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शरणार्थी शिविर में एक दिन | |||
(10:02:08 PM) 21, Mar, 2012, Wednesday | |||
तेजिन्दर | |||
''वह धीरे-धीरे बहुत धीमी गति से अपनी बड़ी गहरी धंसी हुई पीली उदास आंखों से मुझे घूरता हुआ चला आ रहा था, उसकी टांगें कमजोर थीं, जैसे धरती पर कोई अदृश्य ताकत उसे लुढ़का रही हो मेरे पास और मेरा दुख यह था कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता था, उसके लिए। यहां तक कि मैं उसे छू भी नहीं सकता था ठीक से, मुझे डर लगता था, वह पहले ही काफी टूटी-फूटी हालत में था और जाहिर है कि मैं भी...।'' यह दृश्य तमिलनाडु में रामेश्वरम के पास उस शरणार्थी शिविर का है, जहां श्रीलंका में जाफना से आए तमिल शरणार्थियों को बसाया गया है। इस शिविर के अंदर जाना बहुत कठिन काम था। मेरे साथ एक पुलिस इंस्पेक्टर को डयूटी पर लगाया गया था, जो मुझसे अंग्रेजी में और उन तमिल शरणार्थियों से तमिल में बात कर सकता था। सब से पहले मुझे शिविर के बाहर एक छोटे से कमरे में लगे उप-दंडाधिकारी के कार्यालय में ले जाया गया जहां उस युवा अधिकारी ने पहला ही सवाल पूछा - ''व्हाय डु यू वांट टू मीट दिस अपरूटेड पीपल,'' मेरे पास उसकी बात का कोई सीधा जवाब नहीं था। मैं लगभग हड़बड़ा गया था। मैं चुप रहा। फिर संभवत: उस युवा अधिकारी ने मन ही मन चेन्नई के अपने एक उच्च पुलिस अधिकारी के साथ टेलीफोन पर हुई बातचीत को याद किया होगा और उसने मुझ से बैठने के लिए कहा। पांच मिनट के अंदर ही उसने सील-ठप्पा लगवा कर और मुझ से दस्तखत लेकर एक कागज मेरे हाथ में दे दिया जिस के आधार पर मैं अगले तीन घंटे के लिए, उस मांडपम शिविर में कहीं भी जा सकता था। यह किस्सा सन् 2006 का है, तब श्रीलंका में विद्रोही तमिलाें के नेता और लिबरेशन टाईगर्स ऑफ तमिल एलम के नेता प्रभाकरन अभी जीवित थे और राष्ट्रपति राजपक्षे द्वारा तमिल-आंदोलन को कुचल कर खत्म कर देने की घोषणा अभी नहीं की गई थी। श्रीलंका में मानव अधिकारों के हनन के मामले नये नहीं हैं, और इस पर अंतर्राष्ट्रीय जगत में काफी शोर-शराबा भी हुआ है पर वहां तमिलों के साथ बर्बर और अन्यायपूर्ण व्यवहार लगातार जारी है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि श्रीलंका के तमिल अपने आप को मूल श्रीलंकाई नागरिक मानते हैं और उनका यह भी मानना है कि श्रीलंकाई सिंहली बाहर से आये हुए मछुआरे हैं। उसमें क्या सच है और क्या नहीं, यह तो इतिहास के शोधार्थियों की शोध का विषय है पर फिलवक्त दो तथ्य हमारे सामने हैं, एक तो यह कि श्रीलंका में सिहंली बहुमत है और दूसरे यह कि सिर्फ जाफना का क्षेत्र ऐसा है जहां तमिलभाषी बहुमत में है, और उन्हें लगता है कि उनके साथ, उनकी संस्कृति के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। जाहिर है इस बात में सच्चाई है और वे तमाम चित्र जो हमारे सामने टेलीविजन या समाचार पत्रों के माध्यम से हमारे सामने आ रहे हैं, इस सच्चाई का बयान करते हैं। हमारे यहां तमिलनाडु में सरकार चाहे द्रमुक की हो अथवा अन्ना द्रमुक की, दोनों ही राजनैतिक दलों की स्वाभाविक चिंता श्रीलंकाई तमिल जनसंख्या की दशा सुधारने में है। एक अन्य नेता वाईको तो इस संबंध में काफी मुखर हैं। तमिलनाडु के लगभग सभी राजनैतिक दलों द्वारा मांग की जा रही है कि श्रीलंका को संयुक्त राष्ट्रसभा के उस प्रस्ताव को मान कर उसका क्रियान्वयन करना चाहिए जिसमें कहा गया है कि, अन्यायपूर्ण मौतों, लोगों के लापता हो जाने, उत्तरी श्रीलंका से सैनिकों को हटाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल करने और राजनैतिक समाधान की दिशा में आगे सकारात्मक काम किये जाने की ारूरत है। प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि घरेलू जांच आयोग की सलाह को माना जाए और इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के मानवीय अधिकारों से संबंधित दूतावास की मदद ली जानी चाहिए। प्रस्ताव में श्रीलंका सरकार से अपेक्षा की गई है कि वह मानवीय अधिकारों के हनन संबंधी आरोपों की जांच अंतर्राष्ट्रीय नियमों के तहत करवायें। श्रीलंका सरकार का आरोप यह है कि उनके साथ भेदभावपूर्ण नीति अपनाई जा रही है और उन्हें शेष विश्व से अलग-थलग करके देखा जा रहा है। भारत सरकार की नीति कु छ अधिक ही निष्पक्ष बने रहने की है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का कहना है कि हम टकराव नहीं चाहते और श्रीलंका की सरकार से इस मामले में सुधारात्मक कदम उठाने की पहल करने की अपेक्षा करते हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी लोकसभा में स्पष्ट किया कि ''यह हमारी पारंपरिक नीति है कि हमने संयुक्त राष्ट्र मानवीय अधिकार परिषद के किसी भी ऐेसे प्रस्ताव का समर्थन कभी नहीं किया जिसका संबंध किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र से हो।'' वैसे यह बात कुछ अस्पष्ट सी है। भारत ने एक बड़ा पड़ोसी राष्ट्र होने के नाते श्रीलंका के लिए क्या कुछ नहीं किया? अपनी सेना, ''इंडियन पीस कीपिंग फोर्सेज'' (भारतीय शांति सेना) को वहां भेजा और बदले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की हत्या बेहद घृणास्पद स्थितियों में हो गई। मुझे लगता है कि हमें श्रीलंका में तमिल नागरिकाें के स्वाभिमान, उनके मानवीय अधिकारों और उन पर होने वाले सैनिक-अत्याचारों को लेकर पंरपरावादी सोच से हटकर, एक दूरदर्शी नीति अपनानी होगी। इस तरह अपनी आंखें बंद करके देखने की कोशिश से कुछ भी दिखाई नहीं देगा और सिर्फ धुंधलके में तीर चलाने से, वे अपने ही लोगों के छाती में जा लगेंगे। मांडपम शिविर में सन् 2006 में जिन लोगों की दारूण कथाएं मैंने सुनी हैं, उसके बाद तर्क के रास्ते बंद होते हुए दिखाई देते हैं। चौंतीस वर्षीय मनियम को जब जाफना के एक गांव से ट्रक में लाद कर समुद्र तट तक लाया गया तो वह लगभग अर्ध-विक्षिप्त हो चुका था, क्योंकि उसने अपनी आंखों के सामने अपनी गर्भवती पत्नी को गोलियों से छलनी और लहू-लुहान देखा था। सत्तर साल का एक बूढा जो कि वैसे ही कमजोर था, उसकी टांगों पर इतनी बेरहमी से पिटाई की गई थी कि उसके पास जमीन पर घिसट-घिसट कर चलने और जीवित रहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। ऐसे कई लोग थे, बूढे, बच्चे, महिलाएं और युवा जिन्हें कि सिर्फ उम्र के मान से ही युवा कहा जा सकता था। युवावस्था का बुढ़ापा अधिक द्रवित करता है और मांडपम शिविर में ऐसे चेहरों की बहुतायत थी। कोई एक उम्मीद की किरण उनके अंदर थी, जो कि बेहद मानवीय थी, जिसके सहारे वे जी रहे थे। एक आदमी से मैं मिला जो कि श्रीलंका में ईंटों की जुड़ाई यानि कि मकान बनाने के मिस्त्री का काम किया करता था, उसने मांडपम के बाहर एक बस्ती में अपने लिये काम ढूंढ लिया था और शिविर के बाहर जाने पर चूंकि पांबदी थी, इसलिए उसने गेट पर तैनात सिपाही को अपनी कमाई का आधा हिस्सा देना शुरू कर दिया था। जीने के लिए मनुष्य की जिजीविषा का संभवत: कोई जवाब नहीं। धनुषकोडि के पास जाने कितने ही लगभग मरणासन्न लोगों को मैंने देखा है जो मांडपम जैसे शिविरों में पहुंचने के बाद पुर्नजीवित हो उठे। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि के लिए अपने एक पत्र में कहा है कि- ''हम श्रीलंका के तमिल समुदाय के लिए बेहतर भविष्य चाहते हैं, हम चाहते हैं कि वे समानता, गरिमा और न्यायपूर्ण तथा स्वाभिमान से भरा जीवन जी सकें।'' यह सच है पर क्या हमारे परंपरावादी रुझान के साथ यह संभव है? हमें इस प्रश्न पर गहराई के साथ विचार करना होगा। tejinder.gagan@gmail.com |
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