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इतनी मजबूर क्यों है पुलिस कि एफआईआर तक दर्ज नहीं होता राजनीति के बिना?
मने पुलिस के बारे में अपने लोगों के जो अनुभव सुने हैं, वे बहुत अच्छे नहीं है। नैनीताल की तराई में १९५४ में ही दिनेशपुर इलाके में छत्तीस शरणार्थी कालोनियों को बसाने का काम शुरू हो गया था। १९५२ के आम चुनाव में हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से स्वतंत्रता सेनानी श्यामलाल वर्मा को पराजित करके लखनऊ विश्वविद्यालय की अभी अभी कानून की पढ़ाई पूरी करने वाले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार नारायण दत्त तिवारी एमएलए बने थे। हुआ यह कि हल्द्वानी में पंडित नेहरु की चुनावी सभा थी। वर्माजी को तुतलाने की बीमारी थी। पंडित जी मंच पर विराजमान थे और वर्मा जी को बोलने के लिए माइक पर बुलाया गया। लेकिन देर तक वर्माजी तुतलाते रहे। इस पर झल्लाये नेहरु ने उनसे माइक छीन कर कहा कि हम कांग्रेस को वोट देने के लिए कहते हैं लेकिन योग्य उम्मीदवार को हरगिज जिताने के लिए नहीं कहेंगे। फिर वे चले गये। दर्शकों में तब अजनबी खड़े नारायण दत्त तुरंत मंच पर पहुंच गये और माइक पकड़कर धाराप्रवाह बोलने लगे। उनका वह लच्छेदार लोक लुभावन वाक्यप्रवाह अभी थमा नहीं है। एमएलए तिवारी १९५४ में ही दिनेशपुर चले आये।
लक्खीपुर गांव के नेता थे हरिपद विश्वास और सुंदरपुर के राधाकांत राय। निर्माणाधीन रिफ्यूजी क्वार्टर की छत पर खड़े होकर तब तिवारी ने शरणार्थी उपनिवेश देखते हुए अपने स्थाई वोट बैंक पर कब्जा कर लिया। उस वक्त विजय नगर में तंबुओं में पुनर्वास के इंतजार में थे तीन गांवों के लोग। बसंतीपुर, पंचाननपुर और उदयनगर। न सरकारी मदद मिल रही थी। न रोजगार था। जंगल में खेत आबाद करने के लिए सरकारी मदद के बिना गुजारा नहीं था। न स्कूल था और न स्वास्थ्य केंद्र। सड़कें तो थीं ही नहीं। तिवारी जी ने इस सिलसिले में क्या किया, अभी पता नहीं चला। तब पिताजी पुलिन कुमार विश्वास ने रुद्रपुर में आमरण अनशन की गोषणा कर दी। दिनेसपुर से नौ मील जंगल के रास्ते सारे शरणार्थी स्त्री, पुरूष, बच्चे बूढ़े जुलूस बनाकर ऱूद्रपुर पहुंचे और वहां आमरण अनशन शुरू हो गया। आनन फान में पुलिस ने घेराबंदी कर दी और अनशन में बैठे तमाम आंदोलनकारियों और बाकी शरणार्थियों को ट्रकों में भर भरकर करीब तीस मील दूर केलाखेड़ा के जंगल में छोड़ आये। १९५६ में यह हुआ। बरेली से पीटीआई के संवाददाता एनएम मुखर्जी ने यह खबर फ्लैश कर दी। तब जाकर शरणार्थियों की सारी मांगें मान ली गयीं।
यह कथा हमारे जन्मने से पहले की है। आंदोलन के फलस्वरूप तीन गांव बसंतीपुर, पंचानन पुर और उदयनगर बसाये गये। हमारे गांववालों ने हमारी माताजी बसंती देवी के नाम पर यह गांव बसाया। हम लोग आंदोलन के बच्चे हैं और पुलिस से कभी डरे नहीं। बसंतीपुर में तबसे लेकर आजतक पुलिस को घुसने की इजाजत नहीं है। पुलिस को गांव के बाहर ही अपना काम निपटाना होता है। इस कारण न हमारे यहां एक दूसरे के खिलाफ कोई केस दर्ज हुआ और न मुकदमाबाजी हुई और न बेदखली। आंदोलन के दौरान जन्मे थे दिनेशपुर हाई स्कूल से लेकर डीएसबी तक और हमारे मित्र हरेकृष्ण ढाली। उस दौरान हुए जन्म मृत्यु को आंदोलन से जोड़कर याद रखते हैं लोग। विजयनगर कैंप में बिशाखा, कमला और रणजीत का जन्म हुआ तो गांव बनने के बाद सबसे पहले मेरा। फिर टेक्का उर्फ नित्यानंद और उसके बाद हरि का। अगले साल विवेक का। किसी ने जन्मतिथि दर्ज नहीं की। प्राइमरी स्कूल हरिदासपुर में हमारे गुरूजी ने जन्मतिथि अपने हिसाब से तय कर दी।
