजार में बना सकें। 
सार्वजनिक उपक्रम को कैसे चलाया जाता है और उसके जरिए लोगों के लिए विकास योजनाएं कैसे बनाई जाती हैं, यह पाठ नए अर्थशास्त्र से गायब है। अर्थशास्त्र की नई समझ यह मानने को तैयार नहीं है कि सरकार के सरोकार आम लोगों से भी हो सकते हैं। सवाल सिर्फ बेल्लारी से लेकर मध्यप्रदेश, झारखंड और ओड़िशा की खनिज-संपदा की लूट का नहीं है, जहां से करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा के राजस्व का चूना लग चुका है। सरकारों की नीति सब कुछ निजी कंपनियों के हवाले कर विकास की ढोल पीटना भर है। 
मनमोहन सिंह भले परमाणु ऊर्जा को लेकर काफी आशावान हों, लेकिन दुनिया के तमाम देश यह जान चुके हैं कि एक वक्त के बाद सूर्य और हवा के जरिए पैदा होने वाली ऊर्जा खासी जरूरी भी होगी और मुनाफा भी देगी। यों भारत में वैकल्पिक ऊर्जा के नाम पर एक अलग मंत्रालय काम कर रहा है, लेकिन उसका काम वैकल्पिक ऊर्जा वाले क्षेत्रों को कमीशन लेकर बेचना भर है। समुद्री इलाके की वह सारी जमीन जहां पवनचक्की चल सकती है और जहां सूर्य की प्रचुर ऊर्जा होती है, निजी कंपनियों को बेची जा चुकी है। वे सभी अभी से एनटीपीसी को बिजली बेचती हैं। दस बरस बाद जब इसकी जरूरत और कीमत दोनों आसमान छूएंगी तो सरकार निजी कंपनियों की मनमानी कीमत के सामने वैसे ही नतमस्तक होगी जैसे आज अंबानी के हाथ में गैस और कई अन्य निजी कंपनियों को पेट्रोल-डीजल सौंप कर देश की जरूरत की सौदेबाजी कर रही है। 
ऐसे बहुतेरे तथ्य यह सवाल खड़ा कर सकते हैं कि क्या सरकार के पास कोई अपना अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके जरिए लोगों की जरूरतों के अनुरूप देश को आगे बढ़ाया जा सके? 
आर्थिक विकास का जो स्वरूप बन गया है उसे उलटने की जरूरत है। राजनीतिक सत्ता के दिशा-निर्देशों या उसके अपने अर्थशास्त्र ने ही इस पिरामिड को बनाया है। इसके पीछे हो सकता है अर्थशास्त्र के कई नियम काम कर रहे हों, लेकिन इसकी जरूरत सत्ताधारी के सत्ता में बने रहने की जरूरत से शुरू हुई इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।
जाहिर है यहां सवाल लोकतंत्र की उन मान्यताओं पर उठेंगे जो संसदीय चुनाव को ही लोकतंत्र का पर्याय बताते हैं, उसी तरह जैसे अर्थशास्त्रियों ने विकास दर को ही पूरे देश की आर्थिक प्रगति का मापदंड बना दिया है। चुनाव का फैसला भले मतों के संख्याबल से होता हो, लेकिन इसके पीछे का सच यह भी है कि वही कॉरपोरेट कंपनियां पार्टियों को पैसा दे रही हैं जिन्हें उम्मीद है कि चुनाव बाद उन्हीं के अनुकूल नीतियां बनेंगी और फैसले होंगे।
कहा जाता है कि हर व्यक्ति के वोट की बराबरी है, लेकिन नए अर्थशास्त्र को इस चुनावी लोकतंत्र में मिला दिया जाए तो कई सवाल एक साथ खडेÞ होंगे। मसलन, मतदाताओं का जो समूह खेती के सहारे पेट पाल रहा है उसकी जरूरत एक अदद स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की है। अगर वहां की खेती की जमीन पर कोई उद्योगपति बिजली संयंत्र लगाना चाहता है तो सत्ता क्या करेगी? जाहिर है, यहां सत्ता की प्राथमिकता में वे लाखों मतदाता नहीं होते, बल्कि एक कॉरपोरेट घराना होता है जो संयंत्र लगाना चाहता है। विकास के नाम पर हजारों परिवारों की खेती की जमीन मुआवजे के जरिए सरकार निजी कंपनियों को दे देती है। किसान को रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़ना पड़ता है और जो लोग वहां बच जाते हैं वे मजदूर होकर उसी संयंत्र में काम करने लगते हैं। सरकार इसके बाद बताती है कि गांव के शहरीकरण की दिशा में उसने क्या-क्या कमाल किया। 
उत्तर प्रदेश को ही लें तो जो भी सत्ता में आएगा उसे बिजली, खनन, इन्फ्रास्ट्रचर, टाउनशिप, इस्पात, चीनी मिल से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखे क्षेत्र में पहले छह महीने के भीतर ही कुल साठ लाख करोड़ से ज्यादा के लाइसेंस बांटने हैं। कह सकते हैं कि परियोजनाओं की बंदरबांट करनी है। इसके अलावा, छोटे-बडेÞ धंधों के जरिए कैसे अरबों का खेल होता है यह मायावती के दौर में पोंटी चड्ढा को मिले छह हजार करोड़ के शराब-ठेके या बीस लाख करोड़ की जमीन पर मालिकाना हक से समझा जा सकता है। इसी तरह सत्ता के अनुकूल होते ही चालीस हजार करोड़ वाला गंगा एक्सप्रेस-वे का धंधा भी जेपी ग्रुप के हाथ में आ जाता है और साठ हजार करोड़ की कई बिजली परियोजनाएं भी। 
सत्ता की महत्ता किसके लिए कितनी है और सत्ता की जरूरत किसके लिए ज्यादा है यह समझना अब मुश्किल नहीं है, क्योंकि राजनीतिक अर्थशास्त्र के नए पाठ ही शिक्षा के नए मापदंड भी बनाए जा रहे हैं। आइबीएम और आइआइटी में इसकी पढ़ाई होने लगी है कि कैसे कॉरपोरेट कंपनियों का चुनाव पर प्रभाव बढ़ रहा है और यह प्रभाव देश में विकास की रफ्तार को कैसे बढ़ा रहा है। मानो भारत अब पूरी तरह बाजार में तब्दील हो चुका है। 
ऐसे में आम आदमी टिकेगा कैसे, क्योंकि विकल्प के विचार या जन-सरोकार से उपजे अर्थशास्त्र की जरूरत अब देश की सत्ता को नहीं है। इसलिए नया सवाल विकास के पिरामिड को वैकल्पिक समझ के साथ उलटने का भी है।


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