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Saturday 12 January 2013

जापानी भाषा कैसे सक्षम बनी - हिंदी हितैषि जापान से क्या सीखें ? –डॉ. मधुसूदन




                               जापानी भाषा कैसे सक्षम बनी ?–डॉ. मधुसूदन
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जापानी भाषा कैसे विकसी ?
जापान को देवनागरी की सहायता.
जापानी, हमारी भाषा से कमज़ोर थी.
अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ की नीति अपनायी .
(१) जापान और दूसरा इज़राएल.
मेरी सीमित जानकारी में, संसार भर में दो देश ऐसे हैं, जिनके आधुनिक इतिहास से हम भारत-प्रेमी अवश्य सीख ले सकते हैं; एक है जापान और दूसरा इज़राएल.
आज जापान का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. जापान की जनता सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित कुछ अलग है, वैसे ही इज़राएल की जनता भी. इज़राएल की जनता, वहाँ अनेकों देशों से आकर बसी है, इस लिए बहु भाषी भी है.
मेरी दृष्टि में, दोनों देशों के लिए, हमारी अपेक्षा कई अधिक, कठिनाइयाँ रही होंगी. जापान का, निम्न इतिहास पढने पर, आप मुझ से निश्चित ही, सहमत होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है.
(
२) कठिन काम.
जापान के लिए जापानी भाषा को समृद्ध और सक्षम करने का काम हमारी हिंदी की अपेक्षा, बहुत बहुत कठिन मानता हूँ, इस विषय में, मुझे तनिक भी, संदेह नहीं है. क्यों? क्यों कि जापानी भाषा चित्रलिपि वाली चीनी जैसी भाषा है. कहा जा सकता है, (मुझे कुछ आधार मिले हैं उनके बल पर) कि जापान ने परम्परागत चीनी भाषा में सुधार कर उसीका विस्तार किया, और उसीके आधार पर, जपानी का विकास किया.
(
३)जापानी भाषा कैसे विकसी ?
जापान ने, जापानी भाषा कैसे बिकसायी ? जापान की अपनी लिपि चीनी से ली गयी, जो मूलतः चित्रलिपि है. और चित्रलिपि,जिन वस्तुओं का चित्र बनाया जा सकता है, उन वस्तुओं को दर्शाना ठीक ठीक जानती है. पर, जो मानक चित्र बनता है, उसका उच्चारण कहीं भी चित्र में दिखाया नहीं जा सकता. यह उच्चारण उन्हें अभ्यास से ही कण्ठस्थ करना पडता है. इसी लिए उन्हों ने भी, हमारी देवनागरी का उपयोग कर अपनी वर्णमाला को सुव्यवस्थित किया है.
(
४) जापान को देवनागरी की सहायता.
जैसे उपर बताया गया है ही, कि, जपान ने भी देवनागरी का अनुकरण कर अपने उच्चार सुरक्षित किए थे."आजका जापानी ध्वन्यर्थक उच्चारण शायद अविकृत स्थिति में जीवित ना रहता, यदि जापान में संस्कृत अध्ययन की शिक्षा प्रणाली ना होती. जापान के प्राचीन संशोधको ने देवनागरी की ध्वन्यर्थक रचना के आधार पर उनके अपने उच्चारणों की पुनर्रचना पहले १२०४ के शोध पत्र में की थी. जपान ने उसका उपयोग कर, १७ वी शताब्दि में, देवनागरी उच्चारण के आधारपर अपनी मानक लिपि का अनुक्रम सुनिश्चित किया, और उसकी पुनर्रचना की. —(संशोधक) जेम्स बक.
लेखक: देवनागरी के कारण जपानी भाषा के उच्चारण टिक पाए. नहीं तो, जब जापानी भाषा चित्रमय ही है, तो उसका उच्चारण आप कैसे बचा के रख सकोगे ? देखा हमारी देवनागरी का प्रताप? और पढत मूर्ख रोमन लिपि अपनाने की बात करते हैं.
(
५) जापान की कठिनाई.
पर जब आदर, प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा, इत्यादि जैसे भाव दर्शक शब्द, आपको चित्र बनाकर दिखाने हो, तो कठिन ही होते होंगे . उसी प्रकार फिर विज्ञान, शास्त्र, या अभियान्त्रिकी की शब्दावलियाँ भी कठिन ही होंगी.