यह कथा हमारे जन्मने से पहले की है। आंदोलन के फलस्वरूप तीन गांव बसंतीपुर, पंचानन पुर और उदयनगर बसाये गये। हमारे गांववालों ने हमारी माताजी बसंती देवी के नाम पर यह गांव बसाया। हम लोग आंदोलन के बच्चे हैं और पुलिस से कभी डरे नहीं। बसंतीपुर में तबसे लेकर आजतक पुलिस को घुसने की इजाजत नहीं है। पुलिस को गांव के बाहर ही अपना काम निपटाना होता है। इस कारण न हमारे यहां एक दूसरे के खिलाफ कोई केस दर्ज हुआ और न मुकदमाबाजी हुई और न बेदखली। आंदोलन के दौरान जन्मे थे दिनेशपुर हाई स्कूल से लेकर डीएसबी तक और हमारे मित्र हरेकृष्ण ढाली। उस दौरान हुए जन्म मृत्यु को आंदोलन से जोड़कर याद रखते हैं लोग। विजयनगर कैंप में बिशाखा, कमला और रणजीत का जन्म हुआ तो गांव बनने के बाद सबसे पहले मेरा। फिर टेक्का उर्फ नित्यानंद और उसके बाद हरि का। अगले साल विवेक का। किसी ने जन्मतिथि दर्ज नहीं की। प्राइमरी स्कूल हरिदासपुर में हमारे गुरूजी ने जन्मतिथि अपने हिसाब से तय कर दी।
फिर १९५८ में तेलंगाना के तर्ज पर लालकुआं और पंतनगर के बीच ढिमरी ब्लाक में किसान विद्रोह हुआ, जिसमें सभी समुदायों के किसान जुड़े थे। कम्युनिस्ट पार्टी नैनीताल और किसान सभा की अगुवाई में यह आंदोलन हुआ। पिताजी, पड़ोसी सिख गांव अर्जुनपुर के बाबा गणेशासिंह, प्रेमनगर के जाट किसान चौधरी नेपाल सिंह, नैनीताल के वकील हरीश ढौंढियाल, कामरेड सत्यप्रकाश वगैरह इसके नेता थे। किसान निहत्था थे। उन्होंने जंगल को आबाद करके चालीस गांव बसा लिये। हर परिवार को दस दस एकड़ जमीन। जल्दी ही उप्र पुलिस सक्रिय हो गयी। बरेली, रामपुर, नैनीताल और पीलीभीत की सारी पुलिस फोर्स और पीएसी ने इलाके को घेर लिया। पूरी आबादी को जला दिया गया। जमकर लाठीचार्ज हुआ। हजारों किसान गिरफ्तार हुए। पिताजी भी गिरफ्तार कर लिये गये। पार्टी ने आंदोलन से पल्ला झाड़ लिया। रूद्रपुर थाने में पुलिस ने मार मार कर पिताजी का हाथ तोड़ दिया। आंदोलन के नेताओं पर दस साल तक मुकदमा चला। तब राज्य के गृहमंत्री थे किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह। पुलिस ने सोशलिस्ट नेता परम सत्यवादी राम दत्त जोशी की मौजूदगी में पिताजी के हाथ तोड़े। लेकिन वे गवाही से मुकर गये। चरण सिहं ने तो विधान सभा में कह दिया कि ऐसी कोई वारदात नहीं हुई। बाबा गणेशा सिंह ने जेल में दम तोड़ा।
सत्तर के दशक तक तराई के रायसिख गांवों, जिनमें हमारे पड़ोसी गांव अमरपुर, अर्जुनपुर और रायपुर शामिल है, से किसानों को उठाकर हाजत में जमा रखने का रिवाज था। गिरफ्तारी का कोटा पूरा करने के लिए तराई के विभिन्न थानों में इन कैदियों की सुपुर्दगी होती है। साठ के दशक में ही पुनर्वास विभाग के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे एक शरणार्थी नेता को रात के अंधेरे में पुलिस उठा ले गयी। इस वक्त उनका नाम याद नहीं आ रहा। पिताजी इसके बावजूद पुलिस से जनसंपर्क बनाये रकते थे। तब शायद मैं कक्षा छह का छात्र था। इलाके में बढ़ते अपराधों के खिलाफ पिताजी ने एक अर्जी प्रधानमंत्री से लेकर कमिश्नर जिलाधीश तक को लिखी। उसकी प्रतिलिपि पहुंचाने