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Saturday, 26 January 2013

विश्वव्यवस्था कायम रखने के लिए बहुत जरुरी है भारत पाकिस्तान युद्ध​!

विश्वव्यवस्था कायम रखने के लिए बहुत जरुरी है भारत पाकिस्तान युद्ध​!
​​
पलाश विश्वास

विश्वव्यवस्था कायम रखने के लिए बहुत जरुरी है भारत पाकिस्तान युद्ध​!हम यह कोई पहली बार बोल या लिख नहीं रहे हैं। पहले खाड़ी युद्ध के तुरंत बाद लिखे अपने धारावाहिक उपन्यास `अमेरिका से सावधान' में ​​लगातार इस पर लिखा है। तेल युद्ध के सामय से सोवियत अवसान के बाद खासकर वैश्विक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए युद्धस्थल इस ​​उपमहादेश में , हिंद महासागर के शांति क्षेत्र में स्थानातंरित होता रहा। मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था दरअसल विकासशील और ​​अविकसित देशों के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की व्यवस्था है, जो बाकायदा बहिष्कार और रंगभेद के साथ साथ जलसंहार संस्कृति और मस्तिष्क नियंत्रण के बुनियादी सिद्धांतो परर आधारित है।अबाध पूंजी निवेश के अर्थशास्त्र के मातहत सत्तावर्ग के क्रयसंपन्न अति ​​अल्पसंख्यक तबके के शिकंजे में फंसे राष्ट्र ने तब से बहुसंख्यक जनता के खिलाफ युद्ध जरी रखा है। इस अभ्यंतरीन युद्ध को वैधता देने के​ ​ लिए सीमा पर युद्ध भी जरूरी है।साठ के दशक को याद करें , जब हरित क्रांति के माध्यम से पूंजी की घुसपैठ होने ही वाली थी और भारतीय अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि परंपरागत तौर पर बहुसंख्यक जनता की आजीविका बनी हुई थी!तब हम बचपन में थे। टीवी, कंप्युटर, शेयर बाजार और तकनीक से सर्वथा अनजान। तब बलात्कार परिदृश्य क्या किसी को याद है? तब अनाज और तेल के भाव क्या थे?