और फिर संकल्पनाओं की व्याख्या करना भी उनके लिए कितना कठिन हो जाता होगा, इसकी कल्पना हमें सपने में भी नहीं हो सकती.
इतनी जानकारी ही मुझे जपानियों के प्रति आदर से नत मस्तक होने पर विवश करती है; साथ, मुझे मेरी दैवी 'देव नागरी' और 'हिंदी' पर गौरव का अनुभव भी होता है.
ऐसी कठिन समस्या को भी जापान ने सुलझाया, चित्रों को जोड जोड कर; पर अंग्रेज़ी को स्वीकार नहीं किया.
(६)संगणक पर, Universal Dictionary.
मैं ने जब संगणक पर, Universal Dictionary पर जाकर कुछ शब्दों को देखा तो, सच कहूंगा, जापान के अपने भाषा प्रेम से, मैं अभिभूत हो गया. कुछ उदाहरण नीचे देखिए. दिशाओं को जापानी कानजी परम्परा में कैसे लिखा जाता है, जानकारी के लिए दिखाया है.
निम्न जालस्थल पर, आप और भी उदाहरण देख सकते हैं. पर उनके उच्चारण तो वहां भी लिखे नहीं है.
http://www.japanese-language.aiyori.org/japanese-words-6.html
up =ऊपर—- down=नीचे —-
left=बाएँ—— right= दाहिने
middle = बीचमें front =सामने
back = पीछे —– inside = अंदर
outside =बाहर east =पूर्व
south = दक्षिण 西 west =पश्चिम
north = उत्तर

(
७) डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का आलेख:
डॉ. राम मनोहर लोहिया जी के आलेख से निम्न उद्धृत करता हूँ; जो आपने प्रायः ५० वर्ष पूर्व लिखा था; जो आज भी उतना ही, सामयिक मानता हूँ.
लोहिया जी कहते हैं==>"जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है. ९०-१०० बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से भी कमज़ोर थी. १८५०-६० के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए. उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं? कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले.
पर, जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे. (जैसे हमारे नौकर दिल्ली में करते हैं,–मधुसूदन) जब जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया. सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी.
उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी. अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो. घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा. उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा."
(
८) संकल्प शक्ति चाहिए.
आगे लोहिया जी लिखते हैं,
"
हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है. सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं. अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है. इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं."
(
९)हिंदी किताबों की कमी?
लोहिया जी आगे कहते हैं; कि,
"
जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी? अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी. हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ.
संदर्भ: डॉ. लोहिया जी का आलेख, Universal Dictionary, डॉ. रघुवीर
हिंदी हितैषि जापान से क्या सीखें ? –डॉ. मधुसूदन
http://www.pravakta.com/hindi-hitasi-learn-from-japan-dr-madhsudan
(१) जापान ने अपनी उन्नति कैसे की?
जापानी विद्वानों ने जब उन्नीसवीँ शती के अंत में, संसार के आगे बढे हुए, देशों का अध्ययन किया; तो देखा, कि पाँच देश, अलग अलग क्षेत्रों में,विशेष रूप से, आगे बढे हुए थे।
(२) वे देश कौन से थे?
वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
(३) कौन से क्षेत्रो में, ये देश आगे बढे हुए थे?
देश और उन के उन्नति के क्षेत्रों की सूची
जर्मनी{ जर्मनी से जपान सर्वाधिक प्रभावित था।}:
भौतिकी, खगोल विज्ञान, भूगर्भ और खनिज विज्ञान, रसायन, प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, डाक्टरी, औषध विज्ञान, शिक्षा प्रणाली, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र.
Germany: physics, astronomy, geology and mineralogy, chemistry, zoology and botany, medicine, pharmacology, educational system, political science, economics;
फ्रान्स:
प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित, भौतिकी, रसायन, वास्तुविज्ञान (आर्किटेक्चर), विधि नियम, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, जन कल्याण.
France: zoology and botany, astronomy, mathematics, physics, chemistry, architecture, law, international relations, promotion of public welfare;
ब्रिटैन:
मशीनरी, भूगर्भ और खनन(खान-खुदाई) विज्ञान, लोह निर्माण , वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, पशु वर्धन, वाणिज्य, निर्धन कल्याण.
