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Monday 20 February 2012

सन् 1885 में हल्द्वानी में टाउन एक्ट लागू हुआ। 1 फरवरी 1897 को इसे म्युनिसिपैलिटी बनाया गया, किन्तु 1904 में इसे नोटीफाइड एरिया बना दिया गया। 1917 में इसे फिर म्युनिसिपैलिटी का दर्जा दिया गया। 21 दिसम्बर 1942 को काठगोदाम क्षेत्र इसमें शामिल कर हल्द्व


सन् 1885 में हल्द्वानी में टाउन एक्ट लागू हुआ। 1 फरवरी 1897 को इसे म्युनिसिपैलिटी बनाया गया, किन्तु 1904 में इसे नोटीफाइड एरिया बना दिया गया। 1917 में इसे फिर म्युनिसिपैलिटी का दर्जा दिया गया। 21 दिसम्बर 1942 को काठगोदाम क्षेत्र इसमें शामिल कर हल्द्वानी-काठगोदाम नगरपालिका का गठन हुआ।



घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी . 5

लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 11 || 15 जनवरी से 31 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 : February 3, 2012  पर प्रकाशित
haldwaniसन् 1885 में हल्द्वानी में टाउन एक्ट लागू हुआ। 1 फरवरी 1897 को इसे म्युनिसिपैलिटी बनाया गया, किन्तु 1904 में इसे नोटीफाइड एरिया बना दिया गया। 1917 में इसे फिर म्युनिसिपैलिटी का दर्जा दिया गया। 21 दिसम्बर 1942 को काठगोदाम क्षेत्र इसमें शामिल कर हल्द्वानी-काठगोदाम नगरपालिका का गठन हुआ। 1956 में इसे द्वितीय श्रेणी का दर्जा दिया गया तथा 1966 में यह प्रथम श्रेणी की नगरपालिका घोषित हुई। 21 मई 2011 को हल्द्वानी नगरपालिका परिषद को नगर निगम का दर्जा दे दिया गया, हालाँकि मामला अभी अदालत में उलझा हुआ है। दयाकृष्ण पाण्डे का पालिकाध्यक्ष के रूप में कार्यकाल 1946 से 1952 तथा 1954 से 1957 तक रहा। 1 नवम्बर 1942 से 15 मार्च 1943 तक चौ. श्याम सिंह, 16 मार्च 1943 से 9 सितम्बर 1946 तक मुरली मनोहर माथुर, 28 मई 1952 से 31 दिसम्बर 1953 तक घनानन्द पांडे, 19 जून 1957 से 14 मई 1958 तक हीरा बल्लभ बेलवाल, 15 मई 1958 से 30 जनवरी 1964 तक नन्द किशोर खंडेलवाल, 31 जनवरी 1964 से 17 सितम्बर 1967 तक हीरा बल्लभ बेलवाल, 25 जुलाई 1967 से 31 जुलाई 1968 तक मोहम्मद अब्दुल्ला, 31 जुलाई 1968 से 11 अगस्त 1977 तक हीरा बल्लभ बेलवाल नगरपालिका के अध्यक्ष रहे।
हीरा बल्लभ बेलवाल खुशमिजाज व सामाजिक सरोकारों में दिलचस्पी लेने वाले व्यक्ति थे। मैं 1968-69 में जब उनके करीब साहूकारा लाईन में रहता था तब वे हर जलसे में मुझे साथ रखते थे। होली मिलन हो या दीपावली में रात भर नगर के गणमान्य लोगों को बिठा कर ताश खेलना हो, ईद मिलन हो, कवि सम्मेलन या मुशायरा हो, कव्वालियाँ हों, वे सब जगह पहुँचते थे। तब सामाजिक कार्यक्रम राजनीति से तय नहीं हुआ करते थे और न फोटो खिंचवा कर अखबारों में छपवाने का फैशन था। 1977 के बाद 11 साल तक नगरपालिका के चुनाव नहीं हुए। 11 साल बाद 24 नवम्बर 1988 से 19 जनवरी 1994 तक नवीन चन्द्र तिवारी, 5 मार्च 1997 से 15 मार्च 2003 तक बेलवाल जी की पुत्रवधू सुषमा बेलवाल, 8 फरवरी 2003 से 14 फरवरी 2008 तक हेमन्त सिंह बगड्वाल और अब रेनू अधिकारी अध्यक्ष हैं।
