Pages

Free counters!
FollowLike Share It

Wednesday, 18 April 2012

24×7 चिरकुटपंथी : JNU में नये तमाशे पर एक नयी रिपोर्ट


http://mohallalive.com/2012/04/15/khule-mein-rachna-part-2/
 

24×7 चिरकुटपंथी : JNU में नये तमाशे पर एक नयी रिपोर्ट


♦ झेल कुमारी
जेएनयू में साहित्य पर समाज विज्ञान इस कदर हावी रहता है कि अब कैपिटल, प्रिजनर्स नोट्स, वेल्थ ऑफ नेशंस को हिंदी साहित्य के सिलेबस में जोड़ना भर बाकी रह गया है। आप जेएनयू के किसी भी सेमिनार, परिचर्चा, बहस में चले जाइए, समाज, सामाजिकता, हेजेमनी, उपनिवेशवाद, बाजारवाद, स्त्रीवाद, दलित प्रश्न अगर वहां नहीं गिरे तो इसका मतलब है कि आप सेमिनार नहीं, कोई नाटक देखने गये हैं। मार्क्स भी व्याख्यान देने आएं, तो जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र (हिंदी विभाग की टिपिकलता से हट कर जरा सुरुचिपूर्ण नाम है!) का विद्यार्थी यही कहेगा, "कार्ल मार्क्स जी, आपके यहां आने से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई लेकिन आपने कैपिटल में सामाजिकता की परंपरा, मनुष्य का स्वरूप और सृष्टि की उत्पत्ति पर विस्तार से चर्चा क्यों नहीं की?"
जेएनयू में रचनाकारों के साथ संवाद का नया महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भी इसी सोशल साइंस मैनिया की भेंट चढ़ गया है। खुले में रचना भाग 2 के तहत मृदुला गर्ग, प्रियंवद और मनीषा कुलश्रेष्ठ के साथ रखे गये सत्र की भी यही परंपराजन्य परिणति हुई। तीनों रचनाकारों ने अपनी रचना का जो पाठ किया, उससे श्रोता वर्ग इसलिए संपृक्त था क्योंकि उसे वही पूछना था जो उसे पता है। बहरहाल जोरदार बहस शुरू हुई लेकिन अचानक यू टर्न आ गया दोस्तो। प्रियंवद ने पूरे जोश के साथ कहना शुरू किया कि लेखक सत्ता के खिलाफ होता ही है। जो चीजें मनुष्य की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं, वो उनका विरोध करता है। लेकिन श्रीमती सुमन केशरी ने उन्हें बीच में टोकते हुए सवाल किया कि पहले आप ये बताइए कि मनुष्य का स्वरूप क्या है? आप किसे मनुष्य मानते हैं? (इस पर हमने ही ही किया :-) प्रियंवद का मूड भी अचानक टॉप गियर से नीचे आ गया। सवाल भी पूछा तो क्या… लेकिन जैसा कि बॉलीवुड का एक महान गीत है, सैय्यां भए कोतवाल अब डर काहे का… उसी तर्ज पर माननीय पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने पत्नी का दामन थामा और बहस में उन्हें बैक फुट पर धकेल रहे प्रियंवद से खुद दो दो हाथ करने मैदान में उतर गये। उतरे तो हमारा ज्ञान ही बढ़ा। पता चला पितामह भी सत्ता के समर्थक हैं (ये नशा, नशा है ये लोक सेवा आयोग का…) लेकिन बागी लेखक और बांध तोड़ चुकी नदी में ज्यादा अंतर नहीं होता सो प्रियंवद आज फॉर्म में थे। उन्होंने तपाक से स्वतंत्र चुनाव की बात कह दी। अगर आपको धर्म से समस्या है तो उसका विरोध कीजिए, सत्ता से दिक्कत है तो खारिज कीजिए, डर किसका है, मत मानिए और अगर लगता है कि सत्ता का कोई भी रूप सही है, हमें सुविधा पहुंचा रहा है तो मानिए। प्रियंवद तो लगातार तालियां बटोरते रहे लेकिन पितामह पता नहीं बीच में कहां अंतर्धान हो गये।
खैर… बहुत से चिरकुट सवाल किये गये, जो बताने कि जरूरत नहीं। अगला ज्ञानवर्धन मनीषा जी के द्वारा हुआ, जब उन्होंने कहा कि मैं फेमिनिस्ट नहीं हूं। यही बात मृदुला गर्ग ने भी कही। तो मैडम इतने दिनों से जो हिंदी के प्रकाशक, आलोचक और पत्रिकाओं ने स्त्री लेखन की गंध मचा रखी है, तब आपने क्यों कुछ नहीं कहा? स्त्री विशेषांक में कविता-कहानी छपवाने में तो कोई ऐतराज नहीं हुआ। तब तो कोई विरोध नहीं किया? और अगर औरतों पर लिखती हैं और फेमिनिस्ट हैं भी तो सरे आम ये कहना कि "हां मैं फेमिनिस्ट हूं" कोई गुनाह है क्या? खैर अपनी अपनी समझ! वैसे मनीषा जी ने ये भी कहा कि आज का लेखन पीछे की ओर लौट रहा है। अब पहले जैसी रचना नहीं होती, एक तो दोहराये जाने का दबाव दूसरे सोच भी पहले से बदतर हुई है। अच्छे और खराब को अलग करने वाला फिल्टर खत्म हो गया है। पत्रिकाओं में भी यही स्थिति है। सब छप जाता है। इस बातचीत में समाज की अवधारणा, मनुष्य की अवधारणा, धर्म का स्वरूप, इन सब पर परंपरानुसार प्रश्न पूछे गये जिन्हें एंग्री मिडिलएज्ड मैन प्रियंवद ने बड़ी खूबसूरती से फूंक दिया।
तो दोस्तो, मोरल ऑफ द कमेंट्री ये है कि किताबें छपवाने के लिए औरतें भले महिला लेखन की विशेष श्रेणी का प्रयोग करें पर असल में वो इस श्रेणिबद्धता के खिलाफ हैं। "फेमिनिज्म जिस पुरुषविहीन समाज की कल्पना करता है मैं उससे इत्तेफाक नहीं रखती – मनीषा कुलश्रेष्ठ " [पुरुषविहीन पर तवज्जो दी जाए, स्पिवाक माता की पोथी भी देखी जाए] वैसे भी दोस्तो, मुंह से बोलकर क्रांति करने में तो भारतीय लेखक उस्ताद हैं ही, बस वो क्रांति छपने और प्रकाशन के स्तर पर नहीं होनी चाहिए। बाकी तो मामला फिट रहता है। दूसरा मोरल कि यूनिवर्सिटी प्रोफेसर [वर्तमान, भूतपूर्व और अभूतपूर्व] स्वाभाविक रूप से घमंडी होता है, साहित्य का है तो लेखकों को फूटी आंख पसंद नहीं करता, अगर वो उसकी पार्टी के नहीं हैं तो। तीसरा मोरल कि किसी भी ऐसे कार्यक्रम में समय बर्बाद न करें जहां खाने का बेहद लचर इंतजाम हो। स्पेशल कमेंट – मृदुला गर्ग की साड़ी का फैब्रिक और मनीषा की साड़ी का रंग अच्छा था, प्रियंवद … बाई द वे हॉट लग रहे थे!
सभी निष्कर्ष और टिप्पणियां जनता के रुझान के अनुसार है। हमें झेलने के लिए धन्यवाद :-)
झेल कुमारी जेएनयू की हमारी नयी संवाददाता है




No comments:

Post a Comment