Britain: machinery, geology and mining, steel making, architecture, shipbuilding, cattle farming, commerce, poor-relief;
हॉलंड:
सींचाई, वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, निर्धन कल्याण.
Holland: irrigation, architecture, shipbuilding, political science, economics, poor-relief
संयुक्त राज्य अमरिका:
औद्योगिक अधिनियम, कृषि, पशु-संवर्धन, खनन विज्ञान, संप्रेषण विज्ञान, वाणिज्य अधि नियम.
U.S.A.: industrial law, agriculture, cattle farming, mining, communications, commercial law
(Nakayama, 1989, p. 100).
फिर जापान ने इन देशों से उपर्युक्त विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। अधिक से अधिक जापानियों को ऐसे ज्ञान से अवगत कराना ही उसका उद्देश्य था। जिससे अपेक्षा थी कि सारे जापान की उन्नति हो।
(४) तो फिर क्या, जापान ने सभी जापानियों को ऐसा ज्ञान पाने के लिए अंग्रेज़ी पढायी?
उत्तर: नहीं, यह अंग्रेज़ी पढाने का प्रश्न भी शायद जापान के, सामने नहीं था। क्यों कि जिन ५ देशों से जापान सीखना चाहता था, वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
मात्र अंग्रेज़ी सीखने से इन पाँचो, देशों से, सीखना संभव नहीं था।
दूसरा सभी जापानियों को पाँचो देशों की भाषाएं भी सीखना असंभव ही था।
५) क्या जर्मनी, फ्रांस, और हॉलंड में, अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती ? अंग्रेज़ी तो अंतर राष्ट्रीय भाषा है ना?
उत्तर: नहीं। जर्मनी में जर्मन, फ्रांस में फ़्रांसीसी, हॉलण्ड में डच भाषा बोली जाती थी। पर, इंग्लैंड और अमरिका में भी कुछ अलग अंग्रेज़ी का चलन था। उस समय अमरिका भी विशेष आगे बढा हुआ नहीं था, यह अनुमान आप उसके उस समय के, उन्नति के क्षेत्रों को देखकर भी लगा सकते हैं।
६) तो फिर जापान ने क्या किया?
जापान ने बहुत सुलझा हुआ निर्णय लिया। उसके सामने दो पर्याय थे।
७) कौन से दो पर्याय थे?
एक पर्याय था:
सारे जापानियों को परदेशी भाषाओं में पढाकर शिक्षित करें, उसके बाद वे जपानी, परदेशी विषयों को पढकर विशेषज्ञ होकर जपान की उन्नति में योगदान देने के लिए तैय्यार हो जाय।
(८) दूसरा पर्याय क्या था? {जो जापान नें अपनाया }
कि कुछ गिने चुने मेधावी युवाओं को इन पाँचो देशों में पढने भेजे। ये मेधावी छात्र वहाँ की भाषा सीखे, और फिर अलग अलग विषयों के निष्णात होकर वापस आएँ। वापस आ कर उन निष्णातों नें, जो मेधावी तो थे ही, सारे ज्ञान को जापानी में अनुवादित किया, या स्वतंत्र रीति से लिखा। सारी पाठ्य पुस्तकें जापानी में तैय्यार हो गयी।
(९) इसमें जापान का क्या लाभ हुआ?
जापान की सारी जनता को, उन पाँचो देशों की ज्ञान राशि सहजता से जापानी भाषा में उपलब्ध हुयी।
(१०) तो क्या हुआ?
तो प्रत्येक जापानी का किसी विशेष विषय में विशेषज्ञ होने में लगने वाला समय बचा।
करोडों छात्र वर्ष बचे, उतने वर्ष उत्पादन की क्षमता बढी। समृद्धि भी इसी के कारण बढी। छात्र वर्ष बचने के कारण शिक्षा पर शासन का खर्च भी बचा। उतनी ही शीघ्रता से जापान प्रगति कर पाया। जापान का प्रत्येक नागरिक का जीवन मान भी ऊंचा हो पाया। जापानी शीघ्रता से कम वर्ष लगा कर विशेषज्ञ हो गया। अनुमानतः प्रत्येक जापानी के ५-५ वर्ष बचे, तो उतने अधिक वर्ष वह प्रत्यक्ष उत्पादन में लगाता था।
११) एक और विशेष बात हुयी जापान अपनी चित्र लिपि युक्त भाषा भी बचा पाया।
अपनी अस्मिता, राष्ट्र गौरव भी बढा पाया। भाषा राष्ट्र की संस्कृति का कवच कहा जा सकता है। उसके बचने से जापान की अस्मिता भी अखंडित रही होगी।
(१२) मुझे एक प्रश्न सताता है। जब जापान अपनी कठिनातिकठिन चित्रलिपि द्वारा प्रगति कर पाया, तो हम अपनी सर्वोत्तम देव नागरी लिपि के होते हुए भी आज तक कैसे अंग्रेज़ी की बैसाखी पर लडखडा रहे हैं? हमारा सामान्य नागरिक क्यों आगे बढ नहीं पाया है?