के लिए मुझसे रुद्रपुर थाने जाने के लिए कहा गया। मैं ऐसे काम खुशी खुशी करता था। लेकिन गालियों की बौछार के बीच थाने में हमारा जो स्वागत हुआ, उससे पुलिस के बारे में हमारी राय खराब हो गयी। १९७० में हमने खुद दिनेशपुर हाई स्कूल में हड़ताल का नेतृत्व किया। सत्तर के दशक में आंदोलनों का दौर था। पर पुलिस से १९७८ में वनों की नीलामी के खिलाफ प्रदर्शन और नैनीताल क्लब में आगजनी कांड से पहले कभी हम लोगों की मुठभेड़ नहीं हुई। जबकि नक्सली आंदोलन की वजह से तराई में थोक दरों पर किसानों की धर पकड़ जारी थी।
फिर १९८० से हम पत्रकार हो गये। झारखंड में चार साल तक देखते रहे कि पुलिस आदिवासियों के साथ क्या क्या सलूक करती है। लिखते भी खूब रहे। १९८४ से १९९० में मेरठ में रहकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ पुलिस के रवैये का चशमदीद गवाह बनना पड़ा। इस पर मेरी लंबी कहानी 'उनका मिशन में' काफी ब्यौरा दिया गया है। खास बात है कि इसी दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी से स्नातकोत्तर कृष्णप्रताप, जिनकी साहित्य में रुचि रही है, पुलिस में अफसर हो गये और मुठभेड़ में अपने ही साथियों द्वारा मार गिराये गये। कृष्णप्रताप के ही साथी विभूति नारायण तब गाजियाबाद में पुलिस प्रमुख थे, जब मेरठ में हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार हुए। विभूति ने हिंडन नहर से लाशें न निकाली होतीं, तो हाशिमपुरा कांड रफा दफा हो ही गया था। विभूति जैसे अफसरान बाद में भी बहुत मिले। झारखंड और बंगाल में भी। कोलकाता में नजरूल इस्लाम तो बाकायदा साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं। पर राजनीति उन पर इतना हावी है कि इस सिलसिले में वे कुछ भी नहीं कर सकते। दमयंती सेन का हश्र हमने अभी अभी देखा है।
सत्तर के दशक तक तराई के रायसिख गांवों, जिनमें हमारे पड़ोसी गांव अमरपुर, अर्जुनपुर और रायपुर शामिल है, से किसानों को उठाकर हाजत में जमा रखने का रिवाज था। गिरफ्तारी का कोटा पूरा करने के लिए तराई के विभिन्न थानों में इन कैदियों की सुपुर्दगी होती है। साठ के दशक में ही पुनर्वास विभाग के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे एक शरणार्थी नेता को रात के अंधेरे में पुलिस उठा ले गयी। इस वक्त उनका नाम याद नहीं आ रहा। पिताजी इसके बावजूद पुलिस से जनसंपर्क बनाये रकते थे। तब शायद मैं कक्षा छह का छात्र था। इलाके में बढ़ते अपराधों के खिलाफ पिताजी ने एक अर्जी प्रधानमंत्री से लेकर कमिश्नर जिलाधीश तक को लिखी। उसकी प्रतिलिपि पहुंचाने के लिए मुझसे रुद्रपुर थाने जाने के लिए कहा गया। मैं ऐसे काम खुशी खुशी करता था। लेकिन गालियों की बौछार के बीच थाने में हमारा जो स्वागत हुआ, उससे पुलिस के बारे में हमारी राय खराब हो गयी। १९७० में हमने खुद दिनेशपुर हाई स्कूल में हड़ताल का नेतृत्व किया। सत्तर के दशक में आंदोलनों का दौर था। पर पुलिस से १९७८ में वनों की नीलामी के खिलाफ प्रदर्शन और नैनीताल क्लब में आगजनी कांड से पहले कभी हम लोगों की मुठभेड़ नहीं हुई। जबकि नक्सली आंदोलन की वजह से तराई में थोक दरों पर किसानों की धर पकड़ जारी थी।