महंगाई के लिए अक्सर १९७१ की लड़ाई और शरणार्थी समस्या को मुख्य कारक बताने का रिवाज है। पर दरअसल १९६२ ौर १९६५ की ​​लड़ाई के बाद से ही अर्थ व्यवस्था चरमराने लगी थी। हरित क्रांति के बाद से प्राथमिकताएं बदलने लगी थीं। हिंदुत्व राजनीति का खुला खेल शुरु हो गया था। इसी हिंदु राष्ट्रवाद का चरमोत्कर्ष बांग्लादेश युद्ध में देखने को मिला , जब इंदिरा गांधी को मां दुर्गा का अवतार बना दिया गया और ​​भारतीय राजनीति संघ परिवार के सिद्धांतों के मुताबिक चलने लगी। रक्षा सौदों का सिलसिला चल पड़ा और नवधनाढ्य वर्ग के काऱम ईंधन की खपत बढ़ने लगी। पर आज भी अर्थ व्यवस्था की बदहाली के प्रसंग में रक्षा व्यय और राष्ट्र के सैन्यीकरण की चर्चा नहीं होती।  १९७१ में याद करें कि कैसे भारतीय सेना बांगालादेश को मुक्त कराने में लगी थी एक ओर तो दुसरी ओर मुख्यतः भूमि सुधार की मांग लेकर शुरु हुए कृषक विद्रोह को कुचलने के लिए देश में सेना का इस्तेमाल हो रहा था। दरअसल  १९७१ का युद्ध ही विलंबित इसलिए हुआ कि तब पश्चिम बंगाल में ईस्टर्न कमान नक्सलियों से निपटने में लगी हुई थी। यहीं नहीं, अस्सी के दशक में आपरेशन ब्लू स्टार और सिख निधन के लिए सिख उग्रवाद को जो जिम्मेवार बताया जाता है, उसके पीछे भी पंजाब में हरित क्रांति की वजह से कृषि उत्पादन लागत अचानक बढ़ जाने और देहात में बेरोजगारी की पृष्ठ भूमि है, जिसे धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की राजनीति ने हिंदुत्व के पुनरुत्थान के वास्ते बखूब इस्तेमाल किया। १९९१ में डा. मनमोहन सिंह के अवतार से पहले तेलयुद्ध में बुरी तरह फंस गयी थी अमेरिकी युद्धक अर्थ व्यवस्था , जिस वजह से २००८ में मंदी आयी और अब फिर फिस्कल क्लिफ है।भारत के कायाकल्प के लिए नहीं बल्कि अमेरिकी युद्धक अर्थ व्यवस्था की जमानत के लिए विश्वबैंक और अंतरराट्रीय मुद्राकोष के चाकरों ने ग्लोबल हिंदुत्व और जायनवादी ​​ग्लोबल आर्थिक ताकतों की मदद से भारत को मुक्त बाजार में  बदलना शुरु किया। इससे पहले इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने सूचना माध्यमों में न केवल कब्जा किया , बल्कि छद्म समाजवादी नारों के साथ अर्थ व्यवस्था की प्रथमिकताएं ही सर्विस और तकनीक को बनाकर भारतीय कृषि और देहात को पलीता लगाना शुरु कर दिया था। इसकी सबसे ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया कृषि प्रधान पंजाबी संस्कृति में हुई।यह भी याद रखा जाना चाहिए कि नवउदारवादी अर्थ व्यवस्था के प्रस्थानबिंदु और आरक्षणविरोधी आंदोलन व रामजन्मभूमि आदोलन के तार कैसे जुड़े हुए थे।भारत के खुला बाजार बन जाने के बाद बाबरी विध्वंस, भोपाल गैस त्रासदी और गुजरात नरसंहार जैसी घटनाएं हिंदुत्व के ग्लोबीकरण की ही तार्किक परिणति रहीं।अब यह महज संयोग नहीं कि गुजरात नरसंहार के इंद्रदेव इस वक्त मनमोहन का कार्यभार अपने हाथों में लें, इसके लिए बाजार, कारपोरेट​ ​ मीडिया, अर्थ शास्त्रियों और अमेरिका, इजराइल व ब्रिटेन में उन्हें विकास पुरुष और उदित भारत के भाग्य विधाता बतौर पेश करने की​ ​ होड़ मची हुई है।​
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​ भूमि सुधार का मुद्दा जस का तस है। इसे संबोधित किये बिना कारपोरेट हित में एक मुश्त भूमि अधिग्रहण बिल, खनन अधिनियम,वन ​​अधिनियम, पर्यावरण अधिनियम जैसे तमाम कानून बदलकर प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट कब्जा कायम करने के लिए बहुसंख्यक जनता को जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखल किया जा रहा है। अगर संविधान की पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों और भूमिपुत्रों को सारे अधिकार मिल जायें, अगर भूमि सुधार ईमानदारी से पूरे देस में लागू हो जाये तो इस देश मे नक्सलवादी माओवादी आंदोलन के लिए ​​कोई जमीन ही नहीं बचती और न सलवा जुड़ुमम और तरह तरह के रंग बिरंगे अभियानों के तहत आंतरिक सुरक्षा सीआईए और मोसाद के हवाले करने की जुगत लगानी होगी और न सशस्त्र बल विशेषादिकार कानून और आतंकनिरोधक कानून की कोई प्रासंगिकता रह जायेगी। इसके उलट भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के तहत न केवल भारत देश को परमामु भट्टी में बदल दिया गया, बल्कि हमेशा के लिए इस देश को अमेरिकी युद्धक व्यवस्था से नत्थी कर दिया गया। अमेरिका के आतंकविरोधी युद्ध में शामिल होकर भारतीय राजनय ऐसी हो गयी कि भारत अब इस महाद्वीप में एक अकेला द्वीप है और अपने पड़ोसियों से सीमा विवाद के अलावा उसके कोई संबंध ही नहीं है। बहुलतावाद,धर्मनिरपेशक्षता और गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों को तिलांजलि देकर  वर्चस्ववादी उग्रतम कारपोरेट हिंदू राष्ट्रवाद के युद्धोन्मादी आत्मघाती इंतजामात के बीच हम हमेशा के लिए अमन चैन को अलविदा कह चुके है! इस प्रसंग में यह भी याद रखने लायक है कि अमेरिका और इजराइल के साथ सैन्य गठबंधन हो या फिर भारत अमेरिका परमाणु संधि, पहल संघ परिवार ने ही की। जैसे आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी तमाम काम को अंजाम देने में संघी पहल निर्मायक साबित होती रही। खुदरा में विदेशी​ ​ निवेश का विरोध कर रही भाजपा ने अपनी केंद्र सरकार में बाकायदा विनिवेश मंत्रालय खोल रखा था। तब विनिवेश का जो रोडमैप बनाया ​​गया था, आज भी उसी पर अमल हो रहा है। यही नहीं, जल जंगल जमीन और नागरिक मानव अधिकारों से बेदखली के लिए नागरिकता संशोधन कानून और असंवैधानिक आधार कार्ड योजना के तहत डिजिटल बायोमैट्रिक नागरिकता के जरिये एथनिक क्लींजिंग की शुरुआत भी संघ परिवार ने ​​ही की। अब भी केंद्र सरकार एक से बढ़कर एक जनविरोदी नीति  अमल में लाने का दुस्साहस सिर्फ इसलिे कर रही है क्योंकि संसद में मुख्य प्रतिपक्ष संघ परिवार है और जो सीधे अमेरिका और इजराइल के हितों से जुड़ा हुआ है। क्योंकि इसी पर ग्लोबल हिंदुत्व और उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद का वर्तमान और भविष्य निर्भर है।जैसे एक के बाद एक फर्जी मुद्दे और आंदोलन गढ़कर कारपोरेट मीडिया के खुले सहयोग से हिंदुत्ववादियों ने अल्पमत सरकारों को पिछले दो दशक से विश्व व्यवस्था के हित में संसद, संविधान और लोकतंत्र की हत्या में पूरी मदद की, उसके बिना न आर्थिक सुधार संभव थे और न वैश्विक कारपोरेट व्यवस्था के हित सध सकते थे।