 
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।
·         Raghavendra Kumar Raghav · संपादक at THINKING ? MATTER                                                                                             आपके हिंदी (मातृभाषा) प्रेम को मैं कोटिशः नमन करता हूँ और आपने जो ये बात कही है कि लोग भारत में हिंदी की कम पुस्तकों का रोना रोते हैं! यहाँ श्रीमान जी मैं एक बात और जोडूंगा कि भारत में उपलब्ध हिंदी साहित्य का और हिंदी दर्शन का इन हिंदी द्रोहिओं ने कितना सदुपयोग किया | हमारी कितनी ही हिंदी की पांडुलिपियां लुप्तप्राय हैं........................... बेहद जानकारीप्रद लेख के लिए हमारा सादर धन्यवाद् |.
देवनागरी लिपि की सामर्थ्य के निषय में जानते हुए भी जो लोग उसे स्वीकारने में आपत्ति करते हैं ,वह उनकी हीनता-ग्रंथि का परिचायक है.संकल्प- हीनता और राष्ट्रीय गौरव का अभाव उनके सोच में स्पष्ट झलकता है जिससे वे संगत तर्क को भी हँसी में उड़ा देते हैं.
जब डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने, ५० वर्ष पहले जो लिखा उस से भी देश जगा नहीं, और महात्मा गांधी जी ने भी उसी बात को दोहराया था, उस से भी कोई अंतर नहीं आया था, तो क्या किया जाए?
वास्तव में गांधी जी के नाम का लाभ लेकर, जो पक्ष सत्ता में आया था, वह गांधी द्रोही कैसे निकला?
पर, निराश नहीं होंगेसच्चाई को बार बार अलग अलग रीतिसे कहते ही रहना है।
यदि सही गणित किया जाता,(मुझे कुछ जानकारी उपलब्ध हुयी है) तो आज भारत कहीं का कहीं, आगे निकल गया होता।
जो जापान कर पाया, उसकी अपनी भाषा जो हमारी देवनागरी लिपित हिंदी से कमसे कम ५ गुना कठिन होंगी, उसके आधार पर. उतना परिश्रम तो भारत को करना नहीं था. न आवश्यकता थी. यदि ऐसा होता, तो?
तो आज हमें यह परिश्रम करना ना पडता.
और क्या कहूँ?
अगला आलेख जापान ने कैसे प्रगति की, इस पर विचार कर रहा हूँ.
आप का अनुग्रह बना रहे, धन्यवाद.
  • Anil Gupta says:
आदरणीय डॉ. मधुसुदन जी से क्षमा याचना के साथ स्पष्टवादिता से कहना चाहूँगा की इस देश में भाषा ही नहीं राष्ट्रीयत्व से जुड़े जितने भी प्रश्न हैं और राष्ट्रिय अस्मिता से जुडी जितनी भी समस्याएं हैं उन सबके लिए एकमेव हमारे प्रथम प्रधान मंत्री, जो धोंसपट्टी के सहारे सरदार पटेल को हटाकर प्रधान मंत्री बने, जवाहरलाल नेहरु जी जिम्मेदार थे. और उनके उत्तराधिकारियों में इतना सहस व नैतिकता नहीं थी की उनके गलत और राष्ट्र घातक निर्णय को सुधार सकें.साठ के दशक में जब देश में हिंदी आन्दोलन तेज हुआ तो उसके विरुद्ध दक्षिणी राज्य तमिलनाडु (जिसका नाम उस समय मद्रास राज्य था) में उग्र आन्दोलन हुआ. और उस आन्दोलन को सी आई ए द्वारा भड़काया गया था.देश में आज इतनी समस्याएं उत्पन्न हो चुकी हैं कि यदि आज कोई देशाभिमानी नेता आगे आता है तो भी भाषा का प्रश्न संभवतः प्राथमिकताओं में पीछे रह जायेगा.हाँ दीर्घ कालीन योजना बनाकर शुरुआत कि जा सकती है जिसमे समय आने पर तेज और कठोर निर्णय लिए जा सकते हैं.अस्तु इस सब के लिए मानसिक तैय्यारी आवश्यक है. और सुदूर अमेरिका में रहकर और अभियांत्रिकी से जुड़े होकर भी भाषा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से डॉ, मधुसुदन जी द्वारा जो किया जा रहा है वह स्तुत्य है. मेरा श्रद्धापूर्ण नमन.
