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Saturday 12 January 2013

आज लहरों में निमंत्रण



आज लहरों में निमंत्रण

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/36447-2013-01-11-05-38-04

Friday, 11 January 2013 11:07
कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 11 जनवरी, 2013: अकुशल और कायर लोग हों या कोई न कोई तख्ती लगाए समाज, वह ऐसी ही चालाकी से काम करता है।
जब भावनाएं उत्तप्त होती हैं तब वह मौन रखता है, सिर नीचे कर लेता है। वह उबाल के नीचे बैठने तक खुद को आपके साथ कर लेता है। वह अपने खिलाफ उठने वाले नारों में भी अपनी आवाज मिलाता है, जुलूस में शामिल हो जाता है, मोमबत्तियां भी जला लेता है, और यह सब करते हुए भी पूरी सावधानी से देखता रहता है कि सन्नाटे के इस गुब्बारे में कहां से सुई चुभोई जा सकती है! 
बस में बलात्कारियों से दम भर लोहा लेने के बाद जिस बेबस लड़की और लड़के को सड़क पर फेंक दिया गया था, उनमें से लड़की तो अपनी कहानी समेट कर चली गई। मौत से भी बुरी जिंदगी जीने के लिए बचा रह गया है लड़का! मैं सोच भी नहीं पा रहा हूं कि वह क्या करेगा और अपने जीने का औचित्य कहां से और कैसे खोजेगा? लेकिन उसे जीना है क्योंकि जाने-अनजाने वह उन कई बातों का प्रतीक बन गया है, जिनकी चिंता करना हमारे शासन ने भी छोड़ दिया था और समाज ने भी। इसलिए उसके जीने का गहरा मतलब है- ऐसा मतलब जिसे उसे खोजना भी है, समझना भी है और बड़ी शिद््दत से समझाना भी है। लेकिन अभी मैं उस लड़की को भी और उस लड़के को भी किनारे करता हूं और उनकी बात करता हूं जो थोड़े वक्तकी चुप्पी के बाद, अब बोलने की तैयारी कर रहे हैं। 
उस लड़के ने वह सब जब से दुनिया को बताया है, तब से अब तक चुप रही दिल्ली पुलिस बोलने लगी है। दिल्ली के पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने घटना वाले दिन इस तरह और इस तेवर में पत्रकार सम्मेलन में बात की थी मानो पुलिस के अलावा दूसरे किसी को इस मामले में पड़ने, पूछने या कुछ कहने की जरूरत नहीं है। और जो जरूरी है वह सब हम जानते हैं और जो करना जरूरी होगा, वह सब हम करेंगे। बाद की घटनाओं ने जब तूफानी रूप लिया तब वे कहीं जा छिपे और पूरे पुलिस महकमे की बोलती बंद हो गई! उस दिन संसद में गृहमंत्री भी पुलिस से मिली जानकारी ही बेहद बेदरकारी से दुहराते रहे। बाद की तूफानी हवाओं ने उन्हें याद दिलाया कि वे भी तीन लड़कियों के पिता हैं। फिर तो तंत्र से जुड़े हर किसी को अपनी बेटियां याद आने लगीं। शायद देश में ऐसा पहली बार ही हुआ होगा कि खास लोगों को अफसोस हुआ कि अरे, काश कि हमारी भी एक बेटी होती! बेटी होती तो हम भी इसी तर्क के सहारे अपनी बात कह जाते और अपनी जिम्मेवारी से कंधा झटक लेते! 
यह सब किसी गहरे संताप से पैदा हुआ तर्क नहीं था। यह तो लोगों के गुस्से को भटकाने की कोशिश भर थी। इसलिए लड़के ने अपना दर्द बयान करते हुए पुलिस के बारे में जैसे ही कुछ कहा, पुलिस उचक पड़ी! उसे समझ में आया कि अब तक की अपनी चुप्पी तोड़ने का यही मौका है। वह पूरे आन-बान-शान से टीवी पर आई और कहना शुरू किया कि वह कर्तव्य-पालन में नहीं चूकी, उसने कार्रवाई में कोई देरी नहीं की, उसकी विभिन्न नामों वाली गाड़ियां एकदम समय से, आपसी तालमेल के साथ काम कर रही थीं, उसने अस्पताल पहुंचाने और सबसे अच्छी चिकित्सा उपलब्ध कराने में कोई कोताही नहीं बरती। 