फिर १९८० से हम पत्रकार हो गये। झारखंड में चार साल तक देखते रहे कि पुलिस आदिवासियों के साथ क्या क्या सलूक करती है। लिखते भी खूब रहे। १९८४ से १९९० में मेरठ में रहकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ पुलिस के रवैये का चशमदीद गवाह बनना पड़ा। इस पर मेरी लंबी कहानी 'उनका मिशन में' काफी ब्यौरा दिया गया है। खास बात है कि इसी दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी से स्नातकोत्तर कृष्णप्रताप, जिनकी साहित्य में रुचि रही है, पुलिस में अफसर हो गये और मुठभेड़ में अपने ही साथियों द्वारा मार गिराये गये। कृष्णप्रताप के ही साथी विभूति नारायण तब गाजियाबाद में पुलिस प्रमुख थे, जब मेरठ में हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार हुए। विभूति ने हिंडन नहर से लाशें न निकाली होतीं, तो हाशिमपुरा कांड रफा दफा हो ही गया था। विभूति जैसे अफसरान बाद में भी बहुत मिले। झारखंड और बंगाल में भी। कोलकाता में नजरूल इस्लाम तो बाकायदा साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं। पर राजनीति उन पर इतना हावी है कि इस सिलसिले में वे कुछ भी नहीं कर सकते। दमयंती सेन का हश्र हमने अभी अभी देखा है।
यही वह यक्ष प्रश्न है जिसके मुकाबले खड़ा करने के लिए आपको हम अपने अतीत की झांकियां दिखा रहे थे। पश्चिमी देशों में नागरिकों के लिए पुलिस को जब सबसे बड़ा दोस्त माना जाता है, तब तीसरी दुनिया में खासकर बारत में पुलिस क्यों जनता की सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है? शरणार्थी आंदोलनों से पहले जारी था तेभागा, फिर खाद्य आंदोलन और फिर आया सत्तर का दशक, पुलिस को नरसंहार संस्कृति का मुख्य हथियार बना दिया गया। जैसे कि पुलिस वालों के पास न दिल होता होगा और न दिमाग। अच्छा पुलिसवाला तो सिर्फ हिंदी फिल्मों में ही नजर आता है। समूचा हिमालय, मध्य भारत और पूर्वोत्तर ने पुलिस का यह विश्वरुप दर्शन किया है।बंगाल में हमारे यहां सिंगूर, लालगढ़ और नंदीग्राम के ताजा उदाहरण हैं।
१९७७ में मध्यावधि चुनाव के बाद नैनीताल जिले में उभरते हुए युवा नेता की हैसियत हो गयी थी हमारी। तब हम डीएसबी में बीए पाइनल ीअर के छात्र थे।हमें वोट देने का अधिकार भी न था। तब नेताओं को कुर्सी के लिए कुत्तों की तरह जैसे लड़ता देखा, सत्ता की राजनीति के प्रति ऐसी घृणा हो गयी है कि इस जनम में कत्म नहीं होने वाली। तब बसंतीपुर में रणजीत का परिवार खलिहान में रहा करता था। रात को उसके घर डकैती हो गयी। हल्ला सुनकर गांववाले जबतक वहां पहुंचते, डकैत भाग चुके थे। जाते जाते वे रणजीत की टांग तोडड़ गये। जख्मी रणजीत को लेकर जब हम रूद्रपुर थाने पहुंचे, तो पुलिस ने एफआईआर लिखते वक्त बसंतीपुर के ही लोगों के खिलाफ नामजद रपट लिखवाने की जिद पकड़ लीष जाहिर है कि हम तैयार नहीं हुए। क्योंकि गांववालों को इस कांड में शामिल करके पुलिस कार्रवाई कर लेने की रस्म अदायगी कर लेना चाहती थी। हम लोगों ने सख्त एतराज कियया। पुलिस ने एफआईआर अग्यात हमलावरों के खिलाफ जरूर दर्ज कर ली, पर कोई पड़ताल, कोई तहकीकात नहीं हुई।
पिछले १९९१ साल से बंगाल में देख रहा हूं कि कैसे बिना राजनीतिक हरी झंडी के पुलिस कुछ भी करने को तैयार नहीं होती। जनरल डायरी तक नहीं ली जाती। एफआईआर तो दूर की बात है। बाकी देश में भी हाशिये पर खड़े नब्वे फीसद जनता का एफआईआर तक लिखा नहीं जाता। पुलिस की मर्जी मुताबिक केस बनता है। यह सबक तराई में हमारे लोगों ने हमारे जनम से पहले सीख लिया था। पर बंगाल में कार्टून कांड में प्रोफेसर की पिटाई और गिरफ्तारी के बाद ऐसा लगता है कि जैसे यह ययहां पहली बार हो रहा है। जब जादवपुर विश्वविद्यालय के रसायन विभाग के अध्यापक के साथ ऐसा हो रहा हो, तब लालागढ़ के आदिवासियों के साथ क्या होता होगा?