किसी भी धर्म राष्ट्रवाद के उत्थान के पीछे विधर्मियों के खिलाप निरंतर घृणा अभियान अनिवार्य शर्त है। मनुस्मृति व्यवस्था में जाति के तहत बंटे हुए हिंदू सामाज के एकीकरण के लिए सबसे बड़ी पूंजी यह घृणा है। जो समय समय पर तमाम अल्पसंख्यकों, भाषायी और धार्मिक, के विरुद्ध देसश के कोने कोने में अभिव्यक्त होती रही है। महाराष्ट्र और असम में संघ परिवार के निशाने पर भाषाई अल्पसंख्यक हैं, देश भर में अनुसूचित शरमार्थी हैं और तमाम तरह के धार्मिक  अल्पसंख्यक । उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद से न मुसलमान बचे और न ईसाई, हिंदुत्व से निकले सिख और बौद्ध भी नहीं। इस घृणा के सबसे  बड़े पर्तीक हैं बांग्लादेश और पाकिस्तान। हर बंगाली को बंगाल से बाहर और हर शरणार्थी को दशभर में बांग्लादेशी बताकर उनके खिलाफ​ आंदोलन चलाने का संघ परिवार का लंबा इतिहास रहा है। कम से कम सिखों को तो याद होना ही चाहिए कि कैसे अस्सी के दशक में हर ​​सिख को आतंकवादी कहा जाता था। भारत पाक तनाव के परिवेश में तमाम मुसलमानों को पाक समर्थक या आतंकवादी करार देना बांए हाथ का खेल है जैसे हर आदिवासी इस देश में या तो नक्सली है या फिर माओवादी। हर वामपंथी रूस या चीन का दलाल।

संघ परिवार  के  लिए हिंदू राष्ट्र के एजंडा को अंजाम तक पहुंचाना जिस तरह अनिवार्य है उतना ही अनिवार्य है विधर्मियों के विरुद्द घृणा अभियान , जिससे अनुसूचित, आदिवासी और पिछड़े अंध देशभक्ति से निष्मात गुजरात की तर्ज पर पूरे देश में हिंदुत्व की पैदल सेना में शामिल हो​ ​ जाये और समता व सामाजिक न्याय की मांगें भूल जायें, आर्थिक सशक्तीकरण का सपना न देखें और लोकतंत्र का सर्वनाश करते हुए मनुस्मृति व्यवस्था का गुलाम हो जायें हजारों साल के लिए और। इसके अलावा भारत अमेरिका परमाणु संधि का जो मुख्य मकसद है, अमेरिकी कंपनियों का भारतीय प्रतिरक्षा आंतरिक सुरक्षा बाजार में एकाधिकार का, वह भारत पाकिस्तान या भारत चीन युद्ध के मार्फत ही पूरा हो सकता है। ​​अमेरिकी पिट्ठू चो चीन के खिलाफ अरसे से छायायुद्ध चला रहे हैं, पर चीनी प्राथमिकताओं  में इस गैर जरूरी युद्ध के लिए कोई गुंजाइश ​​नहीं है। दूसरी ओर , पाकिस्तानी सत्तावर्ग भी अंध धर्म राष्ट्रवाद की शरण में हैं। वह भी अमेरिकी गुलाम है। वहां आंतरिक समस्याएं और​ ​ संगीन हैं। इसी समीकरण पर कारगिल युद्ध संपन्न हो ही गया। अब चुंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था फिस्कल क्लिफ के जरिये फिर मंदी के ​​चंगुल में है, भारत और पाकिस्तान दोनों देशों पर काबिज धर्म राष्ट्रवाद के लिए वैश्विक व्यवस्था के प्रति अमोघ प्रतिबद्धता साबित करने ​​और घरेलू संकट, आर्थिक सुधारों के एजंडे को अमल में लाने के लिए भारत पाकिस्तान युद्ध से बेहतर कोई विकल्प है ही नहीं।

अब ग्लोबल हिंदुत्व और वैश्विक कारपोरेट मनुस्मृति व्यवस्था के इस फौरी एजंडे को अंजाम देने में लगा है कारपोरेट मीडिया। ​इलेक्ट्रानिक मीडिया तो बड़ी बेशर्मी से धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का रश्मीरथी बना ही हुआ है, सोशल माडिया भी हिंदुत्ववादियों के कब्जे में हैं।​जनपक्षधधर अभिव्यक्ति के लिए कहीं कोई स्पेस नहीं बचा तो कोई क्या कर लेगा सबसे बड़ी शर्म की बात तो यह है कि वे श्रमजीवी​ ​​ बहुसंख्य पत्रकार जिन्हें न बाजार तरह तरह के ुपहार और पुरस्कारों से नवाजता है और न वे बड़े ओहदों पर हैं, जिन्हें हिंदुत्ववादी सत्तावर्ग​​ ने वाजिब वेतन और तमाम सुविधाओं से  ही नहीं, मनुष्योचित जीवन यापन से भी वंचित कर रखा है, जिनका वेतन बोर्ड सर्वदलीय सहमति से वर्षों से लटका हुआ है, वे भी सुधार और हिंदूराष्ट्रवाद के एजंडा को लागू करने के लिए निष्ठापूर्वक युद्धोन्माद भड़काने का पवित्र कर्म कर रहे हैं।