वह यह भी कह रही है कि उस रात पुलिस वालों ने इस चर्चा में कोई वक्त नहीं लगाया कि यह वाकया किस पुलिस थाने के तहत आता है। वे तो किसी देवदूत की भांति अवतरित हुए और वह सारा कुछ करते गए जो जरूरी था, नैतिक था और पुलिस के रूप में उनका कर्तव्य था। और इतने के बाद भी उन पर दोषारोपण किया जा रहा है! कहीं पढ़ा कि पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने कहा कि अगर ऐसे मामलों में पुलिस प्रमुख को त्यागपत्र देना पड़े तब तो देश का भगवान ही मालिक है! हम भी ऐसा ही कह रहे हैं लेकिन हमारे संदर्भ अलग-अलग हैं।
पहले दिन दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने क्या कहा और कैसे तेवर में कहा, राष्ट्रपति के सुपुत्र ने क्या कहा, प्रधानमंत्री ने कुछ भी, किस तरह नहीं कहा, हमें पता ही नहीं चला कि देश के तथाकथित युवा हृदय सम्राट का हृदय कहां है और दिमाग कहां। दूसरे सांसदों-विधायकों आदि ने क्या कहा वह सब याद करने की पीड़ा न दोहराएं हम! हम यह भी याद न करें कि सारे देश को झकझोर कर जब उस लड़की ने सिंगापुर में दम तोड़ा तब वहां के हमारे उच्चायुक्त किसी रोबोट सरीखी भाव-मुद्रा में प्रकट हुए और देश-दुनिया को पूरा प्रकरण बताते हुए वे एक भी ऐसा वाक्य न बोल सके जिसमें नौकरशाही का कर्तव्य-बोध नहीं, देश में सनसनाती पीड़ा का स्पर्श भी हो।
देश नौकरों की जमात से नाथ कर रखी जाने वाली निष्प्राण भीड़ नहीं है, यह अहसास ही आज लुप्त हो गया है। लोकतंत्र में नेतृत्व की कोई कसौटी है तो यही है कि वह देश में उमगती-पनपती नई संवेदनाओं को भांप लेता है या नहीं। अगर भांप लेता है और देश के कानून और प्रशासन में उसके लिए जगह बनाता है तो वह नेतृत्व है, वरना निराशा को और गहराने का ही काम करता है।  
कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ उपहास से और कुछ बौद्धिक गहनता के भाव से कह रहे हैं कि क्या यह बलात्कार की कोई पहली घटना है? गरीबों-आदिवासियों की बहू-बेटियों के साथ, गांवों में दबंगई करती सामंती ताकतें तो न जाने कितने बलात्कार करती हैं, कर रही हैं। तब कोई कुछ नहीं बोलता है, तब तो कोई सड़कों पर नहीं उतरता! यह दिल्ली की सड़कों पर, पढ़े-लिखे मध्यवर्ग का आक्रोश है जिसकी नकल देश भर में हो रही है। 
कौन हैं ये लोग जो ऐसा कहने लगे हैं? ये वे लोग हैं जो कभी, किसी की तरफ हाथ भी नहीं बढ़ाते, कभी किसी दिशा में पांव भर भी नहीं चलते, लेकिन बात का भात इतना पकाते हैं कि खाते-खाते आप उकछ जाएं! इन्हें लोकतंत्र का यही जादू तो नहीं मालूम है कि कब, कौन-सी बात दिल तक पहुंच जाती है, कब कौन-सी किरण भीतर तक उजाला कर जाती है, पता नहीं चलता है! यह गणित का हिसाब नहीं है, जिंदा मानव-समाज है जो सहसा उबल पड़ता है। 
बताइए, कैसे किसी मार्क्स को पूंजीवादी शोषण का वह चेहरा दिखाई दे गया, जो था तो बहुत पहले से, लेकिन किसी को दिखाई नहीं देता था? कोई यह क्यों नहीं बताता कि गुलामी तो सैकड़ों सालों की थी, किसी गांधी को असह्य क्यों हो गई? किसी भगतसिंह को वह फांसी के फंदे से भी ज्यादा कुरूप क्यों नजर आने लगी? और फिर इनके पीछे अनगिनत भागते-मरते-कटते-पिटते लोग क्यों आ जाते हैं? क्यों कोई बहत्तर साल का जयप्रकाश 'तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों में निमंत्रण' कह कर जन-सागर में कूद पड़ता है और अनगिनत युवा उसमें अपनी उमंग-आकांक्षा प्रतिबिंबित पाते हैं? नेतृत्वविहीन देश का साहस 1942 में ही नहीं, 1975-77 में भी प्रकट हुआ था और उसने हमारी लोकतांत्रिक समझ का ऐसा विस्तार किया जैसा इससे पहले हुआ नहीं था! 