पिछले १९९१ साल से बंगाल में देख रहा हूं कि कैसे बिना राजनीतिक हरी झंडी के पुलिस कुछ भी करने को तैयार नहीं होती। जनरल डायरी तक नहीं ली जाती। एफआईआर तो दूर की बात है। बाकी देश में भी हाशिये पर खड़े नब्वे फीसद जनता का एफआईआर तक लिखा नहीं जाता। पुलिस की मर्जी मुताबिक केस बनता है। यह सबक तराई में हमारे लोगों ने हमारे जनम से पहले सीख लिया था। पर बंगाल में कार्टून कांड में प्रोफेसर की पिटाई और गिरफ्तारी के बाद ऐसा लगता है कि जैसे यह ययहां पहली बार हो रहा है। जब जादवपुर विश्वविद्यालय के रसायन विभाग के अध्यापक के साथ ऐसा हो रहा हो, तब लालागढ़ के आदिवासियों के साथ क्या होता होगा?
किसी अपराध की सूचना जब किसी पुलिस ऑफिसर को दी जाती है तो उसे एफआईआर कहते हैं। यह सूचना लिखित में होनी चाहिए या फिर इसे लिखित में परिवतिर्त किया गया हो। एफआईआर भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुरूप चलती है। एफआईआर संज्ञेय अपराधों में होती है। अपराध संज्ञेय नहीं है तो एफआईआर नहीं लिखी जाती। कार्टून शेयर करने के आरोप में पुलिस ने अध्यापक को गिरप्तार तो कर लिया पर उनपर हमला करने वालों के खिलाफ जनरल डायरी तक नहीं ली। बाद में जब तीखी प्रतिक्रियाएं विश्वव्यापी होने लगी , तब जकर प्रोफेसर की रिहाई के बाद यह एफआई आर लिखी गयी।कार्टून शेयर करने के आरोप में फंसे प्रोफेसर मामले में ममता बनर्जी को अपनों से भी खरी-खोटी सुननी पड़ रही है। प्रोफेसर की गिरफ्तारी की चौतरफा निंदा हो रही है। विपक्षी पार्टियों के अलावा अब ममता की पार्टी के बागी सांसद कबीर सुमन ने ममता राज पर निशाना साधा है और उनके इस कदम को गलत करार दिया है। तृणमूल के बागी सांसद कबीर सुमन ने कहा कि मैंने कार्टून देखा है, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि यह किस प्रकार साइबर अपराध है। यह हास्य व्यंग्य के रूप में बनाया गया है। यदि आज उन्हें गिरफ्तार किया गया है तो कौन जानता है कल हमें भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
इस मामले में एक और नया मोड़ आ गया है जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून बनाकर तृणमूल के निशाने पर आए प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र ने अपनी जान को खतरा बताया है। उन्होंने अपन जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की है। उन्होंने थाने में कई लोगों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई है। पुलिस ने एफआईआर दर्ज होने के बाद तृणमूल के दो कार्यकर्ताओं समेत 4 लोगों का गिरफ्तार कर लिया।यह कवायद ममता बनर्जी की छवि बचाने की राजनीति के तहत की गयी, न कि कानून के हिसाब से। साफ जाहिर है।पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुक्रवार को जादवपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर की गिरफ्तारी का बचाव किया और माकपा पर गैर जरूरी मुद्दों को उठाकर उन्हें बदनाम करने का आरोप लगाया।