कारगिल युद्ध

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

ऑपरेशन विजय, वॉर मेमोरियल,कारगिल
कारगिल युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच मई और जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के कारगिल जिले में हुए सशस्त्र संघर्ष का नाम है। कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में सामरिक महत्त्व की ऊँची चोटियाँ भारत के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। उन दुर्गम चोटियों पर शीत ऋतु में रहना काफ़ी कष्टसाध्य होता है। इस कारण भारतीय सेना वहाँ शीत ऋतु में नहीं रहती थी। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ ने आतंकवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भी कारगिल पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। वस्तुत: पाकिस्तान ने सीमा सम्बन्धी नियमों का उल्लघंन किया था। लेकिन उसके पास यह सुरक्षित बहाना था कि कारगिल की चोटियों पर तो आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा किया है, न कि पाकिस्तान की सेना ने। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना के सामने बड़ी चुनौती थी। दुश्मन काफ़ी ऊँचाई पर था और भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी। लेकिन भारतीय सेना ने अपना मनोबल क़ायम रखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज पर आक्रमण कर दिया।

ऑपरेशन विजय

भारतीय सेना ने इस युद्ध की चुनौती को 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया। युद्ध के दौरान भारतीय सेना के सैकड़ों अफ़सरों और सैनिकों को कुर्बानी देनी पड़ी। पाकिस्तानी सैनिक भी बड़ी संख्या में हताहत हुए। यहाँ यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि कुछ ही समय पहले भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान का दौरा करके आए थे और भारत-पाक सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में महत्त्वपूर्ण मंत्रणाएँ भी हुई थीं।

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उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ थे और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़। फ़रवरी 2009 में नवाज शरीफ़ ने यह ख़ुलासा किया कि कारगिल पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ की थी और उन्होंने मुझे क़ैद कर लिया था। कारगिल में पाकिस्तानी सेना का प्रवेश परवेज मुशर्रफ़ के आदेश पर ही हुआ था, जबकि परवेज मुशर्रफ़ ने यह कहा था कि कारगिल में पाकिस्तानी आतंकवादी उपस्थित थे।

भारत को विजयश्री

भारतीय सैनिकों ने ठान लिया था कि वे कारगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़कर ही दम लेंगे। भारतीय सैनिकों ने विलक्षण वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया। बेशक़ कारगिल युद्ध में भारत को विजयश्री प्राप्त हुई लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण भारत सरकार ने पाकिस्तानी सैनिकों को हथियारों सहित निकल भागने का मौक़ा दे दिया। पाकिस्तान को सामरिक महत्त्व की चोटियाँ ख़ाली करनी पड़ीं और भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों की ज़िन्दा वापसी को स्वीकार कर लिया। वस्तुत: युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं। भारतवर्ष ने उन्हीं नियमों का पालन किया था।

शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान

कारगिल युद्ध के बाद शहीद भारतीय सैनिकों के शवों को उनके पैतृक आवास पर भेजने की विशेष व्यवस्था की गई। इससे पूर्व ऐसी व्यवस्था नहीं थी। पैतृक आवास पर शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया। उनके शवों को ले जाने के लिए काफ़ी मंहगे शव बक्सों (कॉफ़िन बॉक्स) का उपयोग किया गया। उस समय देश के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीज़ थे। उन पर यह आरोप लगा कि शव बक्सों की मंहगी ख़रीद का कारण कमीशन प्राप्त करना था। यह ताबूत विदेशों से आयात किए गए थे। इससे भारतीय राजनीति का एक घटिया अध्याय लिखा गया। उस समय विपक्ष ने यह प्रचार आरम्भ कर दिया कि शहीदों की निर्जीव देह के लिए प्रयुक्त ताबूतों द्वारा भी धन बटोरने का कार्य किया गया। कारगिल का 'ऑपरेशन विजय' इस कारण भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि पाकिस्तानियों ने इस पर क़ब्ज़ा करके बढ़त प्राप्त करने की योजना बनाई थी। यदि पाकिस्तानियों को कारगिल से नहीं खदेड़ा जाता तो निकट भविष्य में वे कश्मीर की काफ़ी भूमि पर क़ब्ज़ा कर सकते थे।
Seealso.jpg इन्हें भी देखेंविजय दिवस एवं कारगिल

भारत-पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध

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भारत और पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध सन् १९४७ में हुआ था। यह कश्मीर को लेकर हुआ था जो १९४७-४८ के दौरान चला।