आर. एस. एस. के ऋषितुल्य राष्ट्र-दृष्टा, नेता श्री गोलवलकर जी ने कहा था, कि स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही,
[
१]: (क) राष्ट्र ध्वज, (ख) राष्ट्र गीत (ग) राष्ट्र भाषा घोषित कर देते, –तो उस उत्साह में सभी स्वीकृत हो जाता।
[
२] यदि, भाषा आधारित प्रदेश ही ना बनते, तो प्रादेशिक आंदोलन कहाँ से होता?
[
३] जब, यह किया नहीं गया, तो फिर और एक पर्याय था, कि,
संस्कृत निष्ठ हिंदी को अपनाते, नाम उसका "राष्ट्र भाषा भारती" रखते। तमिल भाषियों को प्रयासोचित आर्थिक प्रोत्साहन देते। तेलुगु. मल्ल्याळम, कन्नड को भी तमिल भाषियों से कुछ कम, पर प्रोत्साहन दिया जाता, तो आज भी इसी मार्गसे संभावना प्रतीत होती है।
जिस संस्कृत ने सारे भारत को जोड कर रखा है, उस की अवहेलना ने हमें असफल बनाया था।
[
} जब रामानंद सागर की रामायण दक्षिण में खिडकी में रखे दूरदर्शन पर राह की भीड इकठ्ठी कर सकती (है) थी। उन्हें तो तब अचरज हुआ, जब पता चला कि यह तो हिंदी भाषा है। वे हिंदी वर्चस्व वादिता से डरते हैं, उतने हिंदी से नहीं।
[
५] जब विश्व की, समृद्धातिसमृद्ध भाषा संस्कृत का ८० % शब्द कोश, जो सारे भारत में समान है,और खडी बोलीका(हिंदी का ना कहो) व्याकरण हमारे पास था;
तो मैं तो ऐसी भाषा को "सरल संस्कृत" कहता, और केवल उर्दू के पीछे जाकर, राष्ट्र भाषा को सही अर्थसे सम्पन्न करता। उर्दू और अन्य प्रादेशिक भाषाओं से आयोग के द्वारा शब्द स्वीकृति होती।
[
६]अंग्रेज़ी के शब्द लेने के पहले, हम अपनी प्रादेशिक भाषाओं से शब्द (उर्दू से भी) लेते।
यदि ऐसा होता, तो देशका स्वाभिमान और गौरव जग जाता।
[
७] पर जापान ने मुझे बहुत बहुत बहुत अचंभित किया। कैसे उन्हों ने, अपनी चित्रमय भाषा को विकसाया, और समृद्ध बनाया। और हम संसार को पूर्णातिपूर्ण देव वाणी से सींचित कर देने वाले, अंग्रेज़ी के पीछे पागल? चुल्लुभर पानी में डुबकर मर जाना चाहिए।
बहुत कुछ कहा जा सकता है। कभी समय से आलेख …..दूंगा। —-पर विचार दर्शाते रहें।मेरे लिए, सारे सुझाव स्वागतार्ह है।
आप सभी का धन्यवाद।
  • शिवेंद्र मोहन सिंह says:
अति उत्तम लेख या यों कहें सुझाव, समस्या का समाधान करो या मरो से ही आता है। टालने से बला टलती नहीं है बल्कि बड़ी होती जाती है। देश से अगर प्रेम होता है तो हर वो कर्म किया जाता है जिससे देश आगे बढ़े। ना की धूर्तों की तरह नीचता पूर्ण आचरण किया जाए। और यही आचरण अगर तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व ने किया होता तो आज देश कई गुना आगे बढ़ चुका होता। आज इस देश के अधिकाँश बच्चे जो हिंदी या प्रादेशिक भाषाओँ से ज्ञान अर्जन कर रहे हैं, अंग्रेजी के कारण हीन भाव से ग्रस्त हैं। खैर अपने भी दिन बदलेंगे इंशाल्लाह …. बहुत बहुत शुक्रिया आपका तथ्यपरक और उत्साहित करके लेख के लिए।
शिवेन्द्र जी धन्यवाद।
(
१) करो या मरो, का सुझाव जब डॉ. लोहिया जी ने ही दिया तो मेरा भी साहस हुआ।
(
२) उसी भांति गांधी जी ने भी यही पर कुछ अलग शब्दों में कहा है।
नमस्कार।
Max Muller
shuklas@comcast.net;
It is a severe mistake to think that Max Muller was a great Sanskrit scholar and friend of Hindu Dharma. In fact it was quite the opposite. He was a staunch Christian, and was influenced by another staunch Christian Lord Macaulay, who wanted to convent entire Hindu population of India to Christianity. In 1854, fifteen years after he returned from India to England, Lord Macaulay managed to award a research grant of 10,000 pounds by the East India Company to Max Muller. The latter's assignment was to 'prove' that Aryans were illiterate invaders from outside India (Central Asia) who came to India in about 1500 BCE, destroyed the Dravidian civilization of Harappa and Mohenjodaro and pushed back the native Dravidians towards South India. This was a mischievous conspiracy of Muller to divide the Indian population into two different races. Much later in South India the party DMK was formed with this assumption only. Before that in Sanskrit literature there is no mention anywhere about 'Arya' and 'Dravida' being two different races. In fact the Rigveda says Krinvanto Vishvamaryam (Let us make the entire world Arya (noble human beings).
