http://news.bhadas4media.com/index.php/yeduniya/1350-2012-05-09-10-59-52Published on 09 May 2012
बस्तर में आठ हजार हेक्टयर में फैली लोहे ही खदानें निजी कंपनियों को : पांचवीं अनुसूची पेसा कानून और समता के निर्णय की अनदेखी से बढ़ा असंतोष [/B]: जगदलपुर। सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण और रिहाई के बीच बस्तर फिर एक बार सुर्खियों में छाया रहा। बुरी तरह से उलझी हुई नक्सल समस्या को सुलझाने फिर एक बार नये सिरे से प्रयास आरंभ किये जा रहे हैं। तीन सौ से अधिक आदिवासियों की रिहाई को नक्सलियों ने महत्वपूर्ण मुद्दा माना है। सरकार ने हाईपॉवर कमेटी भी बना ली है, लेकिन मुख्य मुद्दे फिर कहीं गुम हो चुके हैं जिन्हें बुद्धिजीवी नक्सलवाद की मुख्य वजह मान रहे हैं। नक्सलियों के मध्यस्थ बीडी शर्मा के अनुसार यह जल, जंगल जमीन की लड़ाई है। प्रो. हरिप्रसाद एक आम आदिवासी की उपेक्षा नक्सलवाद की मुख्य वजह मानते हैं। स्थानीय आदिवासी नेताओं का मानना है कि बस्तर संभाग में दबा लाखों टन लौह अयस्क का खजाना इस संघर्ष की पहली वजह है। दूसरी वजह कागजों पर चल रही आदिवासी विकास की वो दर्जनों योजनाएं हैं जिनका लाभ आदिवासियों की बजाय सत्तापक्ष से जुड़े सप्लायर और ठेकेदार उठा रहे हैं।
एकीकृत आदिवासी विकास से लेकर मनरेगा और आईएपी जैसी विभिन्न योजनाओं के तहत करोड़ों रुपये बरबाद हो चुके है। एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना के तहत चार साल पहले स्वीकृत किये गये कार्य आज तक पूरे नहीं किये जा सके हैं। नलकूप खनन से लेकर उन्नत कृषि के सामानों की सप्लाई में पूरे बस्तर संभाग में करोड़ों की हेराफेरी की गई है। मीडिया द्वारा ऐसे कई मामले उजागर किये जा चुके हैं लेकिन दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। सरकार के तमाम दावे झूठे साबित हो रहे है। ऐसे में अभावग्रस्त आदिवासियों को बरगलाने में नक्सलवादियों को बेहद आसानी होती रही है।
दूसरा मुद्दा बस्तर में लागू संविधान की पांचवी अनुसूची का है। यहां के आदिवासी नेता अरविंद नेताम, मनीष कुंजाम, राजाराम तोड़ेम आदि लगातार सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट करते रहे हैं। पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के बीच निजी कम्पनियों को बांटी जा रही बहुमूल्य लौह अयस्क की खदाने इस खूनी संषर्ष की मुख्य वजह है। भारतीय कमयुनिस्ट पार्टी (माओवादी) के दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी द्वारा शुक्रवार को जारी विज्ञप्ति में मुख्य रूप से पांचवी अनुसूची, वन अधिकार कानून और पेसा कानून के पालन में सरकार के निष्फल होने की बात कही गई है।
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2003 तक सिर्फ एनएमडीसी को ही लौह अयस्क की खदाने आबंटित की गई थीं। इसका विरोध नक्सलियों द्वारा कभी नहीं किया गया। 2003 से लेकर अब तक कांकेर जिले में 1551.995 हेक्टेयर लौह अयस्क की खदानें निजी कंपनियों के हाथों में पहुंच चुकी हैं। इसी प्रकार नारायणपुर में 1647.50 हेक्टयेर और दंतेवाड़ा में 4784.1 हेक्टयेर बेशकीमती लोहे की खदाने निजी कंपनियों को सौंपी जा चुकी हैं। बड़ी खदानों की बात करें तो बैलाडि़ला में टाटा स्टील को 2500 हेक्टेयर एस्सार स्टील को 2284.1 हेक्टेयर और नारायपुर में सारडा एनर्जी को 1647.50 हेक्टेयर लौह अयस्क की खदानें दी जा चुकी हैं। यह अलग बात है कि नक्सली दबाव के चलते इन आठ हजार हेक्टेयर में फैली खदानों में काम करना उद्योगपतियों के लिये एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है। कांकेर में वन्दना ग्लोबल, गोदावरी पावर, जायसवाल नीको जैसी प्रदेश की कम्पनियों को आयरन ओर की लीज का मिल जाना सर्वाधिक विवाद का कारण बना है। पांचवीं अनुसूची तथा पेसा कानून के आधार पर तथा समता विरूद्ध आंध्र प्रदेश शासन के संबंध में दिये गये सुपीम कोर्ट के निर्णय के आधार पर बस्तर में खदानों के निजीकरण को नियम विरुद्ध ठहराया जा रहा है। ग्राम सभाओं की प्रक्रिया पर लगातार ऊंगलियां उठती रही है।
नक्सलियों द्वारा समय-समय पर जारी किये जाने वाले बयानों में इस मुद्दे का जिक्र प्रमुखता से किया जाता रहा है। इतना ही नहीं हीरा, सोना, चांदी, तांबा आदि बहुमूल्य धातुओं के उत्खनन के अधिकारों के लिये लड़ाई तेज हो चुकी है। पूरे प्रदेश में 50286.182 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में इन खनिजों के लिये रिकॉनेसेंस परमिट दिये जा चुके है। यह प्रदेश के कुल क्षेत्र फल का 40 प्रतिशत है। इस पूरे क्षेत्र फल का आधा भाग बस्तर की जमीन का है। सिर्फ बस्तर संभाग में ही इन धातुओं के लिये 23589.432 वर्ग किलो मीटर जमीन में सर्वेक्षण के लिये रिकॉनेसेंस परमिट जारी किये जा चुके है। रियो टिन्टो और डी. बियर्स जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाहें जब बस्तर की जमीन में छुपे खजाने को देख कर ललचा रही हों तब नक्सलियों के खूनी संघर्ष और आदिवासी नेताओं के विरोध के बाद सरकार के कदमों पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। नक्सलियों से बात चीत का दौर इसी मुद्दे पर आकर उलझेगा क्योंकि निजी कम्पनियों ने सरकार के आग्रह पर ही अपनेकदम आगे बढ़ाए हैं। देखना यह है कि खदानों के निजीकरण की इस लड़ाई में उद्योग पतियों की जीत होती है या नक्सलियों की। पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून, वन अधिकार कानून, ग्रीन हंट, सलवा जुडूम जैसी बातों से सरकार भले अपना पल्ला झाड़ ले लेकिन इतने बड़े क्षेत्रफल में खनन के अधिकारों को वापस लेना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती साबित होगी।
[B]लेखक देवशरण तिवारी बस्तर जिले में देशबंधु अखबार के ब्यूरोचीफ हैं.[/B]
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