जो तवायफों के लिए ग्राहक ढूँढा करते या हुक्का-चिलम भरा करते थे, आजादी के बाद वे नामवर बन गए। लेकिन आजादी के लिए दीवानगी की हद पार करने वालों की स्मृतियाँ तक मिट गई हैं। हल्द्वानी का स्वराज्य आश्रम उन दीवानों का मूक गवाह है। कुमाऊँ में आजादी के सारे केन्द्रों की धुरी यह स्वराज्य आश्रम रहा। हल्द्वानी में कांग्रेस की स्थापना इसी स्वराज्य आश्रम में हुई थी। गोविन्द बल्लभ पन्त, बाबू राम कप्तान और रामशरण सारस्वत ने यहाँ कांग्रेस की अलख जगाई। कुमाऊँ में कांग्रेस का जो महत्वपूर्ण सम्मेलन 1917 में अल्मोड़ा में हुआ, अगले वर्ष सन् 1918 में वह इस स्वराज्य आश्रम में हुआ। उसके बाद 1919 में कोटद्वार, 1920 में काशीपुर, 1923 में टनकपुर तथा 1926 में गनियाद्योली (रानीखेत) में हुआ। क्रान्तिकारियों का ऐसा कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता कुछ जीवित लोगों की जुबानी बहुत सी बातें हमने सुनी हैं। उनमें से एक तुंगल सिंह चौहान अभी जीवित हैं। तुंगल सिंह और उनकी पत्नी दोनों जेल में रहे, जहाँ उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। इस आश्रम से समाजवादी और क्रांतिकारी मदनमोहन उपाध्याय (रानीखेत), गोविन्द बल्लभ पन्त, श्यामलाल वर्मा, ज्ञान सिंह अधिकारी, गंगादत्त पांडे, देवीलाल शर्मा, तारादत्त शर्मा, श्रीराम शर्मा, खुशी राम, बचीराम सुपरवाइजर, भागीरथी देवी, रेवती देवी, इन्दरमन भुर्जी, शंकर सिंह पहलवान, गंगाराम पटवा, धर्मवीर सिंह वैद्य, सदानन्द दुम्का, सत्यपाल, याकूब खान, अब्दुल सलाम, सन्तराम शर्मा, भूमित्र आर्य, बंशीधर गुणवन्त, रघुनाथ वर्मा, हीरा बल्लभ बेलवाल, भूप्रकाश कंसल, धनसिंह नेगी, बालकृष्ण आजाद, बालकिशन सनवाल, पीताम्बर पांडे पत्रकार, सीतावर पन्त, अब्दुल मजीद, श्रीराम गुप्ता, मथुरा दत्त दुर्गापाल, मोहनलाल पहलवान, पीताम्बर सनवाल, हरकिशन दास मेहरोत्रा, नन्दन सिंह बिष्ट, माम चन्द, शंकर लाल हलवाई, शंकर लाल अग्रवाल आदि दर्जनों संग्रामियों की यादें जुड़ी हैं। इन में से एक नाम है हल्दूचौड़ के 19 वर्षीय राधापति दुम्का का, जो नैनीताल जेल में भूख हड़ताल करते हुए शहीद हो गए।