अनुक्रम

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[संपादित करें]पृष्ठभूमि

1815 से पहले आज "कश्मीर" के नाम से जाने जाने वाले क्षेत्र को "पंजाब पहाड़ी राज्यों" के रूप में जाना जाता था और इसमे 22 छोटे स्वतंत्र राज्यों शामिल थे. इन छोटे राज्यों मे राजपूत राजाओं के द्वारा जो (मुगल साम्राज्य के प्रति निष्ठावान थे) द्वारा शासन किया जाता था। वास्तव में पंजाब के पहाड़ी राज्यों के राजपूत मुगल साम्राज्य का एक प्रमुख शक्ति थे और उन्होने सिखों के खिलाफ मुगलों के समर्थन में कई लड़ाइयां लड़ी थी. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और मुगल साम्राज्य के बाद के पतन के बाद सिख पहाड़ी राज्यों की सत्ता को अस्वीकार करने लगे. इसलिए सिख गुरू महराजा रणजीत सिंह इन छोटे राज्यों पर जीत के लिए रवाना हो गये . अंततः एक के बाद एक सभी पहाड़ी राज्यों महराजा रणजीत सिंह ने विजय प्राप्त करी थी और इनको एक राज्य में विलय करके जम्मू का राज्य कहा जाने लगा .
जे हचिंसंन और जे पी वोगेल द्वारा लिखित पंजाब जातियों का इतिहास मे दिये वर्णन के अनुसार 22 राज्यो मे 16 राज्यों हिंदु और 6 मुस्लिम थे। इनमे 6 मुस्लिम राज्यो मे दो राज्यों (कोटली और पुंछ) मंग्रालो दो (भीमबेर और खारी-खैरियाला) छिब्ब के द्वारा राजौरी जरालो द्वारा और किश्तवाड़ियों के द्वारा किश्तवाड़ पर शासन किया जाता था |
प्रथम ब्रिटिश सिख युद्ध के सिख साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1845 और 1846 के बीच में लड़ा गया था, के बाद् 1846 में लाहौर की संधि में, सिखों को 12 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति भुगतान करने की आवश्यकता थी .
क्योंकि वे इस् राशि का भुगतान नही कर सके ईस्ट इंडिया कंपनी ने डोगरा शासक गुलाब सिंह को 750,000 रुपये का भुगतान करने के बदले में सिख राज्य से कश्मीर प्राप्त करने की अनुमति दी. गुलाब सिंह जम्मू और कश्मीर राज्य के संस्थापक बन नव गठित राजसी राज्य के प्रथम महाराजा बन गये। जम्मू और कश्मीर की रियासत भारत के 1947 में अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने तक ब्रिटिश राज के दौरान की दूसरी सबसे बड़ी रियासत थी |

[संपादित करें]भारत का बटवारा

१९४७ मे अंग्रेजो के भारत छोड़ने के पहले और बाद मे जम्मू एवं कश्मीर की रियासत पर नये बने दोनो राष्ट्रों मे से एक मे विलय का भारी दबाव था । भारत के बटवारे पर हुए समझौते के दस्तावेज के अनुसार रियासतो के राजाओं को दोनो मे से एक राष्ट्र को चुनने का अधिकार था परंतु कश्मीर के महाराजा हरी सिंग अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे और उन्होने किसी भी राष्ट्र से जुड़ने से बचना चाहा । अंग्रेजो के भारत छोड़ने के बाद रियासत पर रियासत पर पाकिस्तानी सैनिको और पश्तूनो के कबीलाई लड़ाको (जो कि उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्य के थे) ने हमला कर दिया ।
इस भय से कि रियासत की फ़ौज इनका सामना नही कर पायेगी महाराजा ने भारत से सैनिक सहायता मांगी । भारत ने सैनिक सहायता के एवज मे कशमीर के भारत मे विलय की शर्त रख दी । महाराजा के हामी भरने पर भारत ने इस विलय को मान्यता दे दी और रियासत को जम्मु कश्मीर के नाम से नया राज्य बना दिया । भारतीय सेना की टुकड़ियां तुरंत राज्य की रक्षा के लिये तैनात कर दी गयी । किंतु इस विलय की वैधता पर पाकिस्तान असहमत था । चूंकि जाति आधारित आंकड़े उपलब्ध नही थे इसलिये महाराज के भारत से विलय के पीछे क्या कारण थे यह तय पाना कठिन था ।
पाकिस्तान की यह दलील थी कि महाराजा को भारतीय सेना बुलाने का अधिकार नही था क्योंकि अंग्रेजो के आने के पहले कशमीर के महाराजा का कोई पद नही था और यह पद केवल अंग्रेजो की नियुक्ती थी । इसलिये पाकिस्तान ने युद्ध करने का निर्णय लिया पर उसके सेना प्रमुख डगलस ग्रेसी ने इस आशय के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का आदेश मानने से इंकार कर दिया । उनका तर्क यह था कि कश्मीर पर कब्जा कर रही भारतीय सेनाएं ब्रिटिश राजसत्ता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं अतः वह उससे युद्ध नही कर सकते । हालांकि बाद मे पाकिस्तान ने सेनाएं भेज दी पर तब तक भारत करीब करीब दो तिहायी कश्मीर पर कब्जा कर चुका था

[संपादित करें]युद्ध का सारांश

यह युद्ध पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सीमाओं के भीतर मारतीय सेना अर्धसैनिक बल और पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाओं और पाकिस्तानी सेना अर्धसैनिक बल और पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत राज्य के कबीलाई लड़ाको जो खुद को आजाद कश्मीर की सेना के नाम से पुकारते थे के बीच लड़ा गया था । प्रारंभ मे पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेना आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाको के शुरुवाती हमलो के लिये तैयार नही थी उसे केवल सीमा की रखवाली के लिये बहुत कम संख्या मे तैनात किया गया था इसलिये उनकी रक्षा प्रणाली आक्रमण के सामने तुरंत ढह गयी और उनकी कुछ टुकड़िया दुश्मनो से जा मिली ।
आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाके शुरूवाती आसान सफ़लताओं के बाद लूटपाट मे व्यस्त हॊ गये और उन्होने आगे बढ़ आसानी से कब्जे में आ सकने वाले नये इलाको पर हमला करने मे देर कर दी और महाराजा कए भारत मे विलय मे सहमती देते ही भारतीय सेना को विमानो की मदद से सैनिक पहुचाने का मौका दे दिया । १९४७ के अंत तक कश्मीर मे कब्जा करने के पकिस्तानी अभियान की हवा निकल गयी । केवल हिमालय के उपरी हिस्सो मे आजाद कश्मीर नाम की पाकिस्तानी सेना को कुछ सफ़लतायें मिली पर आखिर मे उन्हे लेह के बाहरी हिस्से से जून उन्नीस सौ अड़तालीस मे वापस खदेड़ दिया गया । पूरे १९४८ के दौरान दोनो पक्षो के बीच अनेक छोटी लड़ाइयां हुई पर किसी को भी कोई मह्त्वपूर्ण सामरिक सफ़लता नही मिली और धीरे धीरे एक सीमा जिसे आज नियंत्रण रेखा के नाम से जाना जाता है स्थापित हो गई । ३१ दिसम्बर १९४८ मे औपचारिक युद्ध विराम की घोषणा हो गयी ।