अंबिकेश महापात्र के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के चंछ घंटो बाद माकपा को निशाना बनाते हुए ममता ने कहा कि वे कुछ काम नहीं करते सिवाए मुझे घेरने के तरीके सोचने के। इंटरनेट पर ममता के कार्टूनों को प्रसारित करने के आरोप में प्रोफेसर की गिरफ्तारी की बुद्धिजीवियों और वाम दलों ने तीखी भर्त्सना की है। एक जन समारोह में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि वे अपराध करते हैं और एक बार लोगों के गिरफ्तार हो जाने के बाद दिन भर अपने चैनलों में दिखाते रहते हैं। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ने चेतावनी दी कि इस बात के जारी रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी। श्रम मंत्री पुर्णेंदू बोस ने भी गिरफ्तारी को न्यायोचित ठहराया और कहा कि प्रोफेसर ने कार्टून नहीं बल्कि असली तस्वीरों का प्रसार किया जो कि अपमान था।
पश्चिम बंगाल के जादवपुर विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र और उनके पड़ोसी सुब्रत सेनगुप्ता को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, रेलमंत्री मुकुल रॉय व पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी का व्यंग्यात्मक कार्टून बनाकर और उसे सोशल नेटवर्किंग साइट व ई-मेल पर डालना काफी महंगा पड़ा था। पुलिस ने दोनों को कार्टून भेजने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। बाद में अलीपुर कोर्ट ने उन्हें पांच-पांच सौ के निजी मुचलके पर रिहा कर दिया था। लेकिन उनकी गिरफ्तारी और जमानत के बाद से पश्चिम बंगाल की सियासत में उबाल आ गया है और विपक्ष को ममता पर हमला बोलने का मुद्दा मिल गया है।
व्यंग्यात्मक कोलाज भेजने के मामले में फंसे यादवपुर विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्र के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र ने उनके साथ हुई मारपीट को लेकर शुक्रवार देर रात पूर्व यादवपुर थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई। पुलिस ने प्रोफेसर की शिकायत पर तृणमूल कांग्रेस के 4 नेता-कर्मियों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां न्यायाधीश ने सभी को पांच-पांच सौ रुपए के व्यक्तिगत मुचलके पर रिहा कर दिया। जमानती धारा में गिरफ्तार करने के बाद पूरी रात प्रोफेसर को लाकअप में रखने व मारपीट करने वालों को कुछ ही घंटे में जमानत मिल जाने को लेकर पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
महापात्र ने शुक्रवार शाम अदालत से जमानत मिलने के बाद देर रात पूर्व यादवपुर थाने में अपने साथ हुई मारपीट व जबरन मुचलका लिखाने के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई। इसके बाद पुलिस ने अरूप मुखर्जी, अमित सरदार, शेख मुस्तफा व निशिकांत घरुई को गिरफ्तार कर लिया। महापात्र ने शनिवार को बताया कि सोसाइटी के दफ्तर में उन्हें बेरहमी से पीटा गया। कुर्सी उठाकर जान से मारने की धमकी दी गई। उन्होंने पुलिस से अपनी सुरक्षा की गुहार लाई है लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ।
गौरतलब है कि इंटरनेट पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, रेलमंत्री मुकुल राय और पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को लेकर व्यंग्यात्मक कोलाज व फोटो अपलोड कर सोशल नेटवर्किग साइन व ई मेल के माध्यम से भेजने के मामले में प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र व पड़ोसी सुब्रत सेनगुप्ता को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। अलीपुर कोर्ट में दोनों को पेश किया गया तो न्यायाधीश ने व्यक्तिगत मुचलके पर रिहा कर दिया।
