किसी ने कहा कि 14 फरवरी पर कोई आलेख लिख डालूँ। वही वैलेन्टाइन डे यानि प्रणयोत्सव पर। जी हाँ वह दिन आ भी गया था मेरे अन्दर के वैलेन्टाइन ने उबाल नहीं मारा क्योंकि मैं क्रोध की आग में झुलसने पर विवश थी। जब मुझे क्रोध आता है तब सम्बनिधत लोगों को कुत्ते-कमीना शब्दों से अलंकृत करना शुरू कर देती हूँ। मेरा क्रोध बेकाबू है। मेरा कोई वैलेन्टाइन नहीं और न मैं किसी की। भाड़ में जाए वैलेन्टाइन डे। जिसे देखो वही साला लोग धन्नासेठों के मीडिया में जी हुजूरी करता दिखता है। रंगीन बहुपृष्ठीय अखबारों की नुमाइन्दगी करके अपना जीवन धन्य करने वाले सिट्रंगर से लेकर स्थानीय संपादकों (बीच के जिला संवाददाताओं, मुख्य संवाददाताओं, स्टाफ रिपोटर्स, ब्यूरो चीफ सहित) की दशा पर तरस खाना पड़ता है।

कथित ब्राण्डेड प्रिण्ट मीडिया से सम्बद्ध ये लोग 'रोबोट से होकर रह गए हैं जिनका रिमोट संस्थाओं के आकाओं के हाथों में होती है। सीनियर्स से सुना है कि पहले और आज में जमीन आसमान का अन्तर आ गया है। पत्रकारिता का स्तर गिरा है तभीं प्रिण्ट मीडिया की प्रसार संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। पहले मिशन था अब पेश बना हुआ है मीडिया जगत। वैसे कतिपय मेहनती पत्रकारों की मेहनत देखकर प्रतीत होता है कि उनके आगे पीछे अंधेरा ही अंधेरा है वरना वह भी संकीर्णता के दायरे, घुटन भरे माहौल से मुक्ति पा जाते और स्वाभिमानी व्यकित की तरह गरीबी ही सही जीवन तो जीते?

बहरहाल मुझे ऐसों पर तरस आता है। तरस तो उन पर सबसे ज्यादा आ रहा है जो स्थानीय संपादक जैसे अच्छे पैकेज वाले ओहदे पर विराजमान हैं। ऐसे लोगों को भ्रम है कि ये ही उच्च कोटि के कलमकार हैं। हकीकत यह है कि ये सभी उल्लू के ???? हैं। चाटुकारिता के बल पर दीर्घ वेतन भोगी बनकर धन्ना सेठों की गुलामी कर रहे हैं। मुझे ऐसे संपादकों से एलर्जी है साथ ही ऐसी महिलाओं के बारे में भी सोचकर दु:ख होता है जो पत्रकारिता को अपना कैरियर बनाने के लिए इन बेहूदों की अंकशायिनी बनती हैं।

हे, ऐसी स्त्रियो ! तुम्हें अपनी अस्मिता का तो खयाल होना ही चाहिए। ऐशो आराम के लिए तथाकथित नाम वाली मत बनो यह मेरी नसीहत नहीं है। मैं भी एक स्त्री हूँ और पुरूष प्रधान समाज में जीते हुए स्त्री, पुरूषों के बारे में काफी कुछ जान समझ सकती हूँ। स्वावलम्बी बनो और ऐसे पुरूषों को अपने आगे पीछे घुमाओ जो नारी को 'गौण रखते हैं। कुत्तों, कमीनों से भरे पड़े परिवेश से अपने को दूर रखो धन भले ही कम मिलेगा, लेकिन आत्म सम्मान में कमी नहीं आने पायेगी। ऐसा है कि कुत्ते और कमीने इंसान हर क्षेत्र में होंगे, परन्तु मीडिया से सम्बद्ध होने पर प्रतीत हुआ कि इसमें कुछ ज्यादा ही हैं। ये तो गिरगिट हैं, ऐसे जहरीले साँप जो केंचुल छोड़ते हैं।