[संपादित करें]युद्ध के भाग

इस युद्ध को दस भागो मे बाटा जा सकता है । यह भाग इस प्रकार से हैं ।

[संपादित करें]शुरूवाती हमला (गुलमर्ग का अभियान)

शुरूवाती हमले का मुख्य उद्देश्य कश्मीर घाटी और इसके प्रमुख शहर श्रीनगर के नियंत्रण को अपने हाथ मे लेना था । जम्मू और कश्मीर रियासत (अब राज्य) की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर और शीतकालीन राजधानी जम्मू थी। मुज्जफ़राबाद और डोमेल मे तैनात रियासत की सेना तुरंत ही आजाद कश्मीर सेना नाम की पाकिस्तानी सेना से हार गयी ( रियासत की सेना का एक धड़ा आजाद कश्मीर सेना से जा मिला था) और श्रीनगर का रास्ता खुल गया था । रियासत की सेना के पुनः संगठित होने के पहले श्रीनगर पर कब्जा करने के बजाय आजाद कश्मीर सेना सीमांत शहरो पर कब्जा करने और उसके निवासियों (गैर मुस्लिम) से लूटपाट एवं अन्य अत्याचार करने मे जुट गयी । पुंछ की घाटी मे रियासत की सेना पीछे हट कर शहरो मे केंद्रित हो गयीं और उनको कई महिनो के बाद भारतीय सेना घेरा बंदी से मुक्त कराया ।

[संपादित करें]कश्मीर घाटी का भारतीय सुरक्षातंत्र


Indian soldiers fighting in 1947 war
जम्मू और कश्मीर रियासत के भारत से विलय के बाद भारत ने विमान के द्वारा सैनिक और उपकरण श्रीनगर पहुंचाये । वहां पहुंच कर उन्होने रियासत की सेना को मजबूत किया और श्रीनगर के चारो ओर र्क सुरक्षा घेरा बनाया और आजाद कश्मीर सेना को हरा दिया । इस सुरक्षा घेरे मे भारतीय सेना के बख्तरबंद वाहनो के द्वारा विरोधियो को पीछे से घेरना भी शामिल था । हारकर पीछे हटती हुई पाकिस्तानी सेना का बारामुला और उरी तक पीछा करके इन दोनो शहरो को मुक्त करा लिया गया हालांकि पुंछ घाटी मे पाकिस्तानी सेना के द्वारा शहरो की घेरा बंदी जारी रही ।
गिलगित मे आजाद कश्मीर की कबीलाई सेना मे गिलगित राज्य के अर्ध सैनिक बल शामिल हो गये और चित्राल के मेहतर जागीरदार की सेना भी अपने जागीरदार के पकिस्तान मे विलय की घोषणा के बाद उसमे शामिल हो गयी

[संपादित करें]पुंछ मे फसी सेनाओं तक पहुचने का प्रयास्

भारतीय सेना ने आजाद कश्मीर की सेना का उरी और बारामुला पर कब्जे के बाद पीछा करना बंद कर दिया और एक सहायता टुकड़ी को दक्षिण दिशा मे पुंछ की घेरा बंदी तोड़ने के प्रयास मे भेजा । हालांकि सहायता टुकड़ी पुंछ पहुच गयी पर वह घेराबंदी नही तोड़ पायी और वह भी फंस गयी । एक दूसरी सहायता टुकड़ी कोटली तक पहुच गयी पर उसे अपना कोटली की मोर्चाबंदी को छोड़कर पीछे हटना पड़ा इसी बीच मीरपुर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा हो गया ।

झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला25 November 1947 - 6 February 1948

[संपादित करें]झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला

पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना ने झांगेर पर कब्जा कर लिया तत्पश्चात उसने नौशेरा पर नकाम हमला किया । पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना की दूसरी टुकड़ीयों ने लगातार उरी पर नाकाम हमले किये । दूसरी ओर भारत ने एक छोटे से आक्रमण से छ्म्ब पर कब्जा बना लिया । इस समय तक भारतीय सेना के पास अतिरिक्त सैन्य बल उपलब्ध हो गये ऐसे मे नियंत्रण रेखा पर स्थितियां स्थिर होने लगी ।

अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण7 फरवरी 1948 - 1 मई1948

[संपादित करें]अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण

भारतीय सेना बलों ने झांगेर और रजौरी पर प्रतिआक्रमण कर के उन्हे कब्जे मे ले लिया । कश्मीर घाटी मे आजाद कश्मीर सेना ने उरी के सुरक्षा तंत्र पर आक्रमण जारी रखा । आजाद कश्मीर सेना ने उत्तर मे स्कार्दू की घेरा बंदी कर दी ।

भारतीय सेना का बसंत अभियान 1 मई 1948 - 19 मई 1948

[संपादित करें]भारतीय सेना का बसंत अभियान

आजाद कश्मीर की सेना के अनेक प्रतिआक्रमणो के बावजूद भारतीयो ने झांगेर पर नियंत्रण बनाये रखा हालांकि अब आजाद कश्मीर की सेना को नियमित पाकिस्तानी सैनिको की मदद अधिकाधिक मिलने लगी थी । कश्मीर घाटी मे भारतीयो ने आक्रमण कर तिथवाल पर कब्जा कर लिया । उंचे हिमालय के क्षेत्रो मे आजाद कश्मीर की सेना को अच्छी बढत मिल रही थी । उन्होने टुकड़ियो की घुसपैठ कर के कारगिल पर घेराबंदी कर दी तथा स्कार्दू की मदद के लिये जा रहे भारतीय सैन्य दस्तों को हरा दिया ।

भारतीय सेना का बसंत अभियान1 मई 1948 - 19 मई 1948

[संपादित करें]अभियान गुलाब एवं इरेस(मिटाना)

भारतीय सेना बलो ने कश्मीर घाटी मे हमला जारी रखा और उत्तर की ओर आगे बढ कर केरान और गुराऐस पर कब्जा कर लिया । उन्होने तिथवाल पर किये गये एक प्रतिआकर्मण को वापस खदेड़ दिया । पुंछ घाटी मे पुंछ मे फसी भारतीय टुकड़ी घेराबंदी तोड़कर कुछ समय के लिये बाहरी दुनिया से वापस जुड़ गयी । लंबे समय से फसी कश्मीर रियासत की टुकड़ी गिलगित स्काउट (पाकिस्तान) से स्कार्दू की रक्षा करने मे अब तक सफल थी इस लिये पाकिस्तानी सेना लेह की ओर नही बढ पा रही थी । अगस्त मे चित्राल (पाकिस्तान) की सेना ने माता-उल-मुल्क के नेत्रुत्व मे स्कार्दू पर हमला कर दिया और तोपखाने की मदद से स्कार्दू पर कब्जा कर लिया । इससे गिलगित स्काउट लद्दाख की ओर आगे जाने का मौका मिल गया ।

अभियान डक(बत्तख) 15 अगस्त 1948 - 1 नवम्बर् 1948

[संपादित करें]अभियान डक(बत्तख)

इस समय के दौरान नियंत्रण रेखा स्थापित होने लगी थी और दोनो पक्षो मे अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रो की रक्षा का ज्यादा महत्व था बनिस्बत की हमला करने के |इस दौरान केवल एक महत्वपूर्ण अभियान चलाया गया यह था अभियान डक जो कि भारतीय बलो द्वारा द्रास के कब्जे के लिये था इस दौरान पुंछ पर घेराबंदी जारी रही ।

अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना 1 November 1948 - 26 November 1948

[संपादित करें]अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना

अब भारतीय सेना सभी क्षेत्रो पर पाकिस्तानी सेना और उससे समर्थित आजाद कश्मीर सेना पर भारी होने लगी थी । पुंछ को एक साल लंबी घेराबंदी से आजाद करा लिया गया था और गिलगित स्काउट जो कि अब तक अच्छी कामयाबी हासिल कर रही थी उसे उसे आखिरकार हराकर उसका पीछा करते हुए भारतीय सेना ने कारगिल को आजाद करा लिया पर आगे हमला करने के लिये भारतीय सेना को रसद की आपूर्ती की समस्या आ सकती थी अतः उन्हे रुकना पड़ा जोजिला दर्रे को टैंक की मदद से (इससे पहले इतनी उंचाई पर पूरे विश्व मे कभी भी टैंक का इस्तेमाल नही हुआ था ) कब्जे मे ले लिया गया पाकिस्तानी सेना टैंक की अपेक्षा नही कर रही थी और उनके तुरंत पांव उखड़ गये । टैंक का इस्तेमाल बर्मा युद्ध से मिले अनुभव के कारण ही संभव हो पाया था । इस दर्रे पर कब्जे के बाद द्रास पर आसानी से कब्जा हो गया ।