स्वराज आश्रम रामचन्द्र पहलवान का अखाड़ा भी हुआ करता था। गांधी जयन्ती पर यहाँ चर्खा दंगल का आयोजन भी हुआ करता था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान महिलाओं में राजनैतिक व सामाजिक चेतना बढ़ाने को स्वराज आश्रम में प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम चलाया गया। इस कार्य में शोभावती मित्तल तथा उनके पति मदन मोहन मित्तल का बड़ा योगदान था। बाद में इस विद्यालय को नगरपालिका सराय में ले जाया गया और वर्तमान ललित आर्य महिला इंटर कालेज की नींव पड़ी। मूल रूप से जानसठ (मुजफ्फरनगर) निवासी शोभावती मित्तल को 1930 में मेरठ में नमक सत्याग्रह में 6 माह की कैद हुई। 1931 में निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने पर पुनः जुर्माने सहित 6 माह की कैद हुई। जुर्माना अदा न करने पर 45 रुपये में घर का सारा सामान नीलाम कर दिया गया। 1935 में वे हल्द्वानी आ गयीं। यहाँ पर भी व्यक्तिगत सत्याग्रह करे। 1941 में उन्हें 3 माह की कैद हुई। 10 अगस्त 1942 को जंगल के ठेकों के विरुद्ध सत्याग्रह करने पर भी उनकी गिरफ्तारी हुई। कालाढूंगी रोड कें ऐशबाग मुहल्ले में जहाँ मेरा संस्थान है, उसमें सालम क्रांति के अग्रदूत रेवाधर पांडे के छोटे भाई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नारायण दत्त पांडे रहते थे। रेवाधर पांडे अक्सर उनके पास आते रहते। उन्हें विभिन्न आन्दोलनों के सिलसिले में फाँसी की सजा सुनाई गई, जो बाद में आजीवन कारावास में बदल गई। मगर वे फरार रह कर आन्दोलन की अलख जगाते रहे।
स्वराज आश्रम में एक प्रिटिंग प्रेस था। 1952-53 में नारायण दत्त भंडारी ने यहाँ से 'कर्मभूमि' अखबार निकाला। फिर अखबार बंद कर ऐश बाग के पुराने बंगलेनुमा भवन में महात्मा गांधी विद्यालय शुरू किया, जिसे बाद में बरेली रोड में वर्तमान स्थान पर ले जाया गया। ऐशबाग वाला यह स्थान बहुत वर्षों तक गोदाम के रूप में जिला परिषद में रहा। अब यह बंगला पूर्व पालिका सभासद किरन चन्द्र पांडे के हिस्से में है। स्वराज आश्रम की बेकार पड़ी प्रिंटिंग मशीन, टाइप, कटिंग मशीन वगैरह को जगदम्बा प्रेस के मालिक पद्मदत्त पन्त ने खरीद लिया। स्वराज आश्रम, राम मंदिर, बचीगौड़ धर्मशाला, डी. के. पार्क, गुरुद्वारे के आसपास के इलाके में उत्पाती बंदर मौका मिलते ही दुकानों से खाद्य सामग्री, बन-बिस्कुट, फल, अंडे आदि उठा ले जाते हैं। केएमओयू की बसों की छतों पर चढ़ कर भी यात्रियों का सामान टटोलते हैं। इन बन्दरों में एक मोती नाम का समझदार बन्दर आने-जाने वालों को रोक कर पैसे भी लिया करता था और उन पैसों से खाने का सामान खरीदता था। एक बार बंदरों की संवेदनशीलता, आक्रोश व एकता का नजारा देखने को मिला। हुआ यों कि बन्दर का एक बच्चा आर्यसमाज बिल्डिंग के पास किसी गाड़ी के नीचे आकर दब कर मर गया। देखते ही देखते सैकड़ों बन्दर चीखते-चिल्लाते वहाँ पहुँच गए और उस बच्चे को घेर कर बैठ गए। कुछ ही देर में उन्होंने पूरे इलाके में नाकेबंदी कर यातायात अवरुद्ध कर दिया। जब उन्होंने देखा कि तमाशा देखने वाले लोगों की भीड़ जुटने लगी है तो आक्रोशित होकर उन्होंने छतों और घरों की मुंडेरों पर चढ़ कर हिला-हिला कर ईंटें उखाड़ना और पथराव करना शुरू कर दिया। घंटों तक उनका यह उत्पात जारी रहा और बाजार बन्द हो गया।