[B]आपके अधिकार[/B]
-अगर संज्ञेय अपराध है तो थानाध्यक्ष को तुरंत प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करनी चाहिए। एफआईआर की एक कॉपी लेना शिकायत करने वाले का अधिकार है।
-एफआईआर दर्ज करते वक्त पुलिस अधिकारी अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं लिख सकता, न ही किसी भाग को हाईलाइट कर सकता है।
-संज्ञेय अपराध की स्थिति में सूचना दर्ज करने के बाद पुलिस अधिकारी को चाहिए कि वह संबंधित व्यक्ति को उस सूचना को पढ़कर सुनाए और लिखित सूचना पर उसके साइन कराए।
-एफआईआर की कॉपी पर पुलिस स्टेशन की मोहर व पुलिस अधिकारी के साइन होने चाहिए। साथ ही पुलिस अधिकारी अपने रजिस्टर में यह भी दर्ज करेगा कि सूचना की कॉपी आपको दे दी गई है।
-अगर आपने संज्ञेय अपराध की सूचना पुलिस को लिखित रूप से दी है , तो पुलिस को एफआईआर के साथ आपकी शिकायत की कॉपी लगाना जरूरी है।
-एफआईआर दर्ज कराने के लिए यह जरूरी नहीं है कि शिकायत करने वाले को अपराध की व्यक्तिगत जानकारी हो या उसने अपराध होते हुए देखा हो।
-अगर किसी वजह से आप घटना की तुरंत सूचना पुलिस को नहीं दे पाएं , तो घबराएं नहीं। ऐसी स्थिति में आपको सिर्फ देरी की वजह बतानी होगी।
-कई बार पुलिस एफआईआर दर्ज करने से पहले ही मामले की जांच – पड़ताल शुरू कर देती है , जबकि होना यह चाहिए कि पहले एफआईआर दर्ज हो और फिर जांच – पड़ताल।
-घटना स्थल पर एफआईआर दर्ज कराने की स्थिति में अगर आप एफआईआर की कॉपी नहीं ले पाते हैं , तो पुलिस आपको एफआईआर की कॉपी डाक से भेजेगी।
-आपकी एफआईआर पर क्या कार्रवाई हुई , इस बारे में संबंधित पुलिस आपको डाक से सूचित करेगी।
-अगर थानाध्यक्ष सूचना दर्ज करने से मना करता है, तो सूचना देने वाला व्यक्ति उस सूचना को रजिस्टर्ड डाक द्वारा या मिलकर क्षेत्रीय पुलिस उपायुक्त को दे सकता है, जिस पर उपायुक्त उचित कार्रवाई कर सकता है।
-एफआईआर न लिखे जाने की हालत में आप अपने एरिया मैजिस्ट्रेट के पास पुलिस को दिशा – निर्देश देने के लिए कंप्लेंट पिटिशन दायर कर सकते हैं कि 24 घंटे के अंदर केस दर्ज कर एफआईआर की कॉपी उपलब्ध कराई जाए।
-अगर अदालत द्वारा दिए गए समय में पुलिस अधिकारी शिकायत दर्ज नहीं करता या इसकी प्रति आपको उपलब्ध नहीं कराता या अदालत के दूसरे आदेशों का पालन नहीं करता, तो उस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई के साथ उसे जेल भी हो सकती है।
-अगर सूचना देने वाला व्यक्ति पक्के तौर पर यह नहीं बता सकता कि अपराध किस जगह हुआ तो पुलिस अधिकारी इस जानकारी के लिए प्रश्न पूछ सकता है और फिर निर्णय पर पहुंच सकता है। इसके बाद तुरंत एफआईआर दर्ज कर वह उसे संबंधित थाने को भेज देगा। इसकी सूचना उस व्यक्ति को देने के साथ – साथ रोजनामचे में भी दर्ज की जाएगी।
-अगर शिकायत करने वाले को घटना की जगह नहीं पता है और पूछताछ के बावजूद भी पुलिस उस जगह को तय नहीं कर पाती है तो भी वह तुरंत एफआईआर दर्ज कर जांच – पड़ताल शुरू कर देगा। अगर जांच के दौरान यह तय हो जाता है कि घटना किस थाना क्षेत्र में घटी , तो केस उस थाने को ट्रांसफर हो जाएगा।