सागर में लहरें कहां से उठती हैं, यही खोजते रहोगे तो लहरों का आनंद भी और उनका सौंदर्य भी चूक जाओगे। इस बलात्कार ने देश को झकझोर दिया है। यह संभावना बनी है कि यह लहर देश की सामाजिक संवेदना और प्रशासनिक सावधानी को भी एक कदम आगे ले जाएगी तो इसमें अपनी आवाज मिलाओ। अपने कायर गूंगेपन को देश पर मत थोपो! 
इस बलात्कार कांड के बाद उठे तूफान से सारा दक्षिणपंथी, दकियानूसी धड़ा हतप्रभ हो गया था। राजनीतिक मजबूरियां उसे संसद में कुछ दूसरा ही कहने पर विवश किए हुए थीं, लेकिन संसद के बाहर उनके सारे तीर्थ-स्थल खामोश थे। 
ये सभी इंतजार में थे कि वक्ती राजनीति करने वाले उनके लोग अगर इस लहर पर सवार होने में कामयाब होते हैं तो उनके दोनों हाथों में लड््डू होंगे। लेकिन जब उन्होंने यह देख लिया कि इस लहर पर सवारी कोई नहीं कर सका तो भाजपा के मजबूत गढ़ मध्यप्रदेश से सबसे पहले लक्ष्मण-रेखा का सिद्धांत सामने आया। यह किसी एक व्यक्ति की बहक नहीं थी बल्कि बाढ़ की गहराई नापने के लिए फेंका गया पत्थर था। 
इधर यह बात सामने आई और तुरंत ही संघ प्रमुख मोहन भागवत का सिद्धांत सामने आया कि भारत में बलात्कार नहीं होते हैं, इंडिया में होते हैं। भारत और इंडिया का ऐसा विभाजन जब कभी किसान नेता बने शरद जोशी ने सामने रखा था, तब भी वह सीमित अर्थों में ही अर्थवान था। लेकिन मोहन भागवत का भारत बनाम इंडिया का यह विभाजन तो बौद्धिक दरिद्रता की पराकाष्ठा है। 
वक्त के गर्भ में अनंतकाल से बंद पड़ी चीजें ही जीवाश्म में नहीं बदल जाती हैं, आदमी और उसके सोच के साथ भी ऐसा ही होता है। लेकिन यह पाषाणीकरण बहुत खतरनाक हो जाता है जब यह लोगों को भी अपने साथ लेने की स्थिति में पहुंच जाता है। तब कोई हिटलर पैदा होता है, कोई गोलवलकर, कोई ओवैसी या कोई बाल ठाकरे। बनाई जाए तो यह सूची बहुत लंबी बनेगी और उसमें कोई संगठित धर्म या मतवाद अपवाद नहीं छूटेगा। 
कितना भयंकर है यह देखना कि इधर मोहन भागवत की बात सामने आई और उधर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ही नहीं, उनके राजनीतिक संस्करण भाजपा का चेहरा भी कुछ दूसरा ही बोलने लगा। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का सिद्धांत बघारना शुरू कर दिया। उन्होंने छोटी मछली यानी मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के बयान से खुद को अलग कर लिया, लेकिन संघ प्रमुख के बयान के साथ मजबूती से खड़े हो गए। 
यह सब करने के उन्माद में उन्हें यह होश भी नहीं रहा कि कोई पूछ बैठेगा कि 1992 का गुजरात इंडिया में था कि भारत में, तब वे क्या कहेंगे! लेकिन बात तर्क की नहीं है। बात है दक्षिणपंथी ताकतों के लिए फिर से बोलने का मौका बनाने की। संघ ने वह काम कर लिया है। आप देखिए कि इसके बाद से उनके यहां इस बलात्कार का संदर्भ ही कमजोर पड़ता जा रहा है। 
अगर एक राष्ट्र के रूप में हम सबको अपनी सामूहिक विफलता का गहरा अहसास हुआ है तो रास्ता एक ही बचता है सबके लिए- सारे आरोप स्वीकार करो, सफाई मत दो, मुंह बंद कर नए रास्ते पर तेजी से चलो! लोकतंत्र कपड़े बदल रहा है। तंत्र की पोशाक अब न लोक की लाज ढक पा रही है, न उसे आत्मनिर्भर बना पा रही है। अब लोक खुद के लिए भी और तंत्र के लिए भी नए कपड़े बनाना चाहता है।


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