स्वराज आश्रम के दिनों से आज तक राजनीति में बहुत फर्क आया है। हमारे ही दिनों में अलग-अलग दलों के राजनेता एक साथ बैठा करते थे, एक-दूसरे की बातें सुनते थे। संघ परिवार से जुड़े दान सिंह बिष्ट व सूरज प्रकाश अग्रवाल बराबर सभी सामाजिक गतिविधियों में शामिल हुआ करते थे। उनमें कहीं कट्टरता का भाव नहीं होता था। सतीश अग्रवाल, जिन्होंने कुछ समय 'शैलराज' नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया, हमारे बीच बैठ कर विचारों का आदान-प्रदान करते थे। प्रत्येक दल के राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों को सुनने के लिए बड़ी भीड़ जुटती थी और सभी दलों के लोग वहाँ पहुँचते थे। तब नेताओं को अंगरक्षकों की जरूरत नहीं रहती थी। नैनीताल रोड में 'गणेश मार्का' सरसों के तेल के लिये मशहूर कासगंज (जिला एटा) के महाराज सिंह की 'प्राग आयल डिपो' की दुकान हुआ करती थी। वहाँ पर सी. बी. गुप्ता बैठा करते थे और प्रायः वहाँ से पैदल, लाठी टेकते हुए दो-चार कांग्रसियों के साथ कालाढूँगी रोड पर जेल रोड चौराहे के सामने गंगा दत्त पांडे के घर पर स्थित मंडल कांग्रेस के कार्यालय पहुँच जाया करते। 8 जनवरी 1969 को उप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के वर्तमान स्टेडियम के मैदान में भाषण देते मैंने देखा है। अलबत्ता, प्रधानमंत्री के रूप में 16 जनवरी 1969 को आईं इंदिरा गांधी के लिए बैरीकेडिंग जरूर की गई थी। किन्तु सुरक्षा व्यवस्था कड़ी नहीं थी। आज तो किसी वी.वी.आई.पी. के आने पर सारा शहर संत्रास में घिर जाता है। संभवतः इसी लिये 28 जुलाई 1996 को वन चिकित्सालय का उद्घाटन करने आये प्रधानमंत्री हरदनहल्ली देवगौड़ा को कहना पड़ा था, ''मुझे देखने-सुनने के लिए हजारों लोग सड़कों के किनारे खड़े हैं, लेकिन सभा स्थल पर हजार-पाँच सौ लोग उपस्थित हो पाए हैं। नब्बे करोड़ की जनता का प्रधानमंत्री आम आदमी की बातें सुनने-समझने से वंचित रह जाए और आम आदमी उस तक अपनी भावनायें न पहुँचा सके, इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?'' नैतिकता आज राजनीति से नदारद हो गई है। आज किसी को आबकारी मंत्री बना दिया जाए तो उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ेंगे, मगर जब गोवर्धन तिवारी को आबकारी मंत्री बनाया गया तो वे रो पड़े थे और तीन माह तक उन्होंने पदभार नहीं सम्भाला। गोवर्धन तिवारी के चरित्र का ही असर रहा होगा कि उनके ज्येष्ठ पुत्र विजय कुमार तिवारी अत्यन्त सामान्य ढंग से हल्द्वानी से 'लोकालय' नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकाल रहे हैं। अब तो स्वतःस्फूर्त उत्तराखंड राज्य आन्दोलन में हजारों-हजार की आन्दोलनकारी भीड़ को किनारे कर स्वयं को आन्दोलनकारी कहलाने की होड़ लगी है। उत्तराखंड क्रांति दल ने तक डॉ. डी.डी. पन्त, इन्द्रमणि बडोनी, जसवंत सिंह बिष्ट और बिपिन त्रिपाठी जैसे लोगों की विरासत को भुला कर अपना विद्रूप चेहरा दिखा दिया है।