खैर छोडि़ये। मुझे यह सब लिखने का मूड कैसे बना तो बताना पड़ेगा कि बहैसियत एक जिम्मेदार पत्रकार टिप्पणीकार मैंने कुछेक ब्राण्डेड अखबारों में अपने आलेख भेजे थे। जिज्ञासा बस उन समाचार-पत्रों के पृष्ठों को कई दिन तक देखकर अपना प्रकाशित समस्यापरक लेख पढ़ना चाहती थी। एक दिन कथित नम्बर वन अखबार में एक कालम में मेरे आलेख की कुल दस पंक्तियां पढ़ने को मिलीं। मैं आश्चर्य में पड़ गई कि इस अखबार के सम्पादक को आखिर हो क्या गया है, जिसने मेरे आलेख की इतनी कतरब्योंत कर डाला। उसको न छापता तो मुझे क्रोध न आता और मैं इस तरह के पत्रकारों को कुत्ता कमीना न कहती।

वह मेरा आलेख ही काट छाँट सकता है इसके अलावा उसकी औकात नहीं कि कुछ और बना बिगाड़ सके। अखबारी पन्ना उसके बाप का नहीं वह धन्ना सेठ नहीं वह तो एक पालतू वेतनभोगी अदना सा प्राणी है। मैं भी संस्था संचालित करती हूँ, सभी पुराने नए लेखकों, स्त्री पुरूषों को उपयुक्त उचित स्थान देती हूँ। भेदभाव करना आता ही नहीं और एक वह है जो धन्ना सेठ का नौकर होकर लग्जरी गाड़ी में घूमता होगा, नाम कमाने की लालसा रखता है, वह भी एक दिन मरेगा सबकी तरह। घर-परिवारी जन ही रोएँगे और कोई नहीं। मैने सुना है कि कर्इ ऐसे भी है जो अच्छे पैकेज पर ओहदेदार बनने के लिए धन और धर्म दोनों धन्ना सेठों और उनके प्रतिनिधियों को समर्पित करते हैं और उन्हीं मे से ऐसे स्थानीय संपादक भी है जिन्होंने अपना जमीर बेंच दिया।

माँ बहन, बीवी और बेटियों तक को एक भोग्या के रूप में प्रस्तुत करके लाखों आई.एन.आर. सालाना पैकेज वाला पद प्राप्त किया है। मैं 'थू करती हूँ ऐसी कमाई पर। मानव जन्म एक बार मिला है शरीर को जीते जी ऐसा न बनाओ कि सड़ाँध पैदा हो। पैसेओहदों के लिए इन्हें बहशियों के हाथों तक न पहुँचने दो। लानत है ऐसे कमीने कुत्तों पर जिन्होंने पैसों के लिए वह सब कर डाला जिसे शायद पशु भी नहीं करता। इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिण्ट मीडिया और सेलुलाइड (सिनेमा) जगत में प्रवेश के लिए तलवे चाटने से लेकर दुष्कर्म तक करवाने वाले भी गजब के हैं।

पैसा, शोहरत, घोड़ागाड़ी, बंगला चाहिए तो मेहनत करो, उनसे सबक जो जो अपनी इमानदारी और मेहनत मशक्कत के बलबूते फर्श से अर्श तक पहुँचे हैं। यह क्या कि धन और धर्म देकर इज्जत गँवा कर पैसा कमाओ मरने के बाद किस काम का यह सब। जा कुत्ते कमीने आज बस इतना ही। लोगों के लिए कथित आदरणीय, सम्मानीय बनकर उनका शोषण कर, संपादक बनकर आलेखों पर अपनी कैंची चला। इस एपीसोड में बस इतना ही एक नीच के लिए इतना ही काफी समझती हूँ अपनी औकात में रह कर।

रीता विश्वकर्मा
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)
09369006284