युद्ध विराम की ओर कदम 27 November 1948 - 31 December1948

[संपादित करें]युद्ध विराम की ओर कदम

लड़ाई के इस दौर मे पहुंचने पर भारतीय प्रधानमंत्री ने मामले को संयुक्त राष्ट्र महासभा मे ले जा कर उनके द्वारा मामले का समाधान करवाने का मन बना लिया । 31दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा की गई । युद्ध विराम होने से कुछ दिनो पहले पाकिस्तानी सेना ने एक प्रतिआक्रमण करके उरी और पुंछ के बीच के रास्ते पर कब्जा करके दोनो के बीच सड़क संपर्क तोड़ दिया । एक लंबे मोलभाव के बाद दोनो पक्ष युद्धविराम पर राजी हो गये । इस युद्धविराम की शर्तें देखेUNCIP resolution.[1] of अगस्त 13 1948 इसे संयुक्त राष्ट्र ने अपनाया जनवरी 5 1949.इसमे पाकिस्तान को अपने नियमित और अनियमित सनिको को पूरी तरह से हटाने और भारत को राज्य मे कानून व्यवस्था लागू करने के लिये आवश्यक सैनिक रखने का प्रस्ताव था । इस शर्त के पूरा होने परplebiscite राज्य के भविष्य और मालिकाना हक तय करने के लिये रखी जाती । इस युद्ध मे दोनो पक्षो के १५०० १५०० सैनिक मारे जाने का अनुमान है[2] और इस युद्ध के बाद भारत का रियासत के साठ प्रतिशत और पाकिस्तान का ४० प्रतिशत भूभाग पर कब्जा रहा ।

[संपादित करें]इस युद्ध से सीखी गयी सैन्य नीतियां

[संपादित करें]बख्तरबंद वाहन का प्रयोग

इस युद्ध के दो चरणो मे बख्तरबंद वाहन और हल्के टैंको का प्रयोग अत्यंत महत्वपूर्ण था इन दोनो मे ही बहुत ही कम संख्या मे इनका प्रयोग हुआ था | ये चरण थे
  • श्रीनगर पर प्रारंभिक हमले को नाकाम करना जिसमे २ बख्तरबंद वाहनो ने पाकिस्तान के अनियमित सैनिको के दस्ते पर पीछे से हमला किया
  • जोजिला दर्रे पर ११ हल्के टैंको की मदद से कब्जा Stuart M5 light tanks
यह घटनाएं यह बताती हैं कि असंभावित जगहो पर बख्तरबंद वाहनो के हमले का दुश्मन पर मानसिक दबाव पड़ता है | ऐसा भी हो सकता है की हमलावरों ने टैकरोधी हथियारो का प्रयोग नही किया शायद उन्होने आवश्यक न जानकर उन्हे पीछे ही छोड़ दिया | बख्तरबंद वाहनो के प्रयोग की सफलता ने भारत की युद्ध नीति पर गहरी छाप छोड़ी चीन के साथ युद्ध के वक्त भारतीयो ने बड़ी मेहनत से दुर्गम इलाको मे बख्तरबंद वाहनो का प्रयोग किया किंतु उस युद्ध मे बख्तर बंद वाहनो को अपेक्षित सफलता नही मिली | भारत-चीन युद्ध

[संपादित करें]सीमा रेखा मे आये बदलाव

  • सीमा रेखा मे आये परिवर्तनो का यदी अध्ययन किया जाय तो काफी रोचक तथ्य उभर कर आते हैं । एक बार सेनाओं का जमावड़ा पूरा होने के बाद नियंत्रण रेखा मे बदलाव बेहद धीमा हो गया और विजय केवल उन इलाकों तक सीमित हो गयी जिनमे सैनिक घनत्व विरल था जैसे की उत्त्री हिमालय के उंचे इलाके जिनमे शुरुवात मे आजाद कश्मीर की सेना को सफलताएं मिली थी ।

[संपादित करें]सेनांओ की तैनाती

  • जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाएं इस युद्ध के प्रारंभ मे फैली हुईं और छोटी संख्या मे केवल आतंकवादी हमलो से निपटने के लिये तैनात थीं । जिससे वे पारंपरिक सैनिक हमले के सामने निष्फल साबित हुई। इस रणनीती को भारत ने पुर्वी पाकिस्तान (आज का बंग्लादेश) मे भारत पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध मे सफलता पूर्वक प्रयोग किया ।

[संपादित करें]संदर्भ

[संपादित करें]Notes

[संपादित करें]Bibliography

Major sources
  • 'प्रतिरक्षा पत्रकारिता' शिव अनुराग पटैरया छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी,
  • Operations In Jammu and Kashmir 1947-1948, Ministry of Defence, Government of India, Thomson Press (India) Limited. New Delhi 1987. This is the Indian Official History.
  • The Indian Army After Independence, by KC Praval, 1993. Lancer International, ISBN 1-897829-45-0
  • Slender Was The Thread: The Kashmir confrontation 1947-1948, by Maj Gen LP Sen, 1969. Orient Longmans Ltd New Delhi.
  • Without Baggage: A personal account of the Jammu and Kashmir Operations 1947-1949 Lt Gen. E. A. Vas. 1987. Natraj Publishers Dehradun. ISBN 81-85019-09-6.
  • Kashmir: A Disputed Legacy, 1846-1990 by Alastair Lamb, 1991. Roxford Books. ISBN 0-907129-06-4.
Other sources
  • The Indian Armour: History Of The Indian Armoured Corps 1941-1971, by Maj Gen Gurcharn Sandu, 1987, Vision Books Private Limited, New Delhi, ISBN 81-7094-004-4.
  • Thunder over Kashmir, by Lt Col Maurice Cohen. 1955 Orient Longman Ltd. Hyderabad
  • Battle of Zoji La, by Brig Gen SR Hinds, Military Digest, New Delhi, 1962.
  • History of Jammu and Kashmir Rifles (1820-1956), by Maj K Barhma Singh, Lancer International New Delhi, 1990, ISBN 81-7062-091-0.

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