सन् 60-70 के दशक में मैंने हल्द्वानी में साम्यवादी विचारधारा के उन भटके और पाजी लोगों का जमघट भी देखा, जो काम बिल्कुल नहीं करना चाहते थे। कहते थे कि पूँजीपतियों की सम्पत्ति बाँट ली जानी चहिए। उनमें से जगन उप्रेती जैसे अत्यन्त प्रतिभाशाली, सुर के धनी कलाकार भी थे। ऐसे लोग सुबह और शाम के भोजन के लिए इधर-उधर हाथ पैर मारते और झूठ-सच का सहारा लेते थे। इस ताक में भी रहते थे कि कहीं से दो घूँट शराब की मिल जाए तो साम्यवाद पर भाषण झाड़ सकें। ललित मोहन पांडे कई बार चुनाव में भी खड़े हुए। ठगी ऐसी करते थे कि ठगा जाने वाला उनके किस्से भी सुनाए और हँसे भी। एक बार उन्होंने भूमिहीनों को भूमि दिलाने के नाम पर मेरे नये-नये शुरू हुए छापाखाने से कुछ प्रार्थनापत्र व सार्टीफिकेट छपवाये और तराई में उन्हें बेचने का धंधा शुरू किया। नैनीताल या लखनऊ जाने के नाम पर भी पैसे ठगते रहे। लम्बे इंतजार के बाद भी जब लोगों को न भूमि मिली और न भूमिहीन प्रमाणपत्र तो वे पांडे जी को खोजते हुए उनके कमरे में पहुँचे। वहाँ उन्हें पांडे जी तो नहीं मिले अलबत्ता रद्दी की तौर पर एक पुराने से कनिस्तर में पड़े उनके प्रार्थनापत्र वगैरह अवश्य मिल गये। वे पांडे जी की पिटाई करते इससे पहले ही पांडे जी गायब हो गए। छपाई का बिल आया था, 17 रुपये। वह मुझे कहाँ मिलना था ? बाद में लखनऊ की दारुलशफा में एक विधायक के आवास पर रहते हुए वे पहाड़ से नौकरी की तलाश में वहाँ पहुँचे युवकों को ठगते थे। रामलीला मुहल्ले के, मूल रूप से गंगोलीहाट निवासी लीलाधर पाठक ने के.एम.ओ.यू. वर्कर्स की एक यूनियन बनाई। जहाँ से वे कम्युनिस्ट आन्दोलन चलाया करते थे और जेल जाते रहते थे। बाद में उन्होंने जसपुर में अपना मकान बना लिया। एक थे सत्य प्रकाश, जो ट्रेड यूनियनों की लड़ाई में लगे रहते थे। बहुत से ट्रेड यूनियन लीडर स्वयं को साम्यवाद से जोड़ते थे किन्तु उनका साम्यवाद उतने तक ही सीमित था। व्यावहारिक जीवन में साम्यवाद से उनका कोई मेल नहीं था। सरकार और व्यवस्था के खिलाफ नारे लगाना, धरना-प्रदर्शन ही उनका साम्यवाद था। जीवन का बहुमूल्य हिस्सा इस तरह गँवा देने वाले ऐसे बहुत सारे कम्युनिस्ट बाद में घर वापस जाने के योग्य भी नहीं रह जाते थे, और मुफलिसी का जीवन जी कर लावारिस से मर जाया करते। ताज्जुब की बात है कि उस दौर में हल्द्वानी में मुझे आज के राजा बहुगुणा और बहादुर सिंह जंगी जैसा कोई जुझारू और ईमानदार कम्युनिस्ट नहीं मिला।