Muller was also assigned to prove that the Vedas are nothing more than some meaningless odd poems composed by the barbarian Aryans. He was a Sanskritist and his defunct theory is called "Aryan Invasion Theory", which became part of Indian history without any question being asked. Even Jawahar Lal Nehru's "Discovery of India" is written using the Aryam Invasion Theory (AIT) as true history. Though it is proven that similar remnants of the same era the so called "Dravidian culture" were later found in some cities excavated after independence of India like at Dhaulavira, Kalibangan etc. along the dried Saraswati river, the GOI is so timid to discard this AIT under the pressure of the secularists. Because according to the Bible the earth was created only about 4,000 years before Christ, whereas according to science it is 6 billion years old, Muller was not ready to assign the age of the Rigveda as 7,000 years. He said it was written in around 1,250 BCE after the Aryans came to India on horse backs through Khyber Pass.
A few years ago the State of California was trying to add some Indian history course in the social studies of 6th grade students based on the AIT as promoted by Romila Thapar, the leftist historian of JNU. But the Indians in California opposed it vehemently emphasizing that AIT is a false history of the then rulers of India, the British, and then only it was not included.
I am a member of an organization called WAVES (World Association of Vedic Studies) which has condemned the AIT as a distortion of the history and believes that it was a conspiracy of the English to prove that the freedom fighters of India who were all of higher castes (Aryans) were also outsiders just like the English were and so had no right to call India as their country. I would suggest that please read "Vedic 'Aryna' and the Origins of Civilization" by Navaratna Rajaram and David Frauley published by W H Press, Quebec.
Thanks,
Shyam N. Shukla
 
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Slaver of Mind has stuck in Brain
The mind is an obstinate instrument as Indian Indian inquiry has known of old, and also that it can be trained. If you go back to the link I provided in the Vashistha quote you will find this story:
Once a washerman asked his son to go to the barn and get his donkey. But when the son tried to fetch the donkey, he wouldn't budge. The boy went to his father and told him the donkey wouldn't move.
"is the donkey tied up? The washerman asked.
"No. That's what I don't understand," the son replied.
"Well then, slap him on the rump to get him moving!" the father replied in exasperation.
The son tried this but the donkey still wouldn't move. He went back to his father and said, "Father, he must be sick. Please come and see for yourself."
The time, father and son went together to fetch the donkey. The father also tried to get the donkey to move, but to no avail. Then suddenly, he understood the problem. He took the donkey's, which was attached to his halter but not attached to the post. He first wound the rope around the post and then unwound it and began walking out of the barn. Only then did the donkey follow him.
This, is the case with people whose minds are fully convinced of the reality of the bondage they create... simply because it believes that it is in bondage.
 
 
 
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