-अगर एफआईआर कराने वाले व्यक्ति की केस की जांच – पड़ताल के दौरान मौत हो जाती है , तो इस एफआईआर को Dying Declaration की तरह अदालत में पेश किया जा सकता है।
-अगर शिकायत में किसी असंज्ञेय अपराध का पता चलता है तो उसे रोजनामचे में दर्ज करना जरूरी है। इसकी भी कॉपी शिकायतकर्ता को जरूर लेनी चाहिए। इसके बाद मैजिस्ट्रेट से सीआरपीसी की धारा 155 के तहत उचित आदेश के लिए संपर्क किया जा सकता है।
घटना से आक्रोशित छात्र जहां सड़कों पर उतर आये, वहीं कर्मचारियों ने जुलूस निकाल कर विरोध जताया. इस दौरान प्रशासन के खिलाफ जम कर नारेबाजी की गयी। यह घटना शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों में चर्चा का विषय बनी हुई है। इसे लेकर फिर से राज्य सरकार चौतरफा घिर गयी है. गिरफ्तारी के पूर्व उक्त प्रोफेसर की तृणमूल समर्थित लोगों ने पिटाई भी की थी, जिसके विरोध में छात्रों में गुस्सा है. बुद्धिजीवियों ने अलग-अलग ढंग से इस घटना की निंदा की है।
यादवपुर यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के महासिचव पार्थ प्रतीम विश्वास ने घटना की घोर निंदा की है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में ऐसा कभी नहीं हुआ. कई समाचार-पत्रों व टीवी चैनलों पर भी ऐसी कार्टूननुमा तसवीरें आये दिन दिखायी जाती हैं। हर आदमी का अपना मत होता है. कोई सरकार के पक्ष में तो कोई के खिलाफ मत व्यक्त कर ही सकता है.एक शिक्षक को इस तरह अपराधी बना कर गिरफ्तार करना या उस पर मामला करना न्यायसंगत नहीं है।
वहीं यादवपुर यूनिवर्सिटी कर्मचारी संसद के संयुक्त सचिव जीतेंद्र सिंह का कहना है कि इस घटना के बाद एक शैक्षणिक संस्थान में परिवेश बिगड़ना स्वभाविक है। कई लोग कार्टून बनाते हैं और डाउनलोड भी करते हैं। इंटरनेट पर बहुत कुछ होता है। समाचार पत्रों में भी कार्टून छपते हैं, यह कोई इतना बड़ा अपराध नहीं है कि किसी शिक्षक की पिटाई की जाये या उसको गिरफ्तार किया जाए।
जादवपुर यूनिवर्सिटी कर्मचारी संसद के महासचिव विश्वनाथ राहा के अनुसार परिवर्तन का मतलब यह नहीं कि गणतंत्र की हत्या की जाये। कभी कर्मचारियों की तनख्वाह काटी जा रही है तो कभी शिक्षकों की पिटाई की जा रही है। एक साजिश के तहत इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। इंटरनेट से कई लोग जुड़े हैं। मजाक के तौर पर कार्टून बनाते हैं और भेजते हैं, इसको अपराध नहीं माना जा सकता है।
शिक्षक अमलान दासगुप्ता का कहना है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और ज्योति बसु जैसों के भी काटरून बनाये गये थे. काटरून कई जगह प्रकाशित भी होते हैं, तो क्या छापने वाले को गिरफ्तार किया जाता है। प्रोफेसर की गिरफ्तारी उचित नहीं है। शिक्षक अभिरूप सरकार के मुताबिक गणतांत्रिक व्यवस्था का मतलब यही है कि हर व्यक्ति अपना विचार व्यक्त कर सकता है। इंटरनेट पर कई महान लोगों के काटरून बने हुए हैं। प्रोफेसर के साथ मारपीट और फिर उन्हें गिरफ्तार करना शर्मनाक है।
[B]लेखक पलाश विश्वास पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकर्मी हैं. अमर उजाला समेत कई अखबारों में काम करने के बाद इन दिनों जनसत्ता, कोलकाता में कार्यरत हैं. अंग्रेजी के ब्लॉगर भी हैं. उन्होंने 'अमेरिका से सावधान' उपन्यास लिखा है.[/B]
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