राजनीति अब देशी, पहाड़ी, हिन्दू, मुसलमान, पंजाबी, पुरबिया, बंगाली आदि का नारा देकर नफरत पैदा करने लगी है। मगर उस दौर में बहुत सारे लोग थे, जो यहाँ आये तो यहीं के होकर रहे। एक थे चरणजीत शर्मा। मूल रूप से हरियाणा के रहने वाले थे। सभी सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों में बराबर उपस्थित दिखाई देते थे। प्रातः ही कई समाचार पत्र पढ़ डालते और दिन भर उन समाचारों की समीक्षा करते रहते। बड़े निर्भीक थे। पुलिस-प्रशासन खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं हटते थे। किसी राजनैतिक विचारधारा के नहीं थे, लेकिन गलत बात में हस्तक्षेप करना अपना मौलिक अधिकार समझते थे। कहीं कोई सार्वजनिक निर्माण कार्य हो रहा हो और वे लाठी टेक कर वहाँ न पहुँचें, ऐसा नहीं हो सकता था। कार्य की गुणवत्ता ठीक न होने पर वे फौरन शिकायती पत्र सम्बंधित विभाग को भेज देते। शिकायती पत्र भेजने के अलावा उन्हें और किसी प्रकार का व्यसन नहीं था। पुलिस थाना और तमाम कार्यालयों में उनकी शिकायतों की फाइलें बनी हुई थीं। कुछ लोगों का मानना था इन शिकायतों के रूप में वे ब्लैकमेलिंग करते हैं। लेकिन मैंने उन्हें हमेशा निस्वार्थ ही शिकायत करते पाया। आपातकाल के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया। उत्तराखंड क्रान्ति दल का गठन होने पर वे उसमें शामिल हो गए और कई वर्षों तक दल के उपाध्यक्ष रहे। उन्हें इस शहर से बहुत लगाव था। यह मैं तब जान पाया जब बुढ़ापे में वे अपने पुत्र के साथ रहने सहारनपुर चले गए। तब वे नवभारत टाइम्स में छपी मेरी खबरों से यहाँ के हालातों की जानकारी लेकर, बराबर पत्र लिख कर अपनी सहमति-असहमति दर्शाते। 11 सितम्बर 2002 को सहारनपुर में उनका निधन हो गया।
रामपुर रोड में किराये पर रहते हुए उनका मकान मालिक से झगड़ा हो गया। उन्होंने होम मिनिस्ट्री में शिकायत कर दी कि यह व्यक्ति आतंकवादी है। इसके मकान में असलाह रखा हुआ है। एक दिन प्रातः पुलिस ने मकान घेर लिया और शर्मा जी को बुलाया। शर्मा जी की हाजिरजवाबी भी लाजवाब थी। चिल्लाते हुए बोले, ''हरामजादो अब आ रहे हो जब सारा असलाह उठ कर चला गया।'' फिर भी पुलिस वालों ने उस मकान का फर्श तक खोद डाला। एक बार उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री बंशीलाल को पत्र लिखा, ''प्रिय बंशीलाल, तुम्हारे स्टेट की यहाँ जाली लाटरी की टिकटें बिक रही हैं, तुरन्त जाँच करो।'' हरियाणा से पुलिस जाँच दल स्थानीय पुलिस को लेकर उनके घर पर पहुँचा। वे उनको घूरते हुए बोले, ''तो तुम हरियाणा से आये हो ? क्या हालचाल हैं बंशी लाल के ? अब तो खा-खा के मोटा हो गया होगा।'' इस तरह के सम्बोधन से पुलिस वालों को लगा जैसे कि शर्मा जी उनके मुख्यमंत्री के अत्यन्त करीबी हैं। डरते-डरते उसने जाली लाटरी वाली बात उठाई। शर्मा जी लापरवाही से बोले, ''हाँ-हाँ, देखो-देखो, बाजार में देख लो।''
(